Book Title: Tulsi Prajna 1995 07
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तुलसी प्रज्ञा TULSI PRAJNA Jain Vishva Bharati Institute Research Journal -त्रैमासिकी पूर्णाङ्क-९४ जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय), लाडनू-३४१३०६ Jain Vishva-bharati Institute, Ladnun-341306 in Education International Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसो प्रज्ञा TULSI PRAJNA पूर्णाङ्क-९४ अनुसंधान-त्रैमासिकी Research Quarterly JAIN VISHVA-BHARATI INSTITUTE RESEARCH JOURNAL - Vol. XXI July-September, 95 No.2 Jain Vishva-bharati Institute, (Deemed University), Ladnun-341 306 (Raj.) INDIA Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI vol. XXI lay September 1935 July-September, 1995 No. 2 No. 2 मूल्य । बीस रुपये The views expressed and facts stated in this journal are those of the writers. It is not necessary that the institute agree with them. Editorial enquiries may be addressed to : The Editor, Tulsi Prajñā, JVBI Research Journal, Ladaun-341 306. Published by Parmeshwar Solanki for Jain Vishva-bharati Institute, Deemed University, Ladaun-341 306 and printed by him at Jain Vishva-bharati Press, Ladnun--341 306. Published on 27.11.95 Editor Dr. Parmeabwar Solanki Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका/Contents ११५ १२७ १३५ १५९ १८७ १. ब्राह्मणों की दार्शनिक मान्यताएं राजीव कुमार, आनंद कुमार २. मानतुंग : भक्तामर स्तोत्र प्रकाशचन्द्र जैन ३. हरिकेशीय आख्यान साध्वी संचितयशा ४. उपनिषद् और आचारांग हरिशंकर पाण्डेय ५. सारस्वत व्याकरण में समास ___ लज्जा पंत ६. पञ्चसंधि की जोड़ मुनि श्रीचंद 'कमल' ७. दाम्पत्य जीवन और उत्तरदायित्व आर० के० ओझा ८. संघर्ष निराकरण बच्छराज दूगड़ ९. प्रकीर्णकम् १. जैन दर्शन नास्तिक नहीं है। २. श्री विनयविजयोपाध्याय विरचिव कणिका ३. 'संबोधि' में अलंकार ४. कथानक-रूढ़ियों के आलोक में संस्कृत-प्राकृत ५. मरुमण्डल की धारा नगरी-भीनमाल १०. पुस्तक-समीक्षा English Section 11. Dr. S. Radhakrishnan Rajendra Prased 12. Jain Conception of Universe ___ Ch. Lalitha 13. Some Merits of Katantra Vrashabh P. Jain 14. Fffects of Science Teaching on Social Values Suresh C. Jain 15. Māgadhi Passages in Prakrit Grammar Jagat Ram Bhattacharya 16. Status of Women and Girl-Child Adil Datta Mishra २०५ २०९ २१५ २२३ २२९ २३१ 55 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धयुग में ब्राह्मणों की दार्शनिक मान्यताएं डा० राजीव कुमार एवं श्री आनन्दकुमार बुद्ध युग में वैदिक धर्म तथा दर्शन अपना प्रवाह बनाए हुए थे। ब्राह्मणों द्वारा वैदिक मंत्रों का स्वाध्याय, प्रवचन और भाषण किया जाता था। इसकी पुष्टि भगवान बुद्ध तथा प्रोक्त, अम्बद्ध, वाशिष्ट और बावारि के शिष्यों आदि के साथ हुए वार्तालाप से होती है--- 'जो तेरे पूर्व के ऋषि मंत्रों के कर्ता, मंत्रों के प्रवक्ता, जिनके पुराने मन्त्रपाठ को इस समय ब्राह्मण गीत के अनुसार गान करते हैं, प्रोक्त के अनुसार प्रवचन करते हैं, भाषित के अनुसार अनुभाषण करते हैं, स्वाध्यायित के अनुसार स्वाध्याय करते हैं, वाचित के अनुसार वाचन करते हैं, जैसे कि---अट्ठक, वामक, वामदेव, विश्वामित्र, यमदग्नि, अंगिरा, भारद्वाज, वशिष्ट, कश्यप, भृगु' । इस समय ऋग्वेद के देवताओं की उपस्तुतियां तथा आह्वान भी किये जाते थे--- 'हम इन्द्र को आह्वान करते हैं, ईशान को आह्वान करते हैं, प्रजापति को आह्वान करते हैं, ब्रह्मा को आह्वान करते हैं, महद्धि को आह्वान करते हैं, यम को आह्वान करते हैं । किन्तु बहुसंख्यक ब्राह्मण यज्ञ में विश्वास रखते थे। वे अनेक प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान करते थे--अश्वमेध , पुरुषमेध, सम्मापास, वाजपेय यज्ञ, इत्यादि । पिटक साहित्य में बुद्ध के समकालीन अनेक ब्राह्मणों के यज्ञों का वर्णन किया गया है । महायज्ञों में गाय, वृषभ, बछड़े, बछियां, बकरे, भेड़, सूअर, घोड़े, हाथी आदि पशुओं की बलि दी जाती थी। यज्ञों का अनुष्ठान काफी धूमधाम से किया जाता था। बाहर से विद्वान् ब्राह्मण यज्ञ में शामिल होने के लिए आमंत्रित किये जाते ___ जीवन की व्यावहारिक उपयोगिता से शून्य अत्यन्त क्रांतिमयी अनेक दार्शनिक धारणाएं इस युग में प्रचलित थीं, जिनका वर्णन ६२ मिथ्या धारणाओं के रूप में त्रिपिटक में कहीं संक्षेप से और कहीं विस्तार से आया है। 'ब्रह्मजालसुत्त' इन सब धारणाओं का सर्वोत्तम विश्लेषण प्रस्तुत करता है। बुद्ध के समय में ब्राह्मणों में प्रचलित ६२ मिथ्या धारणाओं में से अठारह पूर्वान्तकल्पित अर्थात् लोक और आत्मा आदि के संबंधी तथा ४४ अपरान्तकल्पित अर्थात् लोक और आत्मा के अन्त संबंधी थीं। खण्ड २१, अंक २ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (क) पूर्वान्तकल्पित धारणाएं पांच मतों में विभाजित की गई हैं(१) शाश्वतवाद (२) नित्यता-अनित्यतावाद (३) सान्त-अनन्तवाद (४) अमराषिक्षेपवाद, तथा (५) अकारणवाद या अधीत्यसमुत्पाद । इनमें से शाश्वतवाद, नित्यता-अनित्यतावाद, सान्तअनन्तवाद और अमराविक्षेपबाद इन चारों मतों में से प्रत्येक का प्रामाणत्व चार धारणाओं से और अन्तिम अकारणवाद का प्रामाण्य दो धारणाओं से किया जाता था। इन्हीं १८ (अठारह) धारणाओं से पूर्वान्तकल्पित मत भिन्न-भिन्न रूप से निर्दिष्ट होते थे। शाश्वतवाद का मूल सिद्धांत था 'आत्मा और लोक नित्य, अपरिणामी, कूटस्थ और अचल हैं । प्राणी चलते-फिरते, उत्पन्न होते और मरते हैं, किन्तु अस्तित्व नित्य है । 'यह मत चार धारणाओं पर अवस्थित था १. चित्त के समाधि लाभ करने पर जन्मजन्मान्तर की स्मृति होती है। २. एक संवर्तविवर्त से लेकर दस संवर्त-विवर्त तक समाधि में अपने जन्म-जन्मा न्तर की स्मृति होती है ।। ३. दस संवर्त-विवर्त से लेकर बीस संवर्त-विवर्त या चालीस संवर्त-विवर्त आदि तक अपने जन्म-मरण की स्मृति होती है । ४. तर्क के आधार पर । नित्यता-अनित्यतावादी ब्राह्मण वे थे जो आत्मा और लोक को अंशत: नित्य और अंशतः अनित्य मानते थे। ऐसा चार वस्तुओं के कारण था१. चित्त के समाधि प्राप्त करने पर मनुष्य अपने पहले जन्म को स्मरण करता है, उससे पहले को नहीं। वह ऐसा कहता है-जो ब्रह्मा, महा-ब्रह्मा है जिसके द्वारा हम निर्मित किए गए हैं. वह नित्य, ध्रुव, शाश्वत और अपरिणाम धर्मी है और ब्रह्मा के द्वारा निर्मित किए गए हम अनित्य, अध्रुव, अशाश्वत, परिणामी और मरणशील हैं। २. समाधि में पूर्व जन्मों की स्मृति के फलस्वरूप आत्मा क्रीडाप्रदूषिक देवों को च्युत होता हुआ देखती है और जो ऐसा नहीं है उनको अच्युत देखती है-इस प्रकार की अनुभूति होती हैं अर्थात् आत्मा और लोक अंशतः नित्य और अंशत: अनित्य ३. इसी प्रकार मनः प्रदूषित देवों को च्युत होता हुआ देख और उनसे विपरीत को अच्युत देख उपर्युक्त प्रकार की अनुभूति होती है । ४. तर्क के द्वारा इस प्रकार का निश्चय कि ये चक्षु, श्रोत्र, नासिका, जिह्वा तथा शरीर अनित्य और अध्रुव है और यह जो मन, चित्त अथवा विज्ञान है, वह नित्य और ध्रुव है। सान्त-अनन्तवाद में विश्वास करने वाले मानते थे कि लोक सान्त है और परिच्छिन्न भी, सान्त और अनन्त, परिच्छिन्न और अपरिच्छिन्न तथा न सान्त न अनन्त, ११६ तुलसी प्रहा Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न परिच्छिन्न और न अपरिच्छिन्न ही । ऐसा वे चार धारणाओं के आधार पर कहते १. समाहित चित्त में इस प्रकार के भान होने से कि लोक सान्त है, परिच्छिन्न है । २. ऐसा भान होने से कि लोक अनन्त है, अपरिच्छिन्न है । ३. ऐसा भी मान होने से कि लोक ऊपर से नीचे की ओर सान्त तथा दिशाओं की ओर अनन्त है । ४. तर्क से विनिश्चय द्वारा कि लोक न सान्त है न अनन्त । अमराविक्षेपवादी वे थे जो किसी प्रश्न का उत्तर पूछे जाने पर कोई निश्चित उत्तर ही नहीं देते थे । अमराविक्षेपवादी नाम इसलिए पड़ा क्योंकि अमराविक्षेप नाम की छोटी-छोटी मछलियां होती हैं जो बहुत फिसलने वाली और चंचल होने के कारण हाथ में नहीं आती और इन्हीं मछलियों के समान अमराविक्षेपवादी के सिद्धांतों में भी कोई स्थिरता नहीं थी । 'यह भी मैंने नहीं कहा- वह भी मैंने नहीं कहा - अन्यथा भी नहीं, ऐसा नहीं है - यह भी नहीं, यह भी नहीं कहा- ऐसी उनकी विभ्रमकारिणी बुद्धि रहती थी । इसके लिए उनके पास चार आधार भी थे * १. सम्यक् ज्ञान नहीं होने से असत्य भाषण के भय से वह न यह कह सकता है कि 'यह अच्छा है' और न यह कि 'यह बुरा है ।' २. असत्य भाषण करके अनर्थं सम्पादन करने के भय से वह प्रश्नों के पूछे जाने पर कुछ निश्चित बात नहीं कहता । ३. सम्यक ज्ञान नहीं होने से अधिक कुशल शास्त्रार्थ करने वालों से डरकर कुछ निश्चित उत्तर नहीं देता । ४. वह स्वयं जानता ही नहीं कि परलोक, औपपातिक देव और सुकृत तथा दुष्कृत कर्मों के विपाक है अथवा नहीं, अतः वह कोई निश्चित उत्तर ही नहीं देता । अकारणवावी या अधीत्यसमुत्पन्नवादी वे थे जो मानते थे कि लोक और आत्मा न शाश्वत है और न अशाश्वत, न स्वयंकृत है और न परकृत, बल्कि बिना ही किसी कारण के उत्पन्न है, अधीत्यसमुत्पन्न है, और ऐसा दो धारणाओं से १. असंज्ञित्व नाम के देव जब संज्ञा के उत्पन्न होने से इस लोक में श्रेष्ठ पुरुषों के रूप में जन्म लेते हैं तो समाहित चित्त होने पर वे संज्ञा के उत्पन्न होने को स्मरण करते हैं, उसके पहले नहीं । वे ऐसा कहते हैं—-आत्मा और लोक अकारण उत्पन्न हुए हैं । सो जैसे हम पहले नहीं थे, हम नहीं होकर भी उत्पन्न हो गए । २. तर्क के आधार पर । (ख) अपरान्तकल्पित धारणाएं मुख्यतया पांच भागों या मतों में बांटी गई हैं१. मरने के बाद आत्मा का संशित्व प्रतिपादन करने वाला वाद । २. असंज्ञित्व प्रतिपादन करने वाला वाद | ३. नैव संज्ञित्व नैव असंज्ञित्व वाद | ४. उच्छेदवाद | ५. दुष्टधर्म निर्वाणवाद । खण्ड २१, अंक २ ११७ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनमें से प्रथम मत १६ धारणाओं से, द्वितीय मत ८ धारणाओं से, तृतीव मप्त भी आठ धारणाओं से, चतुर्थ मत सात धारणाओं से और पांचवां मत पांच धाराओं से प्रतिपादित किया जाता था। "मरने के बाद आत्मा रूपवान्, रोगरहित, और संज्ञा-प्रतीति के साथ रहता है । अरूपवान् और रूपवान् आत्मा होता है, न रूपवान् न अरूपवान् आत्मा है, आत्मा सान्त होता है, आत्मा अनन्त होता हैं, आत्मा न सान्त और न अनन्त होता है, आत्मा एकान्तवादी संज्ञी होता है, आत्मा नानात्मसंज्ञी होता है, आत्मा परिमित संज्ञा वाला होता है, आत्मा अपरिमित संज्ञा वाला होता है, आत्मा बिलकुल शुद्ध होता है, आत्मा बिलकुल दुःखी होता है । आत्मा सुखी और दुःखी होता है, आत्मा सुख और दुःख से रहित होता है, आत्मा अरोग और संज्ञी होता है।" इन्हीं १६ कारणों से मरने के बाद आत्मा संज्ञी रहता है, इस मत की पुष्टि होती है। "मरने के बाद आत्मा असंज्ञी रहता है" इस मत की आठ धारणाएं थीं-'मरने के बाद आत्मा असंज्ञी, रूपवान् और अरोग रहता है, अरूपवान्, रूपवान् और अरूपवान्, न रूपवान् न अरूपवान्, सान्त, अनन्त, सान्त और अनन्त, न सान्त और न अनन्त ।' उपर्युक्त दोनों मतों की आठ-आठ धारणाओं में से प्रत्येक को क्रमशः विकल्प के साथ-साथ रखकर "मरने के बाद आत्मा नैव संज्ञी "नैव असंज्ञी रहता है" ऐसा मानने वाले भी अपने मत की पुष्टि के लिए आठ धारणाओं की उद्भावना कर लेते थे । उच्छेदवादियों की सात धारणाएं थीं जिनके कारण वे आत्मा के उच्छेद का उपदेश देते थे१. यथार्थ में यह आत्मा चार महाभूतों से बना है और माता-पिता के संयोग से उत्पन्न होता है, इसलिए शरीर के नष्ट होते ही यह आत्मा भी बिलकुल समुच्छिन्न हो जाता है। २. अन्य वह आत्मा है जो दिव्य, रूपी, कामावचर लोक में रहने वाला तथा भोजन खाकर रहने वाला है । वह सत् आत्मा शरीर के नष्ट होने पर उच्छिन्न और विनष्ट हो जाता है। ३. अन्य वह आत्मा दिव्य, रूपी, मनोमय, अंग-प्रत्यंग से युक्त और हीनेन्द्रिय है। ' वह आत्मा शरीर के नष्ट होने पर नष्ट हो जाता है। ४. अन्य वह आत्मा है जो सभी तरह के रूप और संज्ञा से भिन्न, प्रतिहिंसा की संज्ञाओं के अस्त हो जाने से नानात्म संज्ञाओं को मन में न करने से अनन्त आकाश की तरह अनन्त आकाश शरीर वाला है। वह सत् आत्मा भी शरीर के साथ ही उच्छिन्न हो जाता है । ५. अन्य है वह आत्मा जो विज्ञान शरीर वाला है और शरीर के साथ ही वह भी - उच्छिन्न होता है। ६. अन्य है वह आत्मा जो अकिंचन शरीर वाला है और वह सत् आत्मा भी शरीर __ के साथ ही उच्छिन्न होता है । ७. अन्य है वह आत्मा जो शान्त और प्रणीत नैव संज्ञान संज्ञा है और वह भी तुलसी प्रज्ञा Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर के साथ ही उच्छेद को प्राप्त होता है । दृष्ट- धर्म - निर्वाणवादी मानते थे कि प्राणी का इसी संसार में देखते-देखते निर्माण हो जाता है और ऐसा पांच कारणों से होता है भोग भोगता है, १. चूंकि यह आत्मा पांच काम-गुणों में फंसकर सांसारिक इसलिए इसी संसार में वह निर्वाण प्राप्त कर लेता है । २. यह आत्मा कामों से पृथक् रहकर प्रथम ध्यान को प्राप्त कर विहरता है, इसलिए इसी जन्म में वह निर्वाण पा लेता है । ३. वितर्क और विचारों के शान्त हो जाने से द्वितीय ध्यान को प्राप्त कर यहां निर्वाण प्राप्त कर लेता है । ४. उपेक्षायुक्त, स्मृतिवान् और सुखविहारी होते तीसरे ध्यान को प्राप्त हो यहीं निर्वाण को प्राप्त कर लेता है । ५. यह आत्मा सुख और दुःख के नष्ट होने से, सौमनस्य और दौर्मनस्य के अस्त हो जाने से चौथेध्यान को प्राप्त कर यहीं निर्वाण प्राप्त कर लेता है । बुद्धयुगीन ब्राह्मण इन्हीं बासठ दार्शनिक धारणाओं में फंसे दुःख और वेदनाओं के अन्त को नहीं समझ पा रहे थे। ऐसा ज्ञात होता है । पाद-टिप्पणी १. दीघनिकाय - अम्बट्ट सुत्त, तेविज्ज सुत्त, इत्यादि २ . वही विज्ज सुत्त ३. संयुक्त निकाय (मूल) I पृ. ७६; अंगुत्तर निकाय II पृ. ४२ सुत्त निपात-ब्राह्मण धम्मिक सुत्त ४. दीघनिकाय (मूल) I पृ. १०९; अंगुत्तर निकाय I पृ. ४१; संयुक्त निकाय I पृ. ७०; सुत्तनिपात २.७,३.४,५.१ ५. दीघनिकाय पृ. ४८ ६. वही पृ. १-१४ खण्ड २१, अंक २ - ए-१७, मगध विश्वविद्यालय बोधगया (गया) ८२४२३४ ११९ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानतुग : भक्ताम्भर स्तोत्र [क] डॉ. प्रकाशचन्द्र जैन मानतुंग का कोई प्रामाणिक जीवनवृत्त नहीं मिलता। मिले भी कैसे, साहित्य के इतिहास में एक-दो नहीं, बीस-पच्चीस मानतंग पाए जाते हैं। एक विद्वान ने कहा कि भक्ताम्भर स्तोत्र के कर्त्ता तो मानतुंग सूरि हैं।' पर ईसा की पहली सदी से १३ वीं सदी तक ही दस मानतुंग सूरि मिल गए। अब कैसे पता चले कि इनमें से भक्ताम्भर स्तोत्र के रचयिता कौन से हैं । ' उपलब्ध ग्रन्थों में जहां उनके जीवनवृत्त का उल्लेख है, वहां भी कोई उन्हें श्वेताम्बर महाकवि बताते हुए बाद में दिगम्बर दीक्षा लेकर गुरु के आदेश से भक्ताम्भर रचने की बात कहता है। तो कोई उन्हें काशी के सेठ धनदेव का पुत्र बताते हुए, पहले दिगम्बरी और बाद में श्वेताम्बरी दीक्षा लेकर भक्ताम्भर की रचना की बात कहता है। जबकि एक उल्लेख उन्हें ब्राह्मण कवि बताता है, जो बाद में विभिन्न परिवर्तनों के पश्चात् दिगम्बर साधु हो गए थे तथा उन्हीं ने भक्ताम्भर स्तोत्र की रचना की। जो भी हो, प्रतिभा, कवित्व और भक्ति की कोई जाति नहीं होती। मानतुंग के समय और रचनाओं को लेकर भी कुछ कम मतभेद नहीं है। लोगों ने ईसा की तीसरी सदी से लेकर ग्यारहवीं सदी तक अलग-अलग उनका समय माना है । पर तथ्यों की कसौटी पर कसने से पता चलता है कि उनका समय ईसा की ७ वीं सदी का मध्य भाग होना चाहिए। प्रख्यात इतिहासविदों और समीक्षकों के कथन से भी इसी बात की पुष्टि होती है। उनकी रचनाओं के सम्बन्ध में भी कुछ लोग भक्ताम्भर स्तोत्र को ही उनकी एक मात्र कृति मानते हैं। तो कुछ भयहर स्तोत्र नमिऊण स्तोत्र परमेष्ठी स्तवन को भी उनकी रचना बताते हैं। इन बातों का युक्तिसंगत समाधान तो, इस विषय पर पूर्ण शोध होने पर ही दिया जा सकता है। यहां तो भयहर-स्तोत्र पर थोड़ा सा प्रकाश डालते हुए मुख्यतः भक्ताम्भर स्तोत्र के सम्बन्ध में ही चर्चा की जा रही है। भयहर स्तोत्र ___ यह प्राकृत भाषा में इक्कीस या तेवीस पद्यों की भगवान पार्श्वनाथ की स्तुति से सम्बद्ध रचना है। जिसे आचार्य चतुर्विजय ने सम्पादित करके अहमदाबाद से प्रकाशित जैन स्तोत्र सन्दोह द्वितीय भाग में संकलित किया है। इसमें आठ भयों का वर्णन है, जिनका भक्ताम्मर स्तोत्र में वर्णित आठ भयों से काफी साम्य है। वण २१, बंक २ १२१ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्ताम्भर स्तोत्र " भक्ताम्भर" शब्द से प्रारम्भ यह स्तोत्र 'भक्ताम्भर स्तोत्र' के नाम से प्रसिद्ध आदिनाथ ( ऋषभ ) स्तोत्र कहलाता है। वैसे इसमें कहीं भी किसी तीर्थंकर विशेष के संबंध में कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिलता ।" फिर भी इसमें प्रयुक्त युगादी प्रथम जिनेन्द्र तथा आद्य शब्दों" के कारण इसे आदिनाथ स्तोत्र कहते हैं । पर यदि प्रथमं जिनेन्द्र का अर्थ जिनेन्द्रों (अरहन्तों) में प्रमुख तीर्थंकरदेव मान लें, व 'युगादी' का अर्थ तीर्थंकर के जन्म से प्रारम्भ होना मान लें तो यह सामान्यतः सभी तीर्थंकरों या जिनेन्द्रों की स्तुति है । इसके श्लोकों की संख्या को लेकर भी मतैक्य नहीं है । दिगम्बर सम्प्रदाय में इनकी संख्या ४८ मानी गयी है ।" जबकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में ३२ से ३५ तक चार प्रतिहायों के वर्णन सम्बन्धी चार श्लोकों को छोड़कर उनकी संख्या ४४ ही मानी गई है। हालांकि श्वेताम्बर संप्रदाय में भी प्रतिहार्य मान्य हैं। कल्याण मंदिर स्तोत्र जो श्वेताम्बर संप्रदाय द्वारा भी मान्य है उसमें भी श्लोक संख्या तो ४४ है पर उसमें भी आठों प्रतिहार्यों का वर्णन मिलता है। यही नहीं फाल्गुन शुक्ला ६ वी नि. सं. २४८६ के जैन मित्र में इन ४८ से भी भिन्न, ४ श्लोक और छपे थे, पर वे मानतुंगाचार्य कृत नहीं है ।" कटारिया बन्धु को इनसे भी अलग एक गुटके में ४ श्लोक और मिले हैं पर वे भी मानतुंगाचार्य कृत प्रतीत नहीं होते विस्तृत खोज की आवश्यकता है । इस सब पर भक्ताम्भर स्तोत्र दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदाय में समान रूप से मान्य" एक अत्यन्त लोकप्रिय स्तोत्र है । जिस तरह कालिदास के मेघदूत ने खण्डकाव्य की एक नई परंपरा को जन्म दिया, उसी तरह मानतुंग के भक्ताम्भर स्तोत्र ने भी जैन स्तोत्र साहित्य में एक नई परंपरा को जन्म दिया । उसका अनुसरण करते हुए कई स्तोत्रों की रचना की गई। यही नहीं इसके प्रत्येक पद्य के प्रत्येक चरण पर, कितने ही समस्या-पूर्त्यात्मक स्तोत्र काव्य लिखे गए, जिनमें से कितने ही आज उपलब्ध है ।" इतना ही नहीं इसके संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी और भारतीय लोक ( प्रांतीय ) भाषाओं में शताधिक गद्य-पद्यात्मक अनुवाद हो चुके हैं और अभी हो रहे हैं। लौकिक वांछा की रुचिवालों की दृष्टि से भट्टारकीय युग में इसके आधार पर, मंत्र-तंत्र संबंधी कई प्रकार के चमत्कारिक साहित्य का भी युगीन आवश्यकतानुसार निर्माण किया गया, वह आज उतना उपयोगी न भी हो, पर तब इसकी लोकप्रियता का एक कारण अवश्य रहा होगा । मानतुंग ने इसमें भक्ति, दर्शन और काव्य की त्रिवेणी को इस खूबी के साथ बहाया है कि वह सबका मन मोह लेती है । भक्ति भाव एवं शांत रस का एक अनुपम स्तोत्र होते हुए भी जैनधर्म / जैनदर्शन के सिद्धांतों का भी इसमें सुन्दर निदर्शन है | 'सम्यक्' विशेषण, जो जैन अध्यात्म का केन्द्र बिन्दु है इस स्तोत्र में दोबार 'सम्यक् प्रणम्य जिनपाद युगम्' । तथा 'त्वमेव सम्यगुपलम्य जयतिन्त मृत्युं '-- आया है । २४ पहले श्लोक में कवि कहता है कि हमारा प्रणाम तभी सार्थक होगा, जब हम यह जानें की हम प्रणाम किसे क्यों और कैसे कर रहे हैं । इसी तरह अगला श्लोक मृत्यु पर विजयपताका फहराने का मंत्र बोध कराने वाला है। इस स्तोत्र में भक्त १२२ तुलसी प्रशा Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने आराध्य की स्तुति करते-करते, अपनी स्तुति करने लगता है। यही जैन अध्यात्म का रहस्य है। इसमें भक्त जब अपने स्तुत्य के गुणों पर विचार करता है, तब उसे अपने साथ समानता का अहसास होता है। वह अपने भीतर विराजे परमात्मा के दर्शन करने लगता है । यही तो सम्यक्-दर्शन है । इस दिशा में भक्तामर स्तोत्र का २३ वां, २४ वां और २५ वां श्लोक दृष्टव्य हैं, जहां अर्हन्त-सिद्ध परमात्मा और अपने परमात्मा (आत्मदेव) का साम्य दर्शाया गया है, चौबीसवें श्लोक में तो उन्होंने कम से कम शब्दों में तीर्थंकर के अनन्त गुणों की ओर संकेत करके, जैन वाडमय की मान्यताओं को स्पष्ट करते हुए गागर में सागर हो भर दिया है। विज्ञ पाठक ज्यों-ज्यों इसमें गहरे पैठता है, विचारों के रत्नों का अखूट भण्डार ही उसके हाथ लगता है। मानतुंग भक्तिरस की भागीरथी को लाने वाले भागीरथ तो हैं ही, पर भाव-पक्ष के साथ-साथ कला-पक्ष में भी वे कभी पीछे नहीं रहे। भक्तामर स्तोत्र के निर्माण के मूल में कवि की जो भावना रही है, उसे उन्होंने कितने मधुर दृष्टांतों के द्वारा व्यक्त किया है, वह दृष्टव्य है। कवि कहता है कि जिस प्रकार मूर्ख कोयल आम्र मंजरी के कारण अपने मीठे बोलों को नहीं रोक पाती, वैसे ही तीर्थकरके प्रति अनन्य निष्ठा और भक्तिभावना से प्रेरित उनका मन भी अभिव्यक्ति के लिए विवश हो जाता है - "यत्कोकिलः किलः किल मधौ मधुरं विरोति, तच्चान चारू कलिका-निकरक-हेतुः । ॥२६ इस मजबूरी के लिए कवि का तर्क तो देखिए, वह कहता है जैसे हिरणी अपनी शक्ति का विचार न करके सिंह का सामना करने को उद्यत हो जाती है "प्रीत्यात्म-वीर्यम विचार्य मृगी मृगेन्द्र, नाभ्येति किं निज-शिशो: परिपालनार्थम ।"२७ कवि के भक्ति भाव की अभिव्यक्ति की दीवानगी सारी सीमाओं को लांघ चुकी थी, उसे अब इस बात का कोई भय नहीं था कि लोग उस पर हंसेंगे ___ "अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहास-धाम .........."" वह तो बड़ी बुलन्दगी के साथ कहता है कि मैं बुद्धिहीन होकर भी उस बालक की तरह हूं. जो चन्द्रमा पाने को मचलता हो, तुम्हारी स्तुति हेतु उद्यत हूं "बुद्वया विनापि बिबुधाचित-पाद-पीठ स्तोतुं समुद्यत-मतिविगत-त्रपोहम् ।".......... २९ आगे कवि कहता है कि हे गुणों के सागर, आपके गुणों का वर्णन तो देवताओं के गुरु वृहस्पति भी नहीं कर सकते-- "वक्तुं गुणान् गुण-समुद्र शशांक-कान्तान ...........।"3" इस प्रकार कवि ने भक्तामर स्तोत्र में भक्ति के माध्यम से शांतरस और प्रसाद गुण का सुन्दर निदर्शन तो किया ही है, साथ ही भक्ति के अगाध सागर की लहरों के साथ-साथ उसमें से निसृत होते हुए ज्ञान-विज्ञान के स्तोत्र भी सहज ही देखे जा सकते हैं। खण्ड २१, अंक २ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तामर स्तोत्र में भाव गाम्भीर्य के साथ-साथ, भाषा सौष्ठव, भी आकर्षक है । कवि की अलंकार योजना भी बहुत सुन्दर है। उसके इस काव्य में जगह-जगह अनुप्रास, उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, व्यतिरेक, विषम, श्लेष, अतिशयोक्ति और दृष्टान्त आदि अलंकारों का सुन्दर प्रयोग किया है । कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं "नास्तं कदाचिदुपयासी न राहु-गम्य:........."""" वे कहते हैं कि हे भगवान आपकी महिमा तो सूर्य से भी बढ़कर है, क्योंकि न तो वह कभी अस्त होती है, न उसे राहु ग्रसता हैं और न ही वह कभी मेधाच्छन्न होती है । आप तो सदैव तीनों लोकों को प्रकाशित करते हैं, जबकि राहु ग्रस्त या मेघाछन्न सूर्य अकेले मध्यलोक को भी प्रकाशित करने में अक्षम है। इसी प्रकार निम्नांकित श्लोक में वक्रोक्ति की छटा देखिए । कवि कहता है कि आपको देखने के वाद, कोई दूसरा देव मन को नहीं भाता, इससे तो हरिहरादि देव कहीं अच्छे हैं, जिन्हें देखकर मन आपके विषय में संतुष्ट हो जाता है "मन्ये वरं हरिहरादय एव दृष्टा, ___ दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति । ........ अलंकार ही नहीं कवि की प्रतीक योजना और रूपकों का प्रयोग भी कम आकर्षक नहीं है । देखिए निम्नांकित श्लोक में वे मृत्यु को एक जीवन्त रूपक के रूप में प्रस्तुत करते हुए कहते हैं--- "त्वन्नाम मंत्र मनिशं मनुजा स्मरन्त: सद्यः स्वयं विगत-बन्ध-भया भवन्ति ।।"33 उन्होंने मन/मान को मदोमत्त हाथी" क्रोध को सिंह" के प्रतीक के रूप में सुन्दर चित्रण किया है । दावानल के प्रसंग में वन का रूपक बड़ा ही सटीक है । इसमें वन संसार का प्रतीक है-कल्पान्त-काल पवनोद्धत-वह्नि कल्पं । दावनलं ज्वालित मुज्जवलमुत्स्फुलिंगम् ।"........ ___ इसी प्रकार ४१ वें श्लोक में कवि का लोभ का रूपक भी वहुत सुन्दर है। इसके आगे ४२ व ४३ वें श्लोकों में कवि ने मनुष्य के भीतर छिड़े महाभारत का, संग्राम के प्रतीकों के माध्यम से बड़ा सुन्दर चित्रण किया है। कवि ने इस स्तोत्र में बसन्त तिलका जैसे सरस व सरल छन्द का भी बड़ा सुन्दर प्रयोग किया है। इस प्रकार भाव-पक्ष और कला-पक्ष के साथ-साथ कवि ने तत्कालीन सामन्तों की स्वैराचारी" दण्ड व्यवस्था और राजनीति" आदि का सुन्दर चित्रण किया है। भाव-विचार, रस-छन्द, अलंकार, भाषा तथा समकालीन परिवेश आदि सभी की दृष्टि से आचार्य मानतुंग का भक्ताम्भर स्तोत्र एक कालजयी स्तोत्र है। सन्दर्भ १. डॉ. प्रेमसुमन जैन, भक्ताम्भर यात्रा कथा, तीर्थकर, ११/९, पृ. १८५ २. दिगम्बर जैन ग्रंथकर्ता और उनके ग्रन्थ, जैनहितैषी, पृ. ५३ ३. पं. रतनचन्द भारिल्ल,भक्ताम्भर प्रवचन, प्रस्तावना, पृ. ११ १२४ तुलसी प्रमा Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. डॉ. नेमीचन्द्र शास्त्री, तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग-२, पृ. २६८ ५. प्रभावक चरित के अन्तर्गत, मानतुंग सूरि चरितम् के पृ. ११२-११७ ६. डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन, भक्ताम्भर रहस्य, प्रस्तावना, पृ. ३६ ७. डॉ. प्रेमसुमन जैन, भक्ताम्भर यात्रा कथा, तीर्थंकर ११/९, पृ. १८५ ८.-९. डॉ. नेमीचन्द्र शास्त्री, तीर्थकर महावीर उनकी आचार्य परम्परा, भाग-२, पृ. २७३-४ १०. डॉ. ए. वी. कीथ, ए हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिट्रेचर, पृ. २१५, (रिलीज पोइंट्ररी) पं. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, सिरोही का इतिहास, जैनस्तोत्र संदोह, द्वितीय-भाग, भयहर स्तोत्र, पृ. १४-२९, पं. पन्नालाल साहित्याचार्य, महापुराण, प्रस्तावना पृ. २२ ११. डॉ. नेमीचन्द्र शास्त्री, तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग-२, पृ. २७५ १२. डॉ. विद्याधर जोहरापुरकर, भयहर/नमिऊण स्तोत्र, तीर्थकर ११/९, पृ. १२१ १३. डॉ. कुलभूषण लोखण्डे, जैनस्तोत्र साहित्य का आलोचनात्मक अध्ययन, पृ. १८३ १४. डॉ. कुलभूषण लोखण्डे, जैन स्तोत्र साहित्य का आलोचनात्मक अध्ययन, पृ. १८३ १५. डॉ. विद्याधर जोहरापुरकर, भयहर/नमिऊण स्तोत्र, तीर्थकर ११/९, पृ. १२१ १६. अनेकान्त, वर्ष १९६६ ई. पृ. २४५, भक्ताम्भर प्रवचन प्रस्तावना में उद्धरित, पृ. १० १७. भक्ताम्भर स्तोत्र, श्लोक १,२,२४ १८. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग-२, पृ. २७५ १९. मिलापचन्द रतनलाल कटारिया, जैननिबन्ध रत्नावली, पृ. ३४० २०. वही, पृ. ३४१ २१. अगरचन्द नाहटा, भक्ताम्भर स्तोत्र पद्यानुवाद सर्वेक्षण ११/९, पृ. १२७ २२. डॉ. कुलभूषण लोखण्डे, जैन स्तोत्र साहित्य का आलोचनात्मक अध्ययन, पृ. १८३ २३. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग-२, पृ. २६८ २४. भक्ताम्भर स्तोत्र, श्लोक १,२३ २५. कन्हैयालाल सरावगी, भक्ताम्भर स्तोत्र-बहिरंग और अंतरंग झांकी, तीर्थकर ११/९, पृ. १३९ २६. भक्ताम्भर स्तोत्र, श्लोक-६ खण्ड २१, अंक २ १२५ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. वही श्लोक-५ २८. वही, श्लोक-६ २९. वही, श्लोक-३ ३०. वही, श्लोक-४ ३१. वही, श्लोक-१७ ३२. वही, श्लोक-२१ ३३. वही, श्लोक-४६ ३४. वही, श्लोक-३९ ३५. वही, श्लोक-३८ ३६. वही श्लोक-४० ३७. भक्तामर स्तोत्र, श्लोक-३८-३९ ३८. भक्ताम्मर स्तोत्र, श्लोक-४६ ३९. भक्ताम्भर स्तोत्र, श्लोक-४७-४८ ९१/१, गली नं. ३ तिलकनगर, इन्दौर-४५२००१ १२६ तुलसी प्रज्ञा Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'हरिकेशीय आख्यान' का समीक्षात्मक अध्ययन साध्वी संचितयशा पुरातन काल से मानव का जीवन अध्यात्म और विज्ञान से जुड़ा हुआ है। ये दोनों पद्धतियां सत्य को साक्षात्कार कराने वाली हैं। दोनों पद्धतियों में मुख्य अंतर यह है कि एक अन्तर्दृष्टि को जगाती है तो दूसरी बार दृष्टि को। जैन आगम आध्यात्मिक जीवन को ज्योतिर्मय बनाता है। आगम सत्यं शिवं सुन्दरं की अनुभूति की अभिव्यक्ति है । यह तीर्थङ्करों की वाणी है। जिसके माध्यम से व्यक्ति शाश्वत सुख को प्राप्त कर सकता है । डॉ० हर्मन जेकोबी, डॉ० शुबिंग आदि पाश्चात्य विद्वानों ने जैन आगमों का अध्ययन करके यह घोषित किया कि जैन आगम विश्व को अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकांतवाद के द्वारा सर्वधर्म समन्वय का पुनीत पाठ पढ़ाने वाले हैं। जैन आगमों का विभाजन दो रूपों में मिलता है-पूर्व और अंग । इसका एक वर्गीकरण अंग प्रविष्ट और अंग बाह्म के रूप में मिलता है । आर्यरक्षित ने अनुयोग के आधार पर जैन आगमों को चार अनुयोगों में विभक्त किया-(१) चरणकरणानुयोग (२) धर्मकथानुयोग (३) गणितानुयोग और (४) द्रव्यानुयोग। अनुयोग शब्द 'अनु' और 'योग' के संयोग से बना है । अनु उपसर्ग अनुकूल अर्थ वाचक है। सूत्र के साथ अनुकूल या सुसंगत संयोग अनुयोग है । वृहत्कल्प में कहा अणुणा जोगो अणुजोगो अणु पच्छाणुभावओ य थेवे य । जम्हा पच्छाऽभिहियं सुत्तं थोवं च तेणाणु ।' अनु का मतलब है--पश्चात् भाव या स्तोक । इस दृष्टि से अर्थ के पश्चात जायमान या स्तोक सूत्र के साथ जो योग है, वह अनुयोग है । आवश्यक नियुक्ति की वृत्ति में आचार्य मलयगिरि ने लिखा है--सूत्रस्यार्थेन सहानुकूलं योजनमनुयोग:"अर्थ के साथ सूत्र की जो अनुकूल योजना की जाती है, उसका नाम अनुयोग है। आचार्य हरिभद्र और अभयदेव सूरि ने भी अनुयोग की इस रूप में व्याख्या की है। षट्खंडागम में अनुयोग, नियोग, भाषा, विभाषा और वर्तिका-इन शब्दों को समानार्थक माना गया है । अनुयोग का एक अर्थ व्याख्या के रूप में मिलता है। जिसके आधार पर ही अनुयोग को चार विभागों में विभाजित किया गया है। उनमें उत्तराध्ययन धर्मकथानुयोग के अन्तर्गत है । धर्मकथानुयोग में अहिंसा आदि स्वरूपों का कथन आख्यानों से किया जाता है। उत्तराध्ययन में अर्हत् धर्म-दर्शन को समुद्घाटित करने के लिए अनेक आख्यानों का उपस्थापन किया गया है । प्रस्तुत संदर्भ में हरिकेशवल बंर २१, अंक २ १२७ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यान का विवेचन अवधेय है जिसमें आख्यान का अर्थ, प्रयोजन, विवेच्य आख्यान की कथावस्तु, पात्र-चित्रण, कथोपकथन भाषा-शैली, समाज संस्कृति एवं दार्शनिक तथ्यों पर प्रकाश डालने का विनम्र प्रयास किया गया है-- १. आख्यान का अर्थ और प्रयोजन आख्यान शब्द आङ् उपसर्ग ख्या प्रकथन (अदादिगणीय धातु) से करणाधिकरणयोश्च सूत्र से करण अर्थ में ल्युट् प्रयत्न करने पर निष्पन्न हुआ है। विभिन्न कोशकारों ने प्रकथन, निवेदन, कथा, प्रसंग, प्रतिबचन, प्रत्युत्तर, पुराण, इतिहास, चरित्र, कथांश और पूर्व वृतोक्ति आदि को आख्यान शन्द के समानार्थक माना है । 'हलायुध' के अनुसार आख्यान शब्द का अर्थ कथन होता है। आचार्य हेमचन्द्र और विश्वनाथ ने कथा के अन्तर्गत ही आख्यान को रखा है। आख्यानों के माध्यम से धर्म, ज्ञान, भक्ति, कर्म, पाप-पुण्य, शाप-वरदान, युद्ध, दान, यज्ञ आदि कर्मों का विवेचन मिलता है। जिनके माध्यम से ज्ञान, भक्ति, तत्त्व एवं दर्शन के अनसुलझे प्रश्नों का समाधान भी सहजतया हो जाता है । २. आख्यान का वस्तु-विश्लेषण हरिकेशबल मुनि से संबोधित होने के कारण इस अध्ययन का नाम 'हरिकेशीय' है। हरिके शबल मुनि पूर्वजन्म में सोमदेव नाम के ब्राह्मण थे। उन्हें जाति का मद था। मुनि बनने के पश्चात् भी जाति का अहंकार दूर नहीं हुआ। जाति-मद की अवस्था में काल-क्रम करने के कारण चाण्डाल कुल में उत्पन्त हुए। वहां इनका नाम हरिकेशबल था। मुमि बनने के पश्चात् हरिकेशबल मुनि के नाम से प्रसिद्ध हुए। बचपन की बात है। एक बार वे अपने साथियों के साथ खेल रहे थे। खेल-खेल में साथियों के साथ झगड़ने लगे। तब लोगों ने उन्हें खेल से हटा दिया। दूसरे बालक पूर्ववत् खेलते रहे । बालक हरिकेश बहीं खड़ा-खड़ा देखने लगा। इतने में एक भयंकर सर्प निकला। लोगों ने उसे देखा । पत्थर से मारकर हटा दिया। थोड़ी देर बाद एक अलसिया निकला। लोगों ने उसे कुछ नहीं कहा । इन दोनों घटना-प्रसंगों को देखकर हरिकेश के मन में आया-यदि मैं सर्प की तरह काढूंगा तो सब मुझे काटेंगे ही और अपने मार्ग से हटायेंगे ही। मुझे अपने आपको बदलना चाहिए। आख्यान में चार पात्र हैं। हरिकेशबल मुनि, यक्ष, सोमदेव ब्राह्मण और भद्रा। इसके अतिरिक्त अन्य पात्र राजा, राजपुरोहित मादि हैं। इनका चरित्र-चित्रण इस प्रकार हैं३. पात्र चित्रण(क) हरिकेशबल मुनि हरिकेशबल मुनि इस आख्यान के मुख्य पात्र हैं । जिन्हें हम श्रमण परम्परा के श्रेष्ठ मुनि कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि मुनि में होने वाले चारित्रिक गुण उनमें विद्यमान हैं । तभी तो कहा है सोवागकुलसंभूओ गुणत्तरधरोमुणी। हरिएसबलो नाम आसि भिक्खू जिइदिओ। तुलसी प्रज्ञा Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इरिएस भासाए उच्चारसमिसु य । आयनिक्ad संजओ सुसमाहिओ ।" चाण्डाल कुल में उत्पन्न होने वाला यह मुनि ज्ञान आदि उत्तम गुणों का धारक था । और ईर्या, एषणा, भाषा, उच्चार, आदान-निक्षेप - --- इन समितियों में सावधान और समाधिस्थ था । हरिकेशबल मुनि तपस्वी भी थे । तपस्या के द्वारा उन्होंने अपना शरीर कृश कर लिया । मन पवित्र विचारों से युक्त था । जिससे प्रभावित होकर एक यक्ष मुनि की सेवा में रहने लगा । मुनि का जितना आंतरिक सौन्दर्य सुन्दर था। उतना बाह्य नहीं । व्यक्ति के प्रथम आकर्षण का मुख्य बिन्दु बनता है उसका बाह्य व्यक्तित्व । हरिकेशबल मुनि का बाह्य व्यक्तित्व आकर्षक नहीं था । उनका रूप वीभत्स, काला, विकराल और बड़ी नाक वाला । गले में चिथडा डाला हुआ । और पिशाच की तरह दिखाई दे रहा था । जिसे देखकर एक बार तो व्यक्ति भयभीत हो जाता । परन्तु आंतरिक सौन्दर्य और आभामण्डल से व्यक्ति प्रभावित हुए बिना नहीं रहता, जिसके कारण ही यक्षायतन में बैठा हुआ यक्ष भी उनकी सेवा में रहता और वह इतना स्वामी भक्त हो गया था कि वह एक क्षण भी मुनि की पीड़ा नहीं देख सकता । इस प्रकार हरिकेशबल मुनि का चरित्र एक उत्तम श्रमण का चरित्र था । (ख) यक्ष इस आख्यान का दूसरा पात्र है -यक्ष । यक्ष तिन्दुकवृक्ष का वासी था । हरिकेशबल मुनि के प्रति उसकी अटूट श्रद्धा थी । वह मुनि के तप से प्रभावित होकर मुनि की सेवा करने लगा । यक्ष के जीवन में करुणा का स्रोत था । जब मुनि को यज्ञशाला में भिक्षा के लिए मनाही कर देते हैं तब यक्ष यह देख नहीं पाता । वह तुरन्त मुनि के शरीर में प्रवेश कर इस रूप में याचना करने लगता हैसमणो अहं संजओ बंभयारी, विरओ घणपयणपरिग्गहाओ । परप्पवित्तस्स उ भिक्ख काले, अन्नस्स अट्ठा इहमागओ मि || इस प्रकार यह संवाद काफी देर तक चलता रहता है। इसके अतिरिक्त भद्रा राजकुमारी के द्वारा थूके जाने पर भी उसका बदला उसके शरीर में वह प्रवेश करके लेता है । यक्ष देवता मुनि के प्रति पूर्ण समर्पित था । इसके अतिरिक्त यक्ष का एक रूप हमें भक्त के रूप में दिखाई देता है । जिस प्रकार हनुमान राम के परमभक्त थे । वैसे ही यक्ष मुनि का परम भक्त था । (ग) भद्रा - भद्रा बाराणसी राजा की पुत्री थी। यह पूजा-पाठ में विश्वास करती थी । इसलिए पूजा-पाठ के लिए मक्ष मन्दिर में जाती । बाह्य व्यक्तित्व सुन्दर था । प्रारम्भ में उसे साधुओं के प्रति घृणा थी । परन्तु जब ऋषि को कन्यादान के रूप में उसे दे दिया खण्ड २१, अंक २ १२९ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया। फिर भी ऋषि के द्वारा बह नहीं चाही गई तब उसके मन में उनके प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो गयी । एक बार यज्ञशाला में मुनि को देखा तो उसने पारिवारिक जनों को उसके बारे में बताया और शांत रहने के लिए कहा । तथा यह भी कहा--" महाजसो एस महाणुभागो, घोरव्वओ घोरपरक्कमो य ।"" -ये महान् यशस्वी हैं. महान् अचिन्त्य शक्ति से सम्पन्न हैं । घोरव्रती हैं। घोर पराक्रमी हैं । इसलिए इनकी अवहेलना मत करो | इस प्रकार भद्रा मधुर वाणी से सम्पन्न और व्यवहार कुशल भी थी । (घ) सोमदेव-ब्राह्मण सोमदेव ब्राह्मण भद्रा का पति था। यह राजपुरोहित था । ऋषि के द्वारा त्यक्त किये जाने पर राजा ने भद्रा का विवाह सोमदेव के साथ कर दिया । सोमदेव ब्राह्मण था इसलिए उसमें ब्राह्मणत्व का अभिमान था । अहंकार के कारण ही उसने मुनि का तिरस्कार किया । पत्नी के प्रति समर्पित होने कारण ही उसकी की बात मान व्यक्ति अपने दोषों से ही दुःख पाता है । अब मुझे बदलना है । चिंतन आगे बढ़ा और चरण संन्यास की ओर चल पड़े । मुनि बनने के पश्चात् कठोर तपश्चर्या प्रारम्भ की। तप के साथ-साथ ध्यान, अप, स्वाध्याय प्रारम्भ किया । जिससे प्रभावित होकर एक यक्ष उनकी सेवा में रहने लगा । एक बार मुनि यक्षायतन में कायोत्सर्ग कर रहे थे। उसी समय वाराणसी के राजा की पुत्री भद्रा मन्दिर में आई । यक्ष की पूजा की। जाते समय उसकी दृष्टि मुनि पर पड़ी। उनके मैले कुचेले कपड़ों को देखकर उसके मन में घृणा उत्पन्न हो गई । और उसने मुनि पर थूक दिया । यक्ष ने यह देखा । वह सहन नहीं कर पाया और भद्रा के शरीर में प्रवेश कर गया । कुमारी पागल हो गई । वह अनर्गल बातें करने लगी । दासियां उसे महल में ले गयीं। उपचार किया गया । सब व्यर्थं । राजा चितित हो गया । यक्ष ने अवसर देखा । और राजा से कहा- इस लड़की ने एक तपस्वी मुनि की आशातना की है। जिसके कारण यह हुआ है । यदि इस लड़की का विवाह मुनि के साथ कर दिया जाये तो यह स्वस्थ हो सकती है । राजा ने स्वीकार कर लिया । और राजकुमारी को साथ लेकर मुनि के पास पहुंचा। उस समय मुनि ध्यान में थे तब उसने कहा- मुनिराज ! मेरी पुत्री के साथ पाणिग्रहण कीजिए। ऐसा कहकर वह चला गया। रात्रि में यक्ष ने उसके साथ क्रीड़ा की। दूसरे दिन मुनि को सारी बात कही । तब राजकुमारी पुनः अपने घर आई और अपने पिता को यक्ष के द्वारा ठगे जाने की सारी बात कही। राजा पुनः वहां आया। उसने कहा - मुनिराज ! मैंने आपको अपनी पुत्री कन्यादान के रूप में दे दी है। आप इसे स्वीकार कीजिए । मुनि ने कहा- राजन् ! मैं तपस्वी हूं। मैं कन्या को कैसे ग्रहण कर सकता हूं ? वह असमंजस में पड़ गया। उसने अपनी समस्या राजपुरोहित के सामने रखी। राजपुरोहित मे कहा - दी गई कन्या का विवाह किसी ब्राह्मण के साथ कर देना उचित है । १३० तुलसी प्रज्ञा Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा ने अपने राजपुरोहित के साथ ही अपनी कन्या का विवाह कर दिया। उस राजपुरोहित का नाम सोमदेव था। सोमदेव और भद्रा शांतिपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करने लगे। इस संक्षिप्त कथानक से हमें उस समय की सामाजिक-धार्मिक और राजनैतिक परिस्थितियों का बोध होता है। ४. कथोपकथन __ काव्य की सुन्दरता को संवद्धित करने में कथोपकथन का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। संवादात्मक शैली में लिखा हुआ काव्य पाठक के लिए आकर्षण का विषय बनता है और कथोपकथन के माध्यम से व्यक्ति के मनोभावों का बोध होता है । कथा भी अधिक रोचक हो जाती है। इस आख्यान में भी सोमदेव ब्राह्मण, मुनि, यक्ष और भद्रा का वार्तालाप संवादात्मक है। आख्यान इसी शैली में हैं। यहां एक दो उदाहरण दृष्टव्य हैं के ते जोई ? के व ते जोइठाणे ? का ते सुया ? किं व ते कारिसंगं ? एहा य ते कयरा ? संति ? भिक्खू, कयरेण होमेण हुणासि जोई ? ॥ अर्थात् सोमदेव ब्राह्मण मुनि से उस यज्ञ के बारे में पूछता है जिस यज्ञ को करने से जीवन में ज्योति प्रकाशित होती है । शाश्वत आनन्द की प्राप्ति होती है। इन प्रश्नों का उत्तर मुनि भी उसी रूप में देते है। तवो जोइ जीवो जोइठाणं जोगा सुया सरीरं करिसंग । कम्मएह संजम जोगसंती होमं हुणामी इसिणं पसत्थं ॥' तप ज्योति है और जीव ज्योति स्थान है । योग घी डालने की करछियां है। शरीर अग्नि जलाने के कण्डे हैं । कर्म ईंधन है । संयम की प्रवृत्ति शांति-पाठ है। ___ इस प्रकार के अनेक प्रसंग इस आख्यान में कथोपकथन के रूप में हैं। जिससे सहज ही काव्य का सौन्दयं वृद्धिंगत हो गया है। ५. भाषा शैली उत्तराध्ययन प्राकृत भाषा का ग्रंथ है। इसमें अर्द्धमागधी प्राकृत भाषा का अधिकतर प्रयोग हुआ है। कहीं-कहीं देशी शब्दों का प्रयोग भी हुआ है। इस आख्यान में खलाहि, फोक्क, छात्र, निब्भेरिय आदि देशी शब्दों का जहां प्रयोग हुआ है ।" वहां एक ओर 'स्त्री' अर्थ में 'धण' शब्द का भी प्रयोग मिलता है।" भाषा सरल, सहज, सुबोध है । वीरस, शांत, करुण आदि रसों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में मिलता है। ६. समाज और संस्कृति प्रत्येक काव्य अपने देश-काल की स्थिति का परिचय करवाते हैं। हरिएसिज्ज' बंर २१, अंक २ १३१ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यान से उस समय की संस्कृति का बोध होता है। समाज में यज्ञ का प्रचलन था। जातिवाद का बोल-बाला था। ब्राह्मण जाति को मुख्य स्थान दिया जाता था और उनको ही यज्ञ करने का अधिकार था। यज्ञ का भोजन केवल ब्राह्मणों को दिया जाता था। शूद्रों को स्थिति दयनीय थी। उन्हें निम्न कोटि की श्रेणी में गिना जाता । चूर्णिकार ने एक श्लोक में बतलाया है कि उस समय शूद्रों की क्या स्थिति थी ?-- न शूद्राय बलि दद्यात्, नोच्छिष्टं न हवि : कृतम् । न चास्योपदिशेद धर्म न चास्य व्रतमादिशेत् ।। शूद्र व्यक्ति को न बलि का भोजन दिया जाता और न ही उच्छिष्ट भोजन और न ही आहुतिकृत भोजन दिया जाता। इस प्रकार उन्हें दीन दृष्टि से देखा जाता।" श्रमणों को भी आदर की दृष्टि से नहीं देखा जाता। जब मुनि यज्ञशाला में भिक्षा के लिए जाते हैं तब उन्हें निम्न शब्दों का प्रयोग करके निकाल दिया जाताब्राह्मण ही श्रेष्ठ क्षेत्र है । तुम शूद्र जाति के हो, इसलिए दान-पात्र के अधिकारी नहीं हो। इस प्रकार जातिवाद का साम्राज्य था। खान-पान की दृष्टि से उस समय पूड़े, खाजे और चावल से बने हुए भोजन को विशिष्ट माना जाता। ७. दार्शनिक पक्ष दार्शनिक दृष्टि से इस आख्यान का अवलोकन करे तो इसमें कर्म, पुनर्जन्म, तप, संयम, व्रत, योग एवं आत्म-बोध आदि विषयक सूत्ररूप सिद्धांत उपलब्ध होते (क) अहं विनाश दर्शन जगत् का प्रमुख तत्त्व है-आत्मा। आत्मा तक पहुंचने का मुख्य साधन है-अहं विनाश । अहंकार विलय से व्यक्ति के मन में जिज्ञासा जगती है-कोऽहं-मैं कौन हूं? मुझे इसका साक्षात्कार करना चाहिए। हरिकेश मुनि पहले जाति के मद से परिपूर्ण थे। जाति मद उन्हें इस संसार में भ्रमण करवा रहा था। मद केवल जाति का ही नहीं, कुल, रूप, ऐश्वर्य आदि का भी होता है। जिससे व्यक्ति भवभवान्तर में भ्रमण करता है । ऐसा ही मुनि हरिकेश के साथ था। प्रबल शुभ कर्मों का उदय हुमा, अहंकार का विनाश हुआ और बालक हरिकेश मुनि हरिकेश बन गये और उनके चरण अज्ञात की खोज के लिए चल पड़े । (ख) श्रद्धा____स्वत्व के प्रति झुकाव ही आत्मिक श्रद्धा है । यह श्रद्धा ही मोक्ष का हेतु है। यह श्रद्धा ही व्यक्ति को संसार के प्रति उदासीन करती है। श्रद्धा ही व्यक्ति को आत्माभिमुखी बनाती है । यथार्थ तत्व के प्रति श्रद्धा होना सम्यक्त्व है । सम्यक्त्व की प्राप्ति मिथ्यात्व को क्षय करने की प्रक्रिया है । जैन साधना पद्धति का पहला सूत्र हैमिथ्यात्व विसर्जन या दर्शन विशुद्धि । दर्शन विशुद्धि से व्यक्ति को आत्मिक आनन्द की अनुभूति होती है। इस आख्यान में भी दो घटनाओं को देखकर हरिकेश मुनि के तुमसी प्रज्ञा १३२ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार शुद्ध हुए, श्रद्धा का संचरण हुआ और उन्होंने कठोरतम मुनि जीवन को स्वीकार कर लिया। (ग) तप, व्रत, संयम हरिकेश ने कठोरतम जीवन को स्वीकार कर तपस्या करनी प्रारम्भ कर दी। तप साध्य प्राप्ति का साधन है । श्रमण संस्कृति तपोमय रही है। वैदिक संस्कृति में भी तप का उल्लेख मिलता है । मुण्डकोपनिषद् में कहा है-'तपस्सा चीयते ब्रह्म'तप से ही ब्रह्म को खोजा जाता है। इसी का एक रूप तैतिरीयोपनिषद् में भी मिलता है-तपसा ब्रह्म विजिज्ञास्व-तप से ही ब्रह्म को जानो। गीता में तप के तीन रूप बताये हैं-शारीरिक, वाचिक, मानसिक । इसके अतिरिक्त गीताकार ने अहिंसा सत्यादि को तप के अन्तर्गत माना है। बौद्ध दर्शन में भी तप की महिमा के गीत गाये गये। जैन दर्शन में तप का महत्त्वपूर्ण स्थान है । आचार्यमलयगिरी ने कहा"तापयति अष्ट प्रकारं कर्म इति तपः"--जो आठ प्रकार के कर्मों को तपाता है, वह तप है । तप निर्जरा का सर्वोत्तम साधन है। इसलिए हरिकेश मुनि ने तप की महिमा के गीत गाये हैं और अपने जीवन में उसको महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है, उन्होंने स्वयं ब्राह्मणों को प्रतिबोध देते हुए कहा है तवो जोइ जीवो जोइठाणं, जोगा सुया सरीरं कारिसंगं.......५ तप ज्योति है। जीव ज्योतिस्थान है । योग घी डालने की करछियां हैं । शरीर अग्नि जलाने के कण्डे हैं। कर्म इंधन है। संयम की प्रवृत्ति शांति पाठ है। तप की तरह संयम भी धर्म का एक लक्षण है। दसर्वकालिक में कहा है"धम्मो मंगल मुक्कि अहिंसा संजमो तवो।""जिनदास महत्तर के अनुसार संयम का अर्थ है-उपरम । राग-द्वेष से रहित हो एकीभाव-समभाव में स्थित होना संयम है। समभाव से अष्ट कर्मों का क्षय होता है। आश्रव का निरोध होता है। हरिकेश मुनि ने संयम की आराधना की और कसौटी पर पूर्णतया सफल हुए । हरिकेश मुनि भिक्षा के लिए यज्ञशाला में गये । ब्राह्मणों के द्वारा अपमानित किए जाने पर भी उनके मन में कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई । जब ब्राह्मण उनसे जीवन दान की याचना करते हैं तब उनके मुख से सहज ही निकलता है पुवि च इण्हि च अणागयं च, मणप्पदोसो न मे अत्थि कोइ । जक्खा हु वेयावडियं करेंति, तम्हा हु एए निहया कुमारा ॥" अर्थात् मेरे मन में कोई प्रद्वेष न पहले था, न अभी है । और न आगे भी होगा। किन्तु यक्ष मेरा वैयावृत्य कर रहा है । इसलिए ये कुमार प्रताडित हुए हैं। (घ) आत्म-बोध समत्व में रमण करना ही आत्म-दर्शन है । दर्शन जगत् में दो तत्त्व बहुचर्चित रहे हैं-(१) आत्मवाद (२) अनात्मवाद । अनात्मवाद के अनुसार पुनर्जन्म, कर्म आदि कुछ नहीं है। परन्तु आत्मवाद के अनुसार पुनर्जन्म है, इस जगत् का कोई कर्ता है । आत्मा अपने पुरुषार्थ के द्वारा ही परमात्मा बन सकती है। हरिकेश मुनि ने खण्ड २१, अंक २ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबल पुरुषार्थ से आत्मा का दर्शन किया। इस प्रकार हरिकेशबल आख्यान में जैन दर्शन के तत्त्वों का सूत्रात्मक निदर्शन उपलब्ध होता है। सन्दर्म: १. वृहत्कल्प १, गाथा १९० २. आवश्यक नियुक्ति ३. पाणिनी, अष्टाध्यायी ३.३.११७ ४. हलायुधकोश पृ. सं. १४७ ५. उत्तरज्झयणाणि १२।१ ६. बही १२१९ ७. वही १२।२३ ८. वही १२४३ ९. वही १२१४४ १०. वही पृ० २८७-२९३ १२. वही १३. मुण्डकोपनिषद १.१.८ १४. भगवद्गीता अध्याय १७ १५. उत्तरज्झयणाणि १२१४४ १६. दसर्वकालिक ११ १७. उत्तरज्झयणाणि १२।३२ द्वारा गौतम ज्ञान शाला, लाडनू तुलसी प्रज्ञा Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक तुलनात्मक अनुशीलन : उपनिषद् और आचारांग डॉ० हरिशंकर पाण्डेय ऋषि प्रतिभा से संभूत आक्षरिक ज्ञान-सागर का सार्थक अथवा अन्वर्थक अभिधान है-उपनिषद् तथा सत्यदर्शन समर्थ अनन्त-चतुष्टय सम्पन्न तीर्थकर की आप्त-मेधा का शाब्दिक-संविधान है-आगम । कालुष्य-संसार को स्वणिमविभूति में परिणत कर उस पार संगमन-सामर्थ्य की लब्धि का नाम है-उपनिषद् तथा दु:खदैन्य पीड़ित अवस्था से ऊपर उठकर परम सत्य का संधान अथवा ऋत-निकेतन किंवा परमपद की उपलब्धि का अपर संज्ञान है आगम । दोनों आत्मविद्या अथवा आविर्भूतअर्थसंवेदनात्मक परम-विद्या के पर्याय हैं इनका भाक्त (गौण) प्रयोग ग्रन्थ रूप में होता है । गुरु-परम्परा से आगत होने के कारण दोनों श्रुति शब्द से वाच्य हैं क्योंकि शिष्य-प्रशिष्य परम्परा में इन्हें स्मृति के आधार पर याद रखने की प्रथा थी। _ 'ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्" से प्रारम्भ होकर 'येनासं न अमृला स्यां किमहं तेन कुर्या', अहं ब्रह्मास्मि', अहं सः, सोऽहमिति में परम प्रतिष्ठा की साधनभूत विद्या का नाम है-'उपनिषद्', तो सत्य का सात्त्विक अन्वेषण एवं सोऽहं में प्रतिष्ठा प्रापक संसाधन का संधानात्मक अभिधान है आगम । दोनों श्रुति-विद्या, आत्मविद्या, आप्तवाणी, ऋषिवचन आदि के नाम से प्रसिद्ध हैं। प्रस्तुत सन्दर्भ में उपनिषद् और आचारांग का तुलनात्मक अनुशीलन अभिधेय १. उपनिषद् और आचारांग (प्रथम अंग आगम) दो विभिन्न परम्पराओं के प्रतिनिधि ग्रन्थ हैं। वैदिक ज्ञानकांड का नाम उपनिषद् है तथा आचारांग जैन परम्परा का आधारभूत ग्रन्थ आगम के अन्तर्गत अंगप्रविष्ट में प्रथम स्थान पर परिगणित है। आचारांगसूत्र दो श्रुतस्कन्धों में विभाजित है-प्रथम में नव-अध्ययन है तथा द्वितीय श्रुतस्कन्ध आचारचूला के नाम से प्रसिद्ध है। २. दोनों का प्रारम्भ दुःखमुक्ति की अभिलाषा अथवा आत्मजिज्ञासा से होता है । आ. का ऋषि सर्वप्रथम इसी चर्चा में तल्लीन दिखाई पड़ता है कि मैं कौन हूं, मेरा स्वरूप क्या है-'के अहं आसी? के वा इओ चुओ पेच्चा भविस्सामि ?" अर्थात् मैं कौन था ? मैं यहां से च्युत होकर अगले जन्म में क्या होऊंगा ? । लगभग सभी प्रमुख उपनिषदों का प्रारम्भ भी इसी बिंदु से होता है। कठोपनिषद् के नचिकेता का प्रमुख वरदान यही है-वरस्तु मे वरणीयः स एव ।' पंड २१ अंक २ १३५ - Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी प्रकार अन्य उपनिषदों में भी ऐसी पंक्तियां उपलब्ध हैं केनेषितं पतति प्रेषितं मनः । - केनोपनिषद्, १ कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति । - मुण्डकोपनिषद्, १.१.३ किं कारणं ब्रह्म कुतः स्म जाता जीवाम केन क्व च सम्प्रतिष्ठा । - श्वेताश्वर, १.१ ३. दोनों का प्रमुख विषय आत्ममीमांसा है। गौणरूप से अनेक विषयों की चर्चा उपलब्ध है । औपनिषदिक ऋषि संसार को श्रेष्ठ बनाकर आत्मप्राप्ति में तल्लीन दिखाई पड़ता है । अनासक्त रूप से कर्म करने वाला व्यक्ति ही सत्यधर्म में प्रतिष्ठित हो सकता है । ईशावास्योपनिषद् का मही स्वारस्य है कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः । एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥ अर्थात् शास्त्रीय विधि से अनासक्त भाव से कर्म की अभिलाषा करनी चाहिए। ऐसा (अनासक्त भाव से) लिप्त नहीं होता तथा इससे अतिरिक्त मुक्ति का कोई मार्ग नहीं है । हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् । तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ।। अर्थात् हे परमेश्वर ! सत्यस्वरूप आपका मुख ज्योतिर्मय पात्र से ढका हुआ है इसलिए मुझे (भक्त के लिए) दर्शन कराने के लिए उस आवरण को हटा दीजिए । उपर्युक्त प्रसंग से सिद्ध होता है कि औपनिषदिक ऋषि को अनासक्ति योग के साथ संसार का निर्वाह और अन्त में सत्यस्वरूप परमपद की उपलब्धि काम्य है । नचिकेता द्वारा याचित तीन वरदानों की क्रमबद्धता में यही मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण है । नचिकेता के तीन वरदान हैं १. पितृ परितोष २. स्वर्ग सुख की अभीप्सा और ३. आत्मविद्या ।" करते हुए सौ वर्ष तक जीवन करने से मनुष्य कर्मबन्ध में रूप में भौतिक सुख की कामना, परन्तु आचारांग का ऋषि संसार या लोकसंग्रह से सर्वथा निर्विण्ण होकर केवल परलोक या मुक्तिचिंतन में अनुरक्त दिखाई पड़ता है लेकिन यह तथ्य पूर्ण रूप से प्रतिपादित है कि जो इस जीवन को तप आदि के द्वारा संवारेगा वही मुक्ति का अधिकारी हो सकता है । ४. दोनों की विषय प्रतिपादन शैली में समानताएं और किंचित् विषमताएं हैं । उपनिषद् में जिज्ञासा - समाधान, प्रश्नोत्तर, प्रतीकात्मक, सूत्रात्मक, निरुक्त्यात्मक, आख्यायिका, उपमान, संश्लेषणात्मक (समन्वयात्मक ), आत्मसंलाप, अरुन्धतीन्याय, विश्लेषणात्मक, अन्वय-व्यतिरेक एवं अधिदेवत शैलियों किंवा प्रतिपादन विधियों का उपयोग किया गया है । आचारांग में सूत्रात्मक, निरुक्त्यात्मक, आत्मसंलाप आदि पद्धतियों का उपयोग किया गया है । १३६ तुसली प्रज्ञा Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. चिंतन शैली के विकास में, दोनों में अन्तर है। औपनिषदिक ऋषि देहात्मवाद (भूतात्मवाद छान्दोग्य, ८.८) से चिंतन सरणि का प्रारम्भ कर प्राणात्मवाद (इन्द्रियात्मवाद), मनोमय आत्मा, प्रज्ञात्मा, विज्ञानात्मा, आनन्दात्मा और चिदात्मा तक जाता है, अर्थात् पांच कोशों से व्यतिरिक्त परम तत्त्व में पर्यवसित होता है। आचारांग के चिंतन का प्रारम्भ आत्मवाद से होता है और शुद्धात्मा में निलयित हो जाता है। ६. दोनों ग्रन्थों में आत्मप्राप्ति के साधन का विस्तार से वर्णन मिलता है । आत्मप्राप्ति के साधनों में प्रमुखतया महाव्रतों का पालन, रत्नत्रय में प्रतिष्ठित होना, हिंसा में आतंकदर्शन, अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, संयम, लोभ-विरति, काम-त्याग, धर्मसेवन, तपश्चरण, अप्रमत्तता का आचरण, समत्वयोग, दान, दया, आकिंचन्य, कषायविजय आदि की विस्तृत चर्चा दोनों ग्रन्थों में उपलब्ध होती है। कुछ संसाधनों का संक्षिप्त उपन्यास अधोविन्यस्त है। ६.१. अहिंसा-अहिंसा शब्द हिंसा का पूर्ण निषेध का वाचक एवं दया, करुणा, मुदिता, मैत्री आदि अनुकूल या सदृश भावों का संग्राहक है।" जैन दर्शन का प्राणतत्त्व अहिंसा ही है । आचारांग में इसका विस्तार से वर्णन मिलता है। ऋषि हिंसा का पूर्ण निषेध करता है। हिंसावादियों के वचन के सम्बद्ध भगवान् महावीर का कथन है'अणारिय वयणमेयं" अर्थात् हिंसा की व्याख्या करने वाले वचन अनार्य (त्याज्य) हैं। संसार में कोई भी जीव बध्य नहीं है इस तथ्य का प्रतिपादन आचारांगकार करते हुए कहते हैं तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वं ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं अज्जावेयव्वं ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं परितावेयन्वं ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं परिघेतव्वं ति मनसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं उद्दवेयव्वं ति मनसि । मुनि सब प्रकार से कर्मों को जानकर वह किसी की हिंसा नहीं करता है। वह इन्द्रियों का संयम करता है, उनका उच्छृखल व्यवहार नहीं करता है इति कम्मं परिण्णाय, सव्वसो से ण हिंसति । संजमति णो पगम्भति ।" यह अहिंसा धर्म तथ्य है। यह वैसा ही है, यह अर्हत् प्रवचन में सम्यक् निरूपित है तच्च चेयं तहा चेयं, अस्सि चेयं पवुच्चइ ।५ चतुर्थ अध्ययन के प्रारम्भ में ही ऋषि उद्घोष करता है-सव्वे पाणा सव्वे भूता सम्वे जीवा सम्वे सत्ता ण हंतव्वा ण अज्जावेयव्वा ण परिघेतव्वा ण परितावेयव्वा, ण उद्दवेयव्वा।" अर्थात् किसी भी प्राणी भूत, जीव और सत्त्व का हनन नहीं करना चाहिए। आचारांग के सदृश ही ईशायास्योपनिषद् में विवरण मिलता है । ईशा० की दृष्टि में वही व्यक्ति मोहरहित एवं शोकवियुक्त हो सकता है जो सर्वभूत मात्र को अपने सदृश जानता हो। सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते । तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः ॥" प्राणाग्निहोत्रोपनिषद् में अहिंसा को आत्मसंयम का प्रमुख साधन माना गया है ब्र २१, अंक २ १३७ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और अहिंसा को श्रेष्ट यज्ञकर्ता की पत्नी के रूप में स्वीकार किया गया है जिसके बिना यज्ञ निष्फल हो जाता है-स्मृतिदयाशान्तिऽहिंसापत्नी संयाजाः ।" उपनिषदों में अनेक स्थलों पर इसकी महनीयता उद्गीत है... यत्तपोदानमार्जवमहिंसा० (छान्दो० ३.१७.४), अहिंसा इष्टयः (प्राणाग्नि० ४), आरुणिकोपनिषद् में ब्रह्मचर्य के साथ अहिंसा व्रत की रक्षा पर विशेष बल दिया गया है ब्रह्मचर्यमहिंसा चापरिग्रहं च सत्यं च यत्नेन । हे रक्षतो हे रक्षतो हे रक्षत इति ॥ सभी प्राणियों में सर्वदा तथा सर्वथा द्रोह की भावना न रखना ही अहिंसा है। सत्यादि सबके मूल में अहिंसा ही है- व्यास भाष्य (योगसूत्र २.२९ पर) द्रष्टव्य है तत्रा हिंसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामनभिद्रोह उत्तरे च यमनियमास्तन्मूला। दतात्रेय योगशास्त्र में भी सभी नियमों की अपेक्षा अहिंसा उत्कृष्ट मानी गयी है अहिंसा नियमेष्वेका मुख्या भवति नापरे । इसी प्रकार प्रश्नव्याकरणकार ने अहिंसा को परममंगलकारिणी कहा है____ अहिंसा "तस-थावर सव्वभूयखेमकरी। महाभारतकार ने अहिंसा को परमधर्म तथा सम्पूर्णधर्म कहा है अहिंसा परमो धर्मः । (महाभारत अनु० पर्व ११६.२८-२९) अहिंसा सकलो धर्मः । (तत्रैव ११६.३०) अहिंसा की महत्ता को सबने स्वीकार किया है । आचारांगकार इसे शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म मानते हैं __एस धम्मे णिइए सासए । दशवकालिक चूणि में भी ऐसा ही कहा गया हैअहिंसाग्गहणे पंचमहव्वयाणि गहियाणि भवंति । अर्थात् अहिंसा के ग्रहण से सभी महाव्रतों का ग्रहण हो जाता है । इस प्रकार अहिंसा की श्रेष्ठता सबने स्वीकार की है। ६.२. सत्य--आचारांगकार सत्य की महत्ता को स्वीकार करते हुए कहते हैं'सच्चसि धिति कुव्वह२४ अर्थात् सत्य में धृति करो। आचारांगभाष्य में सत्य शब्द के १४ अर्थ किए गए हैं-सत्, सद्भाव, तत्त्व, तथ्य, सार्वभौम नियम, भूतोद्भावन, संयम, काय, भाव और भाषा की ऋजुता, यथार्थ वचन, अगहित वचन, व्यवहाराश्रित वचन और प्रतिज्ञा ।२५ सत्य का अनुशीलन ही परम कर्तव्य है तथा सत्यानुशीलन से व्यक्ति मृत्यु को तर जाता है पुरिसा ! सच्चमेव समभिजाणाहि । सच्चस्स आणाए उवट्ठिए से मेहावी मारं तरति । अर्थात् हे पुरुष! तू सत्य का ही अनुशीलन कर। जो सत्य की आज्ञा (शरण) में उपस्थित होता है, वह मेधावी मृत्यु को तर जाता है। सत्य के निर्वाह में साधन के रूप में 'मध्यस्थभाव' ग्रहण करने के लिए निर्देश दिया गया है-उवेहमाणो अणुवेहमाणं बूया उवेहाहि समियाए । अर्थात् मध्यस्थ भाव रखने वाला मध्यस्थ भाव न रखने वाले से कहे-तुम सत्य के लिए मध्यस्थ भाव का अवलम्बन करो । उपनिषद्-साहित्य में इसी तरह सत्य की महिमा टंकित है। सत्य विजयी होता है यह भारत का सूत्रवाक्य है-सत्यमेव जयते । आत्मप्राप्ति के साधनों में सत्य का तुलसी प्रचा Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभूत निर्देश है श्रद्धा सत्यं ब्रह्मचर्य विधिश्च--मुण्ड० २.१.७ सत्येन लभ्यस्तपसा ह्यष आत्मा-मु० ३.१.५ सत्येनेनं तपसा योऽनुपश्यति-श्वेता० १.१५ । इसीलिए औपनिषदिक शिक्षा का प्रारम्भ इस मन्त्र से होता है-सत्यंवद धर्मचर । अर्थात् सत्य बोलो, धर्माचरण करो। उपनिषदों में सत्य को ही ब्रह्म एवं आत्मा कहा गया है-तत्सत्यं स आत्मा (छा० ६.८.७), सत्यं ब्रह्म सत्यं ब्रह्मति सत्यं ह्य व ब्रह्म (बृह० ५.४.१ । बृहदारण्यकोपनिषद् में सत्य को ही धर्म कहा गया है-यो वै स धर्मः सत्यं वै तत् । तस्मात् सत्यं वदन्तमा हुर्धर्म वदतीति । अर्थात् सत्य ही धर्म है। इसलिए जो सत्य बोलता है वह धर्मकथन करता है। इस प्रकार सत्य की महत्ता दोनों परम्पराओं (ग्रन्थों) में स्वीकृत है । स्वरूप की पूर्ण समानता है । ६.३. ब्रह्मचर्य -- आचारांगसूत्र और उपनिषद् दोनों ब्रह्मचर्य के प्रतिपादक ग्रन्थ हैं। ब्रह्मचर्य का अर्थ है -आत्मविद्या या आत्मविद्या-मिश्रित आचरण। आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने आचागंगभाष्य के (प्रथम अध्ययन के) भाष्य में लिखा है-ब्रह्मचर्यम्-आत्मविद्या तदाश्रितमाचरणं वा ।३१ अन्यत्र आचारांगभाष्य में ही ब्रह्मचर्य के तीन अर्थ किए गए हैं-आचार: मैथुनविरति: गुरुकुलवासश्च । २ अर्थात् १. आचार २. मैथुनविरति और गुरुकुलवास । आचारांगकार ने आत्मसाधना के लिए ब्रह्मचर्य को श्रेष्ठ साधन माना है । यही पुरुष पराक्रमी, वीर एवं अनुकरणीय होता है जो ब्रह्मचर्य के द्वारा कर्मशरीर को कृश कर देता है अर्थात् कर्मविनाश या बन्धनमुक्ति का श्रेष्ठ साधन है ब्रह्मचर्य-जे घुणाइ समुस्सयं, वसित्ता बंभचेरंसि ।३ ब्रह्मचर्य साधना के लिए अनेक उपाय निर्दिष्ट हैंनिर्बल भोजन, अवमौदर्य (कम खाना), ऊर्ध्वस्थान कर कायोत्सर्ग, ग्रामानुग्राम विहार, आहार परित्याग, स्त्रियों के प्रति दौड़ाने वाले मन का परित्याग आदि ।" ऋषि स्पष्ट निर्देश करता है कि प्राणत्याग श्रेय है लेकिन ब्रह्मचर्य का खण्डन नहीं होना चाहिएतवस्सिणो हु तं सेयं जमेगे विहमाइए'५ अर्थात् तपस्वी के लिए यह श्रेय है कि वह ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए फांसी लेकर प्राणविसर्जन कर दे। वहीं पर ब्रह्मचारी के लिए कुछ आवश्यक करणीय का भी निर्देश दिया गया है-- ब्रह्मचारी के लिए कामकथा, वासनापूर्ण दृष्टि से किसी को देखना, परस्पर कामुक भावों का प्रसारण, ममत्व, शरीर सजावट, विकत्थन (मौन रहित), मनचांचल्य और पापवृत्ति आदि सर्वथा परित्याज्य हैं। उपनिषदों में आत्मदर्शन के लिए अनिवार्य साधनों में ब्रह्मचर्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है । कहीं-कहीं तप, श्रद्धा, अहिंसा आदि के साथ इसका निर्देश है तो कही स्वतंत्र रूप में । मुण्डकोपनिषद् में तप, सत्य, श्रद्धा के साथ ब्रह्मचर्य को ब्रह्म से उत्पन्न बताया गया है-श्रद्धासत्यं ब्रह्मचर्य विधिश्च । प्रश्नोपनिषद् में पिप्पलाद ऋषि भारद्वाज आदि ऋषियों को ब्रह्मचर्य की आराधना का आदेश देते हैं तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया संवत्सरं संवत्स्यथ । वहीं पर ब्रह्मचर्य द्वारा आत्मसाधना की पुष्टि की गई हैखंड २१, अंक २ १३९ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्येण विद्यया... |" छान्दोग्य में निर्दिष्ट है कि ब्रह्मचर्य से ब्रह्मलोग की प्राप्ति होती है-ब्रह्मलोकं ब्रह्मचर्येणानुविन्दन्ति ।" अनेक स्थलों पर ऐसा उल्लेख मिलता सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम्-मुण्डक० ३.१.५ तेषामेवैष ब्रह्मलोको येषां तपो ब्रह्मचर्यम्-प्रश्न १.१५ तद ब्रह्मचर्येण ह्यव-छान्दोग्य० ८.५.१ । ब्रह्मचारी के कर्तव्यों का भी निर्देश मिलता है। छान्दोग्योपनिषद् में उसे आचार्यकुलवासी कहा गया है ब्रह्मचारी आचार्यकुलवासी।' वह भिक्षाजीवी होता है-ब्रह्मचारी बिभिक्षे।" वह तपस्यारत, शम-दम का धारक एवं यमी होता हैतप्तो ब्रह्मचारी, छा• ४.१०.४, दमायन्तु ब्रह्मचारिणः तैत्ति० १.४.२, शमायन्तु ब्रह्मचारिणः (१.४.२)। उपनिषदों में दो तरह के ब्रह्मचारियों का उल्लेख मिलता है-१. बालब्रह्मचारी २. गृहस्थ धर्म का निर्वाह एवं सांसारिक कार्य पुत्रादि को समर्पित कर ब्रह्मचर्य धारण करने वाला । आरुणिकोपनिषद् में द्वितीय श्रेणी के ब्रह्मचारी को 'कुटीचर' कहा गया है-कुटीचरो ब्रह्मचारी कुटम्बं विसृजेत्, पात्रं विसृजेत्।" वहीं पर उसके लिए विस्तृत आचार-संहिता का भी निरूपण है। ६.४. अपरिग्रह-पदार्थ में ममता का परित्याग अपरिग्रह है। आचारांगकार का दृष्टिकोण है कि जो व्यक्ति पदार्थ में राग, आसक्ति आदि से रहित है वह अपरिग्रही है-आवंती केआवंती लोयंसि अपरिग्गहावंती, एएसु चेव अपरिग्गहावंती । अर्थात् इस जगत् में जितने अपरिग्रही है, वे वस्तुओं में मूर्छा न रखने के कारण अपरिग्रही हैं। वहीं पर अध्यात्म तत्त्वदर्शी के लिए परिग्रह वर्जन का निर्देश है-परिग्गहामो अप्पाणं अवसक्केज्जा" अर्थात् परिग्रह से अपने आपको दूर रखें। बहु पि लर्बु ण णिहे"- अर्थात् बहुत मात्रा में लाभ हो जाने पर भी उसका संग्रह न करे। भिक्षु के लिए दिव्य और मानुषी, सभी प्रकार के विषयों में अमूच्छित-परिग्रहातीत रहने के लिए कहा गया है -सव्वोहिं अमुच्छिए।" उपनिषदों में अनेक स्थलों पर अपरिग्रह का निरूपण साधन के रूप में मिलता है । तेजोविन्दुपनिषद् में ध्यान के अधिकारी के लिए 'अपरिग्रह' अनिवार्य माना गया हैनिर्द्वन्द्वो निरहंकारो निराशोरपरिग्रहः । जाबालोपनिषद् में निर्दिष्ट है कि जो परिग्रह से रहित है. पवित्र है वह महापातकों से मुक्त हो जाता है-मुण्डोऽपरिग्रहः शुचिः ।" योगसूत्र के अनुसार विषयों के अर्जन, रक्षण, क्षयादि में हिंसादि दोषों का दर्शन कर उनका परित्याग करना अपरिग्रह है—विषयाणामर्जन रक्षणक्षयसंगहिंसादोष दर्शनाद अस्वीकरणमपरिग्रहः ।" कठोपनिषद् के नचिकेता-यमराज संवाद में स्पष्ट रूप से अपरिग्रह शब्द का तो प्रयोग नहीं मिलता लेकिन उसके स्वरूप पर प्रकाश पड़ता है । यमराज कहते हैं--धनदौलत, युवतियां, महेन्द्रराज्य सब ले लो लेकिन आत्मविद्या रूप वरदान मत मांगो। नचिकेता स्पष्ट शब्दों में परिग्रहण का निषेध करता है-न वीतेन तर्पणीयो मनुष्यः ।। १४० तुलसी प्रज्ञा Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नचिकेता कहता है कि हे यमदेव ! ये धन-दौलत सब आप ही के पास रहें क्योंकि ये इन्द्रियों के तेज को हर लेते हैं श्वोभावा मर्त्यस्य यदन्तकतत्सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेजः । अपि सर्व जीवितमल्पमेव तवैव वाहास्तव नृत्यगीते ॥ ६.५. तप-तप का महत्त्व सभी आचार्यों ने स्वीकार किया है योगभाष्य में क्षुधापिपासा, शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वों को सहने को तप कहा गया है-तपोद्वंद्वसहनम् ।" गीता में शरीर, वाणी और मनस् भेद से तप के तीन भेद किए गए हैं। उपदेश साहस्त्री में मन और इन्द्रियों की एकाग्रता को तप कहा गया है-मनश्चेन्द्रियाणां च ह्य कायं परमं तपः ।" जैन दर्शन में तपस्या को संवर और निर्जरा का प्रमुख साधन माना गया है-तपसा निर्जरा च ।" वहीं पर उसके बाह्य और आभ्यन्तर दो भेद बताकर प्रत्येक के छ:-छः उपभेदों का निरूपण किया गया है। आचारांग सूत्र में अवमौदर्य काय-क्लेश, ध्यान आदि का अनेक बार उल्लेख मिलता है। नवम अध्ययन में भगवान महावीर की तपश्चर्या का विस्तृत एवं व्यावहारिक रूप प्राप्त होता है । उपनिषदों में तप की विस्तृत चर्चा है। आत्म-प्राप्ति के प्रमुख साधनों में तप का प्रमुख स्थान है । तैत्तिरीयो० का स्पष्ट आदेश है कि तप से ब्रह्म को जानो-'तपसा ब्रह्मविजिज्ञासस्व' क्योंकि तप ही ब्रह्म है.---'तपो ब्रह्म इति ।५८ मुण्डकोपनिषद् में अनेक बार तप की महत्ता का संगायन किया गया है। एक स्थल पर तप ब्रह्म की संकल्पशक्ति के रूप में निर्दिष्ट है-'तपसाचीयते ब्रह्म तप की महिमा का उल्लेख केन० ३३, छान्द० २.२३.२, ३.१७.४, बृहदा० १.२.६, १५.१, ३.८.१०, ४.४.२२, तैत्तिरीय० १.९.१, २.६.१, कठ० २.१५, ४.६, श्वेताश्वर. १-१५,१६, मैत्रेयी० १.२, ४.३-४, ६.६ आदि अनेक स्थलों पर मिलता है। ६.६. ध्यान की महत्ता को सबने स्वीकार किया है । चित्त की एकाग्रता को ध्यान कहा जाता है। शंकर ने 'मैं ब्रह्म हूं' इस प्रकार की चित्तवृत्ति से जो परमानन्ददायिनी निरालम्ब स्थिति होती है उसको ध्यान कहा है ब्रह्म वास्मीति सद्वृत्त्या निरालम्बतया स्थितिः । ध्यानशब्देन विख्याता परमानन्ददायिनी ॥ तैलधारा के समान ध्येय वस्तु में चित्त की एकाग्रता ध्यान है-चेतज्ञ वर्तन चैव तैलधारासमम् ।।१ उमास्वाति का दृष्टिकोण भी यही है -उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्ता निरोधो ध्यानम्,६२ अर्थात् उत्तम संहनन वाले का एक विषय में चित्त की एकाग्रता ध्यान है। चारांग में ध्यान का विस्तृत विवेचन मिलता है। अकर्मा की साधना २३७, ५.१२०, अनन्यदर्शन २.१७३, अनिमेष प्रेक्षा या त्राटक २.१२५, अपायविचय ९.१६१, आत्मसंप्रेक्षा ४.३२, प्रतिपक्ष भावना २.३७, प्रेक्षा करना २.१६०, विपश्यना २.१२५ एवं शरीर संप्रेक्षा ५.२१ आदि का विवरण उपलब्ध है। उपनिषदों में भी अनेक स्थलों पर ध्यान के स्वरूप, प्रक्रिया, अधिकारी और लाभ आदि की विस्तृत विवृत्ति उपलब्ध होती है। मण्डल ब्राह्मणोपनिषद् में योगसूत्र खंड २१, अंक २ १४१ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 'तत्र प्रत्ययैतानता ध्यानम् के समान ही परिभाषा उपलब्ध होती है - सर्वशरीरेषु चैतन्यैकतानता ध्यानम् " अर्थात् सारे शरीर में रहने वाले चैतन्य में एकतानताएकाग्रता ध्यान है | मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है कि ज्ञानप्रसाद के द्वारा विशुद्ध सत्त्व होकर ध्यान करते हुए आत्मा को देखे – ६५ ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्वस्ततस्तु तं पश्येत् निष्कलं ध्यायमानः ।" प्रश्नोपनिषद् में ऊंकार पर ध्यान करने का निर्देश मिलता है । " ६. ७. मैं पूर्वजन्म में कौन था, अगले जन्म में कहां उत्पन्न होऊंगा ? मेरी आत्मा पुनर्जन्म लेने वाली है -- इत्यादि का ज्ञान यानी निजविषयक ज्ञान के तीन साधनों का उल्लेख आचारांग सूत्र (१.३) में प्राप्त होता है ६. ७.१. सहसम्मुइयाए -स्वस्मृति से कुछ बच्चों को जन्म से ही ( बचपन से ही ) पूर्वजन्म की सहज स्मृति प्राप्त होती है। आधुनिक परामनोविज्ञान भी इस तथ्य को स्वीकार करता है । सुश्रुतसंहिता में यह निर्दिष्ट है कि पूर्वजन्म में जो व्यक्ति शास्त्रों के अभ्यास से अपना अन्तःकरण भावित कर लेते हैं, उन्हें पूर्वजन्म की स्मृति हो जाती है भावितः पूर्वदेहेषु सततं शास्त्रबुद्धयः । भवन्ति सत्त्वभूयिष्ठाः पूर्वजातिस्मराः नराः ॥ ७ ६.७.२. परवागरणेणं - परव्याकरण अर्थात् आप्तपुरुष के साथ व्याकरण प्रश्नोत्तरपूर्वक मनन कर कोई उस ज्ञान को प्राप्त करता है । भाष्यकार ने उदाहरण स्वरूप मेघकुमार की कथा को उपस्थापित किया है ।" उपनिषदों में अनेक ऐसे प्रसंग मिलते हैं जिसमें यह निर्दिष्ट है कि आत्मविद्या का जिज्ञासु प्रश्नोत्तर - शैली के द्वारा आत्मज्ञान को प्राप्त करता है । कठोपनिषद् में नचिकेता यमराज, मुण्डकोपनिषद् में महाशालअङ्गिरस्, प्रश्नोपनिषद् में भारद्वाजादि ऋषि - पिप्पलाद, बृहदारण्यक० में याज्ञवलक्य - मैत्रेयी आदि संवाद 'परवागरणेणं' के ही उदाहरण हैं । ६. ७.३. अण्णेस वा अंतिए सोच्चा - ( दूसरों के अतिशय ज्ञानी के द्वारा स्वत: ही निरूपित तथ्य को प्राप्त कर लेता है । पास सुनकर ) बिना पूछे किसी सुनकर कोई पूर्वजन्म का संज्ञान ७. आत्मविद्या का अधिकारी - प्रश्न उठता है कि आत्मविद्या का अधिकारी कौन हो सकता है । क्या योग्यता होनी चाहिए ? इन प्रश्नों का समाधान आचारांग और उपनिषद् उभयविध स्थलों में प्राप्त होता है । आचारांग में अनेक सूक्ष्म तथ्य प्रकीर्ण हैं जिसको एकत्रित करने पर आत्मविद्या के अधिकारी पर पूर्ण प्रकाश पड़ सकता है । आत्मदर्शी ३.३६, आत्मनिग्रही ३.६४, सत्यान्वेषी ३.६६, द्रष्टा ३.८७, शरीर के प्रति अनासक्त ४.२८, अनिदानी ४.२८, वीतराग उपदेश में श्रद्धावान् ५.१२२, कामभोगों में उदासीन ३.४७, समता धर्म में निरत ३.५५, कामनामुक्त ३.६५, तितिक्ष २.११४, ११५, श्रद्धावान् ३.८०, विषयविरक्त ४.६, अप्रमत्त ५.२३, मेधावी २.२७, ज्ञानी ३.५६, साधक ३.७८, धीर पुरुष २.११, संयमी २.३५, अलोभी २.३६, सम्यग्दर्शी २.५३, तत्त्वदर्शी २.११८, अपरिग्रही २.५७, धर्मकथी २.१७४, कुशल २.१८२ आदि १४२ तुलसी प्रज्ञा Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणसम्पन्न व्यक्ति ही आत्मज्ञान का अधिकारी हो सकता है। उपनिषदों में इन्हीं तथ्यों की उद्घोषणा की गई है । अनेक चरित्र एवं आख्यानों के माध्यम से भी इस तथ्य पर प्रभूत प्रकाश डाला गया है। मुण्डकोपनिषद् में महाशाल शौनक एवं कठोपनिषद में कथित नचिकेता के चरित्र से इस विषय पर काफी स्पष्टीकरण हो जाता है । मुण्डक. के अनुसार आत्मविद्या के अधिकारी के लिए निरहंकारता, गुरु के प्रति श्रद्धा, तितिक्षा, चित्तप्रशांति, एकाग्रता, अनासक्तता आदि गुणों का होना अनिवार्य है। ऋषि वाक्य प्रमाण हैं- तस्मै स विद्वानुपसन्नाय सम्यक्, प्रशान्तचित्ताय शमान्विताय । येनाक्षरं पुरुषं वेद सत्यं, प्रोवाच तां तत्त्वतो ब्रह्मविद्याम् । अर्थात् ज्ञानी महात्मा के शरण में आए हुए, पूर्ण शांतचित्त वाले शमदमादि साधनयुक्त शिष्य के लिए ब्रह्मविद्या का उपदेश करना चाहिए जिससे कि वह अविनाशी तत्त्व को जान ले। वह विशुद्ध सत्त्व-विशुद्ध अन्तःकरण वाला (मु० ३.१.८), आप्तकाम (३.१.६) क्षीणदोष-दोषों से रहित (३.१.५) होता है। वेदान्तसार के प्रणेता श्री सदानन्द ने ब्रह्मविद्या के 'अधिकारी-स्वरूप' पर विस्तृत प्रकाश डाला है --अधिकारी तु विधिवदधीतवेदवेदाङ्ग वेनापतितोऽधिगता खिलवेदार्थोऽस्मिन् जन्मनि जन्मान्तरे वा काम्यनिषिद्धवर्जनपुरस्सरं नित्यनैमित्तिकप्रायश्चित्तोपासनानुष्ठानेन निर्गतनिखिलकल्मषतया नितान्तनिर्मलस्वान्त साधनचतुष्टयसम्पन्नः प्रमाता । अर्थात् जो पुरुष वेदों और वेदों के अङ्गभूत शास्त्रों का विधिवत् अध्ययन कर सम्पूर्ण वेदार्थ का आपातज्ञान प्राप्त कर लेता तथा इस जन्म में अथवा पूर्वजन्म में काम्य, निषिद्ध कर्मों का त्याग करते हुए नित्य, नैमित्तिक कर्म प्रायश्चित्त और उपासना के अनुष्ठान से समस्त कल्मष को निवृत्त कर अपने अन्तःकरण को नितान्त निर्मल बना लेता है वह साधन चतुष्टय से सम्पन्न (१. नित्यानित्य वस्तु विवेक २. भौतिक-स्वर्गिक सुख-भोग से विरक्ति ३. शम दम, उपरति तितिक्षा, श्रद्धा और समाधान-समाधि ४. मुमुक्षत्व) प्रमाता पुरुष ही ब्रह्मविद्या का अधिकारी होता है । आगे श्रुति का श्लोक उद्धृत करते हैं प्रशान्तचित्ताय जितेन्द्रियाय च प्रहीणदोषाय यथोक्तकारिणे । गुणान्वितायानुगताय सर्वदा प्रदेयमेतत्सततं मुमुक्षवे ॥" अर्थात् जिसका मन शांत है, जो जितेन्द्रिय है, जिसकी इन्द्रियां विषयों से निवृत्त हो चुकी हैं, जो सन्यास ले चुका है, जिसके मनोदोष दूर हो चुके हैं, जो गुरु और शास्त्रानुसार क्रियारत रहता है, जो निरभिमान तथा आचार्यांनुगत हो वही इस विद्या का अधिकारी हो सकता है-उसी को आत्मविद्या देनी चाहिए। अनेक श्रुतिवाक्य इस विषय में उपलब्ध होते हैं शान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः समाहितो भूत्वाऽऽत्मन्येबात्मानं पश्यति । ७२ खण्ड २१, अक २ १४३ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपनिषद् का एक प्रसंग है जिसमें स्वयं विद्या के द्वारा ही अपने अधिकारी का व्याख्यान किया गया है विद्या ह वै ब्राह्मणमाजगाम गोपाय मा शेवधिष्टेऽहमस्मि । असूयकायानुजवेऽयताय न मां ब्रूयाः वीर्यवती तथा स्याम् ॥ - मुक्तिकोपनिषद् १.५१ अर्थात् विद्या ब्राह्मण (ऋषि) के पास आई और उससे कहने लगी- ब्राह्मण ! मेरी रक्षा करना । मैं तुम्हारी बहुत बड़ी निधि हूं। मुझे ऐसे व्यक्ति को मत देना, जो ईर्ष्यालु हो, जो ऋजु (सरल) न हो और संयमयुक्त न हो । यदि तुम ऐसा करोगे तो मैं शक्तिशालिनी बनूंगी, मुझमें ओज प्रस्फुटित होगा । श्रीमद्भगवद्गीता में विद्या के अधिकारी पर विस्तार से वर्णन मिलता है । विशेषकर तेरहवें अध्याय में अधिकारी के अद्वेष्टा, सर्वभूतमंत्री, करुणा, निर्ममता, निरहंकारता, तितिक्षा, क्षमी, संतुष्ट, योगी, यतात्मा, दृढ़निश्चयी आदि गुण बताए गए हैं। इस प्रकार आत्मविद्या के अधिकारी के स्वरूप संधारण में सभी भारतीय आत्मवादी प्रस्थानों में मतैक्य दृग्गोचर होता है । ८. आत्मज्ञ की स्थिति - जो आत्मा को जान लेता है । उसका स्वरूप क्या है, वह कैसा हो जाता है ? आदि प्रश्नों के उत्तर में दोनों परम्पराओं की मान्यताएं समान हैं । आत्मज्ञ पुरुष अपने ही समान सम्पूर्ण जगत् को देखता है । सम्पूर्ण जगत् में अपने को तथा अपने में सम्पूर्ण विश्व को प्राप्त कर लेता है-योऽसावसौ पुरुषः सोऽहमस्मि ।" आचारांग का ऋषि कहता है कि आत्मज्ञ पुरुष उपशान्त हो जाता है, मन-वचन-काय की सम्यक् प्रवृत्ति में स्थिर हो जाता है । भगवान् महावीर के प्रसंग में कहा गया हैअभिणिव्वुडे अमाइल्ले ।" जो मात्र एक आत्मा को जान लेता है वह सर्वज्ञ हो जाता जे अज्झत्थं जाणइ से बहिया जाणइ । जे बहिया जाणइ से अज्झत्थं जाणइ ॥ ७५ जो अध्यात्म को जानता है वह बाह्य को जानता है, जो बाह्य को जानता है वह अध्यात्म को जानता है । शीतोष्णीय अध्ययन में आचार्य कहते हैं-जे एगं जाणइ से सव्वं जाण । " अर्थात् जो एक को जानता है वह सबको जान लेता है । ईशावास्योपनिषद् एवं गीता का वचन है कि बाहर भीतर आत्मदर्शी व्यक्ति शोक-मोह से रहित हो जाता है यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद् विजानतः । तत्र कः मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः ॥ * ૧૭૭ छान्दोग्य० का वचन है-तरति शोकमात्मवित् । " आत्मवेत्ता सर्वज्ञ हो जाता है - स आत्मवित्स सर्ववित् ।" मैत्रेयी० में उदिष्ट है कि आत्मविद् को ही दान देना चाहिए ।" गीता में भगवान् कृष्ण कहते हैं-आत्मदर्शी समदर्शन हो जाता है— ૪૪ तुलसी प्रज्ञा Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि । ईक्षते योगमुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ।। आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥ " ६. क्षेत्रज्ञ -क्षेत्रज्ञ में स्वरूप- संधारण में दोनों की मान्यताएं समान हैं । आचारांग के शीतोष्णीय अध्ययन में क्षेत्रज्ञ शब्द का प्रयोग मिलता है-अप्पमत्तो कामेहि, उवरतो पावकम्मे हि वीरे आयगुत्ते जे खेयण्णे । जे पज्जवाजाय - सत्थस्स खेयण्णे, से असत्थस्स खेयणे । जे असत्थस्स खेयपणे से पज्जवजाय - सत्थस्स खेयण्णे । अर्थात् जो क्षेत्रज्ञ होता है वह कामनाओं के प्रति अप्रमत्त, असंयत प्रवृत्तियों से उपरत, वीर और आत्मगुप्त - अपने आप में सुरक्षित होता है । जो विषयों के विभिन्न पर्यायों में होने वाले शस्त्र ( असंयम) को जानता है, वह अशस्त्र ( संयम ) को जानता है । जो अशस्त्र को जानता है वह शस्त्र को जानता है । तापर्त्य यह है कि क्षेत्रज्ञ अप्रमत्त, संयत, वीर, आत्मगुप्त होता है । भाष्यकार श्री महाप्रज्ञजी ने इसकी व्याख्या की है— क्षेत्र शब्द के पांच अर्थ हैं - शरीर, काम, इन्द्रिय-विषय, हिंसा और मन वचन काया की प्रवृत्ति । जो पुरुष इन सबको जानता है वह क्षेत्रज्ञ है ।" गीता-गायक गोविन्द की दृष्टि में क्षेत्र शरीर है और जो शरीर को जानता है वह क्षेत्रज्ञ है इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते । एतद् यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञः इति तद्विदः ॥ " श्वेताश्वर०, मैत्रेयी०, स्वरूपोपनिषद् आदि में क्षेत्रज्ञ शब्द का प्रयोग मिलता है | श्वेताश्वरोपनिषद् में जीवात्मा के अर्थ में क्षेत्रज्ञ शब्द विनियुक्त है प्रधानक्षेत्रज्ञपतिर्गुणेशः । " आचार्य शंकर ने इसके भाष्य में क्षेत्रज्ञ का अर्थ विज्ञानात्मा किया है - क्षेत्रज्ञो विज्ञानात्मा ।" अन्यत्र क्षेत्रज्ञ शब्द का प्रयोग इस प्रकार है - चेतामात्रः प्रतिपुरुषः क्षेत्रज्ञः (मैत्रेयी० २. ५) परं ब्रह्मधाम क्षेत्रज्ञमुपैति ब्राह्मणोपनिषद् | कर्त्ता जीवः क्षेत्रज्ञ :- स्वरूपोपनिषद् १ । तत्र तत्र प्रकाशते चैतन्यं स क्षेत्रज्ञ इत्युच्यते-- स्वरूपो० २ । गीता १३.२,२६,३४ ॥ १०. आत्मा - आत्मस्वरूप प्रतिपादन में दोनों परम्पराओं में समानताएं और विषमताएं हैं। आचारांग की दृष्टि में जीव और आत्मा एक है। कर्मबन्ध में फंसा हुआ जीव दुःखी एवं पीड़ित होता है, लेकिन कर्मबन्ध के कटते ही वह सर्वतन्त्र स्वतन्त्र हो जाता है । सर्वज्ञ होता है। दोनों ने आत्म- प्रतिपादन में उभयदृष्टिकोण - व्यावहारिक नय ( व्यावहारिक दृष्टि ) और निश्चय नय (पारमार्थिक दृष्टि ) का उपयोग किया है । व्यावहारिक दृष्टि से वह आत्मा किंवा जीव शरीरवान्, देही, रक्तमांस मज्जायुक्त शरीर वाला और मरणधर्मा है । श्वेताश्वरोपनिषद् में कहा गया है गुणान्वयो यः फलकर्मकर्ता कृतस्य तस्यैव स चोपभोक्ता । स विश्वरूपस्त्रिगुण स्त्रिवत्र्मा प्राणाधिपः संचरति स्वकर्मभिः || २१, अंक २ १४५ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् जीव गुणों से सम्बद्ध, फल का कर्ता एवं भोक्ता, विभिन्न रूपों वाला, त्रिगुणमय, तीन मार्गों से गमन करने वाला, प्राणों का अधिष्ठाता और अपने कर्मों के अनुसार विभिन्न योनियों में गमन करने वाला है। आचारांग का भी यही दृष्टिकोण कर्मग्रन्थि के भेदन होते ही वह (जीवात्मा) शुद्धात्मा अथवा परमात्मा बन जाता है । उसके शुद्ध स्वरूप के निरूपण में किंचित् भेदाभेद है । १०.१. समानताएं १०.१.१. दोनों ने आत्मनिरूपण प्रसंग में व्यतिरेक पद्धति का सहारा लिया है । २. वह आत्मा शब्दादि से अग्राह्य है-'सव्वेसरा णियति, तक्का जत्थ ण विज्जई, मई तत्थ न गाहिया' अर्थात् सब स्वर लौट आते हैं (शब्द के द्वारा आत्मा का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता है) वहां कोई तर्क नहीं है (आत्मा तर्कगम्य नहीं है), तथा वह मति के द्वारा ग्राह्य नहीं है । उपनिषदों में अनेक स्थल पर यही ध्वनि सुनाई पड़ती है --- यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह-तैत्तिरीय०, २२ नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यो न चक्षुषा-कठो०, २.३.१२ नैषा तर्केण मतिरापनेया-कठो० १.२.९ । न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग् गच्छति नो मन:-केन०, १.३ न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा-मुण्डक०, ३.३.१ नायमात्मा प्रवचनेन लभ्य : न मेधया न बहुना श्रुतेन -- मुण्डक०, ३.२.३ कठोप०, १.२.२३ ३. वह शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंधादि से रहित हैआचारांग सूत्र-ण किण्हे, ण णीले, ण लोहिए, ण हालिद्दे, ण सुक्किल्ले आ०, ५.१२८ ण सुरभिगंधे ण दुरभिगंधे --- आ०, ३.१२९ अरूवी सत्ता-आ०, ५.१३८ अ पयस्स पयं णत्थि, ५.१३९ मुण्डकोपनिषद् में इसी स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है यत्तद्रेश्यमग्राह्यमचक्षुश्रोत्रमपाणिपादम् -- मु०, १.१.६ ४. वह स्त्री-पुरुष लिंगभेद से रहित है ण इत्थी ण पुरिसे ण अण्णहा--आचा०, ५.१५५ नैष स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसक:--- श्वेताश्वर०, ५.१० ५. वह प्रज्ञान अथवा ज्ञानस्वरूप है परिणे सण्णे (आ० ५.१३६) अर्थात् वह परिज्ञ है, संज्ञ है, सर्वत: चैतन्य है । बृहदारण्यक में कहा गया है-प्रज्ञान धन एव (५.३.१५) अत्रायं पुरुषः स्वयं ज्योतिः (बृह०)। ब्रह्मसूत्र २.३.१८ -ज्ञोऽत एव अर्थात् वह ज्ञाता है । जन्म-मृत्यु से रहित होने के कारण वह ज्ञाता है। १४६ तुलसी प्रज्ञा Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. वह अजन्मा है तथा उसका कभी विनाश नहीं होता आचारांग सूत्र में कहा गया है-ण रुहे (५.१३३) अर्थात् वह जन्मधर्मा नहीं है तथा से ण छिज्जइ ण भिज्जइ ण डज्झइ ण हम्मइ (३.५८) अर्थात् वह न किसी से छेदा जाता है, न भेदा जाता है, न जलाया जाता है और न मारा जाता है। कठोपनिषद् में यमराज कहते हैं-न जायते म्रियते (१.२.१८) । १०.२. विषमताएं १०.२.१. औपनिषदिक आत्मा नित्य, विभू, एक तथा सभी जीवों में व्याप्त है-एष सर्वेषु भूतेष गुढो आत्मा (कठो० १.३.१२) ईशावास्यमिदं सर्व-ईशा । परन्तु जैन- दर्शन की दृष्टि में वह नित्यानित्य, प्रतिशरीरभिन्न, अनन्त तथा शरीरमात्रव्यापी है। २. औपनिषदिक आत्मा अपरिणामी है । उत्पत्ति विनाश से रहित शाश्वत सत्ता का नाम है आत्मा । परन्तु जैनदृष्टि में वह ध्रुवाध्रुव है । ३. औपनिषदिक आत्मा ही केवल जगत् कारण है। उसी से सम्पूर्ण संसार उत्पन्न होता है तथा उसी में विलीन हो जाता है। मुण्डकोपनिषद् में तीन दृष्टान्तों के द्वारा इस तथ्य का प्रतिपादन किया गया हैयथोर्णनाभिः सृजते गृह्नते च, यथा पृथिव्यामोषधयः सम्भवन्ति । यथा सतः पुरुषात्केशलोमानि, तथाक्षरात्सम्भवतीह विश्वम् ॥ अर्थात् जिस प्रकार मकड़ी जाले को वनाती है और निगल जाती है, जिस प्रकार पृथिवी से नाना प्रकार की औषधियां उत्पन्न होती हैं तथा जीवित. मनुष्य से केश-रोएं निकलते हैं उसी प्रकार अविनाशी परब्रह्म से सब-कुछ उत्पन्न होता है (सारा विश्व उत्पन्न होता है)। श्वेताश्वर० में कालादि की कारणता को अस्वीकार कर मात्र परमात्मा को ही सम्पूर्ण संसार (कालादि का भी) कारण माना है लेकिन जैनदर्शन में काल, स्वभावादि को सम्मिलित कारण माना गया है । कर्मवाद, पुनर्जन्म आदि विषयक धारणाओं में भी समानता है। अलग स्वतंत्र शोध-प्रबन्धों में इन सब पर प्रकाश डाला जा सकता है । संदर्भ: १. ईशावास्योपनिषद्, १ २. बृहदारण्यकोपनिषद् २.४.३ ३. तत्रैव, १.४.१० ४. नृसिंहोत्तरतापनीयोपनिषद्, ९ ५. आचारांगसूत्र १.१.१.४ खंड २१, अंक २ १४७ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. आचारांगसूत्र, १.१.१.२ । । ७. कठोपनिषद्, १.१.२७ ।। ८. ईशावास्योपनिषद्, २ ९. तत्रव, १५ १०. कठोपनिषद्, १:१.१०, १:१.१३, १:१.२०? ११. तुलसी प्रज्ञा-XIX-4, Jan.-March, 1994 में प्रकाशित 'प्रश्न व्याकरण में __ अहिंसा' १२. आधारांगसूत्र, ४.२१ १३. तत्रैव, ५.१०१ १४. आचारांगसूत्र, ५.५१] १५. तत्रैव, ४.४ १६. तत्रैव, ४.१ १७. ईशावस्योपनिषद्, ६,७ १८. प्राणाग्निहोत्रोपनिषद्, ४ १९. आरुणिकोपनिषद्, ३ २०. दत्तात्रेय योगशास्त्र, श्लोक संख्या ६५ २१. प्रश्न व्याकरण-प्रथम संवर द्वार का उपोद्धात २२. आचारांग, ४.२ २३. दशवकालिक चूर्णि २४. आचा०, ३.४० २५. आचारांग भाष्य, पृ० १७७ २६. आचारांग, ३.६५-६६ २७. आचारांग सूत्र, २९७ २८. मुण्डकोपनिषद्, ३.१.६ २९. तैत्तिरीयोपनिषद्, १.११.१ ३०. बृहदारण्यकोपनिषद्, १.४.१४ ३१. आचारांग भाष्य, पृ० १५ ३२. तत्रैव, ४.४४ पर भाष्य पृ० २२७ ३३. आचारांग सूत्र, ४.४४ ३४. तत्रैव, ५.७८-८४ ३५. तत्रैव, ८.५८ ३६. तत्रव, ५.८७ ३७. मुण्डकोपनिषद्, २.१.७ ३८. प्रश्नोपनिषद्, १.२ ३९. तत्रैव, १.१० ४०. छान्दोग्योपनिषद्, ८.४.३ तुलसी प्रज्ञा. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. तत्रैव, २.२३.२ ४२. तत्रैव, ४.३.५ ४३. आरुणिकोपनिषद्, १ ४४. आचारांग सूत्र, ५.३९ ४५. तत्रव, २.११७ ४६. तत्रव, २.११६ ४७. तत्रैव, ८.२५ ४८. तेजोबिन्दूपनिषद्, ३ ४९. जाबालोपनिषद्, ५ ५०. योगसूत्र, २.३० ५१. कठोपनिषद्, १.१.२७ ५२. तत्रैव, १.१.२६ ५३. योगभाष्य, २.३२ ५४. गीता, १७.१४-१६ ५५. भारतीय दर्शन परिभाषा कोश, पृ० १०२ ५६. तत्त्वार्थ सूत्र, ९.३ ५७. तत्रव, ९.१९-२० ५८. तैत्तिरीयोपनिषद्, ३.३ ५९. मुण्डकोपनिषद, १.८ ६०. अपरोक्षानुभूति, १२३ ६१. ब्रह्मसूत्र, १.१.१ पर श्री भाष्य (रामानुजाचार्यकृत) ६२. तत्त्वार्थ सूत्र, ९.२७ ६३. योगसूत्र, ३.२ ६४. मण्डलब्राह्मणोपनिषद, पृ० ३४७ ६५. मुण्डकोपनिषद्, १.८ ६६. प्रश्नोपनिषद्, ५,५ ६७. सुश्रुतसंहिता, शारीर स्थान, २.५७ ६८. आचारांगभाष्य, पृ० २० ६९. मुण्डकोपनिषद्, १.२.१३ ७०. वेदान्तसार, पृ० २४ (व्याख्याकार श्री बदरीनाथ शुक्ल, मोतीलाल० १९७९) ७१. तत्रैव, पृ० ६९ ७२. तत्रव, पृ० ६९ (हिन्दी व्याख्या में उद्धृत) ७३. ईशावास्योपनिषद्, १६ ७४. आचारांग सूत्र, ९.१६ ७५. सत्रव, १.१४७ ७६. तत्रक, ३.७४ .खंड २१, अंक २ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७. ईशावास्य०,७ ७८. छान्द०, ७.१.३ ७९. वृह०, ३.७.१. ८०. मैत्रेयी०, ६.३३ ८१. गीता, ६.२९,३२ ८२. आचारांग सूत्र, ३.१६-१७ ८३. आचारांग भाष्य (३.१६ पर) पृ. १६८ ५४. गीता, १३.१ ८५. श्वेताश्वर०, ६.१६ ८६. तत्रैव (६.१६ पर) शांकर भाष्य ८७. तत्रैव, ५.७ ८८. मुण्डको०, १.१.७ ८९. श्वेताश्वर० १.१.३ -प्राकृत भाषा एवं साहित्य विभाग, जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं तुलसी प्रसा Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सारस्वतव्याकरण' में समास सारस्वतत्र्याकरण में प्राप्त समासों का उल्लेख करने से पूर्वं समास की परिभाषा इत्यादि के विषय में ज्ञान होना आवश्यक है । सारस्वत ग्रन्थ प्रणेता अनुभूतिस्वरूपाचार्य अर्थवद् विभक्तिविशिष्ट पदों को समास कहते हैं "आर्थवद्धिभक्तिविशिष्टानां पदानां समासो निरूप्यते ( १ ) " । पाणिनि व्याकरण में समास की परिभाषा दी गई है- [ डॉ० लज्जा पंत " समसनं समास: ( २ ) " । " पद का तात्पर्य अर्थयुक्त तथा स्यादि विभक्त्यन्त से है । अन्य लोगों ने भी समास की भिन्न-भिन्न परिभाषाएं दी हैं । यथा "उक्तमपि प्रसादकृक्ता -" ऐकपद्य मित्युपलक्षण मे कस्वर्यमे कविभक्तिकत्वं च ।” "धर्मकीर्तिनाप्युक्तम् —– एकपद्यमैकस्वर्यमेकविभक्तिकत्वं च समास प्रयोजनम् (३) । " समास कहां पर होता है ? इस हेतु सारस्वतकार ने सूत्र दिया है- "समासचान्वये नाम्नाम्' अर्थात् नाम शब्द तथा अन्वय के योग से समास होता है। यहां "च" से तात्पर्य तद्धित से भी है । अतः भार्या पुरुष इत्यादि में अन्वय विपरीत होने के कारण समास नहीं होता । जैसा कि उक्त सूत्र की वृत्ति में भी कहा गया है "नाम्नामन्वययोग्यत्वे सत्येव समासो भवति । चकारात्तद्धितोऽपि । ततो भार्या पुरुषस्येत्यादौ समासो न भवति ( पृ० २३४ सा० व्या० ) सारस्वतकार ने समास के छः भेद बताये हैं अव्ययीभाव समास । तत्पुरुष समास । द्वन्द्व समास । बहुब्रीहि समास । कर्मधारय समास । द्विगु समास । इसे इस प्रकार व्याख्यात किया है "अव्ययस्य अव्ययेन वा भवनं सोऽव्ययी भावः । स एवाग्रिमः पुरुषः प्रधानं यस्यासो तत्पुरुषः द्वन्द्वायते उभयपदार्थो येनासो द्वन्द्वः । बहुब्रीहि प्रधानं यस्मि - नसी बहुब्रीहिः । कर्म भेदकं धारयतीति कर्मधारयः । द्वाभ्यां गच्छतीति द्विगु: ( पृ० २२६, टिप्पणी अंश) । " समास के भेद बताने के उपरान्त समास का प्रयोजन अथवा उद्देश्य क्या है ? यह जानना श्रेयस्कर है । वास्तव में अनेक पदों का विभक्ति-लोप करके एकपद करना ही समास का प्रमुख प्रयोजन है— "ऐकपद्यमेकस्वयं मे कविभक्तिकत्वं " च समास प्रयोजनम् (सा० व्या० पृ० २३७) ।” उदाहरणार्थ – देवश्च - देवश्च - देवश्च । यहां तीन पद हैं । यदि इन्हें संक्षेप में कहां जाय तो "देवाः " से ही उक्त का बोध हो जाता है । अतः कहने का आशय यह खण्ड २१, अंक २ १५१ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है-"समासे उच्चारण प्रयत्नलाघवं स्यात्" अर्थात् उच्चारण में प्रयत्नलाघव ही समास का उद्देश्य है । इस सम्बन्ध में सारस्वतकी चन्द्रकीर्ति टीका में भी कहा गया है : "विभक्तिलृप्यते यत्रतदर्थस्तु प्रतीयते । ऐकपद्य पदानां व स समासोऽभिधीयते । (४) समास के विषय में उक्त विवेचन के उपरान्त अव्ययीभाव समास (जो समास का प्रथम भेद है) के विषय में निरूपण करते हैं। अव्ययीभाव समास अव्ययीभाव समास में प्रायः पूर्वपद के अर्थ की प्रधानता होती है-"तत्र पूर्व- . पदप्रधानोऽव्ययी भावः (पृ० २३६)।" अव्ययीभाव समास संज्ञक सूत्र दिया गया है'पूर्वेऽव्ययेऽव्ययी भावः (५)।" अर्थात् अव्यय के पूर्वपद में रहने पर जो अन्वय है वह अव्ययीभाव संज्ञक समास होता है । यथा-"अधिस्त्रि गहकार्यम्"। "अधिस्त्रि" यह समस्त पद है। यहां "पूर्वेऽव्ययेऽव्ययी भावः" सूत्र से समास हुआ है। "अधिस्त्रि" का लौकिक विग्रह है-"स्त्रियाम् इति"। यहां समास का अवयव "स्त्रि" शब्द विग्रह में आया है। "अधिस्त्रि" का अलौकिक विग्रह है-अधि+स्त्री+डि. इस अलौकिक विग्रह में समास हुआ है “अधि" अव्यय सप्तमी विभक्ति के अर्थ अधि-करण का वाचक है । यह सुबन्त है । अतः "पूर्वेऽव्ययेऽव्ययीभावः सूत्र से उक्त की अव्ययीभाव समास संज्ञा हुई । तदनंतर सूत्र दिया गया है "समासे प्रत्ययो:-समासे वर्तमानाया विभक्तेः प्रत्यये परे च विभक्तेलंग्भवति (पृ. २३९)।" भतः इस सूत्र द्वारा विभक्ति लोप होने पर अधिस्त्रि हुआ। “स नपुंसकम् (ध) सूत्र के अनुसार अव्ययीभाव समास नपुंसक लिंग होता है । नपुंसकलिंग होने पर अग्रिम सूत्र दिया गया है अव्ययी भावात्" अर्थात् अव्ययीभाव से परे विभक्ति का लोप होता है। अतः सि विभक्ति का लोप होने पर "भधिस्त्रि" रूप हुआ है। यथा शब्द यदि भसादृश्य अर्थ में प्रयुक्त हो तो वहां अव्ययीभाव समास "यथाsसादृश्ये" सूत्र से होता है । यथा---शक्तिमनतिक्रम्य करोति इति यथाशक्तिः। शक्तिम् यह द्वितीया विभक्ति एकवचन का रूप है । यथा शब्द पूर्व में होने के कारण" पूर्वेऽव्ययेऽव्ययीभावः सूत्र से इसकी भव्ययीभाव समास संज्ञा हुई। "अव्ययीभावात्" सूत्र से विभक्ति लोप होकर "यथाशक्ति" रूप सिद्ध हुआ। यहां 'यथाशक्ति' का तात्पर्य शक्त्यनुसारेण करोति-से है। सादृश्य अर्थ में समास नहीं होता। यथा-"यथाविष्णुस्तथा शिवः, अत्र न समासः। तत्पुरुष समास तत्पुरुष समास में प्रायः उत्तरपद के अर्थ की प्रधानता होती है। यहां तत्पुरुषसंज्ञक समास करने हेतु कहा गया गया है-द्वितीयान्त भादि पद के पूर्व पद में स्थित रहते जो अन्बय है वह तत्पुरुष संशक समास होता है। इस हेतु सूत्र दिया गया है"अमादीतत्पुरुषः-द्वितीयाद्यन्ते पूर्वपदे सति योऽन्वयः स तत्पुरुषसंज्ञक समासो भवति । १५२ तुलसी प्रज्ञा Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनका उदाहरण है-"ग्राम प्राप्तः । विग्रह-प्रामं प्राप्तः । उक्त सूत्र में "अमादो" सूत्र का प्रयोग किया गया है। यहां अमादो से तात्पर्य द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी तथा सप्तमी विभक्तियों से है। ग्राम प्राप्तः यह द्वितीयान्त पूर्वपद है । यहां अमादो तत्पुरुषः सूत्र से विभक्ति लोप होने पर नाम संज्ञा होने के कारण प्रथमा एकवचन में प्राप्त 'सि" के सकार को विसर्गादेश होकर "ग्राम प्राप्तः रूप सिद्ध हुभा। ___ इसी प्रकार दात्रेण छिन्न-दाछिन्न (तृतीय एकवचन) यूपायदारू-यूपदार (चतुर्थी एकवचन) । वृकेभ्यो भयं-बुकभयम् (पंचमी तत्पुरुष)। राज्ञः पुरुषोराजपुरुषः (षष्ठी तत्पुरुष)। अक्षेषु शौण्ड: अक्षशौण्ड : (सप्तमी तत्पुरुष) इत्यादि उदाहरण तत्पुरुष समास के अन्तर्गत देखने को मिलते हैं। ___ "क्वचिदमाद्यन्तस्य परत्वम (पृ० २४५)" अर्थात् तत्पुरुष समास में वर्तमान द्वितीयाविभक्त्यन्त प्रथमान्त पूर्वपद के परे भी होता है, किन्तु ऐसा कहीं-कहीं देखने को मिलता है सर्वत्र नहीं । यथा-अग्नी आहित इति आहिताग्निः । पूर्व भूत इति भूतपूर्वः । नत्र पूर्वपद में रहते जो अन्वय है वह तत्पुरुषसमास संज्ञक होता है-"ननिनबि पूर्वपदे सति योऽन्वयः स तत्पुरुषसंज्ञकः समासो भवति (पृ. २४६)"। यथा-न ब्राह्मणः । यहां न पूर्वपद में होने के कारण तत्पुरुषसमास हुआ है। समास होने पर नन् (न) को अकारादेश होता है" नाकादि को छोड़कर (७)। अतः न को अकारादेश होकर "अब्राह्मणः रूप बना ।" नाकादिवर्जमं से तात्पर्य नाकः । नागः । नमुचिः। नक्षत्रं । नखं । नपुसंकं । नकुलः । इत्यादि से है। यहां न को आकार नहीं होता। तत्पुरुष समास के अन्तर्गत एक कार्य यह भी बताया गया है- समास के रहते न को अन् आदेश होता है स्वर परे रहते । इस हेतु सूत्र दिया गया है—"अन् स्वरे" यथा-अनश्वः । विग्रह न अश्वः । यहां 'नमि' सूत्र से समास होने पर "समास प्रत्ययोः सूत्र से विभक्ति लोप हुआ। “अश्व" शब्द परे रहते । "अन् स्वरे" सूत्र से न को अनादेशे होकर "अनश्वः" रूप सिद्ध हुआ। इसी प्रकार अन्य कई उदाहरण हमें तत्पुरुषसमास से संबंधित मिलते हैं। द्वन्द्वसमास सारस्वतकार के अनुसार समुच्चय, अन्वाचय, इतरेतरयोग तथा समाहार इन चार अर्थों में द्वन्द्वसमास होता है । इस हेतु सूत्र दिया गया है-“चार्थे द्वन्द्वः (१० २४७)।" प्रक्रिया कोमुदी में द्वन्द्व समास की परिभाषा दी गई है--"उभयार्थ-प्रधानो द्वन्द्वः" इति स च दे॒धा-इतरेतरयोगार्थः, समारारार्थश्च (छ)।" पाणिनि ने इस हेतु सूत्र दिया है -"चाऽर्थे द्वन्द्वः (२।२।२९)" यद्यपि सारस्वतकार का दिया हुआ सूत्र पापिनि से मिलता है तथापि दोनों की वृत्ति भिन्न है। "लघुसिद्धान्तकौमुदी' में उक्त सूत्र की वृत्ति दी गई है अनेक सुबन्तं चाऽर्थे वर्तमानं या समस्यते, स द्वन्द्वः । समुच्चयाऽन्वापयेतरेतरयोग-समाहारा चाऽर्था (९)॥" द्वन्द्व समास की परिभाषा देने के उपरान्त द्वन्द्व समास में पदों की समानता होने खण्ड २१, अंक २ १५३ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर कौन शब्द पहले प्रयोग किया जाना चाहिए ? यह शंका उत्पन्न होती है । इस शंका के समाधान हेतु सूत्र दिया गया है- " द्वन्द्वऽल्पस्वरप्रधाने कारोकारान्तानां पूर्वं निपातो वक्तव्यः ( पृ० २४८ ) " अर्थात् द्वन्द्वसमास में अल्प स्वरों वाले पद, इकारान्त तथा उकारान्त पद पूर्व निपात के रूप में प्रयोग किये जाते हैं। यहां उकारान्त का उदाहरण ग्रन्थकार ने दिया है - "पटुगुप्ती" विग्रह-पटुश्च गुप्तश्च । यहां समान स्वर होने पर भी उकारान्त होने के कारण 'पटु' शब्द का पहले प्रयोग किया गया है । अतः "चार्थे द्वन्द्व : " सूत्र से द्वन्द्व समास होने पर “समास प्रत्यययोः " सूत्र से विभक्तिलोप तथा " उक्तार्थानामप्रयोगः सूत्र द्वारा चकार लोप हुआ । इतरेतरयोग होने पर "इतरेतरयोगे द्विवचनम् " के आधार पर प्रथमा के द्विवचन में 'ओ" विभक्ति प्राप्त हुई । तत्पश्चात “ओ ओ ओ" सूत्र से औकार होकर "पटुगुप्ती" सिद्ध हुआ । " द्वन्द्वसमास के अन्तर्गत एक विशेष सूत्र दिया है " देवता द्वन्द्वे पूर्व पदस्य वा दीर्घो वक्तव्यः” अर्थात् देवता वाचक शब्दों में द्वन्द्वसमास होने पर पूर्वपद के अन्त्य - स्वर को दीर्घ होता है । यथा - " अग्नीषोमी" विग्रह-अग्निश्च सोमश्च । " चार्थेद्वन्द्व " सूत्र से द्वन्द्वसमास होने पर " समासे प्रत्ययो: " सूत्र से विभक्तिलोप होकर " उक्तार्थानामप्रयोगः " के आधार पर चकार लोप हुआ । अतः अग्नि सोम यह स्थिति होने पर "देवताद्वन्द्वे पूर्वपदस्य सूत्र से अग्नि शब्द को दीर्घ ईकार हुआ । देवता होने के कारण । तदनन्तर सूत्र दिया गया है – “अग्न्यादेः सोमादीनां षत्वं वक्तव्यम | " यह सूत्र अग्नि आदि से परे सोमादि के सकार को षकारादेश करता है । अतः उक्त सूत्र द्वारा सकार को षकारादेश होने के कारण यहां " क्विलात्षः सः " सूत्र का प्रयोग नहीं होता । अतः प्रथमा के द्विवचन में "ओ" विभक्ति प्राप्त होने पर ओकार होकर "अग्नीषोमी" रूप सिद्ध हुआ । O समाहार द्वन्द्व में एकवद् भाव अथवा एकवचन करने हेतु सूत्र दिया गया है" एकवद भावो वा समाहारे वक्तव्यः ।" यह सूत्र विकल्प से एकवचन करता है । पक्षान्तर में बहुवचन ही रहेगा । यथा -- शशाश्च कुशाश्च पलाशाश्च - मा शशकुशपलाशम पक्षे - शशकुशपलाशाः । इसकी सिद्धि पूर्व प्रक्रियानुसार ही होगी । मात्र एकवचन अथवा बहुवचन करने हेतु "एकवद् भावो वा समाहारे वक्तव्यः " सूत्र का प्रयोग किया जाएगा । द्विगुसमास द्विगुसमास के लक्षण को बताने हेतु ग्रन्थकार ने सूत्र दिया है- "संख्या पूर्वो द्विगु: - संख्यापूर्वः समासो द्विगुनिर्गथते ( पृ० २५२ ) " अर्थात् संख्यावाची शब्द यदि पूर्व में हो तो वहां द्विगु समास होता है। वहां भी द्विगुसमास करने हेतु उक्त सूत्र (१०) ही दिया गया है । " काशिका" में इसकी वृत्ति दी गई है— "तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च" इत्यत्र यः संख्यापूर्वः समासः स द्विगुसंज्ञो भवति । ( २।१।५२ ) ।” द्विगु को तत्पुरुष नाम यद्यपि पाणिनि ने दिया है । तथापि यहां एक संज्ञा नियम में बाधा सी प्रतीत होती है । पाणिनि ने द्विगु की तत्पुरुष संज्ञा हो जाने पर तत्पुरुष १५४ तुलसी प्रज्ञा Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संशा को मानकर ही रूप संरचना को बताया है । 'द्विगु' तत्पुरुष का भेद मात्र है। सारस्वतकार ने द्विगुसमास का पृथक् अस्तित्व निर्धारण किया है। जिससे द्विगु समास को समझने में किसी प्रकार की क्लिष्टता सामने न आये। .. सारस्वतकार ने द्विगु समास का उदाहरण प्रस्तुत किया है-दशग्रामी=दशानां ग्रामानां समाहारः । यहां संख्यावाचक पद पूर्व में होने के कारण “संख्यापूवों द्विगुः" सूत्र में द्विगु समास हुआ। यहां "दशानां" रूप षष्ठी एकवचन का है। अतः समास संज्ञा होने पर “समास प्रत्यययोः" सूत्र से विभक्ति लोप होने पर दश+ग्राम यह स्थिति हुई । इह दशा में अग्रिम सूत्र की अवतारणा की गई है-"समाहारेऽत ईप द्विगुः" अर्थात् द्विगु समास में अकारान्त परे ईप् प्रत्यय होता है। अतः उक्त सूत्र द्वारा ई (पित) आगम होने पर "दशग्रामी" रूप सिद्ध हुआ। चूंकि ईयागम पात्रादि में नहीं होता। अतः शेष स्थानों में ईप का प्रयोग नहीं होगा। यथा ___ “पञ्चाग्नयः समाहृता इति पञ्चाग्नि ।" पञ्चानां गवां समाहारः इति पञ्चगु पञ्चगवम वा" इत्यादि । "एकत्वे द्विगुद्वन्द्वो (११)" सूत्र के अनुसार एकत्वभाव में वर्तमान द्विगु तथा द्वन्द्व समास नपुंसकलिंग में होते हैं । यथा-पञ्चगवम् इत्यादि । बहुब्रीहि समास बहुब्रीहि समास करने हेतु सारस्वत कार ने सूत्र दिया है ।-"बहुब्रीहिरन्यार्थेअन्यपदार्थ प्रधानो यः समासः स बहुब्रीहि संज्ञको भवति ।" अर्थात् जिस समास में अन्य पद प्रधान होता है वह बहुब्रीहिसंज्ञक होता है। इसका उदाहरण दिया गया है"बहुधनं यस्य सः बहुधनः ।" यहां अन्य पद प्रधान होने के कारण बहुव्रीहि समास हुआ। ____ इसी प्रकार अन्य उदाहरण प्रस्तुत करते हैं -लम्बी कणों यस्य सः-लम्बकर्णः (२) । यहां यह शंका उठ सकती है-लम्बकर्ण: में अन्य पदार्थ की प्रधानता होने के कारण बहुब्रीहि समास हुआ है। किन्तु पद साम्य होने के कारण क्या "कर्णलम्बः का प्रयोग किया जा सकता है ? इस शंका के समाधान हेतु सूत्र दिया गया है"बहुब्रीही विशेषणसप्तम्यन्ततोः पूर्व निपातो वक्तव्यः (पृ० २५५)।" अर्थात् बहुव्रीहि समास में जो विशेषणभूत सप्तम्यन्त पद होता है वही पद पूर्व निपात के रूप में पहले प्रयोग किया जाता है । अतः इस सूत्र के आधार पर उक्त शंका का समाधान होकर "लम्बकर्णः ही प्रयोग होगा। ___ "रूपवद्भार्याः का विग्रह है-रूपवती भार्या यस्य सः। यहां "बहुव्रीहि रन्यार्थे" सूत्र से बहुब्रीहि समास होने पर विभक्ति लोप हुआ। “लिङ्गयर्थे प्रथमा" : सूत्र के द्वारा प्रथमा एकवचन में प्राप्त "सि" विभक्ति का "आपः" सूत्र से लोप होकर रूपवती भार्या यह शेष रहा। तदनन्तर "अन्यार्थे"-स्त्रीलिंगस्यान्यार्थे वर्तमानस्य हस्वो भवति" सूत्र से “भार्या" शब्द को हस्व होकर रूपवती भार्य यह स्थिति हुई। इसी के अन्तर्गत अग्रिम सूत्र की अवतारणा की गई है-- "पुंवद्धा-समासे सति समानाधि करणे पर्वस्य स्त्रीलिंगस्य वद्धा भवति । पुंवदभावादीयो निष्पत्ति (पृ० २५७) । उक्त खण्ड २१, अंक २ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र के आधार पर स्त्रीलिंग के रूप पुंवद होंगे । अतः ईप की निवृत्ति होने पर "रूपवत्भार्य" हुआ "चपा अबे जबाः" सूत्र से तकार को दकार होकर सकार को सिर्गादेश होने पर "रूपवद्भार्यः" रूप सिख हुआ। कर्मधारय समास पदद्वय अर्थात् जहां पूर्वपद एवं उत्तरपद दोनों एकार्थनिष्ठ अर्थात् एक ही वस्तु के वाचक हों वहां कर्मधारय समास होता है। यद्यपि अन्य वैयाकरणों ने इसे तत्पुरुष समास के अन्तर्गत माना है किन्तु सारस्वतकार इसे स्वतन्त्र मानते हैं। तथा इस हेतु सूत्र प्रस्तुत करते हैं-"कर्मधारयस्तुल्यार्थे-पदद्वये तुल्यार्थे एकार्थनिष्ठत्वेसति कर्मधारयसंज्ञकः समासो भवति ।" इस समास का उदाहरण दिया है --नीलोत्पलम्-नीलं च तदुत्पलं । यहां "नील" शब्द विशेषणभूत है तथा उत्पल शब्द विशेष्यभूत । नील शब्द विशेषण होने के कारण पूर्व में प्रयोग किया जाएगा। "गुणव्ययोराधाराधेयसंबन्धित्वात् एकार्थनिष्ठत्वम् (चन्द्रकीर्ति टीका, पृ० २६२)" के आधार पर कर्मधारय समास हुआ। "समास प्रत्यययोः" सूत्र से विभक्ति लोप होकर (उक्तार्थानामप्रयोगः) नियम के आधार पर नील उत्पल यह स्थिति हुई। "लिंगार्थे प्रथमा" सूत्र से प्रथमा एकवचन में "सि" विभक्ति प्राप्त हुई। "उ ओ" सूत्र से उकार को ओकार तथा "अतोऽस्" सूत्र से "सि" को अमादेश होकर "नीलोत्पलम्" रूप सिद्ध हुआ। कहीं समास होने पर तद्धित, कृदन्त प्रत्यय होने पर भी विभक्ति का लोप होता है तथा इस हेतु सूत्र दिया गया है--"अलुक् क्वचित् समासे तद्धिते कृदन्तेऽपि विभक्तेरलुग्भवति । "यथा-कृच्छान्नुक्तः ।" यहां तत्पुरुष समास हुआ। उक्त सूत्र द्वारा पूर्वपद की विभक्ति का लोप होकर "समास प्रत्ययोः" सूत्र से उत्तरपद की विभक्ति का लोप होने पर "लिंगार्थे प्रयमा" सूत्र से प्रथमा एकवचन में प्राप्ति सि (स) को विसर्ग होकर कृच्छान्मुक्त:/कुच्छात्मुक्तः रूप सिद्ध हुआ। निस्कर्ष समास प्रकरण के अन्तर्गत सारस्वतकार ने समास लक्षण, समासभेद इत्यादि का बड़े विस्तार से वर्णन किया है । यद्यपि अन्य व्याकरण ग्रन्थों में भी समास-प्रकरण को लिया गया है तथापि सारस्वत जैसी सरलता, बोधगम्यता कहीं देखने को नहीं मिलती। सारस्वतकार ने जिन छः समास भेदों का वर्णन किया,है उनका नाम तथा लक्षण पुनः यहां "समास दीपिका" में वर्णित श्लोकों द्वारा किया जा रहा है पूर्वऽव्ययेऽव्ययीभावोत्रमादो तत्पुरुषः स्मृतः । चकारबहलो द्वन्द्रः संख्यापूर्वो दिगुः स्मृतः।। यस्य येन बहुव्रीहिः स चासो कर्मधारयः । इति किंचित्समानां षण्णां लक्षणमीरितम् ।। (१३) इति । तुलसी प्रज्ञा Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ : १. सारस्वतव्याकरणम् पृ० २३४ २. लघुसिद्धान्त कौमुदी सम्पादक एवं व्याख्याकार-श्री धरानन्दशास्त्री, पृ. १६ ३. "प्रक्रियाकोमुदी विमर्शः" लेखक-डा० आधाप्रसाद मिश्र, पृ० ३५ ४. सारस्वतव्याकरणम्-चन्द्रकीर्ति टीका (टीकाकार-चन्द्रकीर्ति सूरि) पृ० २१८ ५. "अव्यये पूर्वपदे सति योऽन्वयः सोऽव्ययी भाव संज्ञक: समासो भवति ।" पृ. २३८ ६. "सोऽव्ययी भावः समासो नपुंसकलिंगो भवति । नपुंसकत्वाद्धस्वत्वम् ।" पृ. २३९ ७. समासे सति नबोऽकारादेशो भवति । नाकादिवर्जम् (सा• व्या०, पूर्वार्द, पृ. २४६) ८. प्रक्रिया कोमुदी विमर्शः । लेखक आद्याप्रसाद मिश्र पृ. ३८ ९. अष्टाध्यायी-२।२।२९ १०. “संख्यापूर्वो द्विगुः"-२।१३५२ ११. एकत्वे वर्तमानो द्विगुद्वन्द्वी नपुंसकलिंगो भवतः-सा. व्या० पूर्वार्द, २५२ १२. तस्य प्रधानस्यैकदेशो विशेषणतया यत्र ज्ञायते स तदगुणसंविज्ञानो बहुजीहिः सा० व्या० पृ० २५४ १३. सारस्वतव्याकरणम् की चन्द्रकीर्ति टीका से उद्धृत पृ० २७ -द्वारा/श्री महेश भट्ट शीतला मंदिर, हनुमानगढ़ नैनीताल-२६३००२ सड २१॥ बंक २ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारस्वत व्याकरण 'पंचसंधि की जोड' एक अध्ययन मुनि श्रीचंद 'कमल' 'सारस्वत' संस्कृत भाषा की व्याकरण है । इसके रचयिता श्री अनुभूतिस्वरूपाचार्य हैं । इस व्याकरण में ७०० सूत्र हैं। सरस्वती देवी से सारस्वत व्याकरण का सूत्र पाठ प्राप्त कर अनुभूतिस्वरूपाचार्य ने उसकी सरल प्रक्रिया बनाई। पाणिनीय आदि व्याकरण अति प्रौढ और अति विस्तीर्ण होने के कारण अल्पमति वाले विद्यार्थियों के लिए दुबोध्य हैं । सारस्वत व्याकरण सरल होने के कारण पठन-पाठन में लोकप्रिय है। इस व्याकरण पर अनेक आचार्यों ने टीकाएं लिखी हैं। केवल जैन आचार्यों की ही २६ टीकाओं का उल्लेख मिलता है --- नाम रचनाकार काल १. सुबोधिका आचार्य चन्द्रकीर्ति १६वीं शती का अंत २. क्रियाचंद्रिका गुणरत्न वि० सं० १६४१ ३. चंद्रिका मेधविजय अज्ञात ४. दीपिका मेघरत्न वि० संवत् १५३६ ५. धातुतरङ्गिणी आचार्य हर्षकीर्तिसूरि ६. न्याय रत्नावली दयारत्न मुनि संवत् १६२६ ७. पंचसंधि टीका सोमशील अज्ञात ८. पचसंधि बालावबोध उपाध्याय राजसी . १८वीं शती ९. प्रक्रिया वृत्ति विशालकीर्ति १७वीं शती १०. भाषा टीका आनंद निधान १८वीं शती ११. यशोनन्दिनी यशोनन्दी १२. रूपरत्नमाला नयसुंदर संवत् १७७६ (१४००० श्लोक परिमाण) १३. विद्वच्चिन्तामणी विनयसागर सूरि १८३७ (पद्यात्मक) १४. शब्द प्रक्रियासाधनी आचार्य विजयराजेन्द्रसूरि २०वीं शती १५. शब्दार्थचन्द्रिका हंसविजयगणी संवत् १७०८ १६. सारस्वत टीका सत्य प्रबोध अज्ञात १७. सारस्वत टीका सहजकीति १८. सारस्वत टीका देवचन्द्र १९. सारस्वत टीका धनसागर खंड २१, बंक २ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. सारस्वत (क्रिया) रूपमाला २१. सारस्वत मण्डनम् २२. सारस्वत वृत्ति २३. सारस्वत वृत्ति २४. सारस्वत वृत्ति २५. सिद्धान्त रत्नम् २६. पंचसंधि की जोड पद्मसुंदरगणी मण्डन उपाध्याय भानुचन्द्र सहज कीर्ति हर्ष कीर्ति सूरि जिनरत्न जयाचार्य पंच संधि कही ते मक्षं, विरुद्ध आयो ह्व कोय । ते मिच्छामि वुक्कडं, सिद्ध साखे अवलोय ॥४५॥ | पंडित जांण सिद्धन्तना, सुद्ध कर लीजो देष । करी उतावल मैं इहां, सहित माहे संपेष ॥ ४६ ॥ भीक्खू भारीमालजी, तीजे पट ऋषराय । तास प्रसाद करी रची, भाषा जयजश पाय ॥४७॥ १९०७ का इन टीकाओं में पंचसंधि की जोड नामक टीका पर यहां संक्षिप्त अध्ययन अभिधेय है । श्रीमज्जयाचार्य की यह अप्रकाशित कृति - पंचसंधि की जोड सारस्वत व्याकरण में पंचसन्धि के सूत्रों पर आधारित है । रचना के नामकरण से ही विषय स्पष्ट है । इसका रचनाकाल ईस्वी सन् १९०७ है । जोड अर्थ है - राजस्थानी भाषा में पद्यात्मक व्याख्या । सम्पूर्ण रचना दोहों में है । इसमें संज्ञा प्रकरण के ३२ दोहे, स्वर संधि के ४५ दोहे, प्रकृति भाव के १२ दोहे, व्यंजन संधि के ६४ दोहे और विसर्ग संधि के ४४ दोहे हैं। शेष ४ दोहों में आत्म निवेदन, गुरु कृपा और रचनाकाल का उल्लेख है । कुल मिलाकर २०१ दोहे हैं । इसके रचनाकार जैन श्वेताम्बर तेरापंथ के चतुर्थं आचार्य श्री जीतमलजी हैं । जो जयाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हैं । वे सत्यशोधक थे । उनमें आग्रह नहीं था । सरल हृदय से वे आत्म निवेदन में कहते हैं । यह जोड मैंने उतावलपण में की है । कहीं अशुद्ध या व्याकरण के सिद्धांत के विरुद्ध लिखा गया हो तो इस विषय के पंडित शुद्ध कर लें । ग्रंथ की रचना विक्रम संवत् १९०७ फाल्गुन कृष्णा २ सोमवार को जोमनेर ( जोबनेर ) में हुई। अंतिम के दोहों में इसका उल्लेख इस प्रकार है I संवत उगणीसे सही, सातै फागुण मास । विद पष बीज सुसोमवार, जोमनेर सुख वास ॥ ४८ ॥ संवत् १७४० १५वीं शती १७वीं शताब्दी १६८१ अज्ञात अज्ञात जयाचार्य अपने को रचना में जय जश नाम से उल्लेख करते हैं । ख के स्थान पर का प्रयोग हुआ है, जिसका उच्चारण 'ख' किया जाता था । रचना का इतिहास - इस रचना के पीछे एक घटना है। जयाचार्य जैन आगमों का गहराई से अध्ययन करना चाहते थे । आगमों की टीका संस्कृत भाषा में है । संस्कृत न जानने के कारण आगमों के गूढ रहस्यों को पकड़ने में वे कठिनाई की अनुभूति कर रहे थे । उनके १६० तुलसी प्रज्ञा Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन में संस्कृत पढ़ने की प्रबल इच्छा थी । अवैतनिक रूप में कोई ऐसा पंडित नहीं मिल रहा था जो संस्कृत पढ़ा सके; किन्तु जयाचार्य की इस प्रबल भावना को सफल होने का एक मार्ग मिल गया । एक श्रावक का लड़का प्रतिदिन रात्रि के समय जयाचार्य का दर्शन करने आता था। एक दिन वह दर्शन करके पास में बैठ गया । जयाचार्य ने सहज भाव से पूछातुम क्या पढ़ते हो ? उसने कहा मैं संस्कृत - व्याकरण पढ़ता हूं। ऐसा सुनते ही जयाचार्य का मन प्रसन्नता से भर गया। आपने कहा दिन में स्कूल में जो तुम व्याकरण पढ़ते हो, रात्रि के समय वह मुझे बताया करो। उसने वैसा ही किया । दिन में जो पढ़ता उसको रात्रि में बताने लगा। बालक जितना ग्रहण कर सकता था, याद रख सकता था और अभिव्यक्त कर सकता था, उतना बताता था । कई बार जयाचार्य की शंकाओं का समाधान न कर वह स्वयं उलझ जाता था । ग्रहणशील और तीक्ष्ण बुद्धि के कारण जयाचार्य विषय को पकड़ लेते थे । उन सुने हुए सूत्र, वृत्ति, कारिका और उदाहरणों को स्मृति में रख लेते और दूसरे दिन राजस्थानी भाषा में उन पर पद्यों की रचना कर लेते थे । इस क्रम से पंच संधि की साधनिका पर २०१ पद्यों की रचना हो गई। उस समय जयाचार्य की अवस्था २१ वर्ष की थी । ग्रंथ की उपयोगिता श्री अनुभूतिस्वरूपाचार्य ने सरस्वती का वरदान पाकर सरल प्रक्रिया बनाई । श्रीमद् जयाचार्य ने उस सरलता में एक कड़ी और जोड़ दी । अल्पबुद्धि वालों को भाषा ( राजस्थानी भाषा) में ही पंच संधि का ज्ञान कराने के लिए यह पद्यानुवाद सहयोगी बन गया । ग्रंथ की भाषा सरल है और जोड में संस्कृत व्याकरण के सूत्रों, वृत्ति, कारिका तथा उदाहरणों का संपूर्ण समावेश हुआ है । कुछेक सूत्रों का दोहों के साथ अध्ययन करें । जैसे "अवर्जा नामिनः " यह सूत्र है। सूत्र का अर्थ है अ को छोडकर स्वरों की नामि संज्ञा होती है । इसके लिए दोहा है अ आ वर्ज द्वादशा स्वर, नामि संज्ञ निहाल । प्रत्याहार कहूं हिवै, व्यंजन स्वर सुविशाल ॥ -संज्ञाप्रकरण दोहा ६ अ और आ को छोड़कर शेष स्वरों की नामि संज्ञा होती है । प्रत्याहार में सारे व्यंजनों को इस प्रकार व्यवस्थित किया गया है कि आदि और अंत के व्यंजन को मिलाकर एक संज्ञा दी जाती है । बीच के सारे व्यंजन प्रत्याहार के अनुसार ग्रहण किए जाते हैं । इसके बाद एक सूत्र है- “आद्यन्ताभ्यां " और इसके लिए दोहे हैं आदि अंत ने वर्ण करि, ग्रहण करता सोय । मध्यम वर्ण ग्रहि जियं, आद्यंत संज्ञा होय ॥७॥ अकार बकार करि ग्रहित, मध्यम वर्ण अब नाम । इम इल प्रत्याहार हूँ, कहिये समझ तमाम ॥ ८ ॥ २१, अंक २ - -संज्ञाप्रकरण दोहा ७, ८ १६१ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र-कार्यायेत् । किसी काम के लिए कोई वर्ण ग्रहण किया जाता है उसकी इत् संज्ञा होती है । काम होने के बाद इत् का लोप कर दिया जाता है। इस पर दोहा देखिए किण ही कार्य नै अर्थ जे, कीज वर्ण उचार । ते वर्ण इत् संज्ञा कह्यो, तसु करि लोप विचार ॥१०॥ व्याकरण शास्त्र में किसी का लोप किया जाता है और किसी को लुक किया जाता है । लोप और लुक में क्या अंतर है ? इस रहस्य को दोहों में पढिए वर्ण अवर्शन लोप कह्म, वर्ण नाश जहां होय । पिण संधि नौ नहि नाश त्यां, लोप कहीजे सोय ॥११॥ लोपश् वर्ण विरोध ज्यां, एक वर्ण नौ नाश । अन्य वर्ण उत्पत्ति नहि, संधि न होवे तास ॥१२॥ प्रत्यय नौं अणदेखवौ, लुक् कहिये तसुं नाम । लुक् कीधे तसं निमित्त लक्ष, किंचित् नहि तिहां ठाम ॥१३॥ आगम, आदेश और संयोग संज्ञा को समझने के लिए निम्न दोहा है। मित्र तुल्य आगम कह्यो, शत्रु तुल्य आदेश । हस स्वर रहित अनेक हस, संजोग तास कहेश ॥ --संज्ञाप्रकरण दोहा १४ जयाचार्य ने अपने दोहों में सारस्वत व्याकरण के प्रत्येक सूत्र के जितने पद हैं उनको सूत्र के साथ अंकों में उल्लिखित किया है। दोहों में अंकों के साथ कहीं कहीं वर्गों में भी उसका उल्लेख किया है । सूत्र-"न षि" न बि २ द्विपद ष पर छते, तवर्ग नो टु नाहि । भवान् षष्ठः रहे मूलगो, न को ण नहि थाय ॥ -~-(व्यंजन संधि, दोहा २५) नषि सूत्र है । इसमें न और षि दो पद हैं। दोहे में षि के आगे २ का अंक है और उससे आगे अक्षरों में द्विपद शब्द है । सूत्र-नःसक छते। इसके लिए दोहा है नः सक् छते ३ त्रिपद कह्या, नांत पद अवधार । छत प्रत्याहार पर छतां, सक् नो आगम विचार ॥ -(व्यंजन संधि दोहा २८) इस सूत्र में नः, सक् और छते ये तीन पद हैं। दोहे में ३ का अंक है और 'त्रिपद' यह शब्द भी है। संधि दो पदों में होती है। समास को छोड़कर दोनों पद विभक्त्यन्त होते हैं । प्रथम पद के अंतिम वर्ण और दूसरे पद के आदि के वर्ण को मिलाकर संधि की जाती है, शेष वर्णों की इतनी उपयोगिता नहीं है। इसलिए प्रथमपद अवश्य विभक्त्यन्त १६२ तुलसी प्रज्ञा Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होना चाहिए दूसरा पद विभक्त्यन्त हो या न हो संधि में कोई अन्तर नहीं आता। राजस्थानी भाषा में विसर्ग का प्रयोग नहीं होता इसलिए जयाचार्य ने दूसरे पद को विसर्ग रहित स्वीकार किया है। कारः कर कारस्कर, पारः पर नो पेख । पारस्पर, भाः कर तणो भास्कर रवि संपेख ।। -विसर्ग संधि दोहा १. वाक् शूर ए रूप नो, वाक् छूर वा होय । एक ठोड रहे मूलगो, वाक्शूर अवलोय ॥ -व्यंजन संधि दोहा ६ सूत्र का उल्लेख, वृत्ति का अर्थ, उदाहरण और साधनिका को दो पद्यों में ही सरलता से अभिव्यक्ति दी गई है। शे चक् वा ३ त्रिपद ए सुत्र, नांत पद अवधार । चक् आगम श पर छते, विकल्प करि विचार ॥ भवान् शूर श पर अछ, स्तोश्चु भवानशूर । भवाञ्च्छर चक् आगम स्तोश्चु चपच्छ पूर ।। - व्यंजनसंधि ३२-३३ शे चक् वा यह सूत्र है। इसकी वृत्ति का अर्थ है न अंत और पद संज्ञावाले शब्द से परे श हो तो चक् का आगम विकल्प से होता है । उदाहरण है-भवान् शूर।। "स्तोश्चु भिश्च' सूत्र से न् को न हो गया, रूप बन गया भवान शूर । जहां चक् का आगम हुआ वहां रूप बना भवाञ्चछूर । चपाच्छ सूत्र से शूर के श को छ हो गया। स्तो: श्चुभिश्चः त्रिपद सुत्र सकार तवर्ग तणो य । सकार चवर्ग ना योग थी शकार चवर्ग होय ।। कस् चरति चु योग थी, कश्चरति श होय । कस् शूर श योग थी, कश्शूर श अवलोय ।। तत् चित्रं चु योग थी, तच्चित्रं च होय । तत् शास्त्रं तच्छास्त्रं ह्व चपाच्छ स्तोश्चु दोय ।। तत् श्रवणं तच्छवणं ह्र, चपाच्छः स्तोश्चुः । कस् छादयति नो हुवे, कश्च्छादयति ऊह ॥ -- व्यंजन संधि दोहा १३ से १६ ___ शकार और चवर्ग के योग से सकार और तवर्ग को शकार और चवर्ग हो जाता है । चार दोहों में ६ उदाहरण देकर इस सूत्र को स्पष्ट किया गया है। भाषाओं के अपने अपने नियम होते हैं। उन्हें दूसरी भाषा से मापा नहीं जा सकता। राजस्थानी भाषा में हलंत वर्ण का प्रयोग नहीं होता। इसलिए स्वर रहित एक वर्ण के आदेश को उच्चारण की दृष्टि से अकार सहित स्वीकार किया गया है। खंड २१, अंक २ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंठ टवर्ग पर थका कण्ठः सवर्ण णकार । कंथा तवर्ग पर थकां कन्धा सवर्ण नकार ।। -व्यंजन संधि दोहा ५६ अनुस्वार से परे जिस वर्ग का वर्ण होता है उसी वर्ग का नम (पांचवा वर्ण) हो जाता है । कंठ शब्द में क से आगे अनुस्वार है उससे आगे 'ठ' टवर्ग का है, इसलिए अनुस्वार को ट वर्ग का पांचवा वर्ण ण् हो गया है। पद में ण को अ स्वर सहित णकार रूप में व्यक्त किया गया है। इसी प्रकार कंथा शब्द में अनुस्वार को न हुआ है। उसे नकार रूप में कहा गया है। सारस्वत व्याकरण के सूत्र तथा उससे होने वाले दो वर्ण के आदेश को उदाहरण सहित यथावस्थित रूप में उद्धत किया है। ओ अव् द्विपद सूत्र ए, ओकार नो अव होय । स्वर पर थकां सुजाण जो, भो अति भवति सोय ।। -स्वर संधि दोहा ११ ओ अव यह सूत्र है । इसके दो पद हैं । यह सूत्र ओ से आगे स्वर होने पर ओ को अव करता है । साथ में उदाहरण भी है। भो+अति यहां भ के ओ से आगे अति शब्द का अ है । दोनों को संधि करने से ओ का अव् हो गया। अव का अभ् में मिल कर भ बन गया । व् आगे का स्वर अति के अ में मिल गया। इस प्रकार भवति रूप बन गया। सारस्वत व्याकरण में सूत्र की वृत्ति के भावों को स्पष्ट करने के लिए बीच-बीच में श्लोक दिए गए हैं पंच संधि की जोड में उनको भी स्थान दिया गया है। "सवणे दीर्घः सह" __ स्वर से आगे सवर्ण स्वर हो तो दोनों मिलकर दीर्घ हो जाते हैं। इस सूत्र के भाव को स्पष्ट करने के लिए एक श्लोक है अदी? दीर्घतां याति, नास्ति दीर्घस्य दीर्घता । पूर्व दीर्घ स्वरं दृष्ट्वा, पर लोपो विधीयते ।। -श्लोक १५ इस श्लोक के भावों के लिए दोहा है अदीर्घ दीर्घ पणो भजे, दीर्घ दीर्घ नहि होय । पूर्व दीर्घ स्वर देख ने, पर स्वर लोप सुजोय ॥ -स्वर संधि दोहा २७ पूर्व पद में अदीर्घ (ह्रस्व) स्वर हो और आगे सवर्ण स्वर हो तो पूर्व का अदीर्घ स्वर सवर्ण स्वर के साथ मिलकर दीर्घ हो जाता है। पूर्व का स्वर दीर्घ हो और आगे का सवर्ण स्वर भी दीर्घ हो तो पूर्व के दीर्घ स्वर को देखकर आगे वाला दीर्घ स्वर का लोप हो जाता है। दीघं को दीर्घ करना व्यर्थ है इसके समर्थन में तीन उदाहरण हैं-(१) समुद्र में वर्षा व्यर्थ है (२) भोजन के ऊपर भोजन करना व्यर्थ है (३) धनी को दान देना व्यर्थ तुलसी प्रज्ञा Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। वैसे ही दीर्घ को दीर्घ करना व्यर्थ है । ___ सारस्वत व्याकरण में अन्य मत का उल्लेख है। विशेष कर संधि-प्रकरण में जैनेन्द्र व्याकरण की मान्यता दी है। गो शब्द पदांत में हो और आगे अक्ष शब्द हो तो संज्ञा विषय में ओ को अव हो जाता है। जहां संज्ञा वाचक न हो वहां ओ का अव नहीं होता । जयाचार्य ने इस भाव को दोहों में गुंफित किया है जिनेंद्र व्याक्रण मैं कह्यो, गो पदांत जद होय ।। अक्ष परे संज्ञा विष, ओ अव तहां सुजोय ॥१६॥ नाम बिना गो अक्ष नों, गोक्ष सिद्ध इम थाय ॥१७॥ -स्वर संधि दोहा १६, १७ । सारस्वत व्याकरण में जहां न्याय का प्रयोग हुआ है वहां जयाचार्य ने भी जोड में उसकी उपेक्षा नहीं की है। जलतुम्बिक न्याये करी, रेफ उर्ध्व गमनाय । अग्र रेफ अध जात है, पूर्व रेफ उर्द्ध थाय ॥५॥ शब्दों की सिद्धि में सूत्रों का उपयोग होता है । जहां एक साथ दो सूत्र लगते हों वहां किसको प्रधानता (प्राथमिकता) दी जाए इसके लिए न्याय का सहारा लिया जाता है । जयाचार्य के दोहों में इस प्रकार है सामान्य सूत्र थकी हुवै, विशेष बलिष्ट पेष । बहु व्यापक सामान्य हुवै, व्यापक अल्प विशेष ॥२८॥ अथवा पर सूत्रे करी, पूर्व सूत्र ह्र बाध । बहुल पण ए स्थूल मति, सर्वत्र नियमन साध ।। -स्वर संधि दोहा २८,२९ सामान्य सूत्र से विशेष सूत्र बलवान होता है। सामान्य सूत्र वह होता है जो व्यापक होता है, विशेष सूत्र वह होता है जो कम शब्दों से सीमित क्षेत्र में कार्य करता है । सामान्यतया पूर्व सूत्र से आगे का सूत्र बलवान होता है। आगे के सूत्र को यदि पूर्व सूत्र बाधता है तो वह बलवान होता है। इन न्याय के नियमों को जयाचार्य ने दो पदों मे सरलता और स्पष्टता से समझाया है। कहीं कहीं सूत्र का उल्लेख न कर केवल संकेत देकर उसके भाव को उदाहरण सहित स्पष्ट किया है। सूत्र है-तद् वृहतोः करपत्योशचोसदेततयोः सुट लोपश्च । इस निपात सूत्र को संक्षेप में "वाचस्पत्यादि नाम का" संकेत देकर उसके निपात शब्दों को उजागर किया है । वाचस्पत्यादि नाम जे, निपात थी सिद्ध होय । वाचः पति वाचस्पति, इत्यादिक बहु जोय ॥८॥ तत् वृहत् आगे कर पति, चोर एक इक देव सुट् आगम त लोप ह, तस्कर बृहस्पति हेव ॥९॥ कारः कर कारस्करः, पारः पर नौ पेष पारस्परः भाः कर तणी, भास्कर रवि संपेष ॥१०॥ खण्ड २१, अक २ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजः त्वंदं राजस्त्वंद, हरिः चंद्र हरिश्चंद्र इत्यादिक सिद्ध शब्द ह, निपात थकी संबंध ॥११॥ -विसर्ग संधि दोहा ९ से ११ सारस्वत व्याकरण में पंच संधि के अन्तर्गत जो उदाहरण आए हैं, जयाचार्य ने उनका तो प्रयोग किया ही है साथ में अनेकों नए उदाहरण दिए हैं। “यमा यपेऽस्य वा" "पदान्ते वा" इन दो सूत्रों के २९ उदाहरण दिए हैं। अधिकांश नए उदाहरण ل سه ع १ त्वं करोषि क पर छतै, त्वङ करोषि होय । २ तं तनोति त पर छत तन्तनोति न जोय ॥४४॥ ३ सं यंता य पर छत, सय्यंता य सार । ४ तं राघवं र पर छत, ताराघवं र धार ॥४५॥ ५ रं रम्यते र पर छत, रारम्यते र होय । रि लोपे दीर्घ सूत्र करि र लोप दीर्घ सुजोय ॥४६।। ६ यं नकार न पर छतं यज्ञकार न होय । ७ यं णकार ण पर छत यण्णकार ण जोय ॥४७॥ ८ तं ननीति न पर थकां, तन्ननीति न होय । ९यं डकार ड पर थकां यड्डकार ड जोय ॥४८॥ सं मानयति मकार पर, सम्मानयति मकार सं झपति चवर्ग पर, सञ्झपति सु नकार ॥४९।। तं ढोकते ट वर्ग पर, तण्डोकते णकार सं धमति त वर्ग पर, सन्धमति सु नकार ॥५०॥ संघर्षति क वर्ग पर, सङघर्षति डकार सं भमति प वर्ग पर, सम्भवति सु मकार ॥५१॥ जं जय्यते च वर्ग पर, जञ्जय्यते ञ् होय सं दीयते ट वर्ग पर, सण्डीयते ण होय ॥५२॥ दं दश्यते तु पर थकां, दन्दश्यते नकार जं गम्यते कु पर थकां, जङ्गम्यते ङकार ॥५३॥ बं बमीति पु पर थकां, बम्बमीति म होय । सं खनति कु पर थकां, सङ्खनति ङ जोय ॥५४॥ पं फलति पु पर थकां, पम्फलति म सवर्ण सं छादयति चु परः, सञ्छादयति न कर्ण ॥५५॥ कंठः ट वर्ग पर थकां, कण्ठः सवर्ण णकार कंथा तवर्ग पर थकां, कन्था सवर्ण नकार ॥५६॥ संचरति च पर थकां, सञ्चरति न सवर्ण घंटा ट वर्ग नौं सवर्ण, घण्टा णकार धर्ण ॥५७।। तुलसी प्रशा Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्वं करोति कु पर थका, त्वङ करोति होय ।। सं परति पु पर थकां, सम्परति म जोय ॥५॥ एक ठोड रहै मूलगी, अनुस्वार अवलोय ।। एक ठोड यप सवर्ण ह, यप पर थी यम जोय ॥५९।। ---व्यंजन संधि दोहा ४४ से ५९ जयाचार्य ने पंच संधि के कुछेक सूत्रों की दोहों में व्याख्या नहीं दी। इसका कारण संभवतः यह था कि वे संधि के अतिरिक्त प्रकरण से संबंधित थे। जैसे-है हयोः स्वरे संधि न। है और हे के योग में संधि नहीं होती। वहां उदाहरण हसान्त पुल्लिग में हैंहे अनड् वान् । यह सूत्र हसांत पुंलिंग से संबंधित है । उपसर्गादवर्णान्ताद ऋकरादो घातौ च ऋकरादो नाम घातो वा ये सूत्र धातु से संबंधित है इसलिए इनकी व्याख्या नहीं की। संस्कृत व्याकरण में लघु प्रक्रिया में एक प्रकरण के सूत्र दूसरे प्रकरण में ग्रहण किये जाते हैं। उत्तरार्द्ध के सूत्र पूर्वार्द्ध में आवश्यकतानुसार उपयोग किए जाते हैं। जयाचार्य ने पंच संधि से संबधित सूत्रों को ही अपनी जोड में स्थान दिया है । इस दृष्टिकोण से कई सूत्र अव्याख्यायित ही रह गए हैं। पंच संधि की जोड में दो सूत्रों के अंतिम शब्द में कुछ परिवर्तन है । जैसे१. वो लॊपश् वा पदांते । २. ओष्टो त्वोवौं समासे । प्रथम सूत्र के अंत में पदांते शब्द है और दूसरे सूत्र के अंत में समासे शब्द है। जयाचार्य ने अपने दोहों में पदांत ङि और समास डि किया है। विभक्ति को शब्द से अलग किया है । इस प्रकार मैंने कुछेक सूत्रों के कतिपय विन्दुओं पर प्रकाश डाला है । जिज्ञासु पाठक स्वयं 'पंचसंधि जोड़' को ध्यान से पढ़ेगे तो और भी अनेकों रहस्य उजागर हो सकते हैं। यहां इस जोड़ की अविकल प्रतिलिपि प्रस्तुत की जा रही हैसारस्वत व्याकरण के सूत्र सहित पंचसंधि जोड के दोहे पंच संधि जोड़ सूत्र --अ इ उ ऋ लु समानाः । अ इ उ ऋ ल ए पांचवर्ण समानसंज्ञा सोय । सवर्ण कहियै केहन, न्याय तसुं अवलोय ॥१॥ सूत्र-ह्रस्व दीर्घप्लुत भेदा: सवर्णाः । ह्रस्व दीर्घ प्लुत भेद वर सजातीया इक स्थान । अन्यो अन्य सवर्ण कहा, ऋ ल वर्ण वलि जान ॥२॥ एक मात्र ते ह्रस्व है, द्विमात्रे दीर्घ देष । त्रिमात्र प्लुत कहीजीये, मात्र काल संपेष ॥३॥ खण्ड २१, अंक २ १६७ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग ब सूत्र - ए ए ओ औ संध्यक्षराणि । ए ऐ ओ ओ ए चिहुं, संधि अषर सुषदाय । हिव चवर्द स्वर हुं कहूं, निसुणी निर्मल न्याय || ४ || सूत्र - उभये स्वराः । अ इ उ ऋ ऌ ए पांच ना, ह्रस्व दीर्घ दश होय । चिउ संध्यक्षर दस चतुर, प्लुत सहित ए जोय ॥ ५ ॥ सूत्र - अवर्जा नामिनः । ब्य आ वर्ज द्वादश स्वर, नामिन संज्ञा निहाल । प्रत्याहार कहूं हिवं, व्यंजन स्वर सुविसाल || ६ || १६८ सूत्र - हयवरल अणनङम झढध घम जडदगव खफठथ चटतकप शवस आयंताभ्यां आदि अंत ने वर्ण करि, ग्रहण करतां सोय । मध्यम वर्ण ग्रहिजिये, आद्यंत संज्ञा होय ||७|| अ इ उ ऋ लृ ए ऐ ओ ओ ह य व र ल न ण नङ म झ ढ ध ध भ ज ड द अकार बकार करि ग्रहित मध्यम वर्णे अब नाम इम इल प्रत्याहार ह्व कहिये समझ तमांम ॥ ८ ॥ भ ढ ध ध भए झभ संज्ञ, ज ड द ग ब जब जान । चटक पचप संज्ञ ए समर्ज चतुर पिछांन ॥ ९ ॥ सूत्र - कार्यायेत् किण हि कार्य नैं अर्थ जे, कीजे वर्ण उचार । ते वर्ण इत् संज्ञा कह्यो, तसुं करि लोप विचार ||१०|| वर्ण अदर्शन लोप का वर्ण नाश जहां होय । पिण संधि नौ नहि नाश त्यां, लोप कहीजे सोय ॥ ११ ॥ लोपश् वर्ण विरोध ज्यां, एक वर्ण नीं नाश । अन्य वर्ण उत्पत्ति नहि, संधि न होने तास ॥ १२ ॥ प्रत्यय नौं अणदेखवी, लुक् कहिये तसुं नाम । लुक् कीधे तसुं निमित्त लक्ष, किंचित् नहि तिह ठाम ||१३|| मित्र तुल्य आगम कह्यो, शत्रु तुल्य आदेश | संजोग तास कहेश ॥ १४ ॥ कहीजे तास । पंच वर्ण ग्रहिवा निमित्त, उकार माहिं विमास ॥ १५ ॥ इस स्वर रहित अनेक हस, कुचु टु तु पंच ए, वर्ग सूत्र - अरे दोन्नामिनो गुणः ॠवर्ण केरौ अर् हुवे, इवर्ण को ए होय । वर्ण को ओकार हुवै, तसुं गुण कहिये सोय ॥ १६ ॥ तुलसी प्रज्ञा Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र-आर अ वृद्धि — अकार को आ वृद्धि संज्ञ, ऋकार को हुवे आर । ईवर्ण को ऐकार ह, उवर्ण को औ सार ॥१७।। सूत्र-अन्त्य स्वरादिष्टि: अंत्य जे स्वर तसुं आदि वर्ण, टि संज्ञा सुंहि यात । सूत्र-अंत्यात पूर्वोपधा अंत्य वर्ण तै पुर्व वर्ण, उपधा संज्ञ सुहात ॥१८॥ ह्रस्व लघु अरु दीर्घ गुरु, विसर्ग सह अनुस्वार । संजोग पर जे ह्रस्व पिण, गुरु कहिये सुविचार ॥१९॥ मुख नाशिक करि जे वचन, अनुनाशिक अवधार । द्वि बिंदु विसर्ग कह्यौ, शिर बिंदु अनुस्वार ॥२०॥ अंत्य विभक्ति जेहन, तेह. पद कहिवाय ।। स्व समान जे काल ह्र, सवर्ण ग्राहक ताहि ॥२१॥ वर्ण ग्रहणे सवर्ण ग्रहण, निसुणौ तेह नौं न्याय । इवर्ण इम ग्रह करी, इ ई बिहु ग्रहवाय तथा लघु दीर्घ प्लुत आय ॥२२॥ कार ग्रहणि केवल ग्रहै, तेहनौं न्याय विचार । अकार इम ग्रहवै करी, लेवी ह्रस्व अकार ॥२३॥ तपर करण तावन्मात्र, तेह नौं न्याय संभाल । अत पर इम कहि करी, ह्रस्व अकार नी हाल ॥२४॥ अष्ट स्थान है वर्ण का, उर १ कंठ २ शिर ३ वलि दंत ४ । जिह्वामूली ५ नाशिका ६ होठ ७ तालु ८ विरतंत ॥२५॥ तीन तीश व्यंजन अस्वर, स्वर चवदै सुविसाल ४७ । अनुस्वार ४८ विसर्ग ४९ वलि, जिह्वामूली न्हाल ५० ॥२६॥ गज कुंभाकृति ५१ वर्णफुन प्लुत त्रिमात्र ५२ विचार । एवं द्वि पंचाशवर्ण मातृक वच अवधार ॥२७।। अ कवर्ग ह विसर्जन ए कह्या कंठ सुस्थान । इचवर्ग य ७ श ८ तालवी तालुक थी अठ जान ॥२८॥ ऋ टवर्ग र ष मूद्धनि, मूर्द्धा ते शिर स्थान । ल तवर्ग ल स दंतीय ह, दंत स्थान पहिछान ।।२९।। उ पवर्ग उपध्मानीय इनके स्थान सुओष्ट । ए ऐ कंठ तालु थकी, ओ औ फुनि दंतोष्ट ॥३०॥ व दंतोष्ट थकी वली, जिह्वामूली सार । जिह्वमूल थी ऊपजे, नाशिक धर अनुस्वार ॥३१॥ बंर २१, बंक २ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर संज्ञा बावन वरण वरण स्थान सुविचार । संज्ञा संधि प्रथमास वर, आषी अधिक उदार ॥३२॥ इति संज्ञा प्रक्रिया हिवै स्वर संधि कहीजीये, इयं स्वरे उदार । इवर्ण को य होत है, स्वर पर छतां संभार ॥१॥ वधि जानय इति स्थिते द् ध् यु आनय । हसे ह्रसहसत परैः रह वजित हस कोय । हस पर छतेज वा विकल्प अवसाने धि होय ॥२॥ दध्ध आनय झभे जबा ए सूत्र है, झस केरौ जब होय । झभ पर छते हुवै सवर्ण, वर्ग माहिलो जोय ॥३॥ उदाहरण इण सूत्रे करी पूर्व धकार नों दकार हुवे । स्वरहीनं परेण संयोज्यं दद्धयानय इति सिद्धं । दध्यानय ए विकल्पे करि। रहाधपोद्विः त्रिपदं, स्वर पूर्व ह सोय । तातें रह तातें सुपर यपद्वि विकल्प होय ॥४॥ उदाहरण-गौरी अत्र गौर्यत्र गौर्यत्र । नहि अस्ति नह य्यस्ति नहयस्ति । जलतुंबिक न्याये करी, रेफ उर्ध्व गमनाय । अग्र रेफ अध जात है, पूर्व रेव उर्द्ध आय ॥५॥ जहां सूत्र ने अक्षर करि कार्य सिद्धि नहि होय । तहां अन्य सूत्र पदे करी कार्य सिद्धि कर सोय ॥६॥ उवर्ण को व होत है, उवं द्विपदं सूत्र । स्वर पर छत सुजांण जो मधु अत्र मध्वत्र ॥७॥ ऋ र सो ऋ वर्ण को स्वर पर छत र थाय । पितृ अर्थः शब्द नौ पित्त्रर्थ: हुय जाय ॥८॥ ल लं सो लु वर्ण को स्वर पर छत ल होय । लु अनुबंध तणौ हुवै, लनुबंध अवलोय ॥९॥ ए अय् द्विपद सूत्र ए, एकार नौं अय् होय । स्वर पर छत सुजांण जो, ने अनं नयनं जोय ॥१०॥ ओ अव् द्विपद सूत्र ए, ओकार नौं अव् होय । स्वर पर थकां सुजांण जो, भो अति भवति सोय ॥११॥ गवादिक न जे शब्द कू, अवर्ण आगम आंण । अक्षादिक पद पर छतां, गो अक्ष गवाक्ष जांण ॥१२॥ गो इंद्र गवेंद्र गो अजिनं, गवाजिनं सिद्ध थाय । गो अग्र गवाग्र प्र ऊढ नौं, प्रौढ सिद्ध हो जाय ॥१३॥ प्र ऊढी को प्रौढी हुवै, स्व ईरं स्वैरं जेह । अक्ष ऊहिणि अक्षौहिणी शब्द गवादिक एह ॥१४॥ तुलसी प्रज्ञा १७. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर तुल्य किहां यकार ह, जिम मारग प्रमाण । गो यूति केरी गव्यूति, अन्यत्र गोयूति जांण ॥१५।। जिनेन्द्र व्याक्रण मैं कह्यौ, गो पदांत जद होय । अक्ष परे संज्ञा विष, ओ अव तहां सुजोय ।।१६।। नांम विना गो अक्ष नौं, गोक्ष सिद्ध इम थाय । गायां नौ जे अष्ट तसुं, गोक्षाणि कहिवाय ॥१७॥ गो पदांत स्वर पर छतां, ओ अव विकल्प रोप । ईश्वर अक्ष परे न अव, संज्ञा विण अत् लोप ॥१८॥ उदाहरण ---गो अग्रं गवाग्रं, गोग्रं । गो ईशः गवेश: गवीशः । अनक्ष इति किम् गोक्षं । गोत इति कि चित्रग्वर्धः। गो पदांत ते इंद्र पर, ओ अव मिश्चै देष । गो इंद्र शब्द तणौ हुवै, गवेंद्र सिद्ध सुपेष ॥१९॥ गो पदांत अ पर छत, वा असंधि नौं भाव । गो अग्र गवान गोग्र अम, जिनेन्द्र थी ए न्याव ॥२०॥ ए आय द्विपद जाणिय, ऐकार नौं व आय् । स्वर पर छत पिछांणियो, न अक नायक थाय ॥२१॥ औ आव द्विपद जाणिय, औकार नौं व आव् । स्वर पर छतै सुदेषीय, तो इह ताविह भाव ॥२२॥ य्वी लॊपश् वा पदांन डि ४ पदांत रह्या सुजोय । अयादिक न कायव तणी, लोपश् विकल्प होय ॥२३॥ अत्र उदाहरण ते आग ता तआगता तयागता । पटो इह, पट इह पटविह । तस्मै आसनं तस्मा आसनं तस्मायासनं । असी इंदुः असा इंदु: असाविदुः । लोपशि पुन नै संधि इम, वेद विषै संधि होय । हे सखे इति पद तणी, सखेति सखयिति जोय ॥२४॥ एदोतोत: त्रिपदं, पदांत ए ओकार । तिन तै परः अकार नौं, लोप होय सुविचार ॥२५॥ उदाहरण-ते अत्र तेत्र, पटो अत्र पटोत्र । सवर्णे दीर्घः सह ३ समान स्वर त जोय । सवर्ण स्वर पर हुवे छत, बिहु मिल दीर्घ सुहोय ॥२६॥ अत्र उदाहरण श्रद्धा अत्र श्रद्धात्र । दधि इह दधीह । श्री ईशः श्रीशः। भानु उदयं भानूदयं । पितृ ऋतणं पिताणं । अदीर्घ दीर्घ पणी भज, दीर्घ दीर्घ नहि होय । पूर्व दीर्घ स्वर देष नै, पर स्वर लोप सुजोय ॥२७॥ सामान्य सूत्र थकी हुवै विशेष बलिष्ट ष । बहुव्यापक सामान्य हुवै, व्यापक अल्प विशेष ॥२८॥ बस २१, अंक २ १७१ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथवा पर सूत्रे करी, पूर्व सूत्र ह्र बाध । बहुल पण ए स्थूल मति, सर्वत्र नियम न साध ।।२९।। हलादिक न कीटि तणो, कीजै लोप विचार ।। ईषादिक पद पर छतां, उदाहरण अवधार ॥३०॥ अत्र उदाहरण-हल ईषा हलीषा। लांगल ईषा लांगलीषा। मनष ईषा मनीषा । अद्य ओं अद्यों। शक अंधुः शकंधुः । कर्क अंधुः कर्कधुः । सीमन् अंतः सीमंतः । कुल अटा कुलटा । पतत् अंजली पतंजली । सार अंगः सारंगः । हलीष लांगल ईष फुनि । मनीष अद्यो जांण । शकंधु कक्कंधु वली, सीमंत कुलटा पिछांण ॥३१॥ पतंजलि सारंग ए, कह्या हलादिक देष । इनकी टि को लोपकर, अ अस् अन् अत् पेष ॥३२॥ अइ ए द्विपद अवर्ण ते, इवर्ण पर जो होय ।। बिहु भेला थइ ए हुवै, तव इदं तवेदं जोय ॥३३॥ उ ओ अवर्ण उवर्ण पर बिहु मिल होय ओकार । गंग उदकं गंगोदकं, यमुनोदक इम धार ॥३४॥ ऋ अर अवर्ण ऋवर्ण पर, बिंह मिल अर अवधार । तव ऋद्धि शब्द तणो हुवै तवद्धि सिद्ध उदार ॥३५।। क्वचित आर् ते अवर्ण तें, ऋवणं पर संपेष । बिहुं मिल कहां इक आर, हुय उदाहरण इम देष ॥३६।। अत्र उदाहरण-ऋण ऋणं ऋणाणं । प्र ऋण प्राणं । वसन ऋणं वसनाणं । कंबल ऋणं कंबलाणं । वत्सतर ऋणं वत्सतराणं । दश ऋणं दशाणं । अवर्ण ते ऋवर्ण परे, बिहु मिल आर् सुवाति । तृतीया समास मैं हुवै, शीतेन ऋत शीतात्तं ॥३७॥ ल अल् अवर्ण ल वर्ण पर, बिहुं मिल ने अल् होय । तव लकार यह पद तणी, तवल्कार सिद्ध जोय ॥३८॥ र ल बिहु सवर्ण डल सवर्ण, स श सवर्ण सुविहांण । बव सावर्ण इण पर कहै, अलंकार ना जाण ॥३९।। ऋल वर्ण बिहु सावर्ण, पद होत लकार । होतृकार इम सिद्ध ह', इहां भयरूप विचार ॥४०॥ र ल सावर्ण विकल्प करी, परि अंक नों पयंक । पल्यंक सिद्ध सुविचार नै, हृदय धार तज वंक ॥४१॥ ए ऐ ऐ अवर्ण ते एकार पर अवधार । वलि ऐकार सुपर छतै, बिहु मिल हूं ऐकार ॥४२॥ अत्र उदाहरण तव एषा तवैषा । तव ऐश्वयं तवैश्वयं । ओ ओ औ अ ओकार को, वा अवर्ण औकार । बिहु मिल ने औकार ह्व, उदाहरण अवधार ॥४३॥ १७२ तुलसी प्रज्ञा Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्र उदाहरण तव ओदनं तवौदनं । तव औन्नत्यं तवौन्नत्यं । ओष्दो त्वो व समास ङि ४ अवर्ण के अवधार । ओष्ट ओतु पर बिहु मिली, समास व ओकार ॥ ४४ ॥ अत्र उदाहरण बिंब ओष्ट: बिबौष्ट बिबोष्ट: । स्थूल ओतुः स्थूलीतुः स्थूलोतुः । समासे इति किं तव ओष्टः तवष्टः ॥ खण्ड २१, अंक २ समास विण अवर्ण के, ओष्ट ओतु पर पेष । निश्चय थी औकार, तवौष्ट रूप देष ॥ ॥ इति स्वर संधि ॥ अमी एडका संधि नहि, अमो नाम है रोगनी, तां संधि प्रकृति भाव हिव संधि कहुं, नामी आदि पिछांग | अदस् तणो अमी शब्द, तहां संधि मजांण सयाण ॥ १ ॥ अमी आदि त्या संधि नहि, अमी उष्टा नहि संधि | इयं स्वरे न बंध ॥२॥ रोगवांन अमी होय । अमी असो, अम्यसौ इयं जोय ॥३॥ द्वित्वे ई ऊ ए संधि, ई ऊदान्त एकार | द्विवचने ए संधि नहि मणिवादिक वर्ज सार ॥४॥ अग्नी अत्र इयं नहीं, पटू अत्र उवं न । माले आनय अय् नही, त्रिहुं स्थानं द्विवचन ॥५॥ मणि इव मणीव संधि इहां, दंपतीव जंपतीव । रोदसीव मणिवादि ए, सवर्णे दीर्घ संधीव ||६|| गुरुणा गुरुभिः संधि सह, लघुना लघुभिः जोय । गुरुणा लघुभि: लघुना गुरु, सवर्णता चिहुं होय ||७|| ओ निपात द्विपद ए सुत्त, आ ओकार निपात । एक स्वर : वलि संधि नहि, उदाहरण अवदात ॥ ८ ॥ आ एवं इहां संधि नहि, नो अत्र नहि अव संधि | उ उत्तिष्ठ अ अपेहि इहां, सवर्णे दीर्घ न इष्ट ॥९॥ ईषत् अर्थ क्रिया योग मैं, मर्यादा अभिविध | आकार च्यार प्रकार छँ, ओदंत अष्ट प्रसिद्ध ॥१०॥ दूर थकी बोलावणं, गाने रुदने रुदन विचार | टि कुं प्लुत कहीजीये, प्लुत न संधि प्रकार ॥११॥ देवदत्त एहि इहां, प्लुत प्रकृति नहि संधि | इति संधि प्रकृति भाव कहि जांण रहिस प्रबंध ॥ १२ ॥ ॥ इति प्रकृति भाव ॥ कहुं व्यंजन कार्य चपा अबे जबा पद तीन । पदांत चप नो जब हुवै, अब पर छतै सुचीन ॥१॥ षट् अत्र केरी षडत्र ह्न े, अच् अंत अजंत सत् । वाक् यथा नौं वाग्यथा तत् एतत् तदेतत् ॥२॥ १७३ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमे जमा वा त्रिपद सुत्त, पदांत चप नौं जान । जम पर छतं नम हुदै, विकल्प करि पहिछांन ॥३॥ षट् मम षड्मम षण्ममः, वाक् मात्र नौं जोय । बाङ मात्र अरु वाग्मात्र, विकल्प करि इम होय ॥४॥ त्रिपद चपाच्छः सः कह्यौ, चप ते उत्तर शकार । छकार ह्र विकल्प करी, अब पर छतै सुधार ॥५॥ वाक् शूर ए रूप नौं वाक् छर वा होय । एक ठौड रहै मूलगी, वाक् शूर अवलोय ॥६॥ हो समापद दोय यह, चप तै उत्तर हकार । झभ होवै विकल्प करी, अब पर छत विचार ॥७॥ जे वर्ग चप तसं वर्ग नौं, चउथौ अक्षर होय।। उदाहरण कहुं एह नौं, समझी लीजो सोय ॥८॥ अच् हलो ए रूप नौं, अज्ह लो सुत्त दोय । चपा अबे जब हो झमा, अज्हलो चपा ब जोय ॥९॥ षट् हलानि रौ हुवै, षड्ढलानि सुत्त दोय । षड्हलानि इहां सूत्र इक, चपा भवे जब होय ॥१०॥ तत् हवि तद्धवि हुवै तद्हवि चपा देष । वाक् हरि, वाग्धरि यह बे, वाग्हरिः इक पेष ॥११॥ ककुप् हास केरी हुवै ककुब्भास वे सुत्र । चपा अवे अरु हो झभा, ककुब् हास इक उत्र ॥१२॥ स्तोश्चुमिश्च त्रिपद सत्त, सकार तवर्ग तणो य । शकार चवर्ग ना योग थी शकार चवर्ग होय ॥१३॥ कस् चरति चु योग थी, कश्चरति श होय । कस् शूर श योग थी, कश्शूर श अवलोय ॥१४॥ तत् चित्रं चु योग थी, तच्चित्रं च होय । तत् शास्त्रं तच्छास्त्रं ह्र, चपाच्छ: स्तोश्चु दोय ॥१५॥ तत् श्रवणं तच्छ्रवणं ह्र चपाच्छः स्तोश्चुः । कस् छादयति नौं हुवै, कश्च छादयति ऊह ॥१६॥ न शात् द्विपद सूत्र ए, शकार ते उत्तरेह । तवर्ग नौं चवर्ग न ह्र, प्रश्न विश्न मुलेह ॥१७॥ ष्टुमिष्टः द्विपद इहां, सकार तवर्ग तणो य । षकार टवर्ग ना योग थी, षकार टवर्ग होय ॥१८॥ कस् षष्ट ष योग थी, कष्षष्ट ष होय । कस् टीकते टु योग थी, कष्टीकते ष जोय ॥१९।। तत् टीकते टु योग थी, तट्टीकते ट देष । ष्टुभिष्टु ए सूत्र थी, शब्द सिद्ध संपेष ॥२०॥ १७४ तुलसी प्रज्ञा Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो हिललः त्रिपद इहां, तवर्ग तणी विचार । लकार पर तेहनै हुवै तौ होवे सही लकार ॥२१॥ तत् लुनाति ल पर छतां, तल्लुनाति ल थाय । भवान् लिखति न तणौ भवाल्लिखति पाय ॥२२॥ य र ल व अंतस्था कह्या यवल रेफ वर्णेह । दोय भेद तसं दाषीया, तेह नौं न्याय सुणेह ॥२३॥ सानुनाशिक निरनुनाशिक २ नकार नौं अवधार । सानुनाशिक लकार ह, अर्द्ध चंद्र आकार ॥२४॥ न षि २ द्विपद ष पर छत, तवर्ग नो टु नाहि । भवान् षष्ट रहै मलगौ न कौ ण नहि थाय ॥२५॥ टो रन्त्यात २ द्विपद ए सुत्त, पदांत टवर्ग पाय । ता ते पर स्तोष्टु न ह षट् नर न ण नहि थाय ॥२६॥ षडर चपा अबे जबा षण्नर अमे मा व। षट् सीदंति पद मूलगौ टोरन्त्यात् पसाव ॥२७॥ नः सक् छते ३ त्रिपद कह्या, नांत पद अवधार । छत प्रत्याहार पर ह छतां, सक् नौं आगम विचार ॥२८॥ ककार कित् कार्यार्थ हे उच्चारणार्थ अकार । क इत् तातै अंत सक्, ट् इत् आदि विचार ॥२९॥ राजन् चित्रं राजश्चित्र स्तोश्चुभि श धार । नश्चा पदाते सूत्र थी, नकार नौं अनुस्वार ॥३०॥ भवान् तनोति नांत पद, भवांस्तनोति सार । सक् आगम नः सक् छते, नश्चापद अनुस्वार ॥३१॥ शे चक् वा ३ त्रिपद ए सुत्त, नांत पद अवधार । चक् आगम श पर छतै, विकल्प करी विचार ॥३२॥ भवान् शूर श पर अछ स्तोश्चु भवाञ् शूर । भवाञ्च्छूर चक् आगम १ स्तोश्चु २ चपच्छ ३ पूर ॥३३॥ कुणनो ह्रस्वाद् द्रिःस्वरे ४ ह्रस्व ते उत्तर सुभांत । ङ णन कार द्विर् ह सही, स्वर पर छत पदांत ॥३४॥ प्रत्यङ इदं प्रत्यङि ङदं सुगण् इह सुगणिह । राजन् इह नौं राजन्निह, ङण्नो ह्रस्वाद्वि इह ॥३॥ छः १ इक पद ए सूत्र नौ ह्रस्व ते उत्तर छकार।। द्वि ोवै तव छत्र नौं, तवच्छत्रं अवधार ॥३६॥ खसे चपा झसानां त्रिपद, झस नौं चप ह्र सार । खस पर छतै सुजांणजो छकार नौं सुचकार ।।३७॥ किहां यक दीर्घ थकी छ द्विर । ह्रीच्छः म्लेच्छ : पेष। खसे चपा सूत्रे करी, छकार नौ च देष ॥३८॥ खण्ड २१, अंक २ १७५ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ मोनुस्वार २ द्विपद ए सुत्त, मकार नौं अनुस्वार । इस पर छर्त पदांत फुनि, उदाहरण अवधार ||३९|| तम् हसति मनों हुवं तं हसति अनुस्वार । पटुम् वृथा नौ पटुं वृथा, इम पदान्त मैं धार ॥ ४० ॥ नश्चा पदान्ते इसे ४ चतुर् नकार वली मकार | वर्तमान अपदांत तसुं अनुस्वार व सार ।।४१।। यशा न् सि अपदांत न, यशांसि सिद्ध उदार । पयान् सि नौ पयांसि पुम् भ्यां पुभ्यां धार ॥ ४२ ॥ यमाय स्य वा ४ पद चतुर, अनुस्वार नौं देष । वा यम ह्वै यप पर छतै, यप नौं सवर्ण पेष ॥ ४३ ॥ त्वङ् करोषि ङ होय । तन्तनोति न जोय ॥ ४४ ॥ छतै, सय्यंता य सार । छतैं ताराघवं र धार ||४५ || छतै, रा राम्यते र होय । करि, र लोप दीर्घ सुजोय ॥ ४६ ॥ पर छर्त, यञ्जकार ज होय । यण्णकार ण जोय ॥ ४७ ॥ तन्ननीति न होय । यड्डकार ड जोय ॥४८॥ त्वं करोषि क पर छतं 7 तं तनोति त पर छतै, सं यंता य पर तं राघवं र पर रं रम्यते र पर रि लोपे दीर्घ सूत्र कार यं णकार ण पर छतै तं ननीति न पर थकां यं डकार ड पर थकां सं मानयति मकार पर, सम्मानयति मकार । संपति चवर्ग पर, सञ्झपति सुञकार ||४९ ॥ तं ढोकते ट वर्ग पर तण्डौकते णकार | सं धमति तवर्ग पर सन्धमति सुनकार ॥५०॥ संघर्षति क वर्ग पर, सङघर्षति ङकार । सं भमति पवर्ग पर सम्भवति सुमकार ।। ५१ ।। जञ्जय्यते ञ होय । सण्डीयते ण जोय ।। ५२ ।। दन्दशयते नकार । जङ्गम्यते ङकार ॥५३॥ बं बमीति पु पर थकां बम्बमीति म होय । स खनति कुपर थकां सङ्खनति ङ जोय ॥ ५४ ॥ जं जय्यते चवर्ग पर संडीयते टवर्ग पर, दं दश्यते तु पर थकां जं गम्यते कुपर थकां पं फलति पु पर थकां पम्फलति म सवर्ण । संछादयति चुपरः, सञ्छादयति ञ कर्णं ।। ५५ ।। कंठः टवर्ग पर थकां कण्ठः सवर्ण णकार । कंथा तवर्ग पर थक, कन्था सवर्ण नकार ॥ ५६ ॥ तुलसी प्रज्ञा Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं चरति च पर थकां, सञ्चरति न सवर्ण । घंटा ट वर्ग नौं सवर्ण, घण्टा णकार धर्ण ॥५७॥ त्वं करोति कु पर थकां, त्वङ करोति ङ होय । मं परति पु पर थकां, सम्परति म जोय ॥८॥ एक ठौड रहै मुलगी, अनुस्वार अवलोय । एक ठोड यप सवर्ण ह, यप पर थी यम जोय ॥५९॥ यवल परे यव लाव आ, अनुस्वार नौ पेष । यवल परे यवलाज ह्व, विकल्प करी संपेष ॥६०।। संवत्सर व पर थकां, सवत्सर व होय । एक ठोड रहै मूलगो, संवत्सर अवलोय ॥६१॥ यं लोकं य पर थकां, यल्लोकं सुलकार ।। सं यंता य पर थकां, सय्यंता सु यकार ॥६२॥ स्वरे म द्विपद ए सुत्त, अनुस्वार नौं जाण । स्वर पर थकां मकार है', सं अस्ति समस्ति मांण ॥६३॥ इति व्यंजन संधि म्है कही, संक्षेपे सुविचार। हिवै विसर्ग संधि पांचमी, आखू अधिक उदार ॥६४।। ॥ इति व्यंजन संधि ॥ विसर्जनीयस्य सः २ द्विपद, विसर्ग तणौ स होति । ख प पर थकां हुवै सही, कः तनोति कस्तनोति ॥१॥ श ष से वा २ द्विपद ए सुत्र, विसर्ग तणो विशेष । श ष स पर थकां श ष स ह्व, विकल्प करी सुपेष ॥२॥ क: शेते इक ठोड रहै, कश्शेते श होय । क: षंड: कष्पंड ष, कः साधु कस्साधु जोय ॥३॥ कुप्वोः कथ्यो वा त्रिपद, विसर्ग कपवर्ग संबंध । खस पर थकां ष्क थ्यो ह, विकल्प करी प्रबंध ॥४॥ कप उचारण अर्थ है, ककार गज कुंभाम । पकार डुमरु आकृति, उपध्मानीय नाम ॥५॥ कः करोति ठौड इक, ककरोति होय । कः पचति नौ वा ह, क पचति अवलोय ।।६॥ क: पठति नौ कपठति, इत्यादिक अवसान । जिह्वामूली क वर्ग बंधि, पवर्ग उपध्मान ॥७॥ वाचस्पत्यादि नाम जे, निपात थी सिद्ध होय । वाचः पति वाचस्पति, इत्यादिक बहु जोय ।।८।। तत् वृहत् आगै कर पति, चोर एक इक देव । सुट् आगम त लोप ह्र, तस्कर वृहस्पति हेव ॥९॥ खंड २१, अंक २ १७७ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारः कर कारस्करः पारः पर नौं पेष । पारस्परः, भा: कर तणौ भास्कर रवि संपेष ॥१०॥ राजः त्वंदं राजस्त्वंद, हरिः चंद्र हरिश्चंद्र । इत्यादिक सिद्ध शब्द ह्व, निपात थकी संबंध ॥११॥ अह्रो रो रात्रिषु ३ त्रिपद, अह्नो विसर्ग हित । पदांत विष रकार ह्र, राज्यादि वजित ॥१२॥ अहः पति को अहर्पति अहः गण अहर्गण जांण ।। रात्यादि तहां वरजीया, तसु आगलि पहिछांण ॥१३॥ अहः रात्रि नौं अहोरात्रि, अहः रथंतर तत्र । अहोरथंतर उ थयौ, अहोभ्यां रेफ न अत्र ।।१४।। अत्योत्युः ३ त्रिपद इहां, अकार ते विसर्ग । उकार ह्र अति पर थकां, कः अर्थ कोर्थ समग ॥१५।। हबे १ एक पद सूत्र है, अकार ते पर पेष । विसर्ग तणी उकार ह्व, हब पर थकां संपेष ॥१६॥ कः गत: को ह्र कोगतः, देवः याति तत्थ । देवो याति सिद्ध ए, मनः रथ मनोरथ ॥१७॥ आदबे लोपश ३ त्रिपदं, अवर्ण हूंति जाण । विसर्ग को लोपश् हुवे, अब पर थकां पिछांण ॥१८॥ देवा ! अत्र तणो हुवे, देवा अत्र न संधि । वाताः वाता नौं हुवै, वातावाता बंध ।।१९।। स्वरे यत्वं वा ३ त्रिपद सुत्त, अवर्ण हूंति न्हाल । विसर्ग नौं वा यत्व ह, स्वर पर थकां संभाल ॥२०॥ देवाः अत्र तणो हवै, देवा यत्र उदार । एक ठोड य नां हुवै, विकल्प कह्यौ विचार ॥२१॥ भोस: १ इक पद सूत्र ए, भोस् भगोस् अघोस् । यात पर विसर्ग तणी, लोपश अब पर घोस ॥२२॥ भो: एहि अव् ना हुदै, भो एहि सिद्ध थाय । भगो: नमस्ते भगो नम, अघो याहि अघोयाहि ॥२३॥ नामिनो र: २ द्विपद इहां, नामि स्वर थी सोय । पर विसर्ग नौं रेफ ह, अब पर थकां सुजोय ॥२४॥ अग्नि अत्र तणो हुदै, अग्निरत्र र होय । पटुः यजति नौं हुवै पटुर्यजति सोय ॥२५॥ रेफ प्रकृति कस्य खपे वा रेफ प्रकृति विसर्ग । तेह नौं विकल्प रेफ ह्व, ख प पर थकां उदग ॥२६॥ गीः पति केरौ हवै, गीर्पति र धार ।। अथवा होवे गी ट्ट पति उपध्मानी सार ॥२७॥ १७८ तुलसी प्रज्ञा Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र: १ एक पद सूत्र नौ, रेफ संबंधित नेह । विसर्ग ताको रेफ ह, अब पर थकां सुणेह ॥२८॥ प्रातः अत्र नौं प्रातरत्र अंत: गत नौं रूप । अंतर्गत धात: गच्छ धातर्गच्छ अनूप ॥२९॥ रि लोपो दीर्घश्च ३ त्रिप, रेफ तणौ ह लोप ।। रेफ पर थकां जांणजो पूर्व दीर्घ सु रोप ॥३०॥ पुनः रमते नौं हुवे, पुनारमते जांण । शुक्तिः रूप्यात्म तणो शुक्ती रूप पिछांण ॥३१॥ उषसो रो बुधे ३ त्रिपदं, उषसो विसर्ग देष । ताको पदांत मैं तसं र हवे, बुध पर थकै सुपेष ॥३२॥ उषः बुध तेहनौं हुवे, उषबुंधर जोय । उदाहरण अरू सूत्र में, समझे चतुर सुजाण ॥३३॥ संषाद्ध से २ द्विपद इहां, स शब्द ते अरू एष । पर विसर्ग नौ लोप है, हस पर थकं संपेष ॥३४॥ सः चरति स चरति है, एषः हसति जांण । एष हसति इम लोप ह्र, विसर्ग तणी पिछांण ॥३५॥ सैष संध्यर्थ पदपूरणे, सैष दासरथि राम । सैष युधिष्ठर सैष कर्ण, सैष भीम बल धाम ॥३६॥ क्वचिन्नामिनोऽबे लोपश् किहां क नामि थी जांण । पर विसर्ग तहुँ लोपश्, अब पर थकां पिछांण ॥३७॥ भूमिः आददे तेह नों, भूम्याददे सु होय । छांदस्त्वात् भूमि थकी, अमो लोप ए जोय ॥३८॥ भूमि आददे तेहनों, भूम्याददे विचार । इत्यादिक बहु न्याय थी, कीजै अर्थ उदार ॥३९॥ किहां क प्राप्त नी प्रवृत्ति, क्वचित् अप्राप्त प्रवृत्ति । क्वचित् विभाषा क्वचित् अन्य, चउविध बहुल निप्पत्त ।।४०॥ वर्णागम १ वर्ण विपर्याय २ वर्णविकार ३ वर्णनाश ४ । धातु अतिशय योग अर्थ ५, पंच विध निरुक्त तास ॥४१॥ वर्णागम सु गवेंद्रादि १ षोडश विकार तास २ । सिंहे वर्ण विपर्याय ३ पृषोदर वर्णनाश ४ ॥४२॥ वर्ण विकार नाशे करी, धातो अतिशय योग । मयूर भ्रमरादि ने विर्ष, आष पंडित लोग ॥४३॥ विसर्ग संधि पंचमी, आषी अधिक उदार । अर्थ अनोपम आदरै शब्द वृत्ति सुषकार ॥४४॥ पंच संधि कही ते मझे, विरुद्ध आयो ह्व कोय । ते मिच्छामि दुक्कडं, सिद्ध साषे अवलोय ॥४५॥ १७९ बड २१, अंक २ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडित जांण सिद्धत ना, सुद्ध कर लीजो देष । करी उतावल मैं इहां, सहिज मांहि संपेष ॥४६॥ भीखू भारीमालजी, तीजे पट ऋषराय । तास प्रसाद करी रची, भाषा जयजश पाय ॥४७॥ संवत् उगणीस सही, सात फागुण मास । विद पष बीज सु सोमवार जोमनेर सुष वास ॥४८॥ ॥ इति विसर्ग संधि ॥ इति श्री पंच संधि नी भाषा रूप जोड सम्पूर्णम् । संवत् १९०७ फागुण बिद २ . वार सोम जोमनेर मध्य लिषत्तं ऋष जीतमल । तुलसी प्रज्ञा Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दाम्पत्य जीवन और उत्तरदायित्व ब डॉ० आर० के० ओझा आज के युग में जहां जीवन विषम परिस्थितियों से घिरा हुआ है, वहां वैवाहिक जीवन को सुखपूर्वक काट लेना, एक गम्भीर समस्या बन गई है। आर्थिक-संकट ने और धनार्जन की लिप्सा ने चिन्तन की धारा और मानसिकता को बदल दिया है। आर्थिक मूल्य ने रिस्ते खतम कर दिये हैं, परिवार और समाज के प्रति जो जिम्मेदारियां होती हैं उनके प्रति कोई लगाव नहीं रहा है । बड़े परिवार, निरर्थक शिक्षा, आर्थिक संकट, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, फैशन, फिल्म और दूसरे के बराबर आ जाने की होड़ ने व्यक्ति की मानसिकता को निश्चित रूप में प्रभावित किया है। इस बदलती मानसिकता ने पति की पत्नी के प्रति और पत्नी की प्रति के प्रति जो भावना होनी चाहिए थी उनको प्रभावित किया है। जिम्मेदारी को निभाना, सहनशीलता तथा समायोजन जैसी भावनाएं कमजोर पड़ गई हैं। गृहस्थ जीवन का परम-सुख पति-पत्नी के सम्बन्धों में निहित होता है। धन, वैभव, प्रतिष्ठा, रहन-सहन के अच्छे से अच्छे साधन, सन्तान, मित्र आदि जीवन को सुखी बनाने में तब तक सहयोगी नहीं हो सकते जब तक पति-पत्नी में समायोजन की भावना की कमी होगी । समायोजन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी परिस्थितियों से ताल-मेल बैठाते हुए व्यवहार करता है । आज उस पुरानी वृत्ति की कोई आवश्यकता नहीं रह गई है कि 'हम झुकेंगे नहीं टूट जायेंगे'। जैसे-जैसे समय बदलता है वैसे-वैसे सब कुछ बदलता है। इसलिए जो सुख-पूर्वक रहना चाहता है उसे भी समय के साथ बदलना होता है । पचास वर्ष पूर्व के मूल्यों से नियन्त्रित होकर दाम्पत्य जीवन को संतुलित नहीं बनाये रखा जा सकता है। आज आपकी पत्नी के प्रति आपके माता-पिता का वह रवैय्या जो उनके साथ उनके सास-ससुर ने अपनाया था, घोर संकट पैदा कर देता है । पत्नी के लिये अनावश्यक पर्दा, पुरानी घिसी-पिटी लकीर पर चलने की जिद, पत्नी में चिड़चिड़ापन पैदा कर देता है। इस प्रकार दाम्पत्य जीवन और उसके उत्तरदायित्व के विषय में चर्चा करते वक्त कुछ ऐसे कारकों का विश्लेषण करना आवश्यक हो जाता है जो विवाह से पूर्व मौर विवाह के पश्चात् ध्यान देने योग्य होते हैं। यदि इन पक्षों की उपेक्षा कर दी जाती है तो दाम्पत्य जीवन कष्टपूर्ण ही गुजरता है जो बाद में चलकर संतान के व्यवहार को भी प्रभावित करता है। पण्ड २१, अंक २ १८१ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संस्कृति में अभी तक वैवाहिक सम्बन्धों को स्थापित करने के लिये माता-पिता या अपने सगे सम्बन्धी ही आधार बने हुए हैं। माता-पिता अपने पुत्र-पुत्री से होने वाले पति-पत्नी के विषय में पूछते अवश्य हैं और उनकी 'हां' पर ही आगे की बातचीत बढ़ाते हैं । किन्तु और अन्य सभी बातों के निर्णय प्राय: माता-पिता ही लेते हैं । इस विषय में सबसे पहले इस बात का ध्यान रखा जाये कि लड़के-लड़की का मैच मिलता है या नहीं। जैसे कद, शारीरिक सौन्दर्य, स्वास्थ्य, रंग-रूप और शारीरिक आकर्षण । इन पक्षों की किसी विशेष सीमा तक ही उपेक्षा की जा सकती है और वह भी लड़के-लड़की की इच्छा को जानकर और उनकी सहमति से । किन्तु किसी लालच वश लड़के-लड़की में अधिक भिन्नता होने पर विवाह कर दिया जाता है तो कुछ समय के बाद ही दोनों में एक-दूसरे के प्रति समायोजन-हेतु जो भावनाएं होनी चाहिये वह धीरे-धीरे कम हो जाती हैं और फिर स्थिति विषम बनती चली जाती है। इसलिये शारीरिक दृष्टि से मैच का मिलना अति आवश्यक है। दूसरी महत्वपूर्ण बात है परिवार या खानदान । प्रायः पुरानी पीढ़ी के लोगों को आपने यह कहते सुना होगा कि अमुख खानदान बड़ा प्रसिद्ध, श्रेष्ठ और भले लोगों का है, आज गरीब हो गये हैं तो क्या । हम तो अच्छे खानदान की लड़की चाहते हैं और सबकी हमें चिन्ता नहीं है । पुराने लोगों के इस विचार में बड़ा सार है। खानदान अच्छे होने का तात्पर्य है, उस परिवार के बच्चों का चरित्र, मानसिकता, चिन्तन, समायोजन की क्षमता, अपने पराये का भेद, सहानुभूति, प्रेम, शिष्टाचार, मर्यादा तथा मान-सम्मान की भावना । ये सब चरित्र के गुण हैं जो व्यक्तित्व के विकास में एक अहम भूमिका निभाते हैं। संतुलित व्यक्तित्व के लड़के-लड़कियों के वैवाहिक सम्बन्धों में सहनशीलता, धैर्य और समझने की क्षमता होती है। वंशानुक्रम एक महत्त्वपूर्ण आधार है जिसे नकारा नहीं जा सकता है । एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में गुणों का हस्तानान्तरण होता है। ये हस्तान्तरण और परिवारजनों के व्यवहार से सीखना ही परिपक्वता पर तथा लड़के-लड़की की अहमियत पर पूरा प्रभाव डालता है। इसलिये जब अच्छे खानदान के लड़के-लड़की विवाहसूत्र में बंध जाते हैं तो एक दूसरे के साथ बड़ी आसानी से निर्वाह करते रहते हैं। तीसरी बात है आयु का ताल-मेल । एक आयु विशेष में ही लड़के-लड़की का विवाह होना चाहिये तथा उनकी आयु में जो अन्तर है वह एक सीमा तक पटनाबढ़ना चाहिये । उदाहरण के लिये, विवाह के समय यदि लड़के की आयु २५ वर्ष से तीस वर्ष के बीच में है और लड़की की आयु २० वर्ष से २५ वर्ष के बीच में है तो यह समागम शारीरिक-क्षमता, और मानसिक-चाह या काम-प्रेरणा की दृष्टि से सर्वोत्तम है। किन्तु लड़के की आयु ३० वर्ष को पार कर गई है और लड़की भी ३० के लगभग पहुंच रही है तो फिर इच्छाएं अपने सामान्य-बिन्दु से हटकर स्वतः नहीं बल्कि चाहने पर क्रियाशील होती हैं । इसी प्रकार यदि लड़के-लड़की में आयु का अन्तर बहुत अधिक है या बहुत कम है तो एक बुढ़ापे में प्रवेश करता है और दूसरे को जवानी का सफर तय करने को बहुत समय शेष रह जाता है, इसी प्रकार जब आयु अन्तर बहुत कम होता १८२ तुमसी प्रज्ञा Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है या आयु बराबर होती है तो स्त्री शरीर से जल्दी क्षीण हो जाती है और पुरुष देर से । परिणाम यह होता है कि सोचने-विचारने में फर्क पड़ जाता है। मनोवैज्ञानिक दष्टिकोण से आयु-अन्तर एक गंभीर समस्या है । इस पर यदि ध्यान नहीं दिया जाता है तो दाम्पत्य-जीवन में दो में से किसी एक में तनाव, दबाव और कुण्ठाएं उत्पन्न हो जाती हैं । धीरे-धीरे एक-दूसरे के मन दुःखी रहते है। चाहे कह कुछ न सकें किन्तु महसूस अवश्य करते हैं। जो वास्तविकता है वह कहीं न कही खरोंचती रहती है । यह बहुत आवश्यक है कि दाम्पत्य जीवन में दोनों ही साथ-साथ जुड़े हों, दोनों की विचारधाराएं, सोचने-समझने का स्टेण्डर्ड लगभग कुछ आगे-पीछे एक स्तर पर हो। आयु मन और शरीर दोनों को प्रभावित करती है, मन और शरीर की क्षमता से प्रेरणाएं नियन्त्रित होती है और जब ये प्रेरणाएं पति-पत्नी में भिन्न होती हैं तो मानसिक उत्पात का श्रीगणेश हो जाता है और दाम्पत्य जीवन का सुख बहुत कहीं दूर चला जाता है। __ मैं ऐसे बहत-से पुरुषों को जानता हूं जो धनवान हैं और अपने व्यवसाय में सफल एवं जाने-माने लोग गिने जाते हैं, किन्तु दाम्पत्य जीवन में दुखी है। वह इस को किसी से कहते नहीं हैं केवल उससे पीड़ित रहते है और इस पीड़ा से बचने के लिये वे या तो कुछ व्यसनों में लग जाते हैं या फिर अथक परिश्रम करते रहते हैं और धनार्जन हेतु अपने तथा पत्नी के स्वास्थ्य की भी परवाह नहीं करते हैं। इसके पीछे ऐसा कौन-सा कारण है कि पुरुष दाम्पत्य जीवन के सुख को केवल गृहस्थी का पालनपोषण मान बैठता है और इसके लिए धनार्जन ही उसका उद्देश्य रह जाता है । क्या इस स्थिति को आर्थिक पागलपन नहीं कहेंगे । गरीवी की पीड़ा या धन की लिप्सा, आर्थिक संकट या दूसरे के समान आर्थिक स्तर पर संपन्न बनने की लालसा दाम्पत्यजीवन के महत्त्व से बहुत दूर हटा देती है । इसी प्रकार विवाह करने से पूर्व मातापिता को यह बात अच्छी प्रकार समझ लेनी चाहिये कि हम जिस परिवार में रिश्ता करने जा रहे हैं वह आर्थिक-स्तर पर लगभग हमारे समान ही हो। जहां एक पार्टी धनवान और दूसरी गरीब होती है या एक पार्टी अत्यधिक धनवान और दूसरे मध्यम वर्ग के है तो इस प्रकार के संबंध में दाम्पत्य जीवन क्लेशपूर्ण बन जाता है । मैं एक ऐसे पूंजीपति को जानता हूं जिसने अपने संबधियों को नीचा दिखाने के लिये तथा समाज में और अधिक प्रतिष्ठित बनने के लिये अपनी मामूली आकर्षण वाली एम० ए० पास पुत्री का विवाह एक आई० ए० एस० अफसर से किया। लाखों की शादी करने के बाद भी लगभग दो वर्ष में सब कुछ टूट गया। यह क्या है ? केवल अनमेल रिश्ता । चूंकि लड़की के पिता ने समाज में प्रतिष्ठित बनने के लिये और आई० ए० एस० अफसर ने लालच में सम्बन्ध जोड़े, इसलिये बात बिगड़ गई। यह बात निश्चित है कि दाम्पत्य जीवन का सुख आर्थिक समान-स्तर में निहित होता है। इस संदर्भ में शिक्षा का भी अपना एक महत्त्व है । दाम्पत्य जीवन में समायोजन और सुख के लिये यह आवश्यक है कि लड़के-लड़की की शिक्षा का स्तर लगभग समान हो । विशेषकर उन स्थितियों में यह बात और अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है खण्ड २१, अंक २ १८३ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जबकि लड़का नौकरीपेशा होता है। क्योंकि नौकरी करने वाले लोगों की आय सीमित होती है और खर्चे असीमित । इसलिये परिवार आर्थिक-संकट से घिरा रहता है । यदि पत्नी भी पढ़ी-लिखी है और इस योग्य शिक्षा प्राप्त कर ली है कि वह भी आर्थिक-संकट को दूर करने के लिये कोई कार्य करने में समर्थ है तो यह सर्वोत्तम है । कभी होता यह है कि लड़का मेडीको है या इंजीनियर है या आई० ए० एस०, पी० सी० एस० आदि उच्च शिक्षा प्राप्त किया हुआ है और लड़की केवल हाई स्कूल इण्टर पास है तो वह अपने पति की भावना को समझने में असमर्थ रहती है । उसके सोचने का दृष्टिकोण अपने पति से लगभग भिन्न ही रहता है । इसलिये विवाह से पूर्व होने वाले पति-पत्नी के शिक्षा का स्तर दाम्पत्य जीवन के सुख का एक आवश्यक अंग है । यह तथ्य व्यवसाय में लगे हुए लोगों पर लागू नहीं होता है । उनके लिये तो ठीक इसके विपरीत बात कहीं ज्यादा सफल होते देखी गई है । जैसे, छोटे से लेकर बड़े स्तर की दुकानदारी करने वाले व्यक्ति को सुबह ८ बजे घर से चला जाना है और रात को लगभग ८ बजे के बाद ही घर में आना है। उसे १२ घंटे से ज्यादा घर से बाहर गुजारने हैं। ऐसी स्थिति में बुद्धिजीवी या अधिक पढ़ी-लिखी लड़की अपने जीवन में एक प्रकार की रिक्तता महसूस करती है । अकेलापन उसे खलता है। इसलिये इस प्रकार के लड़कों के लिये घरेलू लड़की अर्थात् समान व्यवसायी परिवार की लड़की ही उपयुक्त होती है । इस प्रकार वह अपने को घरेलू काम-काज में, बच्चों के पालन-पोषण में, घूमने-फिरने में और सम्मलित परिवार के उत्तरदायित्व वहन करने में अपने को परम सुखी महसूस करती है। दाम्पत्य जीवन के दुःख और सुख का विश्लेषण किया जाए तो यह तथ्य सामने आता है कि दाम्पत्य जीवन की सारी बैचेनी बड़े परिवार के कारण होती है। इसमें दो राय नहीं है कि सीमित परिवार स्वर्ग-समान होता है। सबसे उत्तम दाम्पत्य जीवन तो पति-पत्नी और दो या तीन बच्चों से मिलकर बनता है। जहां लड़के के मातापिता अर्थात् पत्नी के सास-ससुर होते हैं वहां दाम्पत्य जीवन में समय-समय पर कुछ बैचेनी का सामना करना पड़ता है, किंतु यदि लड़का यह समझकर व्यवहार करे कि मैं माता-पिता का पुत्र हूं तो दूसरी ओर मैं पति भी हूं। इस प्रकार मेरे उत्तरदायित्व दोनों के प्रति महत्त्वपूर्ण हैं। केवल पत्नी का पति बन जाना और माता-पिता को नजरअन्दाज करना या माता-पिता के बहकावे में आकर पत्नी को बात-बात पर तिरस्कार करना या बुरा-भला कहना, दाम्पत्य-जीवन को लात मार देना है। इसी प्रकार लड़की को अपने माता-पिता का घर छोड़कर नये घर में आना, अग्नि-परीक्षा के समान होता है। अपने घर की परिस्थितियों में, रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा और व्यवहार के तौर-तरीकों में जीवन का महत्त्वपूर्ण समय गुजारने वाली लड़की को यह समझ लेना चाहिये कि अब उसे अपने पति के घरेलू माहोल के साथ मिलजुलकर चलना है। सास-ससुर को अपने माता-पिता से अधिक महत्त्वपूर्ण मानना है । माता-पिता का अगाध प्रेम पाने वाली बिटिया को बड़ी जिम्मेदारी के साथ समायोजन स्थापित करने में कोई कसर नहीं उठा रखनी चाहिये । दाम्पत्य-जीवन में प्रारम्भ के १८४ तुलसी प्रज्ञा Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष बड़े जिम्मेदारी के होते है । यह धैर्य और सहनशीलता के साथ बर्दाश्त करने का समय होता है । प्रारंभिक वर्षों में उतार-चढ़ाव का तूफान आना स्वाभाविक होता है । क्योंकि लड़की को नये लोगों के साथ रहना है और लड़के को थोड़ा-सा मातापिता से हटकर पत्नी की ओर झकना है । लडके का प्यार बंट जाता है। इस स्वाभाविक क्रिया को माता-पिता यह समझ बैठते हैं कि उनका बेटा अब छिन रहा है और पत्नी के निर्देशन में चल रहा है । इन परिस्थितियों में माता-पिता की भी बड़ी जिम्मेदारी है । वे जब अपनी जिम्मेदारी को निभाने के बजाय भटक जाते हैं तो घर का तो सर्वनाश हो ही जाता है, इसके साथ-साथ वे अपने बेटे के लिये भी भयावह एवं संकटपूर्ण समस्याओं के बीज बो देते है। इससे बड़े परिवार में रहना तो दाम्पत्य-जीवन के सुख से लगभग वंचित हो जाना है । क्योंकि जितने सदस्य उतनी समस्याएं । जीवन की जटिल से जटिल समस्याएं सुलझाई जा सकती है। किन्तु पारिवारिक समस्याओं को सुलझाने में सारा जीवन स्वहा हो सकता है, फिर समस्याएं ज्यों की त्यों मुंह फाड़े निगलने को तैयार रहती हैं। दाम्पत्य जीवन की चर्चा में हमें स्वास्थ्य जैसे महत्त्वपूर्ण पक्ष का भी विश्लेषण करना होगा । एक पुरानी कहावत है कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का वास होता है । इस विज्ञान के युग में जहां समस्याओं को सुलझाने के अनेक साधन उपलब्ध हैं किन्तु समस्याओं को सुलझाने वाला व्यक्ति जटिल हो गया है, वहां अब यह कहना पड़ता है कि स्वस्थ मन से स्वस्थ शरीर का विकास होता है। विवाह के पश्चात पति को अपने और पत्नी के स्वास्थ्य की और पत्नी को अपने तथा पति के स्वास्थ्य की पूरी देखभाल रखनी चाहिये । विवाह से पूर्व इस बात की पूरी जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिये कि जहां हम अपने संबंध स्थापित करने जा रहे हैं, उस परिवार में वंशानुक्रमिक रोग के लक्षण तो नहीं हैं या लड़का-लड़की में से कोई किसी गम्भीर रोग से पीड़ित तो नहीं है या मानसिक-स्तर पर सामान्यता की कसोटियों पर खरा उतरता है या नहीं आदि । अन्ततोगत्वा, यह भली-भांति जान लेना चाहिये कि शारीरिक और मानसिक स्तर पर रोगमुक्त होना अति आवश्यक है। क्योंकि विवाह से पूर्व के शारीरिक और मानसिक लक्षण दाम्पत्य जीवन को बांधे रखने में बाधा डालते हैं। कुल मिलाकर हम यह कह सकते हैं कि दाम्पत्य जीवन के परम-सुख के लिये पति-पत्नी में एक सामान्य-समझदारी होना अति आवश्यक है। एक दूसरे के प्रति विश्वास होना चाहिये । धैर्य और सहानुभूतिपूर्वक एक दूसरे की बात तो सुननी ही चाहिये और उस पर अमल भी करना चाहिये । छोटी-मोटी बातों पर अधिक वादविवाद में नहीं फंसना चाहिये । एक-दूसरे के माता-पिता को लेकर लम्बी-चौड़ी आलोचना या व्यर्थ की बातचीत में उलझने से अपने को दबाव की स्थिति में डाल देना है। किन्हीं विशेष मुद्दों पर जब भी विरोधी विचार हो तो तुरन्त निबटा लेना चाहिये । अधिक समय तक तनाव की स्थिति में रहना कोई अच्छी बात नहीं है। छोटी-छोटी बातों को बड़ा रूप कभी नहीं देना चाहिये। संतान को लेकर एक-दूसरे घर २१, अंक २ १८५ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को दोषी ठहराना ठीक नहीं है । परिवार जनों, मित्रों या पड़ोसी के किसी व्यवहार को लेकर आपस में वाद-विवाद करना अपने को उलझन में फंसा देना है। किसी भी दशा में एक दूसरे को लज्जित करने वाली भावना मन के टुकड़े-टुकड़े कर देती है। आर्थिक संकट में घबराना नहीं है, बल्कि सामान्य दशा से अधिक प्रसन्न रहना है। यदि पति-पत्नी दोनों ही नौकरी करते हैं या एक दूसरे के व्यवसाय में भागीदार हैं तो रुपये पैसे को लेकर यह नहीं सोचना है कि मैं इतना अधिक कमाता हूं इसलिये मुझे विशेष अधिकार प्राप्त है। फिजूलखर्ची के मुद्दे पर झगड़ा करने के बजाय गंभीरता से यह समझा देना और समझ लेना चाहिये कि हम अपनी आर्थिक परिधि से बाहर निकल रहे हैं। अन्त में, हम यह कह सकते हैं कि दाम्पत्य जीवन उत्तरदायित्वों से भरा हुआ जीवन-संग्राम है। पति-पत्नी दोनों को मिलकर अपनी संतान के प्रति जो जिम्मेदारियां हैं वह तो निभानी ही है । इसके साथ-साथ परिवारजनों के प्रति, विशेषकर मातापिता एवं भाई-बहनों के प्रति जो अनगिनत कर्तव्य हैं उनको भी निभाना है। कर्तव्य-पालन और त्याग की भावना से ही मनुष्य को परम सुख प्राप्त हो सकता है। __-प्रोफेसर एवं अध्यक्ष जीवन-विज्ञान, प्रेक्षाध्यान एवं योग जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं तुलसी प्रज्ञा Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व शांति शोध संघर्ष - निराकरण संघर्ष सतत रहने वाली प्रक्रिया है । जब व्यक्ति-व्यक्ति के बीच सहयोग नहीं होता अथवा जब वे एक दूसरे के प्रति तटस्थ नहीं रहते, तो संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है । संघर्ष अस्वाभाविक भी नहीं है । जब सीमित लक्ष्यों को अनेक व्यक्ति प्राप्त करना चाहें तो संघर्ष होता है । [4] डॉ० बच्छराज दूगड़ Conflict शब्द लेटिन भाषा के Con + fligo से मिलकर बना है । Con का अर्थ है together तथा fiigo का अर्थ है - to strike अतएव संघर्ष का अर्थ है - लड़ना, प्रभुत्व के लिए संघर्ष करना, विरोध करना, किसी पर काबू पाना आदि । ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार- दो वर्गों या समूहों के बीच सशस्त्र प्रतिरोध, लड़ाई या युद्ध संघर्ष है । विपरीत सिद्धांतों, कथनों, तर्कों आदि से विरोध भी संघर्ष है तथा विचारों, मतों और पसन्द के बीच असामंजस्यपूर्ण व्यवहार भी संघर्ष है । गिलीन एवं गिलीन के अनुसार — संघर्ष वह सामाजिक प्रक्रिया है, जिसमें व्यक्ति अथवा समूह अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए विरोधी के प्रति प्रत्यक्ष हिंसा या हिंसा की धमकी का प्रयोग करते हैं । अर्थात् किसी साध्य प्राप्ति हेतु किये जाने वाले संघर्ष की प्रकृति में ही विरोधी के प्रति घृणा और हिंसा की भावना विद्यमान होती है । प्रो० ग्रीन के अनुसार - " संघर्ष जानबूझकर किया गया वह प्रयत्न है, जो किसी की इच्छा का विरोध करने, उसके आड़े आने अथवा उसे दबाने के लिए किया जाता है ।" अर्थात् ग्रीन महोदय ने हिंसा व आक्रमण के साथ उत्पीड़न को भी संघर्ष का एक प्रमुख तत्त्व स्वीकार किया है। किंग्सले डेविस ने प्रतिस्पर्धा को भी संघर्ष माना है । उनके अनुसार प्रतिस्पर्धा व संघर्ष में केवल मात्रा का ही अन्तर है । मूलतः देखा जाए तो संघर्ष परिवर्तन का एक साधन है । परिवर्तन की आवश्यकता और इच्छा को झुठलाया नहीं जा सकता और हमें यह भी स्वीकार करना ही होगा कि उपयुक्त साधनों से ही परिवर्तन होगा । हमें संघर्ष को सदैव हिंसक रूप में ही न देखकर उसे परिवर्तन के संदर्भ में देखना चाहिए। यह धारणा या विचार मिथ्या है कि संघर्ष नैतिक रूप से गलत व सामाजिक रूप से अनचाहा है। संघर्ष सदैव त्याज्य या विध्वंसात्मक ही नहीं होता, यह समूहों के बीच तनाव को समाप्त करता है, जिज्ञासाओं व रुचियों को प्रेरित करता है तथा यह एक ऐसा माध्यम भी हो सकता है जिसके द्वारा समस्याएं उभारकर उनके समाधानों तक पहुंचा जा सकता है खण्ड २१, अक २ १८७ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् यह व्यक्तिगत और सामाजिक परिवर्तन का आधार भी हो सकता है। कोजर ने सामाजिक संघर्षों की महत्ता को प्रकाशित करते हुए लिखा है-संघर्ष, असंतुष्टि के स्रोतों को खत्म कर तथा परिवर्तन की आवश्यकता की पूर्व चेतावनी तथा नवीन सिद्धांतों का परिचय देकर समुदाय पर एक स्थिर एवं प्रभावशाली छाप छोड़ता संघर्ष की दो स्थितियां हैं-(१) न्यायोचित लक्ष्य के लिए प्रतिस्पर्धा में शामिल होना एवं (२) ऐसा लक्ष्य जो न्यायोचित नहीं है, उसकी प्राप्ति के लिए प्रतिस्पर्धा में शामिल होना । इन दोनों में प्रथम यथार्थवादी संघर्ष एक विशेष परिणाम की प्राप्ति । के लिए होता है । समाजशास्त्रियों का मानना है-संघर्षविहीन समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। मेक्स वेबर के अनुसार--"सामाजिक जीवन से हम संघर्ष को अलग नहीं कर सकते । हम जिसे शांति कहते हैं वह और कुछ नहीं है अपितु संघर्ष के प्रकार व उद्देश्यों तथा विरोधी में परिवर्तन है।" रोबिन विलियम्स के अनुसारकोई भी परिस्थिति में हिंसा या संघर्ष पूर्ण रूप से उपस्थित या अनुपस्थित नहीं हो सकता। यहां भगवान महावीर की दृष्टि ज्ञातव्य है-उनके अनुसार समाज केवल हिंसा या केवल अहिंसा के आधार पर नहीं चल सकता। प्रो० महेन्द्र कुमार के अनुसार-हिंसा की पूर्ण अनुपस्थिति असम्भव है क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय समाज से संघर्ष का पूर्ण विलोपन सम्भव नहीं है और न ही यह वांछनीय है क्योंकि अहिंसक-समाज निर्माण में हिंसा की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। अतएव संघर्ष को नियन्त्रित या इच्छित दिशा में गतिशील किया जा सकता है, उसे पूर्ण रूप से हटाया नहीं जा सकता। महात्मा गांधी ने भी संघर्ष की अनिवार्यता को स्वीकार किया है। जे० डी० टाटा ने जब गांधीजी से यह पूछा- बापू ! आप तमाम उम्र संघर्ष करते रहे हैं (ब्रिटिश लोगों से), उनके चले जाने के बाद आपकी संघर्ष की आदत का क्या होगा ? क्या आप इसे छोड़ देंगे ? गांधीजी का उत्तर था- नहीं, मैं इसे मेरे जीवन से कभी भी अलग नहीं कर सकता। लेकिन गांधीजी ने कार्लमावर्स की तरह संघर्ष को सामाजिक कानून के रूप में नहीं माना। उन्होंने संघर्ष की अहिंसक पद्धति विकसित करने पर बल दिया। __इस प्रकार संघर्ष विध्वंसात्मक भी हो सकता है और उत्पादक भी। संघर्ष को उस समय विध्वंसात्मक कहा जाता है जब सहभागी व्यक्ति उसके परिणामों से असंतुष्ट हों तथा वे यह अनुभव करते हों कि संघर्ष के परिणामस्वरूप उन्होंने उसमें खोया है किन्तु सहभागी व्यक्ति उसके परिणामों से संतुष्ट हों तथा वे यह अनुभव करते हों कि परिणामस्वरूप उन्होंने कुछ प्राप्त किया है तो वह उत्पादक होगा । विध्वंसात्मक दृष्टिकोण और व्यवहार को संघर्ष मानना भ्रामक है । संघर्ष एक ऐसा लक्ष्य है जो दूसरे लक्ष्य की प्राप्तिमें बाधक है। सामान्य रूप से इसके दो रूप हैं-(१) समाज के विभिन्न समूहों की वस्तुनिष्ठ रुचियों में भेद एवं (२) सामाजिक गतिविधियों के आत्मनिष्ठ लक्ष्यों में विरोध । दृष्टिकोण व व्यवहार जब संघर्ष से जुड़ जाते हैं तब उन्हें १८८ तुलसी प्रज्ञा Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निषेधात्मक दृष्टिकोण कहा जाता है । इस प्रकार के निषेध अचानक घृणा या प्रत्यक्ष हिंसा के रूप में प्रकट होते हैं, जातीय और प्रजातीय संघर्षों में सामाजिक दूरी पूर्वाग्रहों के कारण होती है जबकि संरचनात्मक हिंसा में यह भेदभाव के रूप में प्रकट होती है । इस प्रकार संघर्ष का जो स्वरूप उभरता है, उसको हम निम्न प्रकार दर्शा सकते हैं अभिवृत्ति I घृणा, विरोधी हिंसा संघर्ष = विरोध — { पक्षों की रुचियों में लक्ष्य में सामाजिक दूरी प्रत्यक्ष हिंसा व्यवहार संघर्षपूर्ण संबंध "पाप से घृणा करो, पापी से नहीं ।" उक्ति के अनुसार अन्याय से घृणा या विरोध आवश्यक है क्योंकि यह अन्याय के संस्थाकरण को रोकता है लेकिन अन्यायी से घृणा संबंधों के सुधार को रोकता है । इसी संदर्भ में यह कहा जा सकता है - संघर्ष पर आधारित सम्बन्ध किसी प्रकार के सम्बन्ध न होने से अच्छे हैं । मेरे और आपके बीच संघर्ष यह दर्शाता है कि कोई एक चीज हम दोनों में सामान्य है । हमारी समस्या एक है, इसलिए हम इस समस्या से लड़ें न कि एक दूसरे से । संघर्ष के सावधानीपूर्ण प्रयोग से समाज में सांजस्यपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किये जा सकते हैं । इस निष्कर्ष पर पहुंचने के दो आधार हैं- (१) मानवीय एकता और (२) कर्त्ता बनाम व्यवस्था । संरचनात्मक हिंसा प्रत्येक मनुष्य एक दूसरे से अनेक बन्धनों व सामाजिक संबंधों से जुड़े हैं । यदि उनके बीच सामंजस्यपूर्ण सम्बन्ध हैं तो वे उसे प्रदर्शित कर उन्हें और आगे बढ़ा सकते हैं और यदि उनके बीच सामंजस्य नहीं है तो हम उन्हें यह समझा सकते हैं कि यह मानवीय एकता के लिए आवश्यक है । क्योंकि उनके बीच किसी प्रकार के सम्बन्ध नहीं है, तो यह मानवीय एकता का बहिष्कार है । 1 P किसी व्यक्ति के अन्यायी बनने में परिस्थितियों व व्यवस्था का भी योगदान होता है । संबंधों को स्वीकार न करना अन्यायी की अस्वीकृति है जबकि असामंजस्यपूर्ण सम्बन्धों का स्वीकरण व्यवस्था व व्यक्ति के सुधार की दिशा में प्रस्थान है । संघर्ष का आधार संघर्ष का मूल कारण व्यक्ति की अनन्त इच्छाएं या लोभ की प्रवृत्ति है । जैन खण्ड २१, अंक २ १८९ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का शोषण होगा । अजित पदार्थों या हिंसा को जन्म देगा । सुकरात ने संतुष्ट नहीं होंगे, वे अपनी इच्छाओं चाहेंगे" 'परिणाम होगा - युद्ध । दर्शनानुसार इच्छा विस्तार समस्त बुराइयों की जड़ है । इच्छाओं की पूर्ति हेतु दूसरों संरक्षण हेतु शास्त्रीकरण होगा जो अन्ततः युद्ध भी कहा था - लोग सरल जीवन पद्धति से का विस्तार चाहेंगे दूसरे भी ऐसा ही मूलतः संघर्ष तब होता है जब इच्छा पूर्ति हेतु विरोधी क्रियाएं घटित होती हैं । जब दो व्यक्ति वह कार्य करना चाहें जो परस्पर असंगत हैं तो तनाव स्वाभाविक है क्योंकि इससे व्यक्ति, समुदाय और राष्ट्रों की इच्छा पूर्ति में बाधा उत्पन्न होती हैं । समग्र इच्छाओं की पूर्ति के प्रयत्न तो दूसरों की अतृप्ति की कीमत पर ही किये जा सकते हैं । सामान्य रूप से संघर्ष के तीन आधार वर्णित किये जा सकते हैं - ( १ ) एक या अधिक पक्ष, (२) पक्षों के बीच सम्बन्ध और ( ३ ) वह व्यवस्था या तंत्र जिसमें ये पक्ष कार्य करते हैं । अन्तर्वैयक्तिक सम्बन्धों में संघर्षों के मुख्य कारण वर्गों के बीच तनाव, प्रजातीय स्थितियां तथा सांस्कृतिक प्रारूपों की भिन्नता है जबकि अन्तर्राष्ट्रीय संघर्षों में व्यक्तियों का राष्ट्रीय चरित्र व राजनैतिक ढांचा मुख्य कारण बनते हैं । विभिन्न पक्षों के बीच सम्बन्ध यदि असमानताओं पर आधारित हों, जैसेराजनैतिक शक्ति में असमानता, सम्पत्ति का असमान वितरण, विरोधी धर्म और वैचारिक परम्पराएं, मूल्यों की भिन्नता आदि, तो ये भी संघर्ष के मुख्य कारण बनते हैं । जिस व्यवस्था में विभिन्न पक्ष कार्य करते हैं, उसमें खुली राजनैतिक एवं स्वतंत्र न्यायायिक व्यवस्था अपेक्षित है। ऐसी व्यवस्था मतभेदों को दूर करने के साधन उपलब्ध करवा सकती है तथा असमानता एवं मूल्य सम्बन्धी भेदों को और अधिक गहरा होने से बचा जा सकता है तथा इस तरह संघर्ष के संस्थाकरण को रोका जा सकता है । व्यवस्था के विभिन्न पक्षों में एकता, उनकी परस्पर निर्भरता के स्तर, संगति एवं समानता पर निर्भर करती है । जितनी अधिक एकता होगी, असंतुष्टि उतनी ही कम होगी तथा संघर्ष भी कम होंगे । परस्पर निर्भरता के अभाव में एकता का भी अभाव होगा तथा असंतुष्टि एवं संघर्ष अधिक होंगे । व्यवस्था के आंतरिक कारक जैसे – वैचारिक भिन्नताएं, आर्थिक कारण, नौकरशाही आदि भी संघर्ष के लिए आधार बनते हैं । संघर्ष के प्रकार प्रो० सिम्मेल ( Simmel ) ने संघर्ष को चार प्रकारों में विभाजित किया है (१) युद्ध, (२) पुश्तैनी कलह, (३) मुकदमे बाजी और ( ४ ) मत वैभिन्य का संघर्ष । प्रो० गिलीन एवं गिलीन ने संघर्ष के पांच प्रकारों की व्याख्या की है १९० 'तुलसी प्रशा Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. व्यक्तिगत संघर्ष व्यक्तिगत संघर्ष कहा जा सकता है शत्रुता आदि होती है तथा स्वयं के अथवा नष्ट तक कर देने की तत्परता होती है । परस्पर विरोधी लक्ष्यों को लेकर दो व्यक्तियों के बीच होने वाले संघर्ष को । संघर्षशील लोगों में व्यक्तिगत घृणा, द्वेष, क्रोध, हितों के लिए दूसरे को शारीरिक हानि पहुंचाने व्यक्तिगत संघर्ष आंतरिक और बाह्य दोनों प्रकार के होते हैं। आंतरिक कारकों व्यक्ति की कुण्ठा, स्वार्थवृत्ति तथा रुचियों की प्राथमिकता के निर्धारण का प्रश्न प्रमुख कारण होते हैं । बाह्य कारकों में व्यक्तियों की रुचियों में टकराहट ही प्रमुख रूप से कारण बनता है । २. प्रजातीय संघर्ष कभी-कभी कुछ प्रजातियां दूसरों पर शासन करना अपना अधिकार मानती है। जिसके परिणामस्वरूप अन्य प्रजातियों से उनका संघर्ष हो जाता है । अमेरिका में नीग्रो और श्वेत प्रजाति, श्वेत और जापानी प्राजीय तथा अफ्रिका में श्वेत और काली प्रजाति के बीच हिंसात्मक घटनाएं होती रही हैं । प्रजातीय श्रेष्ठता या हीनता इस प्रकार के संघर्ष का प्रमुख कारण बनती हैं। प्रगति के बावजूद प्रजातीय भेदभाव - राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में कानून के रूप में तथा व्यवहार में जातीय भेदभाव के रूप में विद्यमान है । प्रजातीय भेदभाव-भेदभाव करने वाले तथा उससे प्रभावित दोनों ही पक्ष के लिए हानिकारक है । प्रजातीय भेदभाव के अनेक रूप हैं । कहीं पर यह सरकारी नीतियों से संपुष्ट है तो कहीं प्रच्छन्न रूप में, जिससे विभिन्न वर्गों के बीच विषमता पाई जाती है । राजनैतिक दृष्टि से विश्व के किसी भी देश में प्रजातीय भेदभाव को मान्यता नहीं है परन्तु कुछ राष्ट्रों में वहां की नीतियों एवं परिस्थितियों के कारण सभी लोगों को मत देने, सरकारी सेवा में प्रवेश पाने एवं सार्वजनिक पदों के लिए चुनाव लड़ने का अधिकार नहीं है । आर्थिक क्षेत्र में प्रजातीय भेदभाव के परिणामस्वरूप कुछ विशेष प्रजाति के लोग कम वेतन पर मजदूर के रूप में सदैव उपलब्ध रहते हैं । प्रजातीय भेदभाव सार्वजनिक स्थान, स्वास्थ्य तथा चिकित्सा सम्बन्धी सुविधाओं, सामाजिक सुरक्षा एवं पारस्परिक सम्बन्धों में भी देखा जा सकता है । सांस्कृतिक क्षेत्र में जातीय भेद-भाव जीवन स्तर की विभिन्नता से जन्म लेता है । भेदभाव की यह भावना उन समाजों में अधिक पाई जाती है जहां सांस्कृतिक, सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में बहुत अधिक विरोधाभास होता है । नस्ल, रंग तथा वंश की दृष्टि से जिन राष्ट्रों में अलगाव की भावना है एवं जहां संस्कृति, रीति-रिवाज एवं परम्पराओं के कारण भिन्नताएं है, वहां की स्थितियां वास्तव में ही सोचनीय है । जातीय पृथक्करण की नीतियां विश्व के लिए एक बड़ा कलंक है । ३. वर्ग-संघर्ष वर्ग संघर्ष का इतिहास मानव जाति का इतिहास है । प्राचीनकाल में मालिक खंड २१, अंक २ १९१ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व दास, मध्ययुग में सामन्त व सेवक तथा कामदार, आधुनिक युग में मजदूर व पूंजीपति आदि वर्ग रहे हैं, क्योंकि विभिन्न समूहों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में परस्पर भिन्नताएं पाई जाती हैं, फलतः उनके जीवन प्रतिमान एक-दूसरे से मेल नहीं खाते और ये समूह कालान्तर में विभिन्न वर्गों का रूप ले लेते हैं । प्रत्येक वर्ग सामाजिक एवं आर्थिक उपयोगिता की दृष्टि से स्वयं को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानता है । इस प्रकार की स्थिति उनके बीच विवादों व संघर्ष को जन्म देती है । श्रमिक व पूंजीपति, जमींदार व कृषक, उच्च व निम्न आदि वर्ग इसके उदाहरण हैं । वर्ग संघर्ष विश्व के सभी समाजों में पाया जाता है । कार्लमार्क्स ने कहा था - " समाज सदैव दो आर्थिक वर्गों में बंटा रहेगा- शोषक व शोषित । ये वर्ग सदैव एक दूसरे के साथ संघर्षरत रहेंगे जब तक कि वर्ग-विहीन समाज की स्थापना न हो जाय ।" ४. जातीय संघर्ष जातीय संकीर्णता आज सामाजिक संघर्षों का एक प्रमुख कारण बनी है । हम कुछ जातीय पूर्वाग्रहों का पालन करते हैं क्योंकि इनसे हमें सुरक्षा, प्रतिष्ठा तथा मान्यता जैसी कतिपय गहन आवश्यकताओं की संतुष्टि दीखती है । यद्यपि कानूनी रूप से विभिन्न जातियों के बीच ऊंच-नीच की भावना को स्वीकार नहीं किया गया है फिर भी ऊंच-नीच की भावना के कारण विभिन्न जातियों में वैर भाव रहता है तथा जातीय संघर्ष चलते रहते हैं । भारत में जातीय तनाव अधिक देखने को मिलता है । जैसे मणिपुर में नागा व कुकी जाति का विवाद, बिहार में लाला व ब्राह्मण जाति का विवाद आदि-आदि। इन जातीय विवादों के कारण आज भारतीय राजनीति का मुख्य आधार ही जातिवाद बन गया है, जिससे सामान्य जनता सदैव आपसी संघर्षो में उलझी है । ५. राजनैतिक संघर्ष राजनैतिक संघर्षों के दो रूप हैं- राष्ट्रीय संघर्ष एवं अन्तरर्राष्ट्रीय संघर्ष | जातिवाद, साम्प्रदायिक तनाव, राजनैतिक तनाव, उग्रवाद, पृथक्करण, विभाजन आदि राष्ट्रीय संघर्षो के प्रमुख कारण बनते हैं । अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष की अभिव्यक्ति के भी अनेक रूप हैं, जैसे घृणा तथा आक्रामकता की अभिवृत्ति, जिसके फलस्वरूप समाचार पत्रों, रेडियो व दूरदर्शन पर भड़कीले समाचार प्रसारित कर मगोवैज्ञानिक युद्ध किया जाता है । स्वजातिवाद की पृष्ठभूमि भी अन्तर्राष्ट्रीय तनाव का एक प्रमुख कारण है । अडोनों ने यह दर्शाया है - जिन व्यक्तियों में यह सोचने की अतिरंजित प्रवृत्ति है कि उनका अपना समूह अथवा जाति अन्य जातियों से अत्यन्त श्रेष्ठ है, उनका सामान्य दृष्टिकोण रूढ़िवादी होता है तथा वे शक्ति की प्रशंसा व पराजितों से घृणा करते हैं जिससे वे दूसरों को अपने समान स्थान देने को तैयार नहीं होते । फलत: विदेशियों व अल्पसंख्यकों को हीन दृष्टि से देखा जाता है तथा उनमें असुरक्षा की भावना उत्पन्न होती है। इससे सैनिक संगठनों को बल मिलता है । राष्ट्रवादी अभिवृत्तियों के साथ-साथ अन्य देशों के प्रति प्रबल नकारात्मक भावना हो और अन्तर्राष्ट्रीय भावना का अभाव हो तो उस स्थिति में अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष उत्पन्न हो ही १९२ तुलसी प्रज्ञा • Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता है और वह स्थिति शांति तथा एकता की बजाय युद्ध की प्रेरणा होती है । उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त वैचारिक भिन्नताएं विस्तारवादी नीतियां, व्यापारिक एवं सीमा-विवाद, अस्त्र-शस्त्र आदि भी अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के प्रमुख कारण बनते हैं । कुण्ठा, अन्याय, आक्रामकता व परमाणु अस्त्र-शस्त्रों का निरन्तर भय संघर्ष के लिए जिम्मेदार कहे जा सकते हैं। फायड ने व्यक्ति के अन्दर एक ऐसी अचेतन शक्ति की परिकल्पना की है जिसके कारण वह युद्ध का स्वागत करता है । उसका मत है कि निराशा के कारण मनुष्य एक ऐसे अवरुद्ध आक्रमण के लिए प्रेरित होता है जो अपनी अभिव्यक्ति के लिए एक ऐसा मार्ग ढूंढने का प्रयत्न करता है जो सामाजिक दृष्टि से स्वीकृत हो और वह उसके अहं को भी स्वीकार्य हो। सामान्य रूप से निराशा को उत्पन्न करने वाली तीन मुख्य स्थितियां हैं १. प्रतिकूल वातावरण द्वारा प्रस्तुत बाह्य बाधाएं, जो व्यक्ति को अपने लक्ष्य की प्राप्ति से रोकती है। २. मनुष्य के पराहं द्वारा प्रस्तुत आंतरिक बाधाएं जो उसकी अस्वीकार्य प्रवृत्तियों की उन्मुक्त अभिव्यक्ति को रोकती है, तथा । ३. दो पारस्परिक विशिष्ट प्रवृत्तियों का एक साथ उत्प्रेरण, जहां पर एक व्यक्ति की संतुष्टि से दूसरे व्यक्ति के तात्कालिक संतोष में बाधा पड़ती है । उपर्युक्त तीनों ही स्थितियां व्यक्ति की कुण्ठा के लिए जिम्मेदार हैं जो अन्ततः संघर्ष को जन्म देती हैं। सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक क्षेत्र में किया जाने वाला अन्याय भी संघर्ष की प्रक्रिया को जन्म देता है। अन्याय की निरन्तरता प्रतिशोध व विवादों को जन्म देती है जिससे व्यक्ति, समाज व राष्ट्र संघर्षरत हो जाता है। कुण्ठाग्रस्त व्यक्ति प्रतिक्रिया स्वरूप आक्रामक हो जाता है तथा आक्रामकता ही उसका व्यवहार व आदत बन जाती है। सामाजिक व राजनैतिक संघर्षों में आक्रामकता एक प्रमुख कारण बनती है । इसी प्रकार आणविक अस्त्रों ने अपने प्रारंभिक काल से ही अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में उथल-पुथल शुरू कर दी थी। परिणाम स्वरूप उस समय की महाशक्तियों के बीच परस्पर अविश्वास की वृद्धि और शीतयुद्ध को प्रोत्साहन मिला । आगविक शक्ति से सम्पन्न होने की लालसा ने ही शस्त्रीकरण की दौड़ को जन्म दिया तथा सैनिक गुटों के निर्माण का भी एक कारण बना। एशिया और अफ्रीका के देश भी आणविक कूटनीति से बच न सके तथा विश्व के देशों की सैनिक व्यूह रचना ही बदल गई। आणविक अस्त्रों की कूटनीति ने विश्व की अर्थव्यवस्था पर भी प्रभाव डाला। विकासशील राष्ट्रों की राष्ट्रीय आय का एक बड़ा हिस्सा शस्त्रीकरण में खर्च होने लगा। विश्व का सैनिक खर्च जो प्रारम्भ में २५ विलियन डॉलर था, आज यह ५०० विलियन डालर तक पहुंच गया है तथा सन् २००० तक इसके ९४० विलियन डालर खण्ड २१, अंक २ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक पहुंचने की उम्मीद है । अतएव परमाणु कूटनीति आज पूरे विश्व पर हावी है तथा विश्व को निरन्तर संघर्षरत रखे हुए हैं। संघर्ष का विकास माइक्रो व मेक्रो दोनों ही स्तर पर होता है । सूक्ष्म स्तर पर संघर्ष का विकास तब होता है जब एक व्यक्ति स्वयं के व्यवहार के परिप्रेक्ष्य में समूह के व्यवहार को देखता है। प्रारंभिक मनोवैज्ञानिक अध्ययनों में व्यक्तियों के व्यवहार को समूह-संघर्षों का प्रमुख कारण माना गया। समकालीन संघर्षों में भी व्यक्तियों के व्यवहार की अहं भूमिका स्पष्ट है। समाजशास्त्री, मानवशास्त्री तथा राजनीतिज्ञों एवं संगठन तथा संचार सिद्धांतों ने संघर्ष की मेको दृष्टि को ग्रहण किया। इन्होंने संघर्ष को एक ऐसी स्थिति माना है जिसमें एक विशेष समूह दूसरे का सक्रिय प्रतिद्वन्द्वी बनता है। अर्थात् व्यक्तिगत स्तर पर व्यक्तिगत व्यवहार तथा समूह के स्तर पर समूहों का परस्पर विरोध संघर्ष के विकास का प्रमुख कारण है। अभिवृत्ति परिवर्तन और संघर्ष निराकरण हाल ही के वर्षों में इस बात की और व्यापक रुचि रही है कि अपने देश की जनता की अभिवत्तियों तथा दूसरे देशों की जनता के प्रति अपनी अभिवृत्तियों में क्रियाशील होकर परिवर्तन लायें। विभिन्न सरकारें भी लोगों की अभिवत्तियों को बदलने के लिए प्रयत्नशील हैं। १९३० में अमेरिका में रूजनेल्ट ने आर्थिक समस्याओं से निपटने के लिए कर्मचारियों तथा किसानों के प्रति वहां के लोगों की अभिवृत्तियों में भारी परिवर्तन किये । भारत में गांधीजी ने उन लाखों लोगों की अभिवृत्तियों को बदलने का विशाल कार्य हाथ में लिया जो अंग्रेजी शासन के प्रति या तो उदासीन थे या उससे भयभीत । उन्होंने स्वराज तथा प्रजातंत्र के प्रति अनुकल अभिवत्ति व विदेशी के विरुद्ध अभिवृत्ति निर्माण के प्रयत्न किये तथा साथ ही अंग्रेजों की अभिवृति बदलने का भी प्रयत्न किया ताकि वे उपनिवेशवादी नीति का अन्त करने के अनुकूल हो सकें तथा अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष को टाला जा सके । जातीय संघर्षों को समाप्त करने की दृष्टि से उन्होंने हिन्दुओं व मुसलमानों की अभिवृत्ति परिवर्तन के प्रयास किये ताकि वे एक दूसरे के प्रति तथा हरिजनों के प्रति अनुकूल हो सकें । यह हमारी अभिवृत्तियों का व्यापक परिवर्तन ही है जिसके बल पर हमने एक राष्ट्र का निर्माण किया तथा स्वराज प्राप्ति के बाद की कठिनाइयों को झेल लिया। अन्तर्राष्ट्रीय विवादों व असमानताओं पर आधारित संघषों के निदान हेतु हाल ही में यह अभिवृत्ति विकसित हुई है कि अल्प-विकसित राष्ट्रों का सहयोग करना हमारा कर्तव्य है । उद्योगपतियों व पूंजीपतियों की अभिवृत्ति को बदलने के प्रयास भी हुए हैं ताकि वे व्यक्तिगत हित की जगह राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय हित के लिए कार्य कर सकें । राजनैतिक अभिवत्तियों में भी परिवर्तन के फलस्वरूप आज प्रत्येक राष्ट्र की स्वतंत्रता तथा स्वायत्तता को महत्त्व मिला है तथा हर राष्ट्र के सरकार बनाने के अधिकार को स्वीकृति मिली है। संघर्ष निराकरण के पक्ष में अभिवत्ति परिवर्तन हेतु मुख्य रूप से निम्नलिखित तुलसी प्रज्ञा Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधियों का प्रयोग किया जाता है १. व्यक्तियों को बाह्य प्रभाव में रखकर उनमें होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन-इस विधि में व्यक्तियों के किसी समूह का अभिवृत्ति परीक्षण लिया जाता है, तत्पश्चात् समूह को एक विशेष प्रकार का अनुभव कराने के पश्चात् पुनः अभिवृत्ति परीक्षण किया जाता है। दोनों परीक्षणों के परिणामों में अन्तर अभिवृत्ति परिवर्तन को दर्शाता है। २. अन्योन्यक्रिया विधि- इस विधि के अनुसार व्यक्ति को जिस तरह की अभिवृत्ति का निर्माण चाहते हैं, उसके अनुकूल सामाजिक परिवेश में रखा जाता है ताकि उसे अन्योन्यक्रिया करने का अवसर मिल सके। ३. समूह परिचर्चा परिचर्चा पद्धति में व्यक्ति की सक्रिय सहभागिता के कारण वह व्यक्तिगत रूप से उसके प्रति अनुरक्त हो जाता है तथा व्यक्तिगत निश्चय की अपेक्षा समूह निर्णय अनिवार्य रूप से पालनीय होते हैं। अभिवृत्ति में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन लाने के लिए यह आवश्यक है कि वैयक्तिक अहंमन्यता को सन्निहित किया जाए। ऐसा वैयक्तिक आवेष्टन सामाजिक स्तर पर परस्पर क्रिया-प्रक्रिया के आदान-प्रदान द्वारा बढ़ता है। परिणामस्वरूप अभिवृत्ति परिवर्तन भी समूह के प्रतिमानों के अनुकूल ही होता है। ४. भावनात्मक अपील-इस विधि में समूह के प्रतिमानों को ध्यान में रखकर उनके निर्माण में व्यक्ति के योगदान को बताकर उसके भावों को उभारा जाता है। उपर्युक्त विधियों द्वारा हम किसी विषय या समस्या के प्रति व्यक्ति के दृष्टिकोण में परिवर्तन कर सकते हैं अर्थात् जो व्यक्ति पहले जिस समस्या या विषय के प्रतिकूल थे, उनके सम्बन्ध में अब वे अनुकूल अभिवृत्ति वाले होने लगते हैं । संघर्ष निराकरण की निधियां शांतिपूर्ण समाधान या कलह-शमन की दृष्टि से हिंसा या कान पर आधारित तरीकों को स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे स्थायी समाधान प्रदान नहीं करते । हिंसा या कानून का समाधान स्वैच्छिक नहीं, दबाव द्वारा स्वीकृत होता है। वार्ता, सामूहिक सौदेबाजी एवं संधियां आदि भी कलह शामन के लिए प्रयुक्त होती है पर ये भी उपयोगितावादी होने के कारण नैतिक कि नहीं रखते । गांधीजी की दृष्टि में हृदय परिवर्तन या नैतिक शक्ति द्वारा किया प्या समाधान ही , होगा। मूलतः किसी भी विधि की उपयुक्तता का आकलन इस अधार पर किया जा सकता है कि निराकरण के पश्चात् दोनों पक्षों के बीच सम्बन्ध से रहेंगे ? प्रो० गाल्टंग ने कलह शमन हेतु गांधीवादी विधियों के चार आधार प्रस्तुत किये हैं१. संघर्ष या संघर्षरत पक्ष से अलग हो जाना संघर्ष निराकरण हेतु हमारा प्रथम प्रयास यह हो कि हम उससे अलग हो जाएं । असहयोग, अवज्ञा, सत्याग्रह आदि सम्बन्ध विच्छेद के उदाह श हैं । सामाजिक, बंर २१, अंक २ १९५ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजनैतिक या व्यापारिक सम्बन्ध तोड़ना सतही कार्य है, मूलतः गांधी मानवीय एकता में विश्वास करते हैं तथा उनका विश्वास हृदय परिवर्तन में है। २. एकता सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक स्तर पर जो रुकावटें हैं, वे मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद रेखाएं बनाती हैं । चूंकि आध्यात्मिक स्तर पर हम एक हैं, इसलिए अहिंसा की शक्ति से ये भेद रेखाएं दूर की जा सकती हैं। ३. समझौता सत्याग्रह के आधार पर यदि हम जीत भी जाएं एवं हमारी बातें मान ली जाएं, फिर भी हमें समझौते के लिए तत्पर रहना चाहिए। इससे संघर्ष निराकरण के पश्चात् भी हमारे सम्बन्ध मधुर रहेंगे। गांधी के अनुसार ऐसा समझौता मूल्यों व मूलभूत तत्त्वों की कीमत पर नहीं होना चाहिए । ४. विरोधों का निराकरण जिस संघर्ष के निराकरण की बात होती है, निश्चित ही उस संघर्ष की जड़ें गहरी नहीं होती । संघर्ष की वास्तविक जड़ें तो समाज-संरचना में छिपी होती है, इन्हें खत्म करने के लिए आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक ढांचे को ही बदलना पड़ता है। यह बदलाव धीरे-धोरे आता है तथा इसे अहिंसा साधनों से लाया जा सकता है। गांधीवादी विधियां१. प्रदर्शन अन्याय एवं सरकार के गलत कार्यों के विरुद्ध शिक्षित लोगों को संगठित करने का एक अच्छा साधन है प्रदर्शन, जिसका सत्याग्रह में अपना एक विशिष्ट स्थान है। गांधी ने इसका प्रयोग १९०८ में दक्षिणी अफ्रीका में रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट एक्ट को जलाने के लिए, जलियांवाला बाग के विरोध में, दाण्डी यात्रा के रूप में, १९३२ में द्वितीय अहिंसक असहयोग मांदोलन में तथा १९४२ में क्विट इण्डिया मूवमेंट के समय किया था। २. पिकेटिंग पिकेटिंग का उद्देश्य सरकार पर सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक दबाव डालना है तथा लोगों के बीच राजनैतिक चेतना और स्वदेशी चेतना जागृत करना है । गांधी ने इसका प्रयोग १९०७ में दक्षिणी अफ्रीका में तथा १९२०-२२ व १९३०-३४ के अहिंसा असहयोग आंदोलन में किया। ३. बहिष्कार गांधी ने अफ्रीका में ऑफिस तथा रजिस्ट्रेशन प्रमाण-पत्रों का बहिष्कार किया तथा भारत में १९०५ व १९३० में विदेशी सामान, विदेशी सुविधाओं व विदेशी संस्थाओं का बहिष्कार किया। . १९६ 'तुलसी प्रज्ञा Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. हड़ताल श्रम समस्याओं के निराकरण हेतु गांधी ने हड़ताल को सत्याग्रह की एक पद्धति के रूप में विकसित किया । गांधी न्यायपूर्ण शिकायतों को दूर करने के लिए शांतिपूर्ण अहिंसा हड़तालों के विरोधी नहीं थे, पर ऐसी कोई हड़ताल के पक्षधर नहीं थे, जो तोड़-फोड़ पर आधारित तथा औचित्य की दृष्टि से समर्थनीय न हो। ५. असहयोग ____गांधी के अनुसार--"असहगोग तत्त्वतः शोधन प्रक्रिया है। यह लक्ष्यों से कहीं अधिक कारणों का उपचार करता है । यह हमारे सामाजिक संबंधों को विशुद्ध आधार पर अधिष्ठित करने का आंदोलन है ताकि उनकी मीमांसा हमारे आत्म सम्मान एवं गौरव के अनुकूल की जा सके। यह अपने अन्तिम विश्लेषण में कुछ सुविधा दे सकने वाली बुराई से सम्बन्ध विच्छेद करने के कारण उत्पन्न कष्टों का स्वेच्छया वरण है।" गांधी ने न्याय प्राप्ति हेतु इस विधि का १९२०-२२ व १९३०-३४ में सर्वाधिक सहारा लिया। ६. सविनय अवज्ञा __ "जब कानून बनाने वाले की गलती सुधारने की चेष्टाएं अर्जी आदि देने के बाद भी विफल हो जाती हैं तब यदि आप उस गलती के सामने सिर झुकाने के लिए तैयार नहीं हैं तो आपके सामने दो ही मार्ग हैं-या तो आप भौतिक शक्ति से उसे अपनी बात मानने पर विवश कर दें या उस कानून को तोड़ने का दण्ड झेलकर व्यक्तिगत रूप से कष्ट वरण करें।" इस अवज्ञा को सविनय इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह सापराध भावना से नहीं होती है। १९२०-२२, १९३०-३४ व १९४२-४७ में गांधी ने इस विधि का प्रयोग स्वरान प्राप्ति के लिए किया था। ७. आत्मशुद्धि आत्मशुद्धि में नैतिक शक्ति है जो विरोधी के हृदय पर सीधा प्रथम प्रभाव डालती है तथा उसे अपनी गलतियों का अहसास कराती है। आत्मशुदि असहयोग प्रविधि को जड़ है। गांधी ने कहा था-"मैं इस आधारभूत निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि यदि तुम कोई सचमुच महत्त्वपूर्ण कार्य करना चाहते हो तो तुम्हें न केवल विवेक को सन्तुष्ट करना होगा बल्कि हृदय को भी प्रेरित करना होगा। बुद्धि का आवेदन मस्तिष्क के प्रति अधिक होता है किन्तु हृदय तक प्रवेश तपश्चर्या के द्वारा ही सम्भव । है। इससे मनुष्य की आंतरिक सहानुभूति उद्भूत होती है, इसलिए यह अधिक स्थायी है। आत्मशुद्धि का अर्थ है-न्याय एवं सत्य की चेतना एवं असत् से स्वयं को अलग करने की शक्ति का संग्रह । यदि इसे उपलब्ध किया जा सके तो सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक सम्बन्ध स्वतः ही परिवर्तित हो जायेंगे। ___उपर्युक्त विधियों के अलावा भी कलह शमन हेतु कुछ और गांधीवादी तरीके हैं, जैसे-हिजरात, करों का भुगतान न करना, समानान्तर सरकार आदि । कटनीतिक विधियां_ संघर्ष निराकरण की कुछ अन्य कूटनीतिक विधियां भी हैं । जैसे खण्ड २१, अंक २ १९७ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. वार्ता ___ अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में और अन्तर्राष्ट्रीय कानून के अर्थ में वार्ता एक वैधानिक, व्यवस्थित तथा प्रशासनात्मक प्रक्रिया है, जिसकी सहायता से राज्य सरकारें अपनी संदिग्ध शक्तियों का प्रयोग करते हुए एक दूसरे के साथ अपने सम्बन्धों का संचालन करती है और मतभेदों पर विचार-विमर्श, उनका व्यवस्थापन तथा समाधान करती है। २. वाद-विवाद इस विधि में दोनों पक्षों को एक ऐसा मंच प्रदान किया जाता है जहां वे स्वतंत्र रूप से लिखित या मौखिक अपने दावे या शिकायतें प्रस्तुत कर सकते हैं तथा द्विपक्षीय कूटनीति के माध्यम से ऐसी स्थिति में पहुंचा जा सकता है जहां विवाद के समाधानार्थ कोई समझौता हो सके । ३. विवाचन विवाचन का उद्देश्य दो विरोधी पक्षों में अविश्वास व अन्य रुकावटें दूर कर परस्पर एकता स्थापित करना है । विवाचन न्याय निर्णय है, इसमें समझौते का स्थान नहीं होता। प्रो० ओपेनहीम के अनुसार-विवाचन का अर्थ है मतभेदों का समाधान कानूनी निर्णय द्वारा किया जाए। यह निर्णय दोनों पक्षों द्वारा निर्वाचित एक या अनेक पंचों के न्यायाधिकरण द्वारा होता है जो अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय से भिन्न प्रकृति का है। ४. सामूहिक सौदेबाजो यह दो पक्षों के बीच विचार-विमर्श और बातचीत का एक ढंग है जिसमें आपसी समझौते द्वारा किसी समस्या का द्विपक्षीय हल खोजा जाता है । उपर्युक्त कूटनीतिक विधियों के अतिरिक्त अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कलह-शमन हेतु मंत्रणा (अनुनय) आदि विधियों का भी प्रयोग किया जाता है । कुछ अन्य सुझाव इस प्रकार हो सकते हैंक्षेत्र निराकरण हेतु सुझाव १. वैयक्तिक व्यापक दृष्टिकोण उपवास व प्रायश्चित्त साक्षात् बातचीत को प्राथमिकता २. प्रजातीय • वैज्ञानिक जानकारी के आधार पर जातीय भेद___ भाव दूर करें • शिक्षा-नीति में गतिशील परिवर्तन • संयुक्तराष्ट्र संघ व एन० जी० ओ० के प्रयास ३. सामाजिक • उच्चकोटि के लक्ष्यों के लिए सहकारी ढंग पर कार्य • उन आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक परि १९८ तुलसी प्रज्ञा Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितियों का उन्मूलन जिनके कारण व्यापक चिन्ता व विद्वेष फैलते हैं। ० बच्चे का समाजीकरण-पूर्वाग्रहों में न पालें। ४. राजनैतिक • सह-अस्तित्व को प्रमुखता ० सम्बन्धों का पुनर्व्यवस्थापन • संधियां एवं सहयोग प्रो० गाल्देन ने संघर्ष निराकरण हेतु निम्न प्रस्ताव दिए हैंलक्ष्य व संघर्ष १. संघर्ष में कार्य करो • कार्य अभी करो • कार्य यहीं करो • अपने समूह के लिए कार्य करो • बिना पहचान के कार्य करो • परम्परा से हटकर कार्य करो। २. संघर्ष को अच्छी तरह परिभाषित करें-- ० अपने स्वयं के लक्ष्यों को स्पष्ट करें ० प्रतिपक्षी के लक्ष्यों को समझने का प्रयत्न करें • सामान्य और विरोधी लक्ष्यों पर जोर दें ० संघर्ष से सम्बन्धित वस्तुनिष्ठ तथ्यों को स्पष्ट करें। ३. संघर्ष के लिए विछोयात्मक दृष्टि रखें ० संघर्ष के विछोयात्मक पक्ष पर बल दें • संघर्ष को प्रतिपक्ष से मिलने के अवसर के रूप में देखें ० संघर्ष को समाज रूपान्तरण के अवसर के रूप में देखें • संघर्ष को स्वयं के रूपान्तरण के अवसर के रूप में देखें। संघर्ष १. संघर्ष में अहिंसक रूप से कार्य करें • अपने कार्यों से चोट व नुकसान न पहुंचायें • अपने शब्दों से चोट व नुकसान न पहुंचायें • अपने विचारों से चोट व नुकसान न पहुंचायें ० प्रतिपक्षी की सम्पत्ति का नुकसान न करें ० कायरता की अपेक्षा हिंसा को प्राथमिकता दें ० बुरे व्यक्ति के लिए भी अच्छा करें। २. लक्ष्यों के अनुरूप कार्य करें ० सृजनात्मक तत्त्वों का समावेश करें • घुले रूप से कार्य करें, गुप्त रूप से नहीं ० संघर्ष के सही बिन्दु पर ध्यान केन्द्रित करें । ।२९,अंक २ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० ० ३. दुराई का सहयोग न करें० दोषयुक्त संरचना से असहयोग ० बुरे कार्यों से असहयोग ० बुराई का सहयोग करने वालों से असहयोग ४. आत्म वलिदान का भाव रखें ० दण्ड से न बचें • यदि आवश्यक हुआ तो मरने के लिए भी तैयार रहें । ५. एक ही दिशा में न सोचें ० प्रतिद्वन्द्विता और प्रतिद्वन्द्वी में भेद करें ० व्यक्ति और उसके स्तर में भेद करें ० सम्पर्क बनाए रखें • विरोधी के स्तर का सम्मान करें। संघर्ष निराकरण १. संघर्ष का समाधान करें ० संघर्ष को सदैव के लिए न रखें। • प्रतिद्वंद्वी के साथ वार्ता के अवसर ढूंढे । ० विधं यात्मक सामाजिक-रूपान्तरण के अवसर खोजें • मानवीय रूपान्तरण के अवसर खोजें २. मूलभूत तत्त्वों पर जोर दें ० मूलभूत तत्त्वों से व्यापार न करें ० सहायता तत्त्वों के प्रति समझौते की इच्छा रखें । ३. स्वयं के प्रति भी शंका करें • आप भी गलत हो सकते हैं • अपनी गलतियों को हृदय से स्वीकार करें। ४. प्रतिद्वंद्वी के प्रति अपने विचारों को उदार रखें ० प्रतिद्वंद्वी की कमजोरियों का फायदा न उठायें ० प्रतिद्वंद्वी को स्वयं से ज्यादा कठोर न मानें ० प्रतिद्वन्द्वी का विश्वास करें। ५. रूपान्तरण करें न कि बल प्रयोग • स्वयं तथा प्रतिद्वन्द्वी को स्वीकृत समाधान ही खोजें ० प्रतिद्वंद्वी को न दबायें ० प्रतिद्वंद्वी को कारण में विश्वास करने वाले के रूप में बदल । ० २०० मुसलो प्रज्ञा Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Reference Books 1. B. Kuppuswami Social Psychology-an Introduction 2. J Galtung : The way is the Goal 3. Anima Bose Peace & Conflict : Resolution in the community. 4. Mahendra Kr. : Violence and Non-violence in inter national relations. 5. Thomas Weber : Conflict Resolution and Gandhian Ethics. 6. Charles C. Walker : A World Peace Guard. 7. S. Bhattacharya : Dynamics of human Emotions and World Peace. 8. Gillin & Gillin : Cultural Sociology 9. H. T. Mazumdar : The Grammar of Sociology 10. Gangrade & Mishra : Conflict Resolution through Non violence Part-I & II 11. UNESCO Year book on Peace & Conflict studies, 1986. 12. UNESCO-Sucide or Survival. 13. Encyclopedia of Humanities & Social Sciences, Vol. 9 14. International Encyclopedia of Social Sciences, Vol. 3,4. 15. World Encyclopedia of Peace, Vol. I, 2. -अहिंसा एवं शांति शोध जैविभा संस्थान, लाडनूं २०१ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णकम् १. जैन दर्शन नास्तिक नहीं है। २. श्री विनयविजयोपाध्याय 'विरचित नय कणिका ३. 'संबोधि' में अलंकार ४. कथानक रूढ़ियों के आलोक में संस्कृत-प्राकृत के गद्य-पद्य ५. मरुमण्डल की धारा नगरी : भीनमाल Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन नास्तिक नहीं है डॉ० सुभाषचन्द्र सचदेवा भारतवर्ष में दो प्राचीन परम्पराओं का उल्लेख मिलता है— ब्राह्मण और श्रमण | वैदिक दर्शन ब्राह्मण परम्परा का एवं जैन दर्शन श्रमण परम्परा का अङ्ग है । वैदिक और जैन- दोनों ही दर्शन न केवल भारतवर्ष के अपितु विश्व के प्राचीनतम दर्शनों में परिगणित होते हैं। पहले कुछ विद्वानों की यह धारणा थी कि जैन धर्म बौद्ध धर्म की एक शाखा अथवा सम्प्रदाय है, परन्तु जैन धर्म की मौलिक तत्त्वमीमांसा एवं दर्शन पर किए गए शोध से अब यह तथ्य स्पष्ट हो गया है कि जैन धर्म एक स्वतन्त्र दर्शन एवं तात्त्विक चिन्तन से समन्वित होने के कारण बौद्ध धर्म से सर्वथा भिन्न दर्शन है । जर्मन के सुप्रसिद्ध विद्वान् प्रो० जाकोबी उक्त तथ्य की पुष्टि करते हुए कहते हैं। कि 'जिस धर्म को जैन धर्म कहा गया है वह बौद्ध धर्म की एक शाखा या सम्प्रदाय नहीं है, जैसाकि कभी माना गया था, अपितु उससे सर्वथा पृथक् है । ' भारतीय दर्शन परम्परा का मुख्यतः द्विविध वर्गीकरण किया जाता है - (क) आस्तिक दर्शन' (ख) नास्तिक दर्शन ।' भारतीय दर्शन में आस्तिक और नास्तिक पारिभाषिक स्वीकार किए गए हैं । सामान्यतः 'आस्तिक' के दो अर्थ हैं - (१) व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ ( २ ) परम्परागम्य अर्थं । व्युत्पत्ति के अनुसार आस्तिकता के दो मापदण्ड हैं- (i) परलोक एवं पुनर्जन्म में आस्था, (ii) ईश्वर अथवा परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास | 'आस्तिक' के परम्परागम्य अर्थ के आस्तिक है तथा वेदों की निन्दा करने वाला 'नास्तिक' है - 'नास्तिको वेदनिन्दकः । " अनुसार 'वेदों में विश्वास करने वाला अथवा वेदों में अनास्था रखने वाला जहां तक 'आस्तिक' के व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ का प्रश्न है, इस दृष्टि से जैन दर्शन की आस्तिकता के विषय में किसी भी प्रामाणिक विद्वान् को किसी प्रकार का भी सन्देह नहीं है; क्योंकि जैनदर्शन का परलोक एवं पुनर्जन्म तथा ईश्वर एवं आत्मा के अस्तित्व में पूर्ण विश्वास है । सुप्रसिद्ध जैनाचार्य श्री कुन्दकुन्दाचार्य कृत 'रयणसार' में ख्याति (यशः कामना) व पूजा - प्रतिष्ठा की लालसा को परलोक की विनाशिका कहा गया है ।' स्पष्टत: जैनदर्शन की परलोक में पूर्ण आस्था है । 'आचाराङ्ग' में मोह को प्राणियों के पुनर्जन्म ( बार-बार जन्म एवं मरण) का कारण बतलाया गया है।" जैनदर्शन में कर्ममुक्त आत्मा' को ही परमात्मा (ईश्वर) खंड २१, अंक २ २०५ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की संज्ञा देते हुए आत्मा एवं परमात्मा--दोनों के अस्तित्व में आस्था प्रकट की गई है । जैनेतर विद्वानों ने भी मुक्तकण्ठ से इस तथ्य को स्वीकार किया है कि 'जैन दर्शन की ईश्वर एवं आत्मा के अस्तित्व में पूर्ण आस्था है, भले ही जैनदर्शन की ईश्वर अथवा परमात्माविषयक अपनी मौलिक मान्यताएं हों। ____ 'आस्तिक' के व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ की दृष्टि से परलोक, पुनर्जन्म एवं आत्मा आदि के अस्तित्व में निष्ठा रखने के कारण जैन दर्शन पूर्णतः आस्तिक है। इस तथ्य की संपुष्टि करते हुए डा० वाचस्पति गैरोला कहते हैं 'जैन और बौद्ध दर्शनों के अनुसार नास्तिक वह है जो परलोक का विरोधी है, धर्माधर्म और कर्तव्य से विमुख है। परलोक, धर्माचरण और कर्तव्यों के सम्बन्ध में जो मान्यताएं आस्तिक दर्शनों में दृष्ट है, जैन और बौद्ध दोनों दर्शन में उन्हीं का प्रतिपादन हुआ है ।" परन्तु 'आस्तिक' शब्द के परम्परागम्य अर्थ को अधिक महत्त्व देने वाले कुछ विद्वानों की यह मान्यता है कि जैनदर्शन नास्तिक है । यदि इस दृष्टि से वेद में आस्था को ही आस्तिकता का मापदण्ड माना जाए तो बेद के समग्र उच्च आदर्शों (अहिंसा, ब्रह्मचर्य, सत्य, सन्तोष, अपरिग्रह आदि) एवं इन प्रशस्त जीवन मूल्यों के भी मूलाधार अहिंसा में प्रगाढ़ आस्था रखने वाला जैनदर्शन कथमपि 'नास्तिक' सिद्ध नहीं होता। वैदिक और जैनदर्शन ने समानरूप से अहिंसा पर बल दिया है। कुछ लोगों ने वेदों पर लाञ्छन लगाने की चेष्टाएं की हैं एवं उन पर मिथ्या दोषारोपण का दुःसाहस किया है । उनकी धारणा है कि वेदों से मांस-भक्षण की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिलता है। वस्तु स्थिति यह है कि वेदों में मांस-भक्षण का कहीं भी समर्थन नहीं हुआ है। सच तो यह है कि वेद में मांसाहार करने वाले मनुष्यों को मानव न मानकर 'दानव' (यातुधान) की संज्ञा दी गई। इसके अतिरिक्त वेद के अन्य अनेक स्थलों में पशुहिंसा एवं जीवहिंसा का निषेध करते हुए कहा गया है कि 'पशुओं की रक्षा करो, गाय को न मारो। बकरी को न मारो। भेड़ को न मारो। दो पैर वाले (मनुष्यादि) प्राणियों को न मारो। एक खुरवाले घोड़े-गधे आदि पशुओं को न मारो ।" वैदिक दर्शन के समान जैन-दर्शन भी अहिंसा का प्रबल समर्थक है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि अहिंसा का जितना सूक्ष्म विवेचन जैनदर्शन में हुआ है उतना सम्भवतः किसी अन्य दर्शन में नहीं हुआ। जैनदर्शन सभी जीवों के प्रति मंत्रीभाव एवं समता का अनुमोदन करता है। 'आचाराङ्ग' के एक स्थल में कहा गया है कि 'सुख-दुःख का अध्यवसाय स्वतन्त्र होता है'---इसे जानकर मनुष्य किसी की भी हिंसा न करे। जो कष्ट प्राप्त हों, उन्हें समभाव से सहन करे ।" यह अहिंसा एवं सहिष्णुता ही जीव को परमसत्य का साधक बनाने में सक्षम है ।८। सभी सद्गुणों के मूलस्थानीय अहिंसा जैसे उदात्त जीवन मूल्यों का समर्थक होने के कारण जैनदर्शन प्रकारान्तर से वैदिक मान्यताओं में आस्था रखने वाला ही है। अतः व्युत्पत्तिलभ्य एवं परम्परागम्य अर्थ की दृष्टि से जैनदर्शन पूर्णतः आस्तिक सिद्ध २०६ तुलसी प्रशा Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है । इस प्रकार स्थाली पुलाक जैनदर्शन के और भी अनेक आयाम हैं के साथ-साथ आज की शोध-परम्परा को समृद्ध करने में समर्थ हैं । सन्दर्भ : १. ( i ) Jaina Sutras', Prof. Jacobi, Sacred Books of the East', Vol. II, P 33. (ii) “He (Prof. Jacobi) albo established that Jainism was not scholars had an offshoot of Buddhism as earliar न्याय से ही जैनदर्शन की आस्तिकता सिद्ध है । जो जैन दर्शन की आस्तिकता की सिद्धि करने thought." ('German News', June 1892, Page 20) २. मुख्य आस्तिक दर्शन छः माने गए हैं (i) कपिल ऋषि द्वारा प्रवर्तित 'सांख्यदर्शन' (ii) महर्षि कणाद प्रवर्तित 'वैशेषिक दर्शन' (iii) गौतम द्वारा प्रवर्तित 'न्यायदर्शन' (iv) महर्षि पतञ्जलि द्वारा प्रणीत 'योगदर्शन' (v) महर्षि जैमिनी द्वारा प्रणीत 'पूर्वमीमांसा' (vi) महर्षि बादरायण ( वेदव्यास) द्वारा प्रवर्तित 'उत्तरमीमांसा' ( वेदान्त) | ३. माधवाचार्यं रचित 'सर्वदर्शनसंग्रह' पर व्याख्या लिखते हुए महामहोपाध्याय श्रीवासुदेवशास्त्री अभ्यंकर ने वेदोक्त लोक में आस्था न रखने वाले दर्शनों को 'नास्तिक' की संज्ञा दी है। "नास्ति वेदोदितो लोकः इति येषां मतिः स्थिरा ।" ( द्रष्टव्य - - ' सर्व दर्शन संग्रह' पर श्री वासुदेव शास्त्री अभ्यंकर भाष्य, भाण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना, पृ० २ ) । प्रायः इसी आधार पर चार्वाक, जैन एवं बौद्ध दर्शन को नास्तिक कहा जाता है । ४. 'अष्टाध्यायी' के रचयिता पाणिनि के अनुसार 'अस्ति नास्ति दिष्टंमति:' अर्थात् परलोक है, ऐसी जिसकी मति है, वह 'आस्तिक' है । (देखें - अष्टाध्यायी, ४६ ) ५. 'मनुस्मृति' अध्याय २, श्लोक सं० ११ । 1 ६. "खाई पूया लाहं सक्काइ किमिच्छ से जोई । इच्छसि जइ परलोयं तेहि किं तुज्झ परलोयं ॥" ७. 'मोहेण गब्भं मरणाति एति । ' खंड २१, अंक २ ( आचाराङ्ग सूत्र, ५/७ ) ८. " णाणी सिव परमेट्ठी सव्वण्हू विण्हूं चउमुहो बुद्धो । अप्प विपरमप्पो कम्मविमुक्को य होइ फुड ॥ " ( ' रयणसार', गाथा १२८ ) रचित संस्कृत१९७८, ( ई०), ('भावपाहुड', १५२) २०७ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. जैन एवं अन्य दर्शनों में ईश्वर और परमात्मा का प्रायः एक ही अर्थ में प्रयोग हुआ है। इस विषय में जैनदर्शन की मान्यता का प्रतिपादन करते हुए डा० गैरोला लिखते हैं "जैनियों का परमात्मा (परम+आत्मा) या जिनेश्वर ही ईश्वर है । तीर्थङ्कर भी उनके लिए परमात्मा के ही रूप हैं।" (देखें-'भारतीय दर्शन', डा० वाचस्पति गैरोला, पृ० ११७) १०. "जनानां मीमांसकानां च नये यद्यप्यात्मस्वरूपं नित्यमिति तस्योपत्तिविनाशा भावान्न प्रागभावः प्रध्वंसश्च संभवति ।" (मधुसूदन सरस्वती रचित 'सिद्धान्तबिन्दु' पर महामहोपाध्याय वासुदेव शास्त्री . अभ्यंकर कृत टीका का टिप्पणी भाग, पृ० १८) जैनदर्शन के अनुसार ईश्वर संसार का भाग्यविधाता नहीं है। वह सर्वज्ञ, अजर एवं अमर है। विश्व के उत्पत्ति, विनाश आदि कार्यों से उसका कोई वास्ता नहीं है। (विशेष जानकारी हेतु देखें-डा० वाचस्पति गैरोला रचित 'भारतीय दर्शन', पृ० ११७-११८) १२. 'भारतीय दर्शन', डा० वाचस्पति गैरोला, पृ० ८४ । १३. जैनदर्शन, न्याय एवं मीमांसादि दर्शनों के समान वेद को अपौरुषेय नहीं मानता। सम्भवत: इसीलिए कतिपय विद्वान् जैनदर्शन को नास्तिक मानते १४. 'वेदों में और उपनिषदों में मांस-भक्षण और अश्लीलता नहीं है' ले० पाण्डेय पं० श्री रामनारायणदत्तजी शास्त्री, उपनिषद्-अङ्क', गीता प्रैस, गोरखपुर, पृ० १२१ । १५. “यः पौरुषेयेण ऋविषासमक्ते यो अश्त्येन पशुना यातुधानः । यो अन्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च ॥" (ऋग्वेद ८।४।८।१६) १६. "मा हिंसीः पुरुषान्पशृंश्च (अथर्ववेद, ६।२।२८।५), मागामनागामदिति वधिष्ट (ऋग्वेद, ६१८७।४), अजां मा हिंसीः, अवि सा हिंसीः, इमं मा हिंसीद्विपादं पशुम् (यजुर्वेद १३।४७), मा हिंसीरेकशर्फ पशुम् (यजु० १३।४३) १७. "से अविहिंसमाणे अणवयमाणे, पुट्टो फासे विप्पणोल्लए ।" ('आचाराङ्ग', ५।२६) १८. "एस समिया परियाए वियाहिते।" (वही, ५।२७) -१३, म्युनिसिपल कालोनी, सोनीपत (हरियाणा) २०८ तुलसी प्रज्ञा Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विनयविजयोपाध्याय विरचित "नयकणिका" ब डॉ० जीतेन्द्र वी० शाह प्रस्तुत कृति के रचयिता उपाध्याय विनयविजयजी हैं। उनके जीवन, शिक्षादीक्षा आदि की जानकारी अद्यावधि उपलब्ध नहीं है। उनके द्वारा विरचित 'लोकप्रकाश' सर्ग ३६ के अनुसार उनकी माताजी का नाम 'राजश्री' (राजबाई) एवं पिताजी का नाम 'तेजपाल' प्रतीत होता है, अतः कह सकते हैं कि वे वणिक-पुत्र थे। वे तपागच्छीय विजयसिंह सूरि के शिष्य विजयप्रभसूरि के शिष्य कीर्तिविजय उपाध्याय के शिष्य थे। उनका स्वर्गगमन संवत् १७३८ में हुआ था, अतः उनका अस्तित्व काल १८वीं सदी अन्त से मानने में कोई आपत्ति नहीं है। उपाध्याय विनयविजयजी समर्थ जैन विद्वान थे। वे प्रसिद्ध दार्शनिक महामहोपाध्याय यशोविजय के समकालीन थे। वे संस्कृत एवं गुजराती भाषा के महान् पंडित तो थे ही, दर्शनशास्त्र के भी विशिष्ट ज्ञाता थे। उन्होंने कठिनतम विषयों को लोकभोग्य भाषा में प्रस्तुत करने में सफलता पायी थी। उनके द्वारा विरचित ग्रंथों की सूची विस्तृत है। संस्कृत ग्रन्थों में-(१) कल्पसूत्र (सुबोधिनिटीका), (२) लोकप्रकाश, (३) हेमलघु प्रक्रिया, (४) नयकणिका, (५) शांतसुधारस आदि उल्लेखनीय हैं। गुजराती रचनाएं - (१) श्री धर्मनाथ स्तवन, (२) पांच कारण स्तवन, (३) पुण्यप्रकाश स्तवन, (४) श्रीपालरास (पूर्वार्द्ध), (५) भगवती सूत्र सज्झाय, (६) षड् आवश्यक स्तवन, (७) जिनपूजा चैत्यवंदन, (८) आदि जिन विनती, (९) आंवील सज्झाय, (१०) विनयविलास, (११) अध्यात्मगीता, (१२) जिन चौवीसी (३) विएरमान विशी आदि हैं । ये सभी ग्रन्थ प्रकाशित एवं जनता में प्रचलित हैं। 'नयकणिका' संस्कृत भाषा में निबद्ध लघु कृति है, जिसमें 'नय' की चर्चा की गई है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में परमात्मा महावीर को नमस्कार करके नयों के विवेचन द्वारा उनकी स्तुति की प्रतिज्ञा की है। तत्पश्चात् सात नयों का क्रमशः वर्णन किया गया है। जैनदर्शन के अनुसार वस्तु अनन्त धर्मात्मक होने से वस्तु विशेष का कथन करते समय वक्ता किसी एक वस्तु-धर्म का कथन नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में अन्य धर्मों को गौण मानने में आते हैं जो 'नय' है । यदि अन्य सभी धर्मों का अपलाप करके मात्र एक ही धर्म को प्रमुख मानने में 'नयाभास' होता है। नय के सात भेद इस प्रकार हैं-(१) नैगम, (२) संग्रह, (३) व्यवहार, (४) ऋजुसूत्र, (५) शब्द, (६) समभिरूढ़, (७) एवंभूत । प्रत्येक नय की दृष्टि से वस्तु का स्वरूप भिन्न होता है, बंर २१, अंक २ २०९ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह इस लघु कृति में सुचारू ढंग से चचित है। प्रस्तुत कृति गुजरात में स्थित 'दीव' अंडरगार स्थल पर रची गई है। कृति का मूल पाठ निम्न प्रकार है : नयकणिका वर्धमान स्तुमः सर्वनयनद्यर्णवागम् । संक्षेपतस्तदुन्नयीतनयभेदानुवादनः ॥१॥ सर्व नयो-रूप नदियों के लिए समुद्र सदश श्री वर्धमान स्वामी के द्वारा कथित नयों के भेदों को संक्षेप में अनुदित करके स्तुति करता हूं। नैगमः संग्रहश्चैव व्यवहारर्जुसूत्रको। शब्दः समभिरूढवंभूतो चेति नयाः स्मृताः ॥२॥ नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ये (सात) नय कहे जाते हैं। अर्थाः सर्वेऽपि सामान्यविशेषा उभयात्मकाः। सामान्यं तत्रं जात्यादि विशेषाश्च विभेदकाः ॥३॥ सर्व पदार्थ, सामान्य और विशेष, उभयात्मक है। पदार्थों में ऐक्य बुद्धि कराने वाली जाति सामान्य है तथा दो पदार्थों में भेद उत्पन्न करने वाली-भेदक को विशेष कहा जाता है। ऐक्य बुद्धिर्थहशते भवेतसामान्यधर्मतः। विशेषाच्च निजं निजं लक्षयन्ति घटं जनाः ॥४॥ शत घटों में ऐक्यबुद्धि (अर्थात् यह घट है, यह घट है, ऐसी समान बुद्धि) पदार्थ में स्थित सामान्य धर्म के कारण होती है। पदार्थ में स्थित विशेष धर्म के कारण मनुष्य अपने-अपने घट को पृथक-पृथक् मानता है । (अर्थात् पदार्थ में स्थित विशेष धर्म के कारण विभिन्न घट में विभिन्न बुद्धि उत्पन्न होती है ।) नैगमो मन्यते वस्तु तदेतदुभयात्मकम् । निर्विशेषं न सामान्यं विशेषोऽपि न तद्धिना ॥५॥ नैगम नयानुसार पदार्थ सामान्य एवं विशेष, उभयात्मक है। (क्योंकि) विशेष रहित सामान्य का अस्तित्व नहीं है और सामान्य रहित विशेष नहीं होता । संग्रहो मन्यते वस्तु सामान्यात्मकमेव हि। सामान्यव्यतिरिक्तोऽस्ति न विशेषः खपुष्पवत् ॥६॥ (द्वितीय) संग्रह नयनानुसार वस्तु-पदार्थ सामान्य मात्र ही है। जैसे आकाशकुसुम का अस्तित्व नहीं है अर्थात् असत् है. वैसे ही सामान्य से भिन्न विशेष का अस्तित्व नहीं है। विना वनस्पति कोऽपि निम्बाम्रादिर्न दृश्यते । हस्तान्तर्भाविन्यो हि नाङ गुलाद्यास्ततः पृथक् ॥७॥ (संग्रह नय अपने मत का स्पष्टीकरण करने के हेतु सोदाहरण बताता है कि) नीम-आम्र आदि वृक्ष वनस्पतिरूप सामान्य के अभाव में नहीं दिखाई देते । अर्थात् वनस्पति रूप सामान्य के अस्तित्व में ही नीम आदि वृक्ष का अस्तित्व संभवित है। तुलसी प्रशा Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (अन्य दृष्टान्त में) मात्र अंगुलियों का पृथक् अस्तित्व नहीं होता, अंगुलियां हाथ में ही समाविष्ट हैं। विशेषात्मकमेवार्थी व्यवहारश्च मन्यते । विशेषभिन्न सामान्यमसखर विषाणवत ।।८।। पदार्थ मात्र विशेषात्मक ही है ऐसा व्यवहार नय मानता है। विशेष से पृथक् सामान्य का कोई अस्तित्व नहीं है, जैसे खरविषाण-गदहे को सिंग---असत् टिप्पण ___ व्यवहार नय के मतानुसार पदार्थ मात्र विशेषात्मक होता है। यह नय पूर्वोक्त संग्रह नय से भिन्न दृष्टि रखता है। संग्रह नय सामान्य को प्राधान्य देता है जबकि व्यवहार नय विशेष को प्राधान्य देता है । वनस्पति गृहाणेति प्रोक्ते गृह्णाति कोऽपि किम् । विना विशेषान्नाम्रादीस्तन्निरर्थकमेव तत् ।।९।। (व्यवहार नय अपनी मान्यता की प्राप्ति में उदाहरण देते हुए बताता है कि किसी मनुष्य को) “वनस्पति ग्रहण कर" ऐसा कहा जाय तब संबोधित कोई भी मनुष्य क्या ग्रहण करेगा ? (अर्थात कुछ भी ग्रहण नहीं कर सकता) अतः विशेष रहित मात्र सामान्य निरर्थक है। आम्र आदि विशेष की सहायता बिना सामान्य का कोई प्रयोजन नहीं रहता। व्रणपिण्डीपादलेपादिके लोकप्रयोजने । उपयोगो विशेष: स्यात्सामान्य न हि कहिचित् ॥१०॥ विशेष स्पष्टता करते हुए विशेषवादी बताता है कि लोक व्यवहार में भी जब घाव पड़ा हो, पिण्ड, पादलेप करना हो, तब भी विशेष से ही उपयोग होता है । सामान्य का उपयोग नहीं होता। टिप्पण विशेषवादी अपने मत की पुष्टि में लोकव्यवहार का दष्टांत देते हुए कहता है कि जब घाव पड़ा हो या कोई अन्य रोग हुआ हो तब औषध का ग्रहण नहीं होता, अपितु स्पष्ट रूप से औषध विशेष का कथन करना पड़ता है। तभी उपयुक्त औषध प्राप्त होता है। व्यवहार में भी महत्त्व विशेष का ही होता है, सामान्य का नहीं, इसलिए विशेष धर्मात्मक है। ऋजुसूत्रनयो वस्तु नातीतं नाप्यनागतम् । मन्यते केवलं किन्तु वर्तमान तथा निजम् ॥११॥ ऋजुसूत्र नय के मतानुसार अतीतकालीन वस्तु सत् नहीं है (क्योंकि अतीत बीत चुका होता है) इसी प्रकार भविष्यकालीन वस्तु भी सत् नहीं है (क्योंकि भावि के प्रति हम अनभिज्ञ हैं) अतः मात्र वर्तमानकालीन वस्तु ही सत् है । अतीतेनानागतेन परस्कीयेन वस्तुना। न कार्यसिद्धिरित्येत दसद्गगन पद्मवत् ॥१२।। खंड २१, अंक २ २११ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ जैसे आकाशकुसुम से किसी भी प्रकार की कार्यसिद्धि नहीं होने से वह असत् है वैसे ही परकीय ऐसी अतीतकालीन और भविष्यकालीन वस्तु से भी किसी प्रकार की कार्यसिद्धि नहीं होती अतः वह असत् है । टिप्पण ऋजुसूत्र नय के मतानुसार मात्र वर्तमानकालीन स्वरूपात्मक वस्तु ही सत् है । जो काल व्यतीत हो चुका है या जो काल अभी नहीं आया है ऐसे काल में स्थित वस्तु का कोई मूल्य नहीं होता अतः वह असत् है । नामादिचतुर्वेषु भावमेव च मन्यते ।। न नामस्थापनाद्रव्याण्येवमग्रेतना अपि ।।१३।। __ ऋजुसूत्र नय, नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपों में से मात्र भाव निक्षेप को ही मानता है, क्योंकि नाम, स्थापना और द्रव्य निक्षेप भूतकाल एवं भविष्यकाल बताते हैं अतः ऋजुसूत्र नय के अनुसार निरर्थक हैं। अर्थशन्दनयोऽनेकः पर्यायरेकमेव च । मन्यते कुम्भकलशघटाद्य कार्थवाचकाः ॥१४॥ शब्द नय के अनुसार अनेक पर्यायों से निर्देशित पदार्थ एक ही है। इनमें कोई भिन्नता नहीं होती। यथा कुम्भ, कलश, घट आदि शब्द एक ही पदार्थ के वाचक हैं, किन्तु इनमें कोई भिन्नता या भेद नहीं हैं । टिप्पण शब्दनय वस्तु के वाचक शब्द के सम्बन्ध में निर्देश देता है। यह ऋजुसूत्र नय से अधिक सूक्ष्म है। वस्तु के वाचक शब्द के द्वारा अर्थ-पदार्थ का कथन होता है, किन्तु एक ही अर्थ को प्रदर्शित करने वाले भिन्न-भिन्न पर्यायवाची शब्दों में अभिन्नता है, ऐसा शब्द नय मानता है।। ब्रूते समभिरूढोऽर्थ भिन्नपर्यायभेदत.। भिन्नार्थाः कुम्भ कलशघटा घटपटादिवत् ॥१५॥ समभिरूढ नय अनुसार विभिन्न पर्यायवाची शब्दों के द्वारा विभिन्न अर्थोंपदार्थों का कथन होता है । (पर्याय के भेद से अर्थ में भेद उत्पन्न होता है।) यथा घट और पट ये दोनों पृथक्-पृथक् पदार्थों के वाधक हैं तथा पृथक्-पृथक् शब्द चाहे वे पर्यायवाची हों तो भी भिन्न पदार्थ के वाचक हैं। अतः घट और कलश, ये दोनों शब्द एक ही पदार्थ के वाचक नहीं हैं। यदि एक ही पदार्थ के वाचक होते तो पृथक् शब्दों का क्या प्रयोजन ? कोई हेतु नहीं है। इसलिए कलश पृथक् पदार्थ को बताता है और घट भी पृथक् पदार्थ का ही बोधक है। इस प्रकार समभिरूढ नय के अनुसार भिन्न पर्याय के द्वारा भिन्न पदार्थ का कथन होता है। यदि पर्यायभेदेऽपि न भेदो वस्तुनो भवेत् । भिन्नपर्याययोर्न स्यात्स कुम्भपटयोरपि ॥१६।। यदि पर्याय भेद में पदार्थ भेद नहीं माना जाय तो भिन्न पर्यायवाची शब्दों का कथन क्यों किया जाय ? यथा कुम्भ और पट थे दोनों पदार्थ पृथक् हैं अतः इनके २१२ तुलसी प्रज्ञा www.jainelibrary org Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचक शब्द भी भिन्न हैं। इसी प्रकार शब्द भेद से पदार्थ भेद भी मानना चाहिए। अन्यथा भिन्न पर्याय-प्रयोजन का क्या अर्थ ? एक पर्यायाभिधेयमपि वस्तु च मन्यते । कार्य स्वकीयं कुर्वाणमभेवंभूतनयो ध्र वम् ॥१७॥ एवंभूत नय के अनुसार एक पर्याय का कथन करने वाला शब्दार्थ ही अपना कार्य करने वाली वस्तु सत् है । अर्थात् शब्दार्थ अनुसरित कार्य सत् है। __ यदि कार्यमकुर्वाणोऽपीष्यते तत्तया स चेत् । तदा पटेऽपि न घटव्यपदेश किमिष्यते ॥१८॥ यदि पदार्थ कार्य नहीं करता हो तथापि उसके लिये तत्तद् कार्य दर्शक शब्द प्रयोग होता हो तो “घट' शब्द 'पट' पदार्थ के हेतु क्यों नहीं प्रयुक्त किया जाय ? क्योंकि 'घट' शब्द द्वारा निर्देशित कार्य जैसे अनावश्यक 'घट' में नहीं है वैसे ही 'घट' शब्द द्वारा निर्देशित कार्य 'पट' पदार्थ में भी नहीं होता। दोनों स्थल पर शब्दार्थ की अकार्यता समान होने से 'घट' शब्द द्वारा 'पट' शब्द का भी बोध होना चाहिए । किन्तु व्यवहार में घट शब्द के द्वारा पट शब्द का बोध नहीं होता। अतः एवंभूत नय के अनुसार एक पर्याय को निर्देशित शन्द अनुसार क्रिया सम्पन्न हो तो ही वस्तु सत् है, अन्यथा असत् है । यथोत्तरं विशुद्धाः स्युर्नवा सप्ताप्यमी तथा । एकैकः स्याच्छतं भेदास्ततः सप्तशताप्यमी ॥१९॥ उपयुक्त सात नय क्रमशः विशुद्ध होते जाते हैं । प्रत्येक नय के सौ-सौ प्रभेद हैं। अतः सात नय के सात सौ भेद होते हैं। अथवंभूतसमभिरुढयोः शब्द एव चेत् । अन्तर्भावस्तदा पञ्च नय-पञ्चशतीभिदः ॥२०॥ एवंभूत नय और समभिरूढ नय का शब्द नय में अंतर्भाव करने में माता है तब नय की संख्या सात की अपेक्षा पांच होती है और प्रत्येक के सौ-सौ प्रभेद से नयों के अवांतर भेद से सात सौ की अपेक्षा पांच सो प्रभेद होंगे। द्रव्यास्तिक पर्यायास्तिकयोरन्तर्भवन्त्यमी । आदावादिचतुष्टयमन्ये चान्त्यास्त्रयस्ततः ॥२१॥ संक्षेप में, सात नयों का द्रव्यास्तिकनय और पर्यायास्तिकनय नामक प्रमुख दो भभेदों में सम्मिलित होने से मूल दो नय है। प्रारम्भिक चार नय (नगमनय, संग्रहनय, व्यवहारनय और ऋजुसूत्रनय) का सम्मिलन द्रव्यास्तिक नय में होता है। , अन्य तीन नय (शब्दनय, समभिरूढ़नय और एवंभूतनय) पर्यायास्तिक नय में समाविष्ट हैं। सर्वे नया अपि विरोधभृतो मिथस्ते । संभूय साधुसमयं भगवान भजन्ते । भूया इव प्रतिभटा भुवि सार्वभौम पादाम्बुजं प्रधनयुक्तिपराजिता द्राक् ॥२२॥ उपयुक्त सात नय वैसे तो परस्पर विरोधी दिखाई देते हैं, किन्तु हे भगवान् ! बण्ड २१, अंक २ २१३ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभी नय सम्मिलित होकर श्रेष्ठ सिद्धांत की भक्ति करते हैं। जैसे युद्धकला : पराजित परस्पर विरोधी शत्रु राजा भी चक्रवर्ती के पद्मकमल की पूजा सम्मिलित होकर करते हैं, वैसे परस्पर विरोधी नय आपकी सेवा करते समय सम्मिलित होकर भक्ति करते हैं। इत्थं नयार्थकवचः कुसुमैजिनेन्दुर्वीरोचितः सविनयं विजयाभिधेन । श्री द्वीपवन्दरवरे विजयादिदेव सूरिशितुर्विजयसिंहगुरोश्च तुष्टय ॥२३॥ इस प्रकार नय रूपी अर्थ को जताने वाले वचनों रूपी पुष्पों से विनय नामक साधु द्वारा जिनों में चंद्र समान महावीर स्वामी की अर्चना की गई है। यह रचना' विजयदेवसूरि के शिष्य विजयसिंहसूरि गुरु की तुष्टि हेतु श्रीद्वीप नामक श्रेष्ठ बन्दरगाह में रचित है। -शारदाबेन चिम्मनभाई एज्यूकेशनल रिसर्च सेन्टर शाहीबाग, अहमदाबाद-४ २१४ तुलसी प्रज्ञा Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'संबोधि' में अलंकार समणी स्थितप्रज्ञा 'संबोधि' में अलंकार रसभाव आदि के सहायक रूप में उपस्थित हए हैं। विवेच्य वस्तु के उत्कर्षाधायक है तथा कविता-कामिनी के सौंदर्य की अभिवृद्धि करने वाले हैं । संबोधि में प्रयुक्त विशिष्ट अलंकारों का विवेचन ही यहां अभिधेय है । १. लाटानुप्रास जिसमें समान शब्दार्थ होने पर केवल तात्पर्य मात्र का भेद होता है। उसे लाटानुप्रास कहते हैं। जैसे-- सर्वथा सर्वदा सर्वा, हिंसा वा हि संयतः। प्राणघातो न वा कार्यः, प्रमादाचरणं तथा ॥ संयमी पुरुषों को सब काल में सब प्रकार से, सब हिंसा का वर्जन करना चाहिए, न प्राणघात करना चाहिए और न प्रमाद का आचरण । इसमें सर्वथा, सर्वदा, और सर्व में तात्पर्य भेद होने पर भी अर्थ की समानता होने से लाटानुप्रास अलंकार है। २. यमक अलंकार अर्थ होने पर, भिन्न-भिन्न अर्थ वाले वर्ण समुदाय की पूर्वक्रम से ही आवृत्ति यमक अलंकार कहलाता है। यथा--- ऐं ॐ स्वर्भूर्भुवस्त्रय्या-स्त्राता तीर्थंकरो महान् । वर्धमानो वर्धमानो, ज्ञान-दर्शन-सम्पदा ॥ त्रिलोकी के त्राता महान् तीर्थंकर वर्धमान ज्ञान और दर्शन की सम्पदा से वर्धमान हो रहे थे। वर्धमान (महावीर) वर्धमान (वृद्धि) भिन्न-भिन्न अर्थ वाले सार्थक वर्ण समुदाय होने से यमक अलंकार है । ३. उपमा अलंकार उपमान तथा उपमेय का भेद होने पर भी दोनों के गुण, क्रिया आदि धर्म की समानता का वर्णन उपमा अलंकार है।' संबोधि में उपमा अलंकार का प्रयोग द्रष्टव्य है आवारकघनत्वस्य, तारतम्यानुसारतः । प्रकाशी चाप्रकाशी च, सवितेव भवत्यसो ॥" खण्ड २१, अंक २ २१५ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस पद्य में उपमेय मात्मा के लिए सविता (सूर्य) को उपमान बताया गया है। सविता दिन में आवरणहीन होने के कारण प्रकाश देता है तथा रात्रि में अंधकार में आवरण से प्रकाश नहीं देता उसी प्रकार आत्मा भी होता है । ४. उल्लेख अलंकार उल्लेख का अर्थ है लिखना या वर्णन करना। एक पदार्थ का अनेक प्रकार से वर्णन करने के कारण इसे उल्लेख कहा जाता है। प्राणिनामुह्यमानानां, जरामरणवेगतः । धर्मो द्वीपं प्रतिष्ठा च, गतिः शरणमुत्तमम् ।। जरा और मरण के प्रवाह में बहने वाले जीवों के लिए धर्म द्वीप है, प्रतिष्ठा है, गति है और उत्तम शरण है। इस प्रकार इसमें धर्म का अनेकधा उल्लेख (वर्णन) होने से उल्लेख अलंकार है। ५. रूपक अलंकार रूपक अलंकार उपमा के समान सादृश्यमूलक अलंकारों में एक है। इस अलंकार में सादृश्य के आधार पर उपमेय पर उपमान का अभेद आरोप होता है।" इस अभेद आरोप के कारण काव्य में उपमा अलंकार की अपेक्षा रूपक में कुछ अधिक चारुत्व की अनुभूति होती है । इसीलिए सम्बोधिकम् ने इस अलंकार का बहुतायत से सहज प्रयोग किया है। उदाहरण स्वरूप . कषाया अग्नयः प्रोक्ताः, श्रुत-शील-तपोजलम् । एतद्धारा हता यस्य, स जनो नैव नश्यति ॥" यहां अभेद के द्वारा कषायों को 'अग्नि' श्रुत, शील और तप को 'जल' तथा 'जलधारा' और 'कषायाग्नि' में अपेद की कल्पना की गयी है। इसलिए रूपक अलंकार है। ६. उदात्त अलंकार __उदात्त अलंकार वह है जहां किसी वस्तु की असंभावित समृद्धि का वर्णन होता है और महापुरुषों के चरित का वर्णन किया जाता है । संयमे जीवनं श्रेयः, संयमे मृत्युरुत्तमः ।। जीवन मरणं मुक्त्य, नैव स्यातामसंयमे ॥" संयममय जीवन और संयममय मृत्यु श्रेय है। यहां संयमरूपी समृद्धि का वर्णन होने से उदात्त अलंकार है । ७. अर्थान्तरन्यास अलंकार सामान्य का विशेष के साथ अथवा विशेष का सामान्य के साथ समर्थन करना अर्थातरन्यास अलंकार है।" इसका प्रयोग 'सम्बोधि' में कई स्थलों पर हुआ ब्रह्मचर्यस्यरक्षाय, प्राणानामतिपातनम् । प्रशस्तं मरणं प्राहु, रागद्वेषाप्रवर्तनात् ॥५ २९६ तुलसी प्रज्ञा Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत पद्य में ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए प्राणों का नाश करना प्रशस्त मरण कहलाता है, क्योंकि वहां राग-द्वेष की प्रवृत्ति नहीं होती है। यहां सामान्य से विशेष का समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास अलंकार है । ८. व्यतिरेक अलंकार व्यतिरेक वह अलंकार है जहां उपमान की अपेक्षा उपमेय का व्यतिरेक वणित किया जाता है।" सम्बोधि में इसका भरपूर वर्णन किया गया है एकमासिकपर्यायो, मुनिरात्मगुणे रतः । व्यन्तराणां च देवानां, तेजोलेश्या व्यतिव्रजेत् ॥७ भगवान् ने बताया कि आत्मा में लीन रहने वाला मुनि एक मास का दीक्षित होने पर भी व्यन्तर देवों के सुखों को लांघ जाता है—उन से अधिक सुखी बन जाता है। यहां मुनि का सुख उपमेय रूप में उत्कर्ष को प्राप्त है एवं व्यंतरदेव के सुखों को उपमान रूप में वर्णित करा उसे ह्रस्व दिखाया गया है इसलिए व्यतिरेक अलंकार है। ९. कायलिंग अलंकार जहां किसी बात को सिद्ध करने के लिए उसके कारण का निर्देश किया जाता है, वहां काव्यलिंग अलंकार होता है । यह अलंकार तर्क एवं न्याय मूलक होता है । संबोधि में इसके अनेक उदाहरण आए हैं। विमात्राभिश्च शिक्षाभिर्ये नरा गृहसुव्रताः । आयान्ति मानुषी योनि, कर्म-सत्या हि प्राणिनः ॥" ____ जो लोग विविध प्रकार की शिक्षाओं से गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी सुवती हैं, वे मनुष्य योनि को प्राप्त होते हैं, क्योंकि प्राणी के कर्म-सत्य होते हैं जैसे कर्म करते हैं वैसे ही फल को प्राप्त होते हैं। यहां मनुष्य योनि प्राप्ति का कारण सुव्रती होना बताया गया है। इसलिए यहां कायलिंग अलंकार है। १०. दृष्टांत अलंकार जहां उपयोग, उपमान और साधारण धर्म का बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव हो, वहां दृष्टान्त अलंकार होता है । इस अलंकार द्वारा कही हुई बात का निश्चय कराया जाता है। इसमें धर्म का पार्थक्य होते हुए भी भाव का साम्य पाया जाता है । अर्थात् 'उपमेय और उपमान का साधारण धर्म एक न होने पर भी दोनों की समता दिखाई देती है। गेहाद् गेहान्तरं यान्ति, मनुष्या: गेहवर्तिनः । देहाद् देहान्तरं यान्ति, प्राणिनो देहवर्तिनः ॥२१ घर में रहने वाले मनुष्य जैसे एक घर को छोड़कर दूसरे घर में जाते हैं उसी प्रकार शरीर में रहने वाले प्राणी एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाते हैं। यहां घर में रहने वाले मनुष्य और शरीर में रहने वाले प्राणी की परलोक गमन में समानता दिखाई गई है। अतः उपमेय और उपमान का बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव है। । खण्ड २१, अंक २ २१७ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. परिकर अलकार . जहां साभिप्राय विशेष्यों का नियोजन किया जाय; वहां परिकर अलंकार होता है ।" सम्बोधि में कई स्थानों पर साभिप्राय विशेषणों की योजना कर चमत्कृत किया गया है कृताकम्पमनोभावो, भावनानां विशोधकः । सम्यक्त्वशुद्धमूलोऽस्ति, धति कन्दोऽपरिग्रह ॥२५ अपरिग्रह से मन की चपलता दूर हो जाती है, भावनाओं का शोधन होता है । उसका शुद्ध मूल है सम्यक्त्व और धैर्य उसका कन्द है। उपर्युक्त उदाहरण में सम्यक्त्व विशेष्य है। इस विशेष्य का प्रयोग संबोधिकार ने विशेष अभिप्राय से किया है । अतः यहां परिकर अलंकार है। १२. स्वभावोक्ति शिशु, युवक अथवा पशु-पक्षियों की स्वाभाविक चेष्टाओं के चमत्कारपूर्ण वर्णन के संदर्भ में स्वाभावोक्ति अलंकार होता है ।२४ संबोधि में कहीं-कहीं इसका चमत्कारपूर्ण वर्णन मिलता है। आत्मा ज्ञानमयोऽनन्तं, ज्ञानं नाम तदुच्यते । अनन्तान् गुणपर्यायान्, तत्प्रकाशितमर्हति ॥५ आत्मा ज्ञानमय है । उसका ज्ञान अनन्त है। वह अनन्त गुण और पर्यायों को जानने में समर्थ है। यहां आत्मा की स्वाभाविक स्थिति का चित्रण होने के कारण स्वभावोक्ति अलंकार है। १३. पर्याय अलंकार जब एक वस्तु की क्रमशः अनेक स्थानों में अथवा अनेक वस्तुओं की क्रमश: एक स्थान में स्वतः अवस्थिति हो या अन्य द्वारा की जाय तो वहां पर्याय अलंकार होता है।" संबोधिकार ने इसका बहुत मार्मिक चित्रण किया है शुद्धं शिवं सुकथितं, सुदृष्टं सुप्रतिष्ठितम् । सारभूतञ्चलोकेऽस्मिन्, सत्यमस्ति सनातनम् ।।२७ इस लोक में सत्य ही सारभूत है, वह शुद्ध है, तीथंकरों के द्वारा सम्यक् प्रकार से कहा हुआ है, सम्यक् प्रकार से देखा हुआ है, सम्यक् प्रकार से प्रतिष्ठित है और शाश्वत है। यह एक ही वस्तु सत्य की अनेक रूपों में अवस्थिति का निदर्शन किया गया है, इसलिए यहां पर्याय अलंकार है । १४. भाविक अलंकार इस अलंकार में भूत एवं भविष्य का वर्तमान की भांति वर्णन कर उनकी सत्ता की रक्षा की जाती है, इसलिए इसे भाविक कहते हैं ।२८ संबोधि में इसका सजीव चित्रण किया गया है अतीतं वर्तमानं च, भविष्यच्चिरकालिकम् । सर्वथा मन्यते त्रायी, दर्शनावरणान्तकः ॥२९ २१८ तुलसी प्रज्ञा Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह दर्शनावरणीय का अन्त करने वाला यति चिरकालीन अतीत, वर्तमान और भविष्य को सर्वथा जान लेता है और वह सभी जीवों का रक्षक होता है । यति भूत और भविष्य को वर्तमान की तरह साक्षात् जान लेता है और जीवों का ( सत्ता का ) रक्षक होने से यहां भाविक अलंकार है । १५. कारण माला अलंकार मम्मट के अनुसार जब उत्तर-उत्तर अर्थ के प्रति पूर्व-पूर्व अर्थकारण या हेतु-रूप में वर्णित होतो कारणमाला अलंकार कहलाता है ।" 'संबोधि' में इसके सटीक उदाहरण मिलते हैं । इसमें उत्तर हेतु सत्य सेवी श्रद्धावान् लक्षण है आस्तिक्य आस्तिक्य का कारण है शम, शम का कारण है संवेग, संवेग का हेतु है निर्वेद और निर्वेद रूपी हेतु से उत्पन्न होती है अनुकम्पा । अतः यहां कारणमाला अलंकार घटित होता है । १६. समुच्चय अलंकार आस्तिक्यं जायते पूर्वमास्तिक्याज्जायते शमः । शमाद् भवति संवेगो, निर्वेदो जायते ततः ॥ निर्वेदादनुकम्पास्यादेतानि मिलितानि च । श्रद्धावतो लक्षणानि जायन्ते सत्यसेविनः ॥" किसी कार्य की सिद्धि के लिए एक साधक के होते हुए भी साधकांतर का कथन करना समुच्चय अलंकार है जैसे वह व्यक्ति अर्जित दुःखों को प्रकम्पित कर डालता है जो मानव-जन्म को प्राप्त होकर धर्म का श्रवण करता है, इस एक साधक के होते हुए भी श्रद्धा रखना, संयम में शक्ति का प्रयोग करना साधकांतरों का विवेचन होने से यहां समुच्चय अलंकार है । १७. समाधि अलंकार लब्ध्वा मनुष्यतां धर्म, शृणुयाच्छ्रद्दधीतयः । वीर्यं स च समासाद्य, घुनीयाद् दुःखमर्जितम् ॥" आकस्मिक कारणान्तर के योग से कार्य का सुगमता पूर्वक सिद्ध हो जाने के इसका संबोधि में बहुलता से १४ वर्णन को समाधि या समाहित अलंकार कहते हैं ।" प्रयोग किया गया है । उदाहरण स्वरूप - १८. मायाञ्च निकृतिं कृत्वा, कृत्वा चासत्यभाषणम् । कूटं तोलं च मानञ्च जीवस्तिर्यग्गति व्रजेत् ॥ " यहां कपट, प्रवंचना, असत्यभाषण और कूट- तोल-माप आदि कारणांतरों का विवेचन तिर्यञ्च गति में उत्पन्न होने का सौकर्यं कारण होने से समाधि अलंकार है । संदेह अलंकार सादृश्य के कारण उपमेय में उपमान के संशय को संदेह अलंकार कहते हैं । इस खण्ड २१, अंक २ २१९ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलंकार में संशय या संदेह का चमत्कारपूर्ण वर्णन होना आवश्यक है। संबोधि में इसका प्रचुर प्रयोग मिलता है। विद्यते नाम जीवोऽयं, न वा जीवोपि विद्यते । एवं संशयमापन्नः साध्यं प्रति न धावति ।" यहां लोक है या नहीं ? यह सन्देह वणित होने के कारण सन्देह अलंकार है। इस प्रकार संबोधि काव्य में विविध अलंकारों का प्रयोग हुआ है जो काब्यजीवामुभूत रस के उत्कर्षाधायक, अभिव्यक्ति-प्रपंच-साधक, चित्रोत्पादक तथा वयं का सहज रूप में प्रमाता के सामने उपस्थापक के रूप में काव्य-धरातल पर उपस्थित . होते हैं और कहीं भी कष्ट-कल्पना के द्वारा या पाण्डित्य-प्रदर्शन के निमित्त अलंकारों का विनियोजन भी परिलक्षित नहीं होता। सन्दर्भ : १. शब्दस्तु लाटानुप्रासो भेदेतात्पर्यमात्रतः । कां. प्र., ९८१ । २. संबोधि, ७.१८ पृ. १४१ । ३. अर्थे सत्यर्थभिन्नानां वर्णानां सा पुनः श्रुतिः यमकम् । का. प्र., ९१८३ ४. सम्बोधि, १११, पृ. ७ । ५. साधर्म्यमुपमा भेदे, क. प्र., १०८७ । ६. संबोधि, ९७, पृ. १७४ । ७. भा.सा. शा.को..पु.३१९ । ८. संबोधि, ९।१९, पृ. १७९ । ९. का. प्रकाश, १०९। १०. संबोधि, १३॥३६, पृ. ३०३ । ११. उदात्तं वस्तुनः सम्पत् महतां चोपलक्षणम् । का. प्र., १०, १७६-१७७, पृ. ४९८-४९९। १२. भा. सा. शा. को. पृ. ९ । १३. संबोधि, १०॥२१, पृ. १९५ । १४. का. प्र., १०।१०५ । १५. संबोधि, ९।२४, पृ. १८१ । १६. काव्यलिंगं हेतोर्वाक्यपदार्थता, का. प्र., १०।११४ । १७. संबोधि, ७२१, पृ. १२६ । १८. दृष्टान्तः पुनरेतेषां सर्वेषां प्रतिबिम्बनम्, का. प्र., १०।१०२। १९. संबोधि, १५।२३, पृ. ३४३ । २०. विशेषणर्यत्साकृतरुक्तिः परिकरस्तु सः, का. प्र., १०।११७ । २१. संबोधि, १०॥४०, पृ. १५१ । २२. स्वभावोक्तिस्तु डिम्भादेः स्वक्रियारूपवर्णनम् काव्य. प्र. १०।१११ । २२. तुलसी प्रशा Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. संबोधि, ९१६, पृ. १७३ । २४. भा. सा. कोश, पृ. ७४५ । २५. संबोधि, ७३७, पृ. १५० । २६. भा. सा. शा. को., पृ. ८७३ । २७. संबोधि, ११।२४, पृ. २२४ । २८. का. प्र., १०।१८६ । २९. संबोधि, १२।५७-५८, पृ. २७३ । ३०. भा. सा. शा. को., पृ. १३७९ । ३१. संबोधि, ८।११, पृ. २१० । ३२. भा. सा. शा. को. पृ. ३३. संबोधि, १०।३०, पृ. ३४. भा. सा. शा. को., पृ. १३६७ । १९९ । १३४२ । खण्ड २१, अंक २ २२१ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथानक-रूढ़ियों के आलोक में संस्कृत-प्राकृत के गद्य-कथा-काव्य • प्रियंका प्रिगशिनी शिप्ले ने कथानक रूढ़ि (कथाभिप्राय) की परिभाषा देते हुए लिखा है कि कथानक रूढ़ि कथा का सबसे छोटा, किन्तु स्पष्ट पहचान में आने वाला वह तत्त्व होता है जो अपने आप में एक कहानी तैयार कर देता है। तुलनात्मक अध्ययन के लिए कथानक रूढ़ियों का बहुत अधिक महत्त्व हैं, क्योंकि कथाभिप्रायों के अध्ययन से ही यह पता चल सकता है किस वर्ग-विशेष की कहानी के कौन से उपकरण दूसरे वर्ग की कहानियों में भी समान रूप से प्रयुक्त हुए हैं। वर्गों के अध्ययन से यह पता चल जाता है कि किस प्रकार कथा सम्बन्धी ये अभिप्राय कथानक रूढ़ि बन जाते हैं। कथानक रूढ़ियों की दृष्टि से संस्कृत एवं प्राकृत का कथा-साहित्य अत्यन्त महत्त्व का है। इस साहित्य में कथानक रूढ़ियों का मुख्य उपयोग कथानक में चमत्कार उत्पन्न करने या उसे आगे बढ़ाने के लिए होता था । आधुनिक उपन्यासों व कहानियों की तरह उस युग में यथार्थ जीवन की घटनाओं और गतिविधियों का अनुकरणात्मक चित्रण नहीं किया जाता था, बल्कि कथाकार कथा में अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए संभव-असंभव सभी प्रकार की घटनाओं और क्रियाओं को या तो पूर्व प्रचलित कथानक रूढ़ियों द्वारा या निजी कल्पना-शक्ति की सहायता से नियोजित करता था। इस तरह निर्मित कथा चाहे ख्यात वृत्त पर आधारित हो या कल्पना के आधार पर निर्मित वृत्त पर, कथाभिप्रायों के प्रयोगों के कारण आश्चर्य और कुतूहल उत्पन्न करने वाली होती थी। कुतूहल वृत्ति को बराबर जागृत रखना कथानक का एक प्रमुख तत्त्व है। कथाभिप्रायों के प्रयोग द्वारा यह तत्त्व सहज ही नियोजित हो जाता था। कवि को सचेष्ट रूप से उसकी कल्पना नहीं करनी पड़ती थी। कोई कथा प्रारम्भ होकर जब किसी ऐसे बिंदु पर पहुंचती थी, जहां उसे आगे बढ़ने का अवकाश नहीं होता था, तो वहीं कथाकार कोई ऐसी आश्चर्यजनक घटना उपस्थित कर देता था कि कथा फिर तीव्र गति से आगे बढ़ने लगती थी। इस घटना या क्रिया से, जो प्रायः किसी न किसी कथाभिप्राय के रूप में होती है, पाठक की कुतूहल वृत्ति फिर जागृत हो उठती है और वह कथा के साथ तीव्र गति से बढ़ने लगती है। इस तरह संस्कृत के गद्य-कथा काव्यों में आश्चर्य और कुतूहल उत्पन्न करने की अद्भुत क्षमता कथाभिप्रायों के अधिक प्रयोग के कारण ही है । जैसे बाण रचित खण्ड २१, अंक २ २२३ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'कादम्बरी' से शास्त्रज्ञ शुक द्वारा कथावाचन, चन्द्रापीड सूने मन्दिर में महाश्वेता का दर्शन, महाश्वेता के शाप से कपिजल का शुक बनाना आदि कथाभिप्रायों का प्रयोग करके कथा में अत्यधिक आश्चर्य तत्त्व भर दिया गया है । इसी प्रकार दण्डी ने 'दशकुमार चरित' में समुद्र यात्रा के समय जलपोत का टूटना, बन में मार्ग भूलना, राक्षस द्वारा नायिका हरण आदि कथानक रूढ़ियों का प्रयोग पाठकों की कुतूहल-वृत्ति को निरन्तर जागृत रखने के लिए किया गया है । प्राकृत के गद्य-कथाकाव्यों, जिनमें आचार्य हरिभद्ररचित "समरादित्य कथा' का प्रमुख स्थान है, में भी कथानक रूढ़ियां अत्यधिक संख्या में संयोजित हैं। इन कथानक रूड़ियों में---स्वप्न द्वारा भावी घटनाओं की सूचना, भविष्य बाणियां, आकाशवाणी अमानवीय शक्तियों से सम्बन्धित कथाभिप्राय, विद्याधरों द्वारा फल प्राप्ति के लिए नायक को सहयोग, देवोपासना द्वारा संतान प्राप्ति, गुटिका और अंजन प्रयोग द्वारा अदृश्य होना, घोड़े का मार्ग भूल कर किसी विचित्र स्थान में पहुंचना, जलयान का भंग होना और काष्ठ फलक की प्राप्ति द्वारा प्राण रक्षा आदि प्रसिद्ध हैं। इन कथाभिप्रायों के माध्यम से कलाकार ने कथा में घटनाओं को नई मोड़, कथा में चमत्कार, कथारस की सृष्टि, कथानक की गतिशीलता, भाव और विचारों की अन्विति को संयोजित किया है। कथानक संघटन में भी कथाभिप्रायों का महत्त्वपूर्ण योग दिखाई पड़ता है। भारतीय दृष्टि से मान्य कथानक की पांच कार्यावस्थाओं-प्रारम्भ, प्रयत्न, प्राप्त्याशा, नियताप्ति और फलागम तथा पाश्चात्य दृष्टि से मान्य कार्यावस्थाओं-प्रारम्भ, विकास, चरमबिंदु, नियति और दुःखपूर्ण अन्त या नाश के आधार पर विचार करने पर पता चलता है कि कथानकरूढ़ि भारतीय ढंग से सुखान्त कथानकों के लिए अधिक उपयोगी हैं, क्योंकि कथानक की प्रत्येक कार्यावस्था में उनके प्रयोग द्वारा सहायता की गयी है। भारतीय कथाओं में तो कथा प्रारम्भ करने के लिए कुछ निश्चित अभिप्राय ही बन गए हैं। प्राकृत-संस्कृत की प्रेमकथाएं स्वप्न-दर्शन, चित्र दर्शन, रूप-गुण-कथा श्रवण आदि कुछ निश्चित कथाभिप्रायों से ही आरंभ होती हैं। सुबन्धु की वासवदत्ता में स्वप्न दर्शन से ही कथा शुरू होती है। प्रायः सभी प्रेमकथाओं में नायक, नायिका की प्राप्ति के लिए घर छोड़कर निकल पड़ता है और समुद्रों .- प्रायः सप्त समुद्रों अथवा बनों की यात्रा करता है । इस तरह के कार्य प्रयत्न नामक कार्यावस्था के अन्तर्गत आते हैं वन और समुद्र पार करते ही वे नायिका के नगर में पहुंचकर किसी उद्यान या मन्दिर में रुकने तथा किसी न किसी प्रेम संघटन सुख, सारिका, मालिन आदि की सहायता से नायिका से मिलते हैं। इस तरह इन कार्यों में प्राप्त्याश। नाम की कार्यावस्था दिखाई पड़ती हैं। नियताप्ति नामक कार्यावस्था वहां दिखाई पड़ती है, जब नायिका को लेकर नायक अपने देश के लिए लौटता है और रास्ते में ही जलपोत टूट जाता है और नायक-नायिका विमुक्त होकर काष्ठफलक के सहारे अलग-अलग दिशाओं २२४ तुलसी प्रज्ञा Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में पहुंच जाते हैं, पर किसी देवी या अति प्राकृत शक्ति की सहायता से पुनः दोनों का मिलन होता है । अन्त में नायक, नायिका के साथ उपर्युक्त नाना प्रकार के अवरोधों और कष्टों को पार करता हुआ अपने नगर में पहुंचता और सुखपूर्वक राज भोगता है । यही इन कथाओं का फलागम है । इस प्रकार इनमें प्रारंभ से लेकर फलागम तक सभी कार्यावस्थाओं में कथा एक कथानकरूढ़ि से दूसरी और दूसरी से तीसरी पर पहुंचती हुई आगे बढ़ती है । कथानक रूढ़ियों के प्रयोग से कथायें अधिक लोकप्रिय होती हैं, क्योंकि अधिकांश लोकाश्रित कथाभिप्राय लोकचित्त में संचित सामान्य भण्डार से लिये रहते हैं । यही कारण है कि संस्कृत की कथायें अत्यन्त लोकप्रिय हुईं । कादम्बरी में बाण ने जिन कथाभिप्रायों का प्रयोग किया वे कथाभिप्राय किसी न किसी रूप में दशकुमारचरित एवं वासवदत्ता, कथासरित्सागर आदि संस्कृत कथाओं में प्रयुक्त हैं। ऐसा लगता है कि कथाभिप्राय उस समय शिष्ट साहित्य और लोक साहित्य दोनों में वर्तमान थे । समरूप तथा परम्परा और उनमें प्रयुक्त समान कथाभिप्रायों को संस्कृत-कथाओं में ग्रहण किया गया है । इतनी एकरूपता होते हुए भी इन सभी काव्यों को लोकप्रियता इसलिए प्राप्त हुई कि पाठकों की इच्छा पूर्ति की प्रवृत्ति इससे संतुष्ट होती थी । कथा - प्रबन्धों में, चाहे वे प्राचीनकाल के हों या आधुनिक काल के, इच्छापूर्ति का बहुत अधिक योग रहता है । संस्कृत के कथाकार इसी प्रवृत्ति को संतुष्ट करने के लिए संभावना मूलक रोमांचक और साहसिक कार्यों तथा असंभव प्रतीत होने वाले घटना व्यापारों का वर्णन करता था और इन कथाओं को पाठक या श्रोता भी उसी प्रवृत्ति की शांति के लिए उनसे रस लेता था । इस प्रकार की कल्पित और संभावनामूलक कथावस्तु की योजना कथानक रूढ़ियों के प्रयोग से आसानी से हो जाती थी । संस्कृत कथाओं, विशेष कर प्रेमकथाओं में कथाभिप्रायों की अधिकता और उन काव्यों की लोकप्रियता का यही रहस्य है । सच बात तो यह है कि लोकाश्रित धारा के सभी प्रबन्ध काव्यों, चाहे वे पौराणिक, ऐतिहासिक या रोमांचक किसी भी शैली के क्यों न हों, कथावस्तु - योजना में समन्वय की पद्धति दिखाई पड़ती है । कथा - आख्यायिका में अवान्तर कथा, कथान्तर, कथा के भीतर कथा तथा अलौकिक, आश्चर्यजनक और अतिरंजित घटनाओं की योजना के कारण अन्विति की कमी होती है और कथा वर्णन की गति बड़ी क्षिप्र होती है, यदि इस दष्टि से संस्कृत, प्राकृत के गद्य - कथा - काव्यों को देखा जाए तो उसमें कथा - आख्यायिका तथा शास्त्रीय प्रबन्ध-काव्य दोनों की वस्तु योजना-संबंधी पद्धतियों का समन्वय दिखायी पड़ता है। शास्त्रीय प्रबन्धों के वस्तु वर्णन की पद्धति उनमें है अवश्य पर किसी भी काव्य में संस्कृत के शिशुपाल वध या नैषधीयचरित की तरह प्रकृति-चित्रण, जल-क्रीड़ा, मंत्रणा आदि के वर्णन वाले अलग-अलग स्वतंत्र सर्गों का विधान नहीं है और न कथा - आख्यायिकाओं की तरह उनमें अवान्तर कथाओं की सृष्टि और कथान्तर योजना ही अधिक है । इसका कारण मुख्यतः कथाभिप्रायों के खण्ड २१, अंक २ २२५ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोग द्वारा केवल आधिकारिक कथा कहने की उनकी प्रवृत्ति है। कथाकाव्यों में पात्रों द्वारा किये गये कार्य, परिस्थिति के प्रति उनकी मानसिक प्रतिक्रिया तथा भावाभिव्यंजना से उनके व्यक्तित्व और चरित का पता चलता है। कथाभिप्राय भी घटनाओं, कार्यों और परिस्थितियों से ही संबंध रखते हैं, अत: उनका उपयोग कथाकारों द्वारा वस्तु-योजना के लिए ही नहीं, चरित्र-चित्रण के लिए भी किया गया है । इसका परिणाम यह हुआ कि कुछ विशेष कथाभिप्रायों के प्रयोग से कुछ विशेष प्रकार के चरित्र बन गये, जिन्हें हम वर्गीय-चरित्र या टाइप कह सकते हैं। उदाहरण के लिए कुछ विशेष प्रेममूलक अभिप्रायों के प्रयोग से ही प्रेमी--- नायकों के चरित्र का एक विशिष्ट वर्ग बन जाता है, जिसे "आदर्श-वर्ग" कहा जा सकता है । इसी तरह रोमांचक और साहसिक कार्यों वाले अभिप्रायों के प्रयोग से साहसिक वीर चरित्रों को युद्ध वीरों और दानवीरों से भिन्न "रोमांचक वीर नायक" वर्ग का कहा जा सकता है। नायकों के अतिरिक्त कथाओं के अन्य पात्रों के भी वर्ग निश्चित हो गये हैं। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जिन कथात्मक काव्यों में कथानक रूढ़ियों का अधिक प्रयोग होता है, उनके पात्र विशिष्ट वर्गों के प्रतिनिधि होते हैं। ये पात्र आदर्श और यथार्थ दोनों प्रकार के होते हैं। संस्कृत में कथासरित्सागर में भी विभिन्न अभिप्रायों के प्रयोग के कारण भिन्न-भिन्न पात्र वर्गों के आदर्श और यथार्थ दोनों प्रकार के चरित्र मिलते हैं। यही बात दशकुमारचरित में भी दिखाई पड़ती है। पर कादम्बरी और सुबन्धु की 'बासवदत्ता' में प्रायः सभी पात्र आदर्श-प्रेमी वर्ग के हैं । अपभ्रंश के चरित काव्यों में अधिकतर रोमांचक-वीर-वर्ग तथा धार्मिक-वीर-वर्ग के आदर्श चरित्रों की अधिकता दिखाई पड़ती है, यथार्थ चरित्रों की नहीं। निष्कर्ष यह कि अभिप्रायों के आधार पर निर्मित कथावस्तु वाले काव्यों में चरित्र-वैविध्य नहीं आ पाया है। प्रत्येक कथा या कथात्मक काव्य का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है, कहीं वह प्रच्छन्न होता है, कहीं प्रकट धार्मिक और नैतिक उद्देश्य से धर्म-कक्षाओं, नीतिकथाओं और पौराणिक शैली के काव्यों की रचना होती है, पर अधिकतर प्राचीन कथा साहित्य का उद्देश्य चामत्कारिक कथा-प्रसंगों की योजना तथा विभिन्न प्रकार के संभावनामूलक और अतिरंजित कार्यो, घटनाओं आदि के वर्णन द्वारा लोकचित्त को अनुरंजित और आह्लादित करना होता है। इन दोनों प्रकार के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्राचीन कथा साहित्य में कथानकरूढ़ियों का बहुत अधिक प्रयोग किया गया है। केवल मनोरंजन के लिए जिन कथाभिप्रायों का प्रयोग होता है, वे प्रायः रोमांचक और साहसिक कार्यों से संबंधित होते हैं, क्योंकि उनमें कुतूहल को जागृत रखकर पाठकों और श्रोताओं के चित्त को अनुरंजित करने की क्षमता होती है। इसलिए संस्कृत की कथा-आख्यायिकाओं में शुद्ध मनोरंजन के लिए इनका उपयोग हुआ है। प्राकृत और अपभ्रंश के चरित काव्यों में भी कथाभिप्रायों का प्रयोग इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हुआ है। २२६ तुलसी प्रज्ञा Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथानकरूढ़ियो के अध्ययन में आदिम समाज के विश्वासों, प्रथाओं, आचारों आदि का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, उदाहरण के लिए संस्कृत साहित्य में प्रयुक्त जीवन निमित्त वस्तु के अभिप्राय द्वारा आत्मा की अन्यत्र स्थिति तथा टोटम संबंधी आदिम विश्वाओं का पता चलता है। यद्यपि आदिम युग में जीवन्त सत्य के रूप में मान्य उन धारणाओं को सभ्य गुणों के मानव मन में बाह्यत भुला दिया था, किंतु उसकी अन्तश्चेतना में वे वर्तमान थीं। इस तरह नृत्य शास्त्र और मनोविश्लेषण दोनों ही ने कथाभिप्रायों के माध्यम से मानव संस्कृति के अनेक रहस्यों को समझने का द्वार खोल दिया है। इसी प्रकार कथाभिप्रायों का समाजशास्त्रीय दृष्टि से अध्ययन बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है । बिभिन्न युगों के सामाजिक संबंध , लोकविश्वास, प्रथायें और संस्कृति प्रवृत्तियां ---इन अभिप्रायों में निहित रहती है। जो अभिप्राय जिस युग में निर्मित होता है, उसमें उस युग की ये सभी बातें अभिव्यक्त रहती हैं और परंपरा या रूढ़ि के रूप में परवर्ती युगों में भी मान्य रहती है । इस प्रकार वे अभिप्राय विभिन्न युगों के सांस्कृतिक मूल्यों को समझने में महत्त्वपूर्ण योग दे सकते हैं। उपर्युक्त विवेचन के आधार पर प्राकृत संस्कृत-गद्य-कथा-काव्यों में प्रयुक्त कथानकरूढ़ियों के अध्ययन का सांस्कृतिक मूल्य भी बहुत अधिक है। ये कथाभिप्राय आदिम युग से लेकर ८ वीं शताब्दी तक के सांस्कृतिक विकास के संकेत चिह्न लोकाश्रित अभिप्रायों के साथ-साथ विकल्पित अभिप्रायों का प्रयोग भी अत्यन्त प्राचीनकाल से होता आ रहा है । यद्यपि ये अभिप्राय रामायण-महाभारत के पूर्व के नहीं हैं, क्योंकि साहित्य-रचना प्रारम्भ होने के बाद ही इन अभिप्रायों की कल्पना की गयी होगी। उदाहरण के लिए प्राकृत-गद्य-कथा-काव्यों में प्रयुक्त रूप-गुण-स्वप्नदर्शन और चित्र-दर्शन-जन्म-प्रेम के कथाभिप्रायों का मूल रूप महाभारत के नलोपाख्यान तथा पुराणों में उषानिरुद्ध की कथा में देखा जा सकता है । अतः उनका प्रयोग महाभारत से ही प्रारम्भ हुआ होगा। तीसरी शताब्दी में रचित गुणाढ्य की बृहत्कथा में, जिसका सोमदेव और क्षेमेन्द्र के कथासारित्सागर और बृहत्कथामंजरी में अनुवाद • प्रस्तुत किया गया है, इन सभी कवि-कल्पित कथानकरूढ़ियों का प्रयोग हुआ है । इन कथाभिप्रायों में तत्कालीन समाज का यथार्थ चित्र और कवियों का संभावनामूलक दृष्टिकोण दोनों दिखलायी पड़ते हैं। समाज के साहित्यिक, कलात्मक, धार्मिक, नैतिक, राजनैतिक, सामाजिक आदि सभी क्षेत्रों में किये जाने वाले मानवीय प्रयत्नों के मूल में निहित सूक्ष्म प्रेरक चेतना दृष्टिकोण को ही संस्कृति कहा जाता है । इस दृष्टि से देखने पर उक्त कथाभिप्रायों से तत्कालीन भारतीय समाज का स्पष्ट आभास मिलता है । इन कथाभिप्रायों से जहां एक ओर सामाजिक रूढिबद्धता, गतानुगतिकता और अन्धविश्वासों का पता चलता बंर २१, अंक २ २२७ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, वहीं दूसरी ओर धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में होने वाले महत्त्वपूर्ण प्रयत्नों की भी सूचना मिलती है। द्वारा-डॉ० रामजी राम सहजानंद ब्रह्मर्षि कॉलेज आरा (बिहार)-८०२३०१ तुलसी प्रज्ञा Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरुमण्डल की धारानगरी: भीनमाल राब गणपतसिंह . . धन-कुबेरों का नगर भीनमाल कभी साहित्य जगत में मरुमंडल की "धारानगरी" के नाम से पहचाना जाता था। विख्यात ज्योतिषी ब्रह्मगुप्त ने वि० सं० ६८५ में यहां "ब्रह्मस्फुट सिद्धांत" की रचना की थी। संस्कृत के प्रसिद्ध महाकवि माघ का जन्म-स्थान होने के साथ-साथ, डॉ० ओझाजी के अनुसार यह नगर विद्या का एक पीठ भो था। ईसा की दसवीं सदी की अंतिम चौथाई में जब वहां परमारों का अधिकार हुमा, तो मालवा का "धारा-नगर" भी विद्वानों के शरण-स्थल का गौरव अजित कर चुका था। राजा भोज (परमार) के राजत्व-काल में वह नगर शीर्षस्थ हुआ और विद्वजनों की खान का पर्यायवाची हो गया । कालान्तर में एक लम्बी काल अवधि तक भीनमाल को भी गुणीजन "धारा" के अलंकार से सम्बोधित करते रहे। 'शिशुपाल वध'-काव्य का रचना स्थल वि० सं० ६८२ बसन्तगढ़ (सिरोही)-शिलालेख सूचित करता है कि उस समय यह प्रदेश वर्मलात राजा के अधिकार में था और आबू तथा उसके आस-पास का इलाका उस राजा के सामन्त राज्जिल के आधीन था। महाकवि माघ ने अपनी कृति शिशुपाल बध व अन्य कुछ फुटकर रचनाओं में अपना वंश वर्णन किया है, जिसके आधार पर विदित होता है कि उसके पिता का नाम दत्तक तथा पितामह का नाम सुप्रभदेव था, जो वर्मलात राजा के सर्वाधिकारी (मुख्यमंत्री) रहे। डा. ओझाजी की मान्यता है कि यह वर्मलात भीनमाल का राजा होना चाहिए।' जैन महाकवि धनपाल सं० १०८१ में जब किराडू के दुर्लभराज परमार ने भीनमाल के शोभित चौहान पर चढ़ाई की, तो व्यथित होकर जैन महाकवि ने भीनमाल का परित्याग कर दिया * और वे सांचोर (सत्यपुर) मा गये। उसके बाद भी धारा नगरी का वर्चस्व बना रहा। वि० सं० ११७६ के सेवाड़ी ताम्रपत्र में शोभित या सोही को "धारापति" सम्बोधित किया गया है (श्लोक ५)। यह धारा भी भीनमाल ही है। डा० आर० बी० सिंह ने सुझाव दिया है कि जब परमार नरेश मुंजराज कल्याणी के चालुक्यों के विरुद्ध दक्षिण के अभियान में संलग्न था, तब चौहानों ने थोड़े समय के लिए ही सही, मालवा की राजधानी धारा पर सत्ता स्थापित की। यह उल्लेख भी भीनमाल से संबंध रखता है । "धारा" बारहवीं शती खण्ड २१, अंक २ २२९ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईसवी के उत्तरार्द्ध तक मारवाड़ का सर्वाधिक विख्यात नगर था। प्रो. कीलहान ने संकेत किया है कि यह नगर उस समय मालवप्रदेश की राजधानी था।' वि० सं० १०५४ का ताम्रपत्र वि० सं० १०५४ का एक अधुरा ताम्रपत्र मिला है जिसमें भीनमाल के शासक का नाम सिंहराज है । डा. बी. सी. छावड़ा उसे चौहान राजा मानते हैं पर डा० दशरथ शर्मा उससे सहमत नहीं हैं। रामवल्लभ सोमानी ने भी सिन्धुराज और सिंहराज को एक मानने की बात कही है किन्तु यह सब ऊहापोह है । सं० १०५३ के बाद सिंधुराज परमार की कल्पना ठीक नहीं है । विशेषतः जब कि चौहानों में शोभित से पहले सिंहराज राजा हुआ है। ___ ननाणा दानपत्र में नाडोल अधिपति लक्ष्मण के बाद शोभित का नाम है और फिर एक पंक्ति के अक्षर मिट गए हैं। पुन: नड्डूले बलिराज भूपति -- शब्द पढ़े जाते हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि नष्ट पंक्ति में शोभित के भीनमाल से संबद्ध होने का उल्लेख रहा है इसलिये उसके उत्तराधिकारी को नड्डुल का शासक लिखा गया। संभवतः भीनमाल उनके हाथों से निकल गया।' वस्तुत: भीनमाल के लिये परमारों और चौहानों में पीढ़ी दर पीढ़ी संघर्ष हुआ। वि० सं० १०५५ को बाद वहां सं० १०५९,१११६,११२३ और ११९८ में सत्ता परिवर्तन हुए । अचलेश्वर प्रशस्ति सं० १३७७ में शोभित का भीनमाल राज्य क्रमशः महेन्द्रराज, सिंधुराज, प्रताप, आसराज और मन्हेद्रराज को विरासत में मिला-ऐसा लिखा है। गाव-चितलवाना (सांचोर) १. ओझा, डा० गो० ही; जोधपुर राज्य का इतिहास, भा १, वैदिक यंत्रालय अजमेर (१९३८ ई०) पृ० ५२ २. पटनी, डा० सोहनलाल; अर्बुद मण्डल का सांस्कृतिक वैभव; हिन्दुस्तान प्रिण्टर्स ___ जोधपुर (१९८४ ई०) पृ० १२८ ३. जोधपुर राज्य का इतिहास, भा १ पृ० ७४ ४. सिंह, डा० आर० बी०, हिस्ट्री ऑफ दी चाहान्स; नन्दनियोर मन्म. चौक वाराणसी (१९६४ ई०) पृ० २३९ ५. गांगुली, डा० डी० सी०; परमार राजवंश का इतिहास (अनु. लक्ष्मीकान्त मालवीय) प्रकाशन केन्द्र, अमीनाबाद, लखनऊ पृ० ३७ ६. शोध पत्रिका वर्ष २२ अंक १ पृ० ६५-६९ ७. सिरोही के नडुआ की पुस्तक के संदर्भ से 'चौहान कुल कल्पद्रम' में लिखा है शोभित ने भीनमाल के राजा मान परमार को मार कर वि० सं० १०४९ में भी भीनमाल में अपना अमल जमाया और ३२ वर्ष राज किया।-कल्पद्रुम पृ० ५४ २३. तुलसी प्रशा Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक समीक्षा 8. Restoration of The Original language of Ardhamāgadhi Texts by K.R.Chandra, Prakrit Jain Vidya Vikas Fund, Ahmedabad, 1994 Price: Rs. 80.00. 'प्राकृत जैन विद्या विकास फण्ड' कुछ उत्साही जैन बन्धुओं ने बनाया है जिससे पिछले डेढ़ दशक में दस प्रकाशन हुए हैं। उन्हें बिना हानि-लाभ के ६४२.०० रु० में विक्रय किया जा रहा है । 'मध्यकालीन गुजराती शब्दकोष' और 'भाषिक दृष्टि से आचारांग के प्रथम अध्ययन के नमूने'--प्रेस में मुद्रणाधीन • इस विकास फण्ड के अवैतनिक मंत्री प्रो० के. आर. चन्द्र पिछले काफी समय से अर्द्धमागधी आगमों की भाषा पर शोध-खोज कर रहे हैं । दो वर्ष पूर्व उनकी कृति 'प्राचीन अर्द्धमागधी की खोज में प्रकाशित हुई तो तुलसी प्रज्ञा के पुस्तकसमीक्षा स्तभ में उनके प्रयास को स्तुत्य और अनुकरणीय बताकर अर्द्धमागधी आगमों के तुलनात्मक संस्करण प्रकाशित किए जाने की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया गया था। • प्रस्तुत प्रकाशन ----'अद्धमागधी आगमों की मूल भाषा का पुनर्लेखन' उसी ओर प्रचोदित दीख पड़ता है क्योंकि इसमें 'प्राचीन अर्द्धमागधी की खोज मेंप्रकाशन में दी गई सूचनाओं से अधिक कुछ कहा गया नहीं लगता। यहां तक कि तुलसी प्रज्ञा (खण्ड १८ अंक १) के सम्पादकीय में उठाये प्रश्न को भी अनुत्तरित छोड़ दिया गया है। • पुस्तक के दो भाग हैं। प्रथम भाग में यथा, तथा, प्रवेदितम्, एकदा, एक, एके, एकेषाम्, औपपादिक, औपपातिक, लोकम्, लोके और क्षेत्रज्ञ अथवा यथा तथा; प्रवेदितम् ; एकदा, एक, एके, एकेषाम् ; औपपादिक, औपपातिक; लोकम् , लोके और क्षेत्रज्ञ-कुछ छह शब्दों के उपलब्ध रूपों पर विचार किया गया है । दूसरे भाग में ऐसे १४ शब्दों पर विचार करना प्रस्तावित है। दुर्भाग्य से लेखक को वि. सं. १३२७ से पुराने हस्त-लेख देखने का सुयोग नहीं मिला। उन्होंने प्रस्तावित १४ शब्दों में जैसलमेर के हस्तलेख सं० १२८९ का हवाला भी केवल पांच बार दि • इस संबंध में आचार्य महाप्रज्ञ ने आगम संपावन की समस्याएं-शीर्षक से एक लघु पुस्तिका प्रकाशित की है जिसकी समीक्षा में डॉ. के. भार. चन्द्र ने स्वयं उसे परम उपयोगी माना है (तुलसी प्रज्ञा २०.२ पृ० १६१-२)। उसमें खण्ड २१, अंक २ २३१ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागीटीकाकार के सम्मुख उपस्थित छह कठिनाइयां गिनाई गई है(१) सत्संप्रदाय (अर्थ बोध की सम्यक् गुरुपरंपरा) प्राप्त नहीं है । (२) सत् ऊह (अर्य की आलोचनात्मक कृति) प्राप्त नहीं है । (३) अनेक वाचनाएं हैं। (४) पुस्तकें अशुद्ध हैं। (५) कृतियां सूत्रात्मक होने से बहुत गंभीर हैं । (६) अर्य विषयक मतभेद भी है। --और पाठ संशोधन एवं अर्थ मीमांसा की पद्धति बताई गई है। चूणि और वृत्ति से उसमें संक्षेपीकरण और संशोधन की समस्या का हल निकाला गया है । पाठान्तर की परम्परा में मूलपाठ और व्याख्या पाठ के सम्मिश्रण को चीह्ना गया है। उच्चारण सुविधा, प्रवाहपातीपाठ, वर्णक और जावपद, इत्यादि की समस्याओं का समाधान करते हुए आगमों की भाषा पर सटीक टिप्पणी हुई है और समग्र दृष्टि से लिखा है- "भाषा शास्त्रीय दृष्टि से आगमों का अध्ययन बहुत अपेक्षित है । अतीत का अनुसंधान करना संपादन का एक पक्ष है। उसका दूसरा पक्ष है, वर्तमान युग की उपलब्धियों के आलोक में आगमिक तथ्यों का निरीक्षण और परीक्षण ।।" इस प्रस्तुत प्रकाशन में केवल प्राथमिक सकेत मात्र दिए हैं और उसके सम्पादक द्वारा निर्धारित नये (younger) और पुराने (older) पद पाठ भी प्राचीन और नवीन दोनों प्रकार की हस्त लेखों में मिलते हैं--(Further we can see that some times there are younger forms in the palm leaf Mss. which are dated earlier and sometimes there are older forms in the paper Mss. which are dated later---PP. 65-66)--- जिससे उनकी आधार भित्ति ही लचक जाती है। फिर भी डॉ० के. आर. चंद्र ने इस दिशा में प्राथमिक कार्य किया है, नया द्वार खोला है जिसके लिए हम उनके परिश्रम और अध्यवसाय की प्रशंसा करते हैं । २. स्व. बिमलप्रसाद जैन स्मृति के प्रकाशन-चेतना के गहराव में; शब्द... शब्द विद्या का सागर भोर मुक्तक शतक । लेखक --संत आचार्यश्री विद्या सागरजी । प्रकाशक-विजयकुमार जैन । मूल्य-चिंतन-मनन । आचार्यश्री विद्यासागरजी की परम शिष्या आयिका श्री दढ़मति माताजी के रोहतक (हरियाणा) आगमन के सुअवसर पर श्री विजयकुमार जैन ने अपने स्व. पिता श्री बिमलकुमार जैन की पुण्य स्मृति में आचार्यश्री विद्यासागरजी के काव्य-चेतना के गहराव में; नर्मदा का नरम कंकर; तोता क्यों रोता; डूबो मत लगाओ डुबकी और मुक्तकशतक का प्रकाशन किया है। ये प्रकाशन, इससे पूर्व जबलपुर (मध्य प्रदेश) तथा अमरावती, अजमेर से प्रकाशित हो चुके हैं। "मुक्तक शतक' प्रथम बार छप रहा है। __आचार्य विद्यासागर का जन्म नाम विद्याधर था किन्तु अपने गुरु आचार्य श्री ज्ञानसागर की असीम कृपा से उनका कवि, योगी, साधक, चिंतक, दार्शनिक आदि २३२ तुलसी प्रज्ञा Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध रूपों में प्रस्फुटित हो गया। मुक्तकशतक उनकी प्रारंभिक रचना है। उसमें उनके उत्तरोत्तर विकसित होते मनोभाव दर्शनीय हैं प्रभो ! सुकृत उदित हुआ/फलतः मैं मनुज हुआ यह है समकित प्रभात/न रही अब मोह रात x पर-परिणति को लखकर जड़मति बिलख-हरख कर x योग-मार्ग बहुत सरल/भोग मार्ग निश्चय गरल x पाप सज पुण्य करोगे तो क्या नहीं मरोगे भले हि स्वर्ग मिलेगा/भव-दुःख नहीं मिटेगा इच्छा नहिं कि कुछ लिखू/जड़ार्थ मुनि हो बिकू उस ओर मीन तोड़ा/विवाद से मन जोड़ा किन्तु उसके बाद परिपक्वता के दर्शन होने लगते हैं ऐसा कोई जीवन नहीं है कि जिसमें एक भी गुण न मिलता हो नगर, उपनगर में पुर, गोपुर में, प्रासाद हो या कुटिया जिसके पास कम से कम एक तो प्रवेश द्वार होता अवश्य-(चेतना के गहराव में से) मर्मदा का नरम कंकर, डूबो मत, लगाओ डुबकी और तोता क्यों रोताकाव्यों में करुणा, परोपकार और दान की महिमा है। शब्दों के साथ कवि मन चाहा खिलवाड़ करता है किन्तु उसका उद्देश्य कभी तिरोहित नहीं होता और शब्द बिम्ब बनते जाते हैं । वे कहते हैं--'जहां न जाय रवि, वहां जाय स्वानुभवी। आचार्य विद्यासागर के साहित्य के लिए शब्द-शब्द विद्या का सागर शीर्षक सटीक बन पड़ा है । उदाहरण स्वरूप परम नमन में रम--इन नौ अक्षरों को रम, मन, रम से लक्ष्य करें और इन तीन शब्दों की व्याख्या करें तो यह एक पुराण का उपाख्यान बन जावेगा अरे ! मन तू रमना चाहता है/श्रमण में रम/चरम चमन में रम/सदासदा के लिए/परम नमन में रम । -परमेश्वर सोलंकी Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI PRAJÑA Vol. XXI: No. Two July-September, 1995 S. No. 94 English Section Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DR. S. RADHAKRISHNAN (a biographic note) Rajendra Prasad Robert Browning has said "The meanest of mankind has two sides of his life, one to face the world with and the other to show the woman he loves. We have two sides, one in ordinary life and the other when we write about ourselves for the public." Through his writings, which constitute his main life-work, he has tried to communicate the vital ideas which have shaped his life. In this light, Dr. S. Radhakrishnan, as an eminent philosopher has also described in his autobiography. He says-"Philosophy was chosen one of his optional and special subject, although it was the result of my character, when I was in early stage was admitted in the Christian College. Madras. where I decided my future interest, when I took at the series of accidents that have shaped my life, I am persuaded that there is more in this life than meets the eye. Life is not a mere chain of physical causes apd effects. Chance seems to form the surface of reality, but deep down other forces are at work. If the universe is a living one; if it is spiritually alive, nothing in it is merely accidental. The moving finger writes, and having writ mores on." Dr. S. Krishnan when, however, adopted philosophy as a means of his life-work, he entered a domain which sustained him both intellectually and spiritually all these years, Philosophy promotes the creative task, although in one sense it is a lonely pilgrimage of the spirit, in another sense it is a function of life. Dr. Krishnan says, "his approach to the problems of philosophy from the angle of religion or distinct from that of science or of history was determined by his early training. In the background of rich Indian culture it is always counted in the process of the study of philosophy. In spite of several regidities of Traditional Indianculture some of the most favourite as moral value. Through his connection with Great Britain, India is once again brought into relationship with the Western world. The interpretation of the two great current of human effort at such a crises in the history of the human race is not without meaning for the future. With its profound sense of spiritual reality brooding over the world of our Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 TULSI-PRAJNA ordinary experience, with its lofty insights and immortal aspirations." Such philosopher started his professional life as a teacher of philosophy in the Madras Presidency College in April 1909, where he worked for the next seven years. During this period he studied the classics of Hinduism, the Upanisads, the Bhagavadgita and the commentaries on the Brahma-Sutra by Shankara, Ramanuja. Madhava, Nimbarka and others, the Dialogues of Buddha as well as the scholastic work of Hinduism, Buddhism and Jainism. Au ong the Western thinkers, the writings of Plato, Plotinus and Kant and those of Bradlley and Bergson influenced him a great deal. His relation with great Indian contemporaries— Tagore and Gandhi, were most friendly for nearly thirty years, and be realised the tremendous significance they had for him. As such Dr. S. Radhakrishnan admired the great masters of thought, ancient and modern, Eastern and Western but he was not a follower of any accepting his teaching in its entirety, although he did not suggest that he refused to learn from others or that he was not influnced by them. While he was greatly stimulated by the minds of all those whom he had studied, his thought did not comply with any fixed traditional pattern. Philosophy is produced by broad encounter with reality than by the historical study of such encounter. In such writings Dr. Krishnan's thought is bigbly effective, inner-most and dynamic wbich is a glorious way of Indian Culture. -Dilawarpur Near Kali Tazia Road Munger-811201 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE JAIN CONCEPTION OF UNIVERSE' WITH SPECIFIC REFERENCE TO THE SOTRAKRTANGA O Dr. Ch. Lalitha The Sūtrakstānga and its sigojficace in the Jain Canonical Literature : The Jain Agama or Siddhānta Texts which were compiled sometime between 5th and 6th century A.D. have been systematised into six kinds They are namely (i) Angas (ii) Upangas (iii) Cheda sūtras (iv) Culikasūtras (v) Mulasūtras and (vi) Prakrinikas. Of the above there are eleven extant Angas among which the Sutrakstānga stands as the second one. As regards the text of Sūtrakstânga, it is assigned into two sections which are known as Srutaskandhas, of these the first section consists of sixteen Adhyananas and the second part comprisce of seven. The major protion of the first Srutaskanda is written in verse from and most contents of the second book is composed in prose. The Sutrakrtånga is considered by eminent Scholars? as an momentous philosophical treatise. The religious life of a Jain Monk and the refutation of Non-Jain views are the central theme of the text. This sutra exhorts novices of the Jain Monastic Order to keep themselves away from manifold heretical doctrines. In the Sutrakstānga the themes of the inhabited universe (loka), empty space (aloka), lokaloka, soul (Jiva), non-soul (ajiva), one's own doctrines (Svasamaya) and the tenets of others (Parasamaya) are discussed. 11 Jain conception of the universe The Philosophical issues, like the basic source of the upiverse, the principal class of things and the psychic and non-psychic elements of the universe are the philosophia perennis of Jainism. According to Mahāvīra as stated in the Bhagavati-sūtra the universe is composed of the five extensive substances. They are the mediums of motion, the medium of rest, space soul and matter. Jainism looks at life and the universe from the point of view of rational analysis and then transcends the stages of reason to enter into the stage of intuition and direct experience. The entire cosmos comprising our world may be termed as the Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 TULSI-PRAJNA inhabited universe (loka). It is the stellar universe. Beyond this is the infinite, unlimited, it is the empty space (aloka). In the boundless unlimited beyond viz., aloka, substances like dharma, adharma, kāla and jiva have no relevance. The limitation of the universe is also due to the fact that these doctrines of motion and rest (dharma and adharma) are operative. According to the Uttaradhyayana sūtra and the Bhagavati Sūtra the diverse regions of the universe are described as upper world (urdhvaloka), middle universe (madhya loka) and the nether world (tiryak loka). The middle world is called as Karmabhūmi' in which human beings live and are involved in activity in the Uttarādhyayana sutra the loka is portrayed as that which sustains jiva and ajiva. The universe is confined and limited while the aloka is boundless. The bounded space (lokākāsa) has numberless pradesas while the boundless aloka bas unlimited pradesas. According to Māhavsra the foundation of the universe could be present in eight forms, 1. Abāsa is the foundation of the air. 2. The sea is based in the air. 3. The carth is in the sea. 4. The movable and immovable beings are on the earth. 5. Ajiva is based on jiva. 6. The Jiva tangled in the wheel of life is relied on karma, and the encrustation of karma. 7. Ajiva is apprehended with the aid of jīva 8. Jiva is covered by karmic particles and apprehends the nature of karma. The chief elements of the universe are earth, water, air and space. The universe is founded on the basis of these elements. The basic substances of the universe are matter (ajiva) and life (jīva). They are interdependent and interrelated. Because of the influx of karmic matter the jivas get involved in the wheel of life. In this regard Jainism is dualistic. According to the Jains the world is not non-eternal nor totally destroyed. According to the Sūtrakstānga Commentary it is stated from the Jain standpoint the world is not non-eternal nor totally annihilated. From the view point of substance (dravyāstikāya) it is the permanent, eternal and indestructible. From the view point of modes (paryāyastikāya) it has production, existence and destruction. The doctrine of universe is explained by the six substances medium of motion (dharmāstikāya), medium of rest (adharmāstikāya), space (akāsāstikāya), matter (pudgalāstikāya), soul (jīvastikāya) and time Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol XXI, No. 2 (kālastikaya). According to Jains in this world there is a place both for worldly beings and Siddhas. Those liberated siddhas who are absolutely devoid of eight karmas dwell in aloka.“ III Thus the above study of the concept of universe in the Sütrakrtänga reveals the fact that the Jains face the perplexity of the crea. tion of the universe According to them the universe is neither created nor destroyed. It is beginningless and endless. It is only the condition of initiation, continuation and disintegration which are responsible for the formulation of the universe and separation at regular intervals. Hence the Jains presented a doctrine of the cycle of evolution (utsarpin) and involution (avasarpinr). There is no necessity of the creator for the creation of universe, nor is it essential to have a destroyer for the disintegration of the universe. The cycle of formation and disintegration of the universe is because of the uniformity of the creeds of nature. The cycle of human birth and rebirth is because of the accumulation of karmic matter owning to the action of the soul. When karma is destroyed, the souls experience the eternal happiness in the region of the free and the liberated (siddhassla). References 1. Asim Kumar Chatterjee, A Comprehensive History of Jainism, Firma KLM Pvt. Ltd., Calcutta, 1978, p. 233. Munisri Hemachandra, Sri Amarmuni and Munisri Nemichandra, Sütrakstānga Sūtra (Prathama Srutaskandha), Atma Jnana Pitha, Punjab, 1976, p.26. (Here after Abbreviated as Sūkļ (Prs). M, Winternitz, A. History of Indian Literature, vol-II, Mushiram Manoharlal, New Delhi IInd ed. 1972, p. 438. 2. Bhagavati Sutra, XII, 4, 481 3. Hermann Jacobi, Jaina Sūtras Part-II, Motilal Banarasidass, 1973 reprint, p. 245. 4. Saky (Prs), pp. 228-229. Department of Philosophy Andhra University Visakhapatnam-530 003 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SOME MERITS OF KATANTRA Dr. Vrashabh P. Jain Kātantra is a less known but the shortest grammar of Sanskrit among all the grammars written in Sūtra-style. Sarva Varma is considered to be the author of this treatise. Although the time of Sarva Varma and its composition is not definite, there is ample evidence that puts it even prior to Pāņinian system. The aim of the present Paper is not to decide the date but to deal with its peculiarities. Even then, it will not be irrelevant to throw some light on this point. With regard to the phonetics depicted in kātantra, it is seen that this grammar differs from other grammars of Sanskrit. In Kätantra, the lengthened form of a sound is accepted, while Pāņinian system states it only in the normal grade. Thus, it is clear that the use of had been restricted in the time of Pāṇini because in the Pāņinian system we find the forms only in the uses derived from the root 79. In comparing Kätantra and Pāņini we come to the conclusion that in the time of Katantra there was no restriction on the use of and so it was used in general like other vowels, but later in the time of Pāņini it developed restricted use. Only on account of this, Pāņini bas stated it in the normal grade, and it has now completely lost its vowel nature. Another evidence on the phonetic level, we take the sounds #EUR which have been mentioned in that order in Kätantra call all these nasalised, while Paninian system mentions them as pure nasals. There is no doubt that a nasalised is a kind of vowel or a quality of vowels as the other grammarians also accept. When we see the contemporary use of sound and compare it to the Pāṇinian, it becomes clear that in the time of Panini it was a vowel, but now it has developed in the form of a consonant. Thust is an example which is indicative of sound shift from vowal to consonant. Vowel Time Consonant On comparing of the sounds # 9 # of Katantra and Pāṇini this fact becomes quite evident that these sounds were vowels in the time of Kätantra and they changed into consonants by the time of Panini. Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI-PRAJNA Patanjali himself refers in his Mahābhāṣya in the sutraकोपधात् (4.2.65) the word 'कालापक' as the counter example and in म्याप् प्रातिपदिकात् (4.1.1) कालापक as an example. Again he puts an example in the sūtra तेन प्रोक्तम् 4.3.101 that ग्रामे प्रामे काथकम् कालापकम् च प्रोच्यते means that Kathaka and are called in every village. But in the opinion of some of the scholars, there must be some vedic book named this is not referring to this grammar Katantra The कायक is the vedic book. Up to this very time we could not get any evidence even of referring the name as the vedic book, how can we call that there must be, while denying the grammar Katantra, which is still with us? 48 Kätantra represents non-prätyäharika grammatical tradition. It belongs to the tradition of Sanskrit Maheswara which have somehow accepted the Prätyāhara-system, but Kātantra is the only grammar which has nowhere allowed the Pratyahāra-system of Maheswara tradition. Durgāsimha explains its name as कु तन्त्रम् इति कातन्त्रम्, कु means the short one, thus the grammar which is the shortest, is Katantra. Some of the scholars call it as कुत्सितम् तन्त्रम् कातन्त्रम् and some as कार्तिकेय तंत्रम् कातन्त्रम्. Thus there are many explanations given by the scholars on the ground of the first syllable of Katantra. This Kätantra is also called by the names कौमार and कालापक. There are various meanings of, one meaning is collection, that is the collection of different grammars. Another meaning of कलाप is मयूरपिच्छ, is the broom of the feathers of (peacocks). The Jaina saints always have frost with them. This way, means the grammar written by some saint keeping f. that is a Jain. Bhavasena has also referred clearly in his कातन्त्र रूपमता प्रप्रिय that the author of कातन्त्ररुपमाला af is Jainacarya Sarvavarmā. Now coming to discuss the merits of Katantra, first of all, I take up the phonetic system. In the begining I have discussed the speciality of the sounds.¶¶¶ Here, I would like to add that although the Katantrakāra calls all the fifth letters of every class as अनुमासिक, these अनुनासिक are not cou nted as vowels, put as consonants. Explaining the term अनुमासिक, Bhavasena says in his commentary that the sounds which are pronounced from the back part of nose i. e, nasal cavity, are f. But according to Panini, agafa sounds are pronounced from the nasal cavity with the oral cavity (mouth) open. Katantrakara has stated only as जिह्वामूलीय and as उपमानीय. But Papiniyan system considered here two more sonds and as forget and Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol, XXI, No. 2 q and as 3987 . Kātantrakāra mentions only two froms of vowels, i, e. fa and ate it has nowhere allowed the con from and the other accent system also. Katantra narrates इ, ऐ, ओ, ओ as सन्ध्यक्षर i. e. diphthong. Dr. Janaki Pd. Dwivedi (1975) has stated that there are fifty two letters in Kātantra, he has also included 27 as a separate entity. Although in the sūtra fat au a t the Kātantrakāra has not counted all the sounds, the later commentators have counted them all Kasmiriyana commentators have accounted only forty ne letters; they have omitted fusta, 39 Taru and Here my bumble submission is that there is no question of not accepting the जिह्वामूलीय and उपध्मानीय as separate sounds while सूत्र फार himself made the sutras in his first sfa framta: 19 and a fa 3 20. Although Pāniniyan tradition accepts 395vita, forargate, fara fita and #grart as seperate sounds but Pāṇini himself has not counted them in his प्रत्याहार-sutra i.e. वर्णसमाम्नाय. The symbols of जिह्वामूलीय, उपम्मानीय, and विसर्जनीय sounds in कातंत्र are different from those of Pāṇiniyan. Dr. Dwivedi (year 75 p. 58) refers to two wear, but it can also not be accepted because in the sūtra Fragrant 118911 the sūtrakāra shows the rate of only one type and not*. In staring as separate catity. Dr. Dwivedi has written that although afat does not accept it but some of the commentators Kāśmirian commentaries and the commentary of Bhavascna have also not accepted (kşa) as a seperate entity. We also do not find any basis for accepting it as a separate entity. If we accept it as seperate one, we shall also have to accept a 7 also as seperate one, we shall also to accept a 7 also as seperate entities while it is not so. Thus as the commentary of Bhāvasena shows in Kātantra there are only fifty one sounds neither fifty two nor forty nine. Kātantra's morphophonomic system also differs from that of other Sanskrit grammar, specially from Pāṇinian system, As in Pāṇinian system, one sound or letter is placed in place of the two contegous sounds in atarfa Sandhis, but in Kätantra the former becomes lengthened and the later is dropped FAR: Hau atat hafa alga. Pāņini सुर+असुर=सुरासुर 3+3 =21 Kātantra सुर+असुर-सुरासुर *-+31+0 = It is true not only for stor afu but also for all other Sandhis. According to another ga of Kātantra when preceded by & becomes q and the latter s is dropped at argi satu". Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 TULSI-PRAJNA देव+इन्द्र tat +5=g +5 देवेन्द्र +0 Although this process of Katantra of dropping the later sound is seen everywhere, yet in some cases just the opposite situation is dropped. as parts Taalfefna-28, ### FFU -78. हल-+इस लाडगल+ईषा 3+$ 0+= 0+$= हलिस लाडगलीसो मनस्+ईषा #+f 0+6 मणीषा This makes the Pāṇipi and Katantra process appear similar but in fact they are not. For the formation of OTET word, Pānini first of all makes ft diaT of sounds and then the whole unit of as sounds which is fc is dropped, but the Katantrakāra does not put himself in such a long process He simply first drops at and then . Katantrakära has not given the names for the morphonemic changes as Pāņini has e. g. ata, ja, afa etc. Kātantra has only shown the changes. In the opinion of some of the scholars Kātantrakara has made more sütras for which Panini has made a single one. But here they forget that in Pāņinian system the meaning of the rule has become difficult, because for 17 In: the student may learn first what is ya, tben he will be able to know the meaning of the sūtra. But in Katantra we find no such difficulty. It directly shows the changes. As in faaf #fet he says in the sütra--(fani) changes into palata while after the विसर्ग there is च or छ विसर्जनीयस्य चे छ, वा शम. But in order to do the same, Pāņini first changes face into dental a and thereafter it is palatalized विसर्जनीयस्य सः and स्तो श्च नास्यु. On comparing the all system we reach to the conclusion that Katantrakära omits the use of sūtra fanglaufu #. Thus Kātantrakāras methodology is easier and simpler. The other merit of methodology employed by Kātantrakāra is that it has not allowed the safer system in the Paninian manner. Although the Kātantric sutras are arranged in a sequence yet that sequence is according to the reference. What is notable here is that the sütras of Kåtantra are not so dependent on other sūtras that they might have to seek help of other sütras to express their own meaning. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI, No. 2 51 They are independent. But this does not mean that they don't see even the language structure. Here I want to state that whatever rule of grammar is to be introduced it is introduced by a single sūtra. There is no need of seeking the help of previous or other sūtras to express the meaning of that particular sūtra. By introducing (graf) system Pāņinian tantra has become very toilsome for a new learner. The main aim of grammar is to teach the learner the rules of the language structure as easily and simply as possible. Although the usage of technical terms in Kātantra is rare yet whereever they have been used they are quite general in usage, and are short, c.g. fat, su , WTA, FETT, Era, aret, H, fot. Katantrakāra while defining the term padam says gerecatetereant 94 (15) that both the elements tbat which is to be added i. e, inflectional suffix, and that with which the former is to be added i.e. either stem or root, even joining the same entity can not be padam unless they denote any meaning. Pāṇipi says that anything which is with सुप (सुबन्त) or with तिक, तिउन्त. is pada. Thus it is clear that Papini takes pada as a morphological unit and so has defined it but it is not accepted by Kātantra. In the opinion of Kātantra the pada is of syntactic and semantic importance, because the meaning can not be expressed without syntactic and semantic structure. So he says that until it is not expressing any meaning despite the inflectional suffixes being be added to it, it is not padam. So in the definition of Kātantra, the main emphasis is on meaning while Panini is concerned only with the formation, Kātantrakāra has also given very simple definitions of case categories. Defining कर्ता he says-One who does or acts is कर्ता (पः करोति af 380) That which is done, is ** (na feat att ** 381). That by which is done, iso (fuat al *CUTÆ 3. 2) that for whom one wants to give, that for whom sometbing appears good or that for whom something is borne, is #ESTA, Fhifach, Trad, arcaa a aa gara 388. that from which something is seperated, that from which fear enemated, that from which something is got is a , gatafa, HTEET, atara 400) that which or who is the base, is ofert a are carrier 414). In the commentary, this base alatt is explained of three typesऔपश्लेषिक, वैषयिक and अभिण्यापक. Pāņini is silent about the difinition of compounds. He defines but not HTA. But Kātantrakāra does not leave undefined even HATE. Kātantrakāra says- where the # padas become qera, there it is समास. युक्तार्यक means that nāma padas may be able to denote the Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 TULSI-PRAJNA meaning [Tutarat: 420. In comparision to other grammars Katantra's definitions of the HATA appear long but they are simple. Where both the padas have been used in the some inflectional category, there the compounding is (Para gà gouferetu furat: furcu:, 431). The definition of (fay) is the same as in Pāņinian. Both these compoundings are called तत् पुरुष तत् पुरुषवुभौ 435. If in compounding there may be (two or more padas and after adjoining or being compounded they denote the meaning of another qe, there the #ry is agafe. Where two or more padas are combined, the compounding is IT. It is of two types-aia and HATER-FT: Hysenit atan वापि यो मवेत 441. When the former पद is वाच्य and indeclinable, the compounding is segururu-guru wa ueu atoa tarefaat, 447. The afer part of Kåtantra is very short. It is only in ninety one sūtras while in Pāṇinian it is in one thousand one hundred and eleven sūtras and even after that there are six hundred and ninety eight वातिक also. The second part of Kātantra is called fasrat TT. The numbering of the sūtras of this part is also seperate from the former. Although the Kātantrakāra has not accepted the fas: class of inflections, he has shown the ten classes of the inflections, of verb. The names of all these ten classes are different from अष्टाध्यायी they are वर्तमान, सप्तमी, पञ्चमी, हास्तनी, अद्यतनी, परोक्ष, स्वस्तनी, आशोह, भविष्यन्ति and क्रियातिपत्ति. Kātantrarāra has made a sepente class of fog fagfer. Except the difference in the names other nine classes are the same as in Creat. Kātantra has shown the seperate infectional suffixes for every class. Showing only eighteen infectional suffixes in all, Kātantra has not changed them to make for every class by the rules as Pānini has done. By introducing this, the process and methodology of Katantra has become clear and easy. All the places of gast are removed from these suffixes. For the class of farfaafa Kātantra has given these suffixes (Fara, FUTAIA, FUTA, FUA; FATA FUR, FTH, FATA, rata, fara, स्येताम, स्यन्त, स्ययम् , स्येथम, स्यध्वम्, स्ये, स्यहि and स्यामहि, Pāṇini is also silent about the definition of root i.e. arg. In the sūtra gareu: Stra: he has given only accounting statement, not the defining, the Kātantrakāra says-ferrarat arg: 16. in the opinion of Kātantra the verb sense is arg, a:, T:, f014 araufa, igraofa, # angånt, nafa HIGT. Due to the space and time limitations it is not possible to account for all the merits of Kātantra here. I could only show some merits Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI, No. 2 33 in brief and not exhaustively. In the commentary we also find Kārikās. We are not sure that these kārikās are of the author himself or of the commentators. In these kārikās we also find important linguistic material easily and simply defined Thus to know more about our ancient linguistic tradition, it is very essential to invastigate Katantra in depth. It has its own धातुपाठ, उणादि system and to much material for commentaries. It is hoped that the attempt of research in this side will certainly make clear the chain of our ancient grammatical tradition and will also bring out some monumental results. -The World Jain Mission Aliganj (Etah) U.P., INDIA and -K.M. Institute, Agra University, Agra, INDIA Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Science & Value-Education EFFECTS OF SCIENCE TEACHING ON SOCIAL VALUES Dr. Suresh C. Jain The existing content-oriented curriculum provides a greater emphasis on the intellectual growth of the students which leads only to the intellectual development of the pupils. Human being a highly doveloped animal, would like to live in a well developed society. The origin of well developed society is not depend on technological knowledge only but the need of values, particularly, social values play a dominant role. The scientific and technological developments are the products of human activities and can not be separated from human values. The goal of all activities concerned with scientific research and human behaviour is the search of truth. It may be scientific truth and can be demonstrated or moral truth which can be felt only. We (human) feel a great satisfaction by creating luxuriour life through several scientific investigations but the pleasure of this satisfaction remains incomplete due to the lack of human values. What are these values ? From where did these come. How can these be propagated ? One finds it very difficult to define. Roughly the values can be defind as the acts of life meant to assist society in its smooth running, create happiness and prosperity among people. Values are guidelines, influencing our behaviour and choice. These may be improving the quality of life with personal commitment as well as social ethic, hence these may be of personal and social types. The values relating intrinsic needs to extrinsic satisfactions. These may not be uniform for all human society and vary with the culture, religion and even geography of the community. The author would like to describe the effect of science, teaching on some of the social values existed in the Indian culture particularly in the Hindu culture of the north India in this write up. The school education runs for 12 years divided into primary for first five years. upper primary or middle for next three years, high school for next two years and higher secondary for the last two years. The teaching of science forms an integral part of school education Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 TULSI PRAJNA and is compulsory to all the students upto high school classes; its teaching starts in the form of enviropmental studies including natural physical sciences upto middle classes, whereas as separate subjects like Physics Chemistry, Biology etc. in high school classes. In higher secondary classes the teaching of science subjects are not compulsory and students may join academic or vocational courses and one of the fields from academic courses like sciences, social science, commerce and agriculture. Science and Social Life The conditions of life have changed to a great extent due to modern technological developments and demanding a corresponding changes in the teaching of science at all levels. The existing crisis due to mutual destruction, jealousy, fear, hatred and lust of power exhibited sometimes in the form of wars and conflicts, supports the idea that our education, fails in perpetuating values of life. So we have to change our education to make it more useful which will also streng then and perpetuate the values of life. Here, I would like to refer the words of Mahatma Gandhi. By education I mead an all round drawing out of the best in a child and man body, mind and spirt, the literacy is nor the beginning neither the end of education but it is only one of the means whereby man and woman can be educated'. Vinoba an other Indian social reformer says' A child ought to be educated that he is competent to come forward and serve the world around him". Richard Living-Stone, a British educationist observed that a real modern problem is to humanize human, to show him the spiritual ideals without which neither happiness nor success are genuine or permanent. The education should develop various physical, mental, emotional, social and spiritual aspects of the personality of the pupils which can be done by giving more stress on the development of healthy habits, traits, right attitudes, values, skills and interests among the pupils in our teaching. Social, Cultural and Ethical Aspects of Science Science is an organised knowledge of the the laws of things, evolved due to ipventive attitude of human thinking. The study of scientific concept includes observation, experimentation, hypothesis, conclusion, etc. and aimed to search truth. It is a creation of human spirit just as much as religion, art or literature. Thus science is an essential part of humanities. The process of acquiring and transferring tbis knowledge from one person to another, may be teacher to students is influenced by various sociol,cultural and etnical Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI, No. 2 57 aspects of the society in which we live. As we know that a man belongs to two worlds-world of things and world of experience; world of fact and wrold of faith; world of matter and world of mind and the world of sense and the wrold of spirit. Thus the primary business of education is, the unification of these two worlds in each individual. The basic or biological need which man shares with animals such as food, sex, territory, self preservation and play has to be integrated and fused with various social, cultural, and fused with various social, cultural and ethical needs for happy survival. The process of scientific study can not be separated from these aspects The effectiveness of processes involved in transferring scientific knowledge can not be achieved fully without proper understanding and even integrating various social, cultural and etenical aspect of society. Thus indepth relationship of these aspects with science can be coined as social, cultural and ethical aspects of science. The society is a group of individual people, living together in an organised system. The relationships between individuals are controlled by already established social conventions such as behaviour towards other members of the society, nature and natural resources. The need of developing emotional health together with mental and physical health and subtle consciousness among the pupils is very important for a good social health. There is a need to manage our own emotional system by excercises of concentration of thoughts of perception (prekshadhyana), relaxation and self-awareness (kayotsarga), auto-suggestion (bhavna), breath regulation (pranayama) and yogic postures (yogasanas) Thus the role of these established social norms in teaching science has to be fully considered. Various cultural aspects of the society have to be emphasised in science and its teaching, as these are the fragrance of a society and helps in understanding social set up of the society. It includes ways of making livings, language, religious beliefs, dress, political organisation and several other aspects of life. Culture can be observed through art, family life, music, dance, ways of spending leisure, placement of house hold things in house, etc. Culture is progressive and changes with political, economical social, geographical, religious, climatical aspects of life. The relationship of ethics of society with science can not be ignored. It is a permanent character of physical and social phenomenon and include customs, temperament, character and way of thinking of the society/individual. The concept of goodness, justice, happiness, conscience, source of power, moral, feelings, etc. come Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 under ethics. Ethic is an ancient and interesting branch of philosophy and a scientific discipline studying morality. Emergence and development of ethical thinking proceed parallel in identification of abstract moral norms and is normative in character. It provides recommendations on the choice of particular pattern of behaviour. These may be philosophical, scientific, professional, cultural and even social ethics. The intergated development of personality through attitudinal change and behavioural modification is the main aim of science teaching. The values are developed through the practice of sense of duty, self-dependence, truthfulness, reconciliation, freedom from fanaticism, human equality, coexistence, patriotism, mental equilibrium, patience, honesty, compassion, modesty, self-discipline, friendliness, will-power, etc. For developing and strengthening various social, cultural and ethical aspects of science, the teaching has to be based on ancient wisdom and modern scientific theories. The process of teaching science should emphasise individual attention, guidance and frequent cross examination of students about right methods. There is an urgent need to assess the efficacy of exercises included in the curriculum from time to time so as to develop internal abilities, positive attitude and higher standard of human behaviour. Social Values in India TULSI-PRAJN7Ā Non-violence, respect for life, worship of various natural resources like sun, moon, sea, rain, forests etc. are some of the acts followed in Indian society as a part of religion and culture, Respect to elders, help to needy, food for hungry, water for thirsty, help in building religious centres and organisations and various others ways of cooperations among the the societies are some of the social norms followed in the country. We are lucky in the sense that our society is conservative and having joint family system, so the teaching of various human values starts from family itself. Thus, the role of value-oriented science teaching becomes very important in analysing strengthening and perpetuating various values scientifically. Some of the acts like daily prayer at the opening of the school, respect for teachers, cooperative exercises, etc. are being followed in each and every school of the country. Values Through Sciences The belief that teaching of social values forms a part of social sciences, music, moral education, etc, only, whereas Physics, Chemistry, Biology, etc. are considered as dry subjects with dehumanizing and unresponsive effects, is still persiste in the society. Now it became a duty of science educatinists to revise the existing science curriculum Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI, No. 2 so as to make it more relevant to the present society. We all know that science effects culture and creates conditions which demand the reinterpretation of old values and or formation of new ones. It includes moral revolution at all levels, may be, even, at the cost of modification in old values. The sayings 'science provides knowledge', y provides ways to use this knowledge and values guide what we ought to do with both, is correct. So it is not separate values from science teaching. The science teaching has to be humanized by including necessary informations for students, besides scientific knowledge. Realizing this, the science educationists from all parts of the world are busy in improving the contents and methodology of science, also called 'humanizing science' The work undertaken by National Science Foundation of USA. Nuffield Foundation of UK, NCERT of India, UNESCO, etc., are quite worthy and satisfactory. These agencies are developing science curricula in context with human values and social conditions existing in the society. There are many science-based human problems like health, disease trol, food production, energy resources, pollution, population control, mana gement of natural resources, etc. and can be solved with the help of social values to a great extent. The learning through value-oriented science makes it possible for students to become selfadaptive by developing moral convictions. This type of teaching also helps in examining scientifically real life problems in context of science, technology and society. The laboratory exercises related with real life problems should also form a part of practical work. Thus a demand for interdisciplinary curriculum has been made all corners of education, particularly, at school levels. An example can be cited from the social values like worship of natural resources such as forests, water, sun, moon, crops etc. help in conserving nature and natural resources of the earth. The destruction of plants, especially food producing ones, are considered antireligious-activities and it is a big sin to destroy plants, forests and other natural resources in Indian society. Teacher and Values Teaching The teacher plays an important role in transforming the values of life through personal examples and mode of life. Teachers have been requested to follow and perpetuate Gandhian values like dignity of manual labour, sense of social awareness and responsibility, fearless, truthful, universal love, purity, service, peacefulness through their teaching. Teacher's life should be a spiritual lesson to the students and should help in perpetuating qualities like humility, patience, charity, predence, gentleness, kindness, forgi Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI-PRAJNA veness, etc. Moral qualities like devotion to duty, sincereity, honesty, courtesy, decency of personal habits and even modesty of dress and practical qualities like sympathetic attitude, good knowledge of subject, sincere interest in the students. should be practical examples to the students from life and manners of the teachers. References 1. Bronowaki, J. 1956 : Science and Human Values. Julian Messner New york. 2. Dubos, Reve. 1974; Biology, Society and the Individual, The American Review. 3. Foster, George. 1965; Traditional Cultures and the Impact of Technological Change, Harper and Row, New York. 4. Glass Bentley. 1969; Science and Ethical Values. Scientific Book Agency, Calcutta. 5. Hinde, R. A. 1974; Biological Bases of Human Social Behaviour, McGraw Hill, New York. 6. Jain, S. C. 1976 : Value-Oriented Education in Indian Schools through Biology Teaching, Biology and Human Affairs, Vol. 41 (2): 100-105. 7. Jain, S. C. 1977: Biology Teachers in Indian Schools and their Training, Journal of Biological Education Vol. 11 (2); 91-94. 8. Jain, S. C. 1978 : Teaching of Science as an Aid in Employment Proc. Seminar Role of Science and Technology in the Utiliza tion of Unemployed Manpower, New Delhi 9. Jain, S. C. 1978 : School Biology Curriculm and Local Resou rces in India, Proc. 7ih Biennial Conference of Asian Associa tion of Biology Education, Kuala Lumpur, Malaysia 10. Jain, S. C. 1978; Nutrition Education in Indian Schools, Proc. AI International Congress of Nutrition, Rio-de-Janeiro-Brazil 11. Report of Education Commission (1964-66), Ministry of Educa tion and Social Welfare, Govt. of India, New Delhi. 12. The Role of Schools Character Formation, 1970; Nation Council of Educational Research and Training, New Delhi. 13. The Third All India Educational Survey, 1975, NCERT, New Delhi, -Head, Department of Botany, Regional Institute of Education, Ajmer-4 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ? Study in Hemachandra's Quotations MAGADHI PASSAGES IN PRAKRIT GRAMMAR Dr. Jagat Ram Bhattacharya Hemacandra in his Prakrit grammar, while describing the characteristic features of Magadhi has quoted some lines from some Prakrit texts including Sanskrit dramas. These passages are important, because they will, at least, tell us the readings of some Prakrit passages found in some Prakrit dramas which were current at the time of Hemacandra. These readings are some times different from today. These passages show that those were the readings current at that time. As Magadhi characteristics of the grammarians were changed from time to time, it will be easy for us to understand the evolution of the changes. This fact can be proved from the passages quoted by Hemacandra in his Prakrit grammar. These passages are greatly found under the sutra seṣam sauraśenīvat (IV. 302). These passages are corrected, if they need so. Under the sutra (IV. 301) while explaining the use of hage in place of aham and vayam, Hemacandra qnotes the line from the Sakuntala as hage Sakkāvadāla tista nivāśī dhīvali This line occurs in the VI act of the Sakuntala 1 It is interesting to note that the same line is quoted by Hemacandra in the vṛtti of the next sutra (IV. 302) while explaining idānimo dāṇim (IV. 277) as suṇadha dāņim hage Sakkāvayāla tista ṇivāśī dhivale. In the footnote of both the passages there are some different readings tista in both the places is given as tittha. But with regard to the reading sakkāvadāla. there are differences. Uuder (IV. 301) the reading is sakkāvadāla without any variant readings noted anywhere. But in the vṛtti of the sutra (IV. 302) the same word is read as Sakkavayala which means t is elided leaving it's vowel y-śruti The interesting point is that the same word is quoted by the same author almost in the same place under two different sūtras. It is, indeed, true to say that whether Hemacandra has made the same mistake or it is the editor who has edited it wrongly. When the same passage is quoted it is obviously better that the same line should be quoted. Pischel, of course, in his edition has recorded sakkavayāla in the footnotes whereas in the main body in both the places he has accepted the reading sakkāvadāla. As far as Magadhi is concerned the intervocalic da is generally retained like Saurasent and therefore, Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI-PRAJNA the reading with dála is better, and therefore accepted by Pischel. The reading tista, is a little confusing as Māgadhi is concerned. Though Hemacandra has accepted st in Māgadhi in place of sth and rth, the real reading of this sütra should be st, as Palatal s is one of the dominant features of Māgadhi Probably both Pischel and Vaidya were carried on by the sūtras of Hemacandra and so, the Prakrit reading tittha is replaced by tista. As the eastern Prakrit grammarians recognised only palatal ś. even in conjunct, this can be rectified in accordance with the prescriptions of eastern Prakrit grammarians. In fact, in the printed text of the Sakuntala. the reading tista or tittha is not found at all, instead in its place abbhandala is found. Should we then say that at the time of Hemacandra the reading tista or tittha, whatever, might be, was prevalent? The passage ted should be fakkāvadāla tista niväść dhivali. in the light of the discussion made above. Another reading of Māgadbi found in the výtti of Hemacandra's Prakrit grammar under IV. 302 is different from what is printed in the common edition of the Sakuntala. The reading is mäledha vă dhaledha vă / ayam dáva še āgame. Here in this reading of Hemacandra some differences are noticed with the printed editions of the Sakuntala. In most of the editions the reading is māledha vă / kuşfedha vā / ayam se āama vuttamte. This reading also has some variants, e. g. in some of the editions the reading is ettike dāva edassa āgamel adhunā māledha ya kusredha vă etc. However, is some of the editions mäledha ya dhaledha và has a different reading. In place of dhaledha and kustedha they have muñcehha and pittedha, however, the reading dhaledha has not survived in any of the editions printed so far. This pair of expression māledha vă dhaledha vā bas some similarity with modern expressions in Bengali. The reading of Hemacandra as mäledha vā dhaledha yā has a parallel in Bengali mara athava dhara (mār, dhor karā, literary to beat and hold). So this reading has a parallel in Bengali expressions. In a similar way the expression mäledha vā kuşfedha vă has also a parallel in Bengali expression--mära är kofu (cf. again mār kuț karā, literary to beat and to chop). As it is a context of fish which needs cutting by a stake, probably in course of time the reading dhaledha is changed to kuşțedha. It will be perhaps too much to guess that this reading is changed in any one of the eastern manuscripts and from that time onwards, perhaps, the reading kustedha crept into the manuscripts in general. Another reading pittedha has also come into existence almost in the same pretext which goes on a par with the Bengali Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P Vol. XXI, No. 2 63 expression māra athavā peţão (cf. Bengali mār pit literary beating and chiding). Another reading muñcedha instead of maledha has a different connotation. That is to say, after hearing the cause of the coming of the ring into the hands of fisherman, it is upto the policeman who can release him or beat him, Perhaps with this idea in mind the reading has changed into muñcedha. Apart from what has been said above with regard to the reading of Hemacandra, the reading dhaledha has not developed any more as one of the readings of Sakuntalā. The main purpose of this line, of course, is to show Sanskrit tavat becomes dāva. In Magadht and as far as other readings are concerned the Magadhi features are, of course, maintained. In the same vṛtti another line from the Sakuntala is quoted kim khu sobhane bamhane si ti kalia laññā paliggahe dinne. This reading has also some variants though not of strong type, but fairly significant The accepted reading as found in the most of the editions is kim nu kkhu sohane bamhane tti kadua lañña de padiggahe dinne. ones. First of all the khu of Hemacandra generally becomes kkhu in Prakrit and that is why, it is found in almost all the editions, of course, between kim and khu the particle nu is inserted, and therefore, the justification of doubling khu which is linguistically also explainable (khalu<*khluPage #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 TULSI-PRAJNA References 1. The Māgadhi passage of the Sixth act of the Abhijñāna Śakunta lam along with the commentary of Raghavabhatta why has mentioned some Prakrit Sutras from some Prakrit grammars has been discussed by me in the Tulasi Prajñā, vol. XVIII, 1993, pp. 151-163. 2. S. R. Banerjee, On the Etymology of Prakrit rukkha and vaccha meaning 'tree', Bulletin of the Calcutta Philological Society, vola III, 1962, pp. 13-16. BIBLIOGRAPHY Prakrta-Prakāśa of Vararuci-by E.B. Cowell, Prakrta-Vyakarana of Trivikrama-by Bhattanathaswami. Siddha-Hema-sabdānuśāsanam of Hemacandra--by P.L. Vaidya. Banerjee, Satya Ranjan-On the Etymology of Prakrit rukhha and vaccha meaning tree, B. P. S. C. Calcutta, 1962, III, Part I, pp. 13-16. Banerjee-Sastri, A.P.-The Evolution of Māgadhi, Oxford, 1922. Bloch, Jules-Asoka et la Māgadhi, BSOAS, VI, Part-II. Chatterjee, Suniti Kumar-Origin and Development of Bengali Language. Jha, Subhadra-Comparative Grammar of the Prakrit Languages, Motilal Banarasidas, Delhi, 1957 (translated into English from Pischel's Grammatik der Prakrit Sprachen, Strassburg, 1900). Prints Wilhelm-Bhāsa's Prakrit, Frankfurt, 1921. Schmidt, R.-- Elementarbuch der Sauraseps mit Vergleichung der Maharashtri and Magadhi, Hannover, 1924. Sen, Sukumar-A Comparative Grammar of Middle Indo-Aryan Sircar, D.C.-A Grammar of the Prakrit Language. Woolner, A.C.-An Introduction to Prakrit. - Prakrit Language & Literature Dept., JVBI, Ladoun Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ STATUS OF WOMEN AND GIRL-CHILD Anil Dutta Mishra The Problem Humanity has advanced very far from where it had started. Many things have changed; the social position and rights of many groups have been subjects to the ebb and flows of history. Many sections of the population which had ruled, have been brought down while others which were deprived have risen to position of equality and even to political power. Every now and then a new group, that is being oppressed demands attention, demands its rights and upliftment. Attention shifts to this group; its problem gets focussed upon; the causes of its oppression get diagnosed, a strategy to solve its problems, is worked out and an attempt to formulate policies gets rolling." Women, who constitute more than half of the world population, are facing problems since ancient times. Their oppression is persistent and universal, and its solutions are complicated. In spite of this, women's question has attracted the attention of social-scientists who find planty of areas still unexplored. Social scientists have undertaken the task of conducting a systematic research to assess the changes that are taking place in the condition of women and girlchild all over the world; especially in the developing countries. According to Alfred D'Souza "in both the industrially advanced and less developed countries, women are burdened with cumulative inequalities as a result of socio-cultural and economic discriminatory practices. Until recently, they have been taken for granted as though they were part of the immutable scheme of things established by Dature."'. It is well accepted fact that women have been denied equal opportunities all over the world for their personal and social development. In India, it is still worse because of the sex-segregated structure of the society, acute poverty and the traditional value system. The various studies show that women are still backward. It is no consolation that the condition of women in India is better or worse than that of their counterparts in rest of the world, particularly in other developing countries. Women are at the receiving end right from the time of their birth. Discrimination against them is preva Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 TULSI-PRAJŇA lent in all spheres of life, the difference being only in its enormity. Even today in most of the families the birth of a girl-child is considered a curse. Small wonder, their needs are neglected. Daughters are often given food that is deficient; and if there has to be a choice, sons will be sent to school and for higher education. Hence, more women die at a younger age than men and only 69 percent of them are enrolled at the primary stage of education. A vast majority of them drop out of schools before they reach even the secondary stage. As a result of the neglect at every stage, the demographic ratio has been undergoing an alarming change with the number of women dipping to as low as 769 against 1000 men as in Chandigarh. Women also have to put up with atrocities of various kinds at the hands of society that often treats them no better than an object." Incident of dowry deaths, rape, visual-rape of adoloscent girl, Sati and discrimination at every stage show, what kind of society they have to live in. With the enforcemsnt of laws guaranteeing protection to women remaining ineffective in almost all the areas, women often have little option but to suffer the daily ignomity heaped on them. Indian laws concerning women are not that progressive and are often biased against them. In fact, everywhere there is a discrimination and she is compelled to live as in second grade life, It is not easy to form a total view of the status of women in India. On the one hand, because of protection provided in the Constitution, there is formal equality between men and women, but on the other, there are inequalities inherent to our traditional social structure which have affected the status of women in different degrees. The complex process of development, urbanisation, modernisation and industrialisation have also played a vital role in creating and resolving imbalances, and this is in no uniform manner. The set of values adopted by different classes in society has contributed to a different concept of status in each hierarchical class of the Indian society. The demographic profile which shows sex-ratio, life expectancy, literacy rate, internal minratlon rates and economic participation rates suggests the helplessness and insecurity that women in general are exposed to in spite of constitutional provisions and various pieces of legislation undertaken in their favour. Their enrolment in school is much lower than boys. The rate of dropout of girls is much higher than that of boys whether it be in school or later on in the world of work. Participation in the economic endeavour is much less and the status of women is determined accordingly to the income class the various groups fall into. Many customs and traditions Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI, No. 2 67 stall the progress towards equality in practice. The attitude of men to women, of women themselves to their role conditioned by years of male superiority and social prejudices against girl-child, widows and divorces have not helped to raise the status of women. Reforms in law and educational policy are hampered by allergy of society to change, particularly when there is likelihood of its upsetting age-old values as well as family life. Even if government were to afford all the educational and employment opportunities that are necessary for women, that would still not be enough. A massive effort is required for changes in outlook. To understand this paradoxial situation one has to look at the many interrelated values, customs, attitudes, behaviours of society towards woman and the girl-child. Status: A conceptual analysis The term, status was used in a different sense till 1920. It was used to refer to some of the capacities which could be legally enforced and also to the limitations of people or their relative superiority and inferiority. But since 1936 this term has undergone radical changes. It has assumed a non-secular usage generally called 'status' in the 'Linton Sense'. It has now come to be a synonym for any 'position in the social system'." According to Linton, a status is marked off by the fact that distinctive beliefs about, and expectations for, social actors are organized around it. He defines status as the "Polar position......... in patterns of reciprocal behaviour." According to him a 'Polar position' consists of rights and duties, and a role as the dynamic aspect of status. Talcott Parsons has defined the term in a different fashion, though it stems initially from the definition of Linton. "Hence, it is the participation of an actor in a patternal interactive relationship which is for many purposes the most significant unit of the social system." Goodenough's conception of status includes combinations of rights and duties." When we talk of status of women and the girl-child in India, we have to make a distinction between rural and urban women and between rural and urban girl-child. This distinction is very important to do justice to 80 percent of women who live in rural India. Again, when we talk about the rural women or rural girl-child one has to bear in mind the type of social stratification that exists in rural India. There are several categories of rural women/girl-child based on religion, caste, education, occupation, income and so on. Hence, unless a cross-sectional study is undertaken, a true picture of the status of women and girl-child will not be available. Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 Socialisation of the Family For women it The family is the closest, immediate social unit. is the major and often the only social group they interact with. It is through the family that one obtains identity, means of survival and support. In Indian society with a virtual absence of social security schemes it is the only reliable support for people, particularly women. Yet women have a contradictory position within the family. The identity of women is generally defined by her role within the family. She is identified as a daughter, daughter-in-law, mother-in-law, wife etc. and not as a person. She has no independent connections, friends and relatives outside her family. Her only friends, relatives & connections are those of the menfolk of the family, becoming here by implication and not by voluntary choice. She has a subordinate status in the family. It is within the family, that, right from birth, the girl-child faces discrimination and inequality in feeding, in work burdens and in education. It is the family that socialises girls to be dependent and non-aggressive and boys are given the notion that they are superior. A rebellious boy can run away but a rebellious girl cannot do so easily because right outside the doors are hazards for unprotected girls and women. This is the most important reason why women find it hard to step out of oppressive family set-ups. During my research I noted that about 85 percent of girls in Delhi slums and near about 60 percent of girls in a rural village of Uttar Pradesh were aware of the discrimination. Large number of girls do not go to school because they share child-care responsibilities and household works with their mothers. They are fed up with their family. Even after marriage there is no end of discrimination. Even the family prospers, the share of resources within the family are not equal and the priorities are not based on women's needs Discrimination and harrassment by in-laws, is a recurrent theme in women's lives and daily woe for many women. TULSI-PRAJNA The strange invisibility and social acceptance of the girl child's neglect become understandable when we consider that unlike any other deprived group of individuals, the denial of her basic rights begins within the walls of her own home. Young girls realise early that they are less valued by society than are boys and then begin the cycle of socialisation that causes women to undervalue themselves. They witness the excitement at the birth of a brother, and the sympathy that their parents get at the birth of a girl-child, and watch while extra food is given to the boys in the family. So they begin to know that boys are special and girls are just second. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI, No. 2 Little girls are socialised early-into the domestic work. Playing with dolls perpare them to look after siblings, "house--house" trains them to sweep, cook and clean. If the girls aspire to do anything masculine she is scolded for behaving like a tomboy. A show of temper mood at petulance invites reminders that such behaviour will not be tolerated in the husband's home. This contrasts with the tolerance shown towards boys rough behaviour and demands. Gender differences hightens with the advent of puberty. From her play in open conrtyards, she is suddenly pushed into the inner domains of the house. Where intense preparation begins for her impending roles as wife and mother. At this stage her movements and associations are strictly curtailed for her virtue has to be guarded in order to preserve the family honour At puberty she is often with. drawo from school, leading to a high rate of wastage in education, the restrictions on her movements, such as she need to be back home before dark, limit her educational and vocational choices. Throughout childhood to adolascent she is referred as a tempo. rary resident of the family, to be transferred to another family who will accept/take burden in return of a dowry. She is often referred as a "paraya dhan", another's wealth, or as the burden on the shoulders of her parents. This attitude of girl's membership being temporary in the natal home, ensure minimum jovestment in her development. Why feed or educate her as a son if all the benefits go to another family. It is this practice that makes a girl a liability at birth. Families start saving for dowry, when a daughter is born. Fear of extraction of dowry by the in-laws forms a major reason why parents let girls die. A young women harassed for dowry has little recourse. She cannot return to her parents home as this invitesgraater social scorn than does bride burning, and wife beating or suicide. Bride burning is also related to the low statu ning is also related to the low status of the female child in the well known Vibha Shukla case, immediate event precipitating her was the birth of a daughter. Educational Status Even by Third World standards, Indian female literacy figures are dismal, Indian girl-child are not even enrolled into schoolsome 70 percent of non-enrolled children between 6 to 14 age group are girls. The percentage of drop out are near about 50 percent at primary level (viz. classes 1-V). But the situation is changing. Now the girls are interested in studying but due to lack of facilities and acute poverty forced them to work and not to be in school. At national level the literacy level of working girls is 11,16 ip rural area and 23.05 in urban areas. At the same time the literacy rate among Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 TULSI-PRAJNA working male child is higher i.e. 30.34 and 36.87 percent in rural and urban India respectively. In Delhi slums, the girls are well aware of their career but they don't know how to achieve it. Even in the remote villages of U P. more than 30% of the girls respond positively and they want to become, nurse, school teacher, police-inspector etc. But there is a lack of infra-structure and no way to achieve it. Most of the schools have no playground, toilet, library etc. There is no high-school in nearby villages. They have to walk 3 to 4 k.m. if they want to continue their studies. This paradoxial situation forces them to discontinue the education and remain backward. This is the situation throughout in India. Marital Status India has one of the lowest mean ages at marriage in the world. While many Indian states have registered an average increase of one year in the mean marriage age of females, far more Indian girls are still married before they are 16 rather than at the legally permissible age of 18. According to census figures about 44 percent of all Indian marriages are of girls between 15 to 18. Next of 4.5 million marriages in India, some three million take place before the girl is 19. Worst of all, about 8 percent of all marriages in the rural areas are of girls between 10 to 14 years of age. As a result 43 percent of all female deaths are of girls between 15 to 20. The reasons-pregnancy complications, abortion, death due to bleeding and anemia, also toximia and puerperal sepsis. The area where I worked, the marriage age was near about 14 to 16 years in urban area and 12 to 14 years in rural areas. But there are some cases of girls married even before 10 years of age. Some girls are pregnant even before the age of 15 years. In one or two cases the girls have kids at the age of fifteen. Now the question arises why the girls are married so early by the parents. The reasons for these early marriages for girl-child are also rooted in generations of cultural practice and attitude towards them. From the time she is born she is viewed as a liability, both moral and economic. The sooner she becomes the responsibility of another family, the better--a mouth less to feed. Health Status Women anywhere in the world have to suffer from some inbuilt disadvantages, compared to men, because of certain biological reasons. They have to put up with menstruation, pregnancy, child birth, lactation, child rearing and menopause and their various complications. Physically, they are less strong. They are also more Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI, No. 2 71 vulnerable to sexual aggression and abuse. The different cultural, social and economic situations in India have given different focus to these biological disadvantages of women. These situations also influence the way these biological disadvantages affect the health of the working women. There have been gains in women's health status over the last four decades in the country in respects of female infant mortality, female child mortality, life expectancy at birth etc. However, surycy and studies show no substantial improvement in their health and nutritional status. Even today more girls die than boys because they are not as well nurtured as the boys, Malnourishment and neglect in the form of less food & less health case for instance is commonly the fate of girls. Girls receive less immanising vaccines against childhood diseases, less breast feeding, and nourishing food like milk or fats. In my study found that at every level girls were systematically more under-nourished. Discrimination against females from their early childhood is manifest in their conscious and sub-conscious neglect in nature, poor nutrition, denial of "prestigious" foods and absence of provision of health care. Female child is breastfed for a shorter period and mostly at the convenience of the mother, where as the male child gets fed for a longer duration and "on demands". This feeding system is also discriminatory in the nutritional needs of the two sexes. The relative neglect of the female child is evidènt from the fact of greater prevalence of growth ritardation even in infancy, among girls, than in boys. It is such a nutritional insult commencing right from infancy and continued through all stages of development, that eventually, results in maternal health/nutritional status which harms not just the women but the succeeding generation as well. In India, the family never sits down to a meal at the same time, The women is expected to cook and serve the roen of the family first, then comes the turn of the boys. The women and the girls are the last to eat, by which time both qualitatively and quantitatively, the food tends to run out. The food more nutritious and protective items on the day's menu tend to be cooked in a smaller quantity. A survey in India by the National Committee on the Status of Women found that women in 48.5 percent of the households ate after men. Today, neglect of a female child leading to its undernourishment, is a bigger killer than infanticide. The female infant moratality rate is 60 percent higher than formales. Child Labour Child labour is universal in India. The percentage of rural Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 TULSI-PRAJNA working boys in the age group 10 to 14 fell between 1971-1981. It doubled from 4.6 percent to 7.8 percent for girls. There is a 17 percent increase of females from 15 to 19 in the category of "main" (full time) workers. That of males declined by 8 percent. Girls are entering the work force sooner than boys -12 percent are between the agc 15to 19 as compared to 10 percent male figures. But girls between 10 to 19 get lower wage than boys. They do harder, more tedious jobs--rural girls as agricultural labourers, their urban sisters as domestics and within household industries. Some three crore Indian children mostly girls are "unpaid family labour" but there is little data on this kind of domestic work done by girls or for economic activities for which they are not paid directly. Even the National Policy on child labour has not even bothered to separate the problems and needs of the working girls. In fact, (while girl resching) by the age of 5, many young girls are already participating in the household chores. They fetch water, collect fuel and fodder, tend buffaloes, make cow-dung cakes, clean utensils, take care of their younger siblings and shop. These activities hampered their study and letter forced them to have a low status in the family as well as society. Violence against women and girl-cbild The widespread violence against women and girl-child is seen as both an indicator and a means of perpetuating the low status of women, which also manifests itself through various, not easily recognised forms of structural violence such as low health status, lack of access to education, employment, and health care facilities etc. In such a dismal scenario wherein women are generally powerless, direct violance against women appears to have the dual function of at once controlling women and perpetuating their subordinate status. Sexual harassment of women is both the ugly manifestation of women's oppression and the spacific means through which the status asymmetry on lines of gender is reinforced. Violence against women include exploitation, discrimination, upholding of an unequal economic and social structure, the creation of an atmosphere of terror, a threat and reprisal, Rape Rape is a means of intimidation of all women It is not just a crime of passion or isolated acts of perversion but it is often a political weapon to terrorise all women into submission. It acts as a threat and constantly curtails women's freedom and mobility-public spaces are physically dominated by man which makes it very difficult Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ $ 3. Vol. XXI, No. 2 73 for women to move, work or earn a living. When women defy this norm it operates against them and affects all women, cutting across class barriers. 'Power rapes', 'custodial rapes' etc. are generally is aimed at not just women but it intended to demoralise the family and the group or community to which the victim belongs. It is also seen that shortage of resources within the family increases violence against In times of political upheavals, communal riots, wars, women are often raped and tortured even if they have not been a party to the struggle. Today 25 percent of reported rapes are of girls under 16. Infact there is a rise of 30% rapes in major cities in India. The national statistics reported 7856 cases of rape in 1989 and every year it is increasing. If we look carefully all adolescent girls are visually-raped by men. women Dowry deaths Every day papers are full of dowry deaths. We cannot find a single day when no girl was burnt alive. The difference is only in the form, which may vary from sati in one society to dowry demands and bride burning in another and hunting in yet another. There are no reliable statistic on the number of such deaths because of nonreporting. According to national statistics this was 3829 in 1989 and 4006 in 1990. In Gujarat State alone one report gives the number of women burnt in 1986-87 as 4332. In Maharashtra, dowry deaths totalled 480 in 1989.10 Prostitution and Dedication There has been an alarming increase in postitution. According to a study by the Tata Institute of Social Sciences, there are 2 million forced into this profession in 817 red light areas of India's major cities. Child prostitution is on the rise particulurly in cities with a heavy influx of visitors. The condition of prostitutes is pitiable. One variation of prostitution is the dedicatiou of women to temples ostensibly to serve God but in effect become exploitable by men. An organisation called Savdhan notes that about 2000 girls per year in Karnataka and Maharasthra get dedicated. An act abolishing the custom was passed in Karnataka, but its incidence has increased across the border, as a result.18 Female infanticide and female foeticide Female infanticide is a common phenomenon in societies that value sons. Indra has one of the lowest female to male ration in the world; 931 to 1000 in the 1981 census; it has droped still further to 921 to 1000 in the 1991 census. Even then this type of horrendous crime still persists in Rajasthan, some areas of Gujarat and northern Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 TULSI-PRAJNĀ India as well as metropolitan cities. In Punjab, an infant girl is sometimes called "mal", meaning dead. Even in the remote areas women are well aware of amniocentises and get about female foetuses This technique of amniocentises to detact the unborn foetus and to abort it had become widespread in the last two decades. Now this technique is easily available throughout India. In a study done by J J Hospital in Bombay of abortion done, out of 8000 cases, 7999 were of female. According to one estimate, female foeticide has followed amniocenteses in a staggering 78,000 cases in the country from 1978 to 1982 and every year it is increasing. You will be surprised to know the fact that an advertisement inserted by two doctors in Amritsar, who offer such techniques, exhorts all couples in the child-bearing age that "giving......not only enhances the increasing population but also birth to a number of female children lead to a chain reaction of many social, economic and mental stresses on these families." Amniocentises, which also permits the deteceion of sex prior to birth, "Come to your rescue......... (provides relief to couples reguireing a male child." Other ads are more blunt: "Better pay Rs. 500 now than Rs. 5 lakh later." Domestic violence Violence is perpetuated on usually young married women in their marital homes. This takes many forms of beating, torture, verbal abuse, starving, locking up, imposing excessive work burdens, denying money for running the household, sexual abuse etc. Quite often this may result in murder, but more often in driving the women to suicide. There are a large number of suicides of women, the number being highest in Gujarat. In one year (1987) it was 918. At National level the number of reported female suicides raise from 18,222 in 1982 to 19,312 in 1983. Many cases of murder get camouflaged as suicide. In the majority of cases, husbands and in-laws are implicated. The reasons are many-suspicion about wife's fidelity, childlessness or not bearing a son, disputes about household matters, wife's protests against alcoholism to husbands, infatuation of the man with another women etc. Eveteasing and Kidnapping Eveteasing became day to day phenomenon in big cities. This type of harrassment is part of the life of Indian women, the college and school girl on the roads, trains and buses, or young girls in slums and chawls are eveteasad every day. In 1989-1990 the number of recorded cases of eveteasing was 9,625 and of Kidnapping 11,126.18 Conclusion If we want to see just and equal society and welfare of the world Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI, No -2 we must see women as a human being. And for this purpose women should herself come forward and project a model for other women to revolutionize the women. Because women can advance only when they themselves are awakend Further, for this purpose men should come forward and they should give up, their male chauvinism and build up a society based on equality of sex and usher India into the twenty-first century amidst better relations between men and women Endnotes: 1. Susheela Kaushik (ed.) Women's oppression; Patterns and Perspectives (Delhi: Shakti, 1985), P. 1. 2. Alfred D'Souza, Women in contemporary India (Delhi: Manohar, 1975), p. 1. 3. Anil Dutta Mishra, Problems and Prospects of working women in Urban India, (New Delhi: Mittal Publications, 1994), p. 16. 4. Ibid, p p. 10. 5. Ibid. p. 10 6. International Encyclopedia of the Social Sciences, vol. 15, (The Macmillan Co., 1968) p. 250. 7. Anil Dutta Mishra, p.p. 73-74. 8. Police Records, Ministry of Home Affairs, Government of India. 75 9. Nari Mukti, S. 7. 1938. 10. Time of India, 3.6. 1990. 1. Times of India, 26.7.1990. 12. Times of India, 19.2.1990. 13. Compendium of Policy Statements mode in the Parliament Monsoon Session 1990. -Asstt. Professor Jain Vishva Bharati Institute Ladnun (Rajasthan) Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Registration Nos. Postal Department : NUR-08 Registrar of News Papers for India : 28340/75 Vol. XXI TULSI-PRAJNA 1995-96 Annual Subs. Rs 60/- Life Membership Rs. 600) - प्रकाशक-संपादक : डॉ० परमेश्वर सोलंकी द्वारा जैन विश्व भारती प्रेस, लाडनूं (भारत)-३४१३०६ में मुद्रित कराके प्रकाशित किया गया। www.jane .org