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________________ अर्थात् यह व्यक्तिगत और सामाजिक परिवर्तन का आधार भी हो सकता है। कोजर ने सामाजिक संघर्षों की महत्ता को प्रकाशित करते हुए लिखा है-संघर्ष, असंतुष्टि के स्रोतों को खत्म कर तथा परिवर्तन की आवश्यकता की पूर्व चेतावनी तथा नवीन सिद्धांतों का परिचय देकर समुदाय पर एक स्थिर एवं प्रभावशाली छाप छोड़ता संघर्ष की दो स्थितियां हैं-(१) न्यायोचित लक्ष्य के लिए प्रतिस्पर्धा में शामिल होना एवं (२) ऐसा लक्ष्य जो न्यायोचित नहीं है, उसकी प्राप्ति के लिए प्रतिस्पर्धा में शामिल होना । इन दोनों में प्रथम यथार्थवादी संघर्ष एक विशेष परिणाम की प्राप्ति । के लिए होता है । समाजशास्त्रियों का मानना है-संघर्षविहीन समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। मेक्स वेबर के अनुसार--"सामाजिक जीवन से हम संघर्ष को अलग नहीं कर सकते । हम जिसे शांति कहते हैं वह और कुछ नहीं है अपितु संघर्ष के प्रकार व उद्देश्यों तथा विरोधी में परिवर्तन है।" रोबिन विलियम्स के अनुसारकोई भी परिस्थिति में हिंसा या संघर्ष पूर्ण रूप से उपस्थित या अनुपस्थित नहीं हो सकता। यहां भगवान महावीर की दृष्टि ज्ञातव्य है-उनके अनुसार समाज केवल हिंसा या केवल अहिंसा के आधार पर नहीं चल सकता। प्रो० महेन्द्र कुमार के अनुसार-हिंसा की पूर्ण अनुपस्थिति असम्भव है क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय समाज से संघर्ष का पूर्ण विलोपन सम्भव नहीं है और न ही यह वांछनीय है क्योंकि अहिंसक-समाज निर्माण में हिंसा की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। अतएव संघर्ष को नियन्त्रित या इच्छित दिशा में गतिशील किया जा सकता है, उसे पूर्ण रूप से हटाया नहीं जा सकता। महात्मा गांधी ने भी संघर्ष की अनिवार्यता को स्वीकार किया है। जे० डी० टाटा ने जब गांधीजी से यह पूछा- बापू ! आप तमाम उम्र संघर्ष करते रहे हैं (ब्रिटिश लोगों से), उनके चले जाने के बाद आपकी संघर्ष की आदत का क्या होगा ? क्या आप इसे छोड़ देंगे ? गांधीजी का उत्तर था- नहीं, मैं इसे मेरे जीवन से कभी भी अलग नहीं कर सकता। लेकिन गांधीजी ने कार्लमावर्स की तरह संघर्ष को सामाजिक कानून के रूप में नहीं माना। उन्होंने संघर्ष की अहिंसक पद्धति विकसित करने पर बल दिया। __इस प्रकार संघर्ष विध्वंसात्मक भी हो सकता है और उत्पादक भी। संघर्ष को उस समय विध्वंसात्मक कहा जाता है जब सहभागी व्यक्ति उसके परिणामों से असंतुष्ट हों तथा वे यह अनुभव करते हों कि संघर्ष के परिणामस्वरूप उन्होंने उसमें खोया है किन्तु सहभागी व्यक्ति उसके परिणामों से संतुष्ट हों तथा वे यह अनुभव करते हों कि परिणामस्वरूप उन्होंने कुछ प्राप्त किया है तो वह उत्पादक होगा । विध्वंसात्मक दृष्टिकोण और व्यवहार को संघर्ष मानना भ्रामक है । संघर्ष एक ऐसा लक्ष्य है जो दूसरे लक्ष्य की प्राप्तिमें बाधक है। सामान्य रूप से इसके दो रूप हैं-(१) समाज के विभिन्न समूहों की वस्तुनिष्ठ रुचियों में भेद एवं (२) सामाजिक गतिविधियों के आत्मनिष्ठ लक्ष्यों में विरोध । दृष्टिकोण व व्यवहार जब संघर्ष से जुड़ जाते हैं तब उन्हें १८८ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524584
Book TitleTulsi Prajna 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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