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________________ विश्व शांति शोध संघर्ष - निराकरण संघर्ष सतत रहने वाली प्रक्रिया है । जब व्यक्ति-व्यक्ति के बीच सहयोग नहीं होता अथवा जब वे एक दूसरे के प्रति तटस्थ नहीं रहते, तो संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है । संघर्ष अस्वाभाविक भी नहीं है । जब सीमित लक्ष्यों को अनेक व्यक्ति प्राप्त करना चाहें तो संघर्ष होता है । [4] डॉ० बच्छराज दूगड़ Conflict शब्द लेटिन भाषा के Con + fligo से मिलकर बना है । Con का अर्थ है together तथा fiigo का अर्थ है - to strike अतएव संघर्ष का अर्थ है - लड़ना, प्रभुत्व के लिए संघर्ष करना, विरोध करना, किसी पर काबू पाना आदि । ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार- दो वर्गों या समूहों के बीच सशस्त्र प्रतिरोध, लड़ाई या युद्ध संघर्ष है । विपरीत सिद्धांतों, कथनों, तर्कों आदि से विरोध भी संघर्ष है तथा विचारों, मतों और पसन्द के बीच असामंजस्यपूर्ण व्यवहार भी संघर्ष है । गिलीन एवं गिलीन के अनुसार — संघर्ष वह सामाजिक प्रक्रिया है, जिसमें व्यक्ति अथवा समूह अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए विरोधी के प्रति प्रत्यक्ष हिंसा या हिंसा की धमकी का प्रयोग करते हैं । अर्थात् किसी साध्य प्राप्ति हेतु किये जाने वाले संघर्ष की प्रकृति में ही विरोधी के प्रति घृणा और हिंसा की भावना विद्यमान होती है । प्रो० ग्रीन के अनुसार - " संघर्ष जानबूझकर किया गया वह प्रयत्न है, जो किसी की इच्छा का विरोध करने, उसके आड़े आने अथवा उसे दबाने के लिए किया जाता है ।" अर्थात् ग्रीन महोदय ने हिंसा व आक्रमण के साथ उत्पीड़न को भी संघर्ष का एक प्रमुख तत्त्व स्वीकार किया है। किंग्सले डेविस ने प्रतिस्पर्धा को भी संघर्ष माना है । उनके अनुसार प्रतिस्पर्धा व संघर्ष में केवल मात्रा का ही अन्तर है । Jain Education International मूलतः देखा जाए तो संघर्ष परिवर्तन का एक साधन है । परिवर्तन की आवश्यकता और इच्छा को झुठलाया नहीं जा सकता और हमें यह भी स्वीकार करना ही होगा कि उपयुक्त साधनों से ही परिवर्तन होगा । हमें संघर्ष को सदैव हिंसक रूप में ही न देखकर उसे परिवर्तन के संदर्भ में देखना चाहिए। यह धारणा या विचार मिथ्या है कि संघर्ष नैतिक रूप से गलत व सामाजिक रूप से अनचाहा है। संघर्ष सदैव त्याज्य या विध्वंसात्मक ही नहीं होता, यह समूहों के बीच तनाव को समाप्त करता है, जिज्ञासाओं व रुचियों को प्रेरित करता है तथा यह एक ऐसा माध्यम भी हो सकता है जिसके द्वारा समस्याएं उभारकर उनके समाधानों तक पहुंचा जा सकता है खण्ड २१, अक २ १८७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524584
Book TitleTulsi Prajna 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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