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निषेधात्मक दृष्टिकोण कहा जाता है । इस प्रकार के निषेध अचानक घृणा या प्रत्यक्ष हिंसा के रूप में प्रकट होते हैं, जातीय और प्रजातीय संघर्षों में सामाजिक दूरी पूर्वाग्रहों के कारण होती है जबकि संरचनात्मक हिंसा में यह भेदभाव के रूप में प्रकट होती है । इस प्रकार संघर्ष का जो स्वरूप उभरता है, उसको हम निम्न प्रकार दर्शा सकते हैं
अभिवृत्ति
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घृणा, विरोधी हिंसा
संघर्ष = विरोध — { पक्षों की रुचियों में
लक्ष्य में
सामाजिक दूरी प्रत्यक्ष हिंसा
व्यवहार
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संघर्षपूर्ण संबंध
"पाप से घृणा करो, पापी से नहीं ।" उक्ति के अनुसार अन्याय से घृणा या विरोध आवश्यक है क्योंकि यह अन्याय के संस्थाकरण को रोकता है लेकिन अन्यायी से घृणा संबंधों के सुधार को रोकता है । इसी संदर्भ में यह कहा जा सकता है - संघर्ष पर आधारित सम्बन्ध किसी प्रकार के सम्बन्ध न होने से अच्छे हैं । मेरे और आपके बीच संघर्ष यह दर्शाता है कि कोई एक चीज हम दोनों में सामान्य है । हमारी समस्या एक है, इसलिए हम इस समस्या से लड़ें न कि एक दूसरे से । संघर्ष के सावधानीपूर्ण प्रयोग से समाज में सांजस्यपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किये जा सकते हैं । इस निष्कर्ष पर पहुंचने के दो आधार हैं- (१) मानवीय एकता और (२) कर्त्ता बनाम व्यवस्था ।
संरचनात्मक हिंसा
प्रत्येक मनुष्य एक दूसरे से अनेक बन्धनों व सामाजिक संबंधों से जुड़े हैं । यदि उनके बीच सामंजस्यपूर्ण सम्बन्ध हैं तो वे उसे प्रदर्शित कर उन्हें और आगे बढ़ा सकते हैं और यदि उनके बीच सामंजस्य नहीं है तो हम उन्हें यह समझा सकते हैं कि यह मानवीय एकता के लिए आवश्यक है । क्योंकि उनके बीच किसी प्रकार के सम्बन्ध नहीं है, तो यह मानवीय एकता का बहिष्कार है ।
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किसी व्यक्ति के अन्यायी बनने में परिस्थितियों व व्यवस्था का भी योगदान होता है । संबंधों को स्वीकार न करना अन्यायी की अस्वीकृति है जबकि असामंजस्यपूर्ण सम्बन्धों का स्वीकरण व्यवस्था व व्यक्ति के सुधार की दिशा में प्रस्थान है ।
संघर्ष का आधार
संघर्ष का मूल कारण व्यक्ति की अनन्त इच्छाएं या लोभ की प्रवृत्ति है । जैन
खण्ड २१, अंक २
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