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________________ गया। फिर भी ऋषि के द्वारा बह नहीं चाही गई तब उसके मन में उनके प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो गयी । एक बार यज्ञशाला में मुनि को देखा तो उसने पारिवारिक जनों को उसके बारे में बताया और शांत रहने के लिए कहा । तथा यह भी कहा--" महाजसो एस महाणुभागो, घोरव्वओ घोरपरक्कमो य ।"" -ये महान् यशस्वी हैं. महान् अचिन्त्य शक्ति से सम्पन्न हैं । घोरव्रती हैं। घोर पराक्रमी हैं । इसलिए इनकी अवहेलना मत करो | इस प्रकार भद्रा मधुर वाणी से सम्पन्न और व्यवहार कुशल भी थी । (घ) सोमदेव-ब्राह्मण सोमदेव ब्राह्मण भद्रा का पति था। यह राजपुरोहित था । ऋषि के द्वारा त्यक्त किये जाने पर राजा ने भद्रा का विवाह सोमदेव के साथ कर दिया । सोमदेव ब्राह्मण था इसलिए उसमें ब्राह्मणत्व का अभिमान था । अहंकार के कारण ही उसने मुनि का तिरस्कार किया । पत्नी के प्रति समर्पित होने कारण ही उसकी की बात मान व्यक्ति अपने दोषों से ही दुःख पाता है । अब मुझे बदलना है । चिंतन आगे बढ़ा और चरण संन्यास की ओर चल पड़े । मुनि बनने के पश्चात् कठोर तपश्चर्या प्रारम्भ की। तप के साथ-साथ ध्यान, अप, स्वाध्याय प्रारम्भ किया । जिससे प्रभावित होकर एक यक्ष उनकी सेवा में रहने लगा । एक बार मुनि यक्षायतन में कायोत्सर्ग कर रहे थे। उसी समय वाराणसी के राजा की पुत्री भद्रा मन्दिर में आई । यक्ष की पूजा की। जाते समय उसकी दृष्टि मुनि पर पड़ी। उनके मैले कुचेले कपड़ों को देखकर उसके मन में घृणा उत्पन्न हो गई । और उसने मुनि पर थूक दिया । यक्ष ने यह देखा । वह सहन नहीं कर पाया और भद्रा के शरीर में प्रवेश कर गया । कुमारी पागल हो गई । वह अनर्गल बातें करने लगी । दासियां उसे महल में ले गयीं। उपचार किया गया । सब व्यर्थं । राजा चितित हो गया । यक्ष ने अवसर देखा । और राजा से कहा- इस लड़की ने एक तपस्वी मुनि की आशातना की है। जिसके कारण यह हुआ है । यदि इस लड़की का विवाह मुनि के साथ कर दिया जाये तो यह स्वस्थ हो सकती है । राजा ने स्वीकार कर लिया । और राजकुमारी को साथ लेकर मुनि के पास पहुंचा। उस समय मुनि ध्यान में थे तब उसने कहा- मुनिराज ! मेरी पुत्री के साथ पाणिग्रहण कीजिए। ऐसा कहकर वह चला गया। रात्रि में यक्ष ने उसके साथ क्रीड़ा की। दूसरे दिन मुनि को सारी बात कही । तब राजकुमारी पुनः अपने घर आई और अपने पिता को यक्ष के द्वारा ठगे जाने की सारी बात कही। राजा पुनः वहां आया। उसने कहा - मुनिराज ! मैंने आपको अपनी पुत्री कन्यादान के रूप में दे दी है। आप इसे स्वीकार कीजिए । मुनि ने कहा- राजन् ! मैं तपस्वी हूं। मैं कन्या को कैसे ग्रहण कर सकता हूं ? वह असमंजस में पड़ गया। उसने अपनी समस्या राजपुरोहित के सामने रखी। राजपुरोहित मे कहा - दी गई कन्या का विवाह किसी ब्राह्मण के साथ कर देना उचित है । १३० तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524584
Book TitleTulsi Prajna 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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