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राजा ने अपने राजपुरोहित के साथ ही अपनी कन्या का विवाह कर दिया। उस राजपुरोहित का नाम सोमदेव था। सोमदेव और भद्रा शांतिपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करने लगे।
इस संक्षिप्त कथानक से हमें उस समय की सामाजिक-धार्मिक और राजनैतिक परिस्थितियों का बोध होता है। ४. कथोपकथन
__ काव्य की सुन्दरता को संवद्धित करने में कथोपकथन का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। संवादात्मक शैली में लिखा हुआ काव्य पाठक के लिए आकर्षण का विषय बनता है और कथोपकथन के माध्यम से व्यक्ति के मनोभावों का बोध होता है । कथा भी अधिक रोचक हो जाती है। इस आख्यान में भी सोमदेव ब्राह्मण, मुनि, यक्ष और भद्रा का वार्तालाप संवादात्मक है। आख्यान इसी शैली में हैं। यहां एक दो उदाहरण दृष्टव्य हैं
के ते जोई ? के व ते जोइठाणे ? का ते सुया ? किं व ते कारिसंगं ? एहा य ते कयरा ? संति ? भिक्खू,
कयरेण होमेण हुणासि जोई ? ॥ अर्थात् सोमदेव ब्राह्मण मुनि से उस यज्ञ के बारे में पूछता है जिस यज्ञ को करने से जीवन में ज्योति प्रकाशित होती है । शाश्वत आनन्द की प्राप्ति होती है। इन प्रश्नों का उत्तर मुनि भी उसी रूप में देते है।
तवो जोइ जीवो जोइठाणं जोगा सुया सरीरं करिसंग । कम्मएह संजम जोगसंती
होमं हुणामी इसिणं पसत्थं ॥' तप ज्योति है और जीव ज्योति स्थान है । योग घी डालने की करछियां है। शरीर अग्नि जलाने के कण्डे हैं । कर्म ईंधन है । संयम की प्रवृत्ति शांति-पाठ है।
___ इस प्रकार के अनेक प्रसंग इस आख्यान में कथोपकथन के रूप में हैं। जिससे सहज ही काव्य का सौन्दयं वृद्धिंगत हो गया है। ५. भाषा शैली
उत्तराध्ययन प्राकृत भाषा का ग्रंथ है। इसमें अर्द्धमागधी प्राकृत भाषा का अधिकतर प्रयोग हुआ है। कहीं-कहीं देशी शब्दों का प्रयोग भी हुआ है। इस आख्यान में खलाहि, फोक्क, छात्र, निब्भेरिय आदि देशी शब्दों का जहां प्रयोग हुआ है ।" वहां एक ओर 'स्त्री' अर्थ में 'धण' शब्द का भी प्रयोग मिलता है।" भाषा सरल, सहज, सुबोध है ।
वीरस, शांत, करुण आदि रसों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में मिलता है। ६. समाज और संस्कृति
प्रत्येक काव्य अपने देश-काल की स्थिति का परिचय करवाते हैं। हरिएसिज्ज'
बंर २१, अंक २
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