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________________ आख्यान से उस समय की संस्कृति का बोध होता है। समाज में यज्ञ का प्रचलन था। जातिवाद का बोल-बाला था। ब्राह्मण जाति को मुख्य स्थान दिया जाता था और उनको ही यज्ञ करने का अधिकार था। यज्ञ का भोजन केवल ब्राह्मणों को दिया जाता था। शूद्रों को स्थिति दयनीय थी। उन्हें निम्न कोटि की श्रेणी में गिना जाता । चूर्णिकार ने एक श्लोक में बतलाया है कि उस समय शूद्रों की क्या स्थिति थी ?-- न शूद्राय बलि दद्यात्, नोच्छिष्टं न हवि : कृतम् । न चास्योपदिशेद धर्म न चास्य व्रतमादिशेत् ।। शूद्र व्यक्ति को न बलि का भोजन दिया जाता और न ही उच्छिष्ट भोजन और न ही आहुतिकृत भोजन दिया जाता। इस प्रकार उन्हें दीन दृष्टि से देखा जाता।" श्रमणों को भी आदर की दृष्टि से नहीं देखा जाता। जब मुनि यज्ञशाला में भिक्षा के लिए जाते हैं तब उन्हें निम्न शब्दों का प्रयोग करके निकाल दिया जाताब्राह्मण ही श्रेष्ठ क्षेत्र है । तुम शूद्र जाति के हो, इसलिए दान-पात्र के अधिकारी नहीं हो। इस प्रकार जातिवाद का साम्राज्य था। खान-पान की दृष्टि से उस समय पूड़े, खाजे और चावल से बने हुए भोजन को विशिष्ट माना जाता। ७. दार्शनिक पक्ष दार्शनिक दृष्टि से इस आख्यान का अवलोकन करे तो इसमें कर्म, पुनर्जन्म, तप, संयम, व्रत, योग एवं आत्म-बोध आदि विषयक सूत्ररूप सिद्धांत उपलब्ध होते (क) अहं विनाश दर्शन जगत् का प्रमुख तत्त्व है-आत्मा। आत्मा तक पहुंचने का मुख्य साधन है-अहं विनाश । अहंकार विलय से व्यक्ति के मन में जिज्ञासा जगती है-कोऽहं-मैं कौन हूं? मुझे इसका साक्षात्कार करना चाहिए। हरिकेश मुनि पहले जाति के मद से परिपूर्ण थे। जाति मद उन्हें इस संसार में भ्रमण करवा रहा था। मद केवल जाति का ही नहीं, कुल, रूप, ऐश्वर्य आदि का भी होता है। जिससे व्यक्ति भवभवान्तर में भ्रमण करता है । ऐसा ही मुनि हरिकेश के साथ था। प्रबल शुभ कर्मों का उदय हुमा, अहंकार का विनाश हुआ और बालक हरिकेश मुनि हरिकेश बन गये और उनके चरण अज्ञात की खोज के लिए चल पड़े । (ख) श्रद्धा____स्वत्व के प्रति झुकाव ही आत्मिक श्रद्धा है । यह श्रद्धा ही मोक्ष का हेतु है। यह श्रद्धा ही व्यक्ति को संसार के प्रति उदासीन करती है। श्रद्धा ही व्यक्ति को आत्माभिमुखी बनाती है । यथार्थ तत्व के प्रति श्रद्धा होना सम्यक्त्व है । सम्यक्त्व की प्राप्ति मिथ्यात्व को क्षय करने की प्रक्रिया है । जैन साधना पद्धति का पहला सूत्र हैमिथ्यात्व विसर्जन या दर्शन विशुद्धि । दर्शन विशुद्धि से व्यक्ति को आत्मिक आनन्द की अनुभूति होती है। इस आख्यान में भी दो घटनाओं को देखकर हरिकेश मुनि के तुमसी प्रज्ञा १३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524584
Book TitleTulsi Prajna 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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