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६. वह अजन्मा है तथा उसका कभी विनाश नहीं होता
आचारांग सूत्र में कहा गया है-ण रुहे (५.१३३) अर्थात् वह जन्मधर्मा नहीं है तथा से ण छिज्जइ ण भिज्जइ ण डज्झइ ण हम्मइ (३.५८) अर्थात् वह न किसी से छेदा जाता है, न भेदा जाता है, न जलाया जाता है और न मारा जाता है।
कठोपनिषद् में यमराज कहते हैं-न जायते म्रियते (१.२.१८) । १०.२. विषमताएं १०.२.१. औपनिषदिक आत्मा नित्य, विभू, एक तथा सभी जीवों में व्याप्त है-एष
सर्वेषु भूतेष गुढो आत्मा (कठो० १.३.१२) ईशावास्यमिदं सर्व-ईशा । परन्तु जैन- दर्शन की दृष्टि में वह नित्यानित्य, प्रतिशरीरभिन्न, अनन्त तथा शरीरमात्रव्यापी है। २. औपनिषदिक आत्मा अपरिणामी है । उत्पत्ति विनाश से रहित शाश्वत सत्ता
का नाम है आत्मा । परन्तु जैनदृष्टि में वह ध्रुवाध्रुव है । ३. औपनिषदिक आत्मा ही केवल जगत् कारण है। उसी से सम्पूर्ण संसार
उत्पन्न होता है तथा उसी में विलीन हो जाता है। मुण्डकोपनिषद् में तीन दृष्टान्तों के द्वारा इस तथ्य का प्रतिपादन किया गया हैयथोर्णनाभिः सृजते गृह्नते च,
यथा पृथिव्यामोषधयः सम्भवन्ति । यथा सतः पुरुषात्केशलोमानि,
तथाक्षरात्सम्भवतीह विश्वम् ॥ अर्थात् जिस प्रकार मकड़ी जाले को वनाती है और निगल जाती है, जिस प्रकार पृथिवी से नाना प्रकार की औषधियां उत्पन्न होती हैं तथा जीवित. मनुष्य से केश-रोएं निकलते हैं उसी प्रकार अविनाशी परब्रह्म से सब-कुछ उत्पन्न होता है (सारा विश्व उत्पन्न होता है)। श्वेताश्वर० में कालादि की कारणता को अस्वीकार कर मात्र परमात्मा को ही सम्पूर्ण संसार (कालादि का भी) कारण माना है लेकिन जैनदर्शन में काल, स्वभावादि को सम्मिलित कारण माना गया है ।
कर्मवाद, पुनर्जन्म आदि विषयक धारणाओं में भी समानता है। अलग स्वतंत्र शोध-प्रबन्धों में इन सब पर प्रकाश डाला जा सकता है ।
संदर्भ: १. ईशावास्योपनिषद्, १ २. बृहदारण्यकोपनिषद् २.४.३ ३. तत्रैव, १.४.१० ४. नृसिंहोत्तरतापनीयोपनिषद्, ९
५. आचारांगसूत्र १.१.१.४ खंड २१, अंक २
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