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जैन दर्शन नास्तिक नहीं है
डॉ० सुभाषचन्द्र सचदेवा
भारतवर्ष में दो प्राचीन परम्पराओं का उल्लेख मिलता है— ब्राह्मण और श्रमण | वैदिक दर्शन ब्राह्मण परम्परा का एवं जैन दर्शन श्रमण परम्परा का अङ्ग है । वैदिक और जैन- दोनों ही दर्शन न केवल भारतवर्ष के अपितु विश्व के प्राचीनतम दर्शनों में परिगणित होते हैं। पहले कुछ विद्वानों की यह धारणा थी कि जैन धर्म बौद्ध धर्म की एक शाखा अथवा सम्प्रदाय है, परन्तु जैन धर्म की मौलिक तत्त्वमीमांसा एवं दर्शन पर किए गए शोध से अब यह तथ्य स्पष्ट हो गया है कि जैन धर्म एक स्वतन्त्र दर्शन एवं तात्त्विक चिन्तन से समन्वित होने के कारण बौद्ध धर्म से सर्वथा भिन्न दर्शन है ।
जर्मन के सुप्रसिद्ध विद्वान् प्रो० जाकोबी उक्त तथ्य की पुष्टि करते हुए कहते हैं। कि 'जिस धर्म को जैन धर्म कहा गया है वह बौद्ध धर्म की एक शाखा या सम्प्रदाय नहीं है, जैसाकि कभी माना गया था, अपितु उससे सर्वथा पृथक् है । '
भारतीय दर्शन परम्परा का मुख्यतः द्विविध वर्गीकरण किया जाता है - (क) आस्तिक दर्शन' (ख) नास्तिक दर्शन ।' भारतीय दर्शन में आस्तिक और नास्तिक पारिभाषिक स्वीकार किए गए हैं ।
सामान्यतः 'आस्तिक' के दो अर्थ हैं - (१) व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ ( २ ) परम्परागम्य अर्थं । व्युत्पत्ति के अनुसार आस्तिकता के दो मापदण्ड हैं- (i) परलोक एवं पुनर्जन्म में आस्था, (ii) ईश्वर अथवा परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास |
'आस्तिक' के परम्परागम्य अर्थ के आस्तिक है तथा वेदों की निन्दा करने वाला 'नास्तिक' है - 'नास्तिको वेदनिन्दकः । "
अनुसार 'वेदों में विश्वास करने वाला अथवा वेदों में अनास्था रखने वाला
जहां तक 'आस्तिक' के व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ का प्रश्न है, इस दृष्टि से जैन दर्शन की आस्तिकता के विषय में किसी भी प्रामाणिक विद्वान् को किसी प्रकार का भी सन्देह नहीं है; क्योंकि जैनदर्शन का परलोक एवं पुनर्जन्म तथा ईश्वर एवं आत्मा के अस्तित्व में पूर्ण विश्वास है । सुप्रसिद्ध जैनाचार्य श्री कुन्दकुन्दाचार्य कृत 'रयणसार' में ख्याति (यशः कामना) व पूजा - प्रतिष्ठा की लालसा को परलोक की विनाशिका कहा गया है ।' स्पष्टत: जैनदर्शन की परलोक में पूर्ण आस्था है ।
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'आचाराङ्ग' में मोह को प्राणियों के पुनर्जन्म ( बार-बार जन्म एवं मरण) का कारण बतलाया गया है।" जैनदर्शन में कर्ममुक्त आत्मा' को ही परमात्मा (ईश्वर)
खंड २१, अंक २
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