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की संज्ञा देते हुए आत्मा एवं परमात्मा--दोनों के अस्तित्व में आस्था प्रकट की गई है । जैनेतर विद्वानों ने भी मुक्तकण्ठ से इस तथ्य को स्वीकार किया है कि 'जैन दर्शन की ईश्वर एवं आत्मा के अस्तित्व में पूर्ण आस्था है, भले ही जैनदर्शन की ईश्वर अथवा परमात्माविषयक अपनी मौलिक मान्यताएं हों। ____ 'आस्तिक' के व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ की दृष्टि से परलोक, पुनर्जन्म एवं आत्मा आदि के अस्तित्व में निष्ठा रखने के कारण जैन दर्शन पूर्णतः आस्तिक है। इस तथ्य की संपुष्टि करते हुए डा० वाचस्पति गैरोला कहते हैं 'जैन और बौद्ध दर्शनों के अनुसार नास्तिक वह है जो परलोक का विरोधी है, धर्माधर्म और कर्तव्य से विमुख है। परलोक, धर्माचरण और कर्तव्यों के सम्बन्ध में जो मान्यताएं आस्तिक दर्शनों में दृष्ट है, जैन और बौद्ध दोनों दर्शन में उन्हीं का प्रतिपादन हुआ है ।"
परन्तु 'आस्तिक' शब्द के परम्परागम्य अर्थ को अधिक महत्त्व देने वाले कुछ विद्वानों की यह मान्यता है कि जैनदर्शन नास्तिक है । यदि इस दृष्टि से वेद में आस्था को ही आस्तिकता का मापदण्ड माना जाए तो बेद के समग्र उच्च आदर्शों (अहिंसा, ब्रह्मचर्य, सत्य, सन्तोष, अपरिग्रह आदि) एवं इन प्रशस्त जीवन मूल्यों के भी मूलाधार अहिंसा में प्रगाढ़ आस्था रखने वाला जैनदर्शन कथमपि 'नास्तिक' सिद्ध नहीं होता।
वैदिक और जैनदर्शन ने समानरूप से अहिंसा पर बल दिया है। कुछ लोगों ने वेदों पर लाञ्छन लगाने की चेष्टाएं की हैं एवं उन पर मिथ्या दोषारोपण का दुःसाहस किया है । उनकी धारणा है कि वेदों से मांस-भक्षण की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिलता है। वस्तु स्थिति यह है कि वेदों में मांस-भक्षण का कहीं भी समर्थन नहीं हुआ है। सच तो यह है कि वेद में मांसाहार करने वाले मनुष्यों को मानव न मानकर 'दानव' (यातुधान) की संज्ञा दी गई। इसके अतिरिक्त वेद के अन्य अनेक स्थलों में पशुहिंसा एवं जीवहिंसा का निषेध करते हुए कहा गया है कि 'पशुओं की रक्षा करो, गाय को न मारो। बकरी को न मारो। भेड़ को न मारो। दो पैर वाले (मनुष्यादि) प्राणियों को न मारो। एक खुरवाले घोड़े-गधे आदि पशुओं को न मारो ।"
वैदिक दर्शन के समान जैन-दर्शन भी अहिंसा का प्रबल समर्थक है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि अहिंसा का जितना सूक्ष्म विवेचन जैनदर्शन में हुआ है उतना सम्भवतः किसी अन्य दर्शन में नहीं हुआ। जैनदर्शन सभी जीवों के प्रति मंत्रीभाव एवं समता का अनुमोदन करता है। 'आचाराङ्ग' के एक स्थल में कहा गया है कि 'सुख-दुःख का अध्यवसाय स्वतन्त्र होता है'---इसे जानकर मनुष्य किसी की भी हिंसा न करे। जो कष्ट प्राप्त हों, उन्हें समभाव से सहन करे ।" यह अहिंसा एवं सहिष्णुता ही जीव को परमसत्य का साधक बनाने में सक्षम है ।८।
सभी सद्गुणों के मूलस्थानीय अहिंसा जैसे उदात्त जीवन मूल्यों का समर्थक होने के कारण जैनदर्शन प्रकारान्तर से वैदिक मान्यताओं में आस्था रखने वाला ही है। अतः व्युत्पत्तिलभ्य एवं परम्परागम्य अर्थ की दृष्टि से जैनदर्शन पूर्णतः आस्तिक सिद्ध
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तुलसी प्रशा
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