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________________ 'कादम्बरी' से शास्त्रज्ञ शुक द्वारा कथावाचन, चन्द्रापीड सूने मन्दिर में महाश्वेता का दर्शन, महाश्वेता के शाप से कपिजल का शुक बनाना आदि कथाभिप्रायों का प्रयोग करके कथा में अत्यधिक आश्चर्य तत्त्व भर दिया गया है । इसी प्रकार दण्डी ने 'दशकुमार चरित' में समुद्र यात्रा के समय जलपोत का टूटना, बन में मार्ग भूलना, राक्षस द्वारा नायिका हरण आदि कथानक रूढ़ियों का प्रयोग पाठकों की कुतूहल-वृत्ति को निरन्तर जागृत रखने के लिए किया गया है । प्राकृत के गद्य-कथाकाव्यों, जिनमें आचार्य हरिभद्ररचित "समरादित्य कथा' का प्रमुख स्थान है, में भी कथानक रूढ़ियां अत्यधिक संख्या में संयोजित हैं। इन कथानक रूड़ियों में---स्वप्न द्वारा भावी घटनाओं की सूचना, भविष्य बाणियां, आकाशवाणी अमानवीय शक्तियों से सम्बन्धित कथाभिप्राय, विद्याधरों द्वारा फल प्राप्ति के लिए नायक को सहयोग, देवोपासना द्वारा संतान प्राप्ति, गुटिका और अंजन प्रयोग द्वारा अदृश्य होना, घोड़े का मार्ग भूल कर किसी विचित्र स्थान में पहुंचना, जलयान का भंग होना और काष्ठ फलक की प्राप्ति द्वारा प्राण रक्षा आदि प्रसिद्ध हैं। इन कथाभिप्रायों के माध्यम से कलाकार ने कथा में घटनाओं को नई मोड़, कथा में चमत्कार, कथारस की सृष्टि, कथानक की गतिशीलता, भाव और विचारों की अन्विति को संयोजित किया है। कथानक संघटन में भी कथाभिप्रायों का महत्त्वपूर्ण योग दिखाई पड़ता है। भारतीय दृष्टि से मान्य कथानक की पांच कार्यावस्थाओं-प्रारम्भ, प्रयत्न, प्राप्त्याशा, नियताप्ति और फलागम तथा पाश्चात्य दृष्टि से मान्य कार्यावस्थाओं-प्रारम्भ, विकास, चरमबिंदु, नियति और दुःखपूर्ण अन्त या नाश के आधार पर विचार करने पर पता चलता है कि कथानकरूढ़ि भारतीय ढंग से सुखान्त कथानकों के लिए अधिक उपयोगी हैं, क्योंकि कथानक की प्रत्येक कार्यावस्था में उनके प्रयोग द्वारा सहायता की गयी है। भारतीय कथाओं में तो कथा प्रारम्भ करने के लिए कुछ निश्चित अभिप्राय ही बन गए हैं। प्राकृत-संस्कृत की प्रेमकथाएं स्वप्न-दर्शन, चित्र दर्शन, रूप-गुण-कथा श्रवण आदि कुछ निश्चित कथाभिप्रायों से ही आरंभ होती हैं। सुबन्धु की वासवदत्ता में स्वप्न दर्शन से ही कथा शुरू होती है। प्रायः सभी प्रेमकथाओं में नायक, नायिका की प्राप्ति के लिए घर छोड़कर निकल पड़ता है और समुद्रों .- प्रायः सप्त समुद्रों अथवा बनों की यात्रा करता है । इस तरह के कार्य प्रयत्न नामक कार्यावस्था के अन्तर्गत आते हैं वन और समुद्र पार करते ही वे नायिका के नगर में पहुंचकर किसी उद्यान या मन्दिर में रुकने तथा किसी न किसी प्रेम संघटन सुख, सारिका, मालिन आदि की सहायता से नायिका से मिलते हैं। इस तरह इन कार्यों में प्राप्त्याश। नाम की कार्यावस्था दिखाई पड़ती हैं। नियताप्ति नामक कार्यावस्था वहां दिखाई पड़ती है, जब नायिका को लेकर नायक अपने देश के लिए लौटता है और रास्ते में ही जलपोत टूट जाता है और नायक-नायिका विमुक्त होकर काष्ठफलक के सहारे अलग-अलग दिशाओं २२४ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524584
Book TitleTulsi Prajna 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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