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________________ में पहुंच जाते हैं, पर किसी देवी या अति प्राकृत शक्ति की सहायता से पुनः दोनों का मिलन होता है । अन्त में नायक, नायिका के साथ उपर्युक्त नाना प्रकार के अवरोधों और कष्टों को पार करता हुआ अपने नगर में पहुंचता और सुखपूर्वक राज भोगता है । यही इन कथाओं का फलागम है । इस प्रकार इनमें प्रारंभ से लेकर फलागम तक सभी कार्यावस्थाओं में कथा एक कथानकरूढ़ि से दूसरी और दूसरी से तीसरी पर पहुंचती हुई आगे बढ़ती है । कथानक रूढ़ियों के प्रयोग से कथायें अधिक लोकप्रिय होती हैं, क्योंकि अधिकांश लोकाश्रित कथाभिप्राय लोकचित्त में संचित सामान्य भण्डार से लिये रहते हैं । यही कारण है कि संस्कृत की कथायें अत्यन्त लोकप्रिय हुईं । कादम्बरी में बाण ने जिन कथाभिप्रायों का प्रयोग किया वे कथाभिप्राय किसी न किसी रूप में दशकुमारचरित एवं वासवदत्ता, कथासरित्सागर आदि संस्कृत कथाओं में प्रयुक्त हैं। ऐसा लगता है कि कथाभिप्राय उस समय शिष्ट साहित्य और लोक साहित्य दोनों में वर्तमान थे । समरूप तथा परम्परा और उनमें प्रयुक्त समान कथाभिप्रायों को संस्कृत-कथाओं में ग्रहण किया गया है । इतनी एकरूपता होते हुए भी इन सभी काव्यों को लोकप्रियता इसलिए प्राप्त हुई कि पाठकों की इच्छा पूर्ति की प्रवृत्ति इससे संतुष्ट होती थी । कथा - प्रबन्धों में, चाहे वे प्राचीनकाल के हों या आधुनिक काल के, इच्छापूर्ति का बहुत अधिक योग रहता है । संस्कृत के कथाकार इसी प्रवृत्ति को संतुष्ट करने के लिए संभावना मूलक रोमांचक और साहसिक कार्यों तथा असंभव प्रतीत होने वाले घटना व्यापारों का वर्णन करता था और इन कथाओं को पाठक या श्रोता भी उसी प्रवृत्ति की शांति के लिए उनसे रस लेता था । इस प्रकार की कल्पित और संभावनामूलक कथावस्तु की योजना कथानक रूढ़ियों के प्रयोग से आसानी से हो जाती थी । संस्कृत कथाओं, विशेष कर प्रेमकथाओं में कथाभिप्रायों की अधिकता और उन काव्यों की लोकप्रियता का यही रहस्य है । सच बात तो यह है कि लोकाश्रित धारा के सभी प्रबन्ध काव्यों, चाहे वे पौराणिक, ऐतिहासिक या रोमांचक किसी भी शैली के क्यों न हों, कथावस्तु - योजना में समन्वय की पद्धति दिखाई पड़ती है । कथा - आख्यायिका में अवान्तर कथा, कथान्तर, कथा के भीतर कथा तथा अलौकिक, आश्चर्यजनक और अतिरंजित घटनाओं की योजना के कारण अन्विति की कमी होती है और कथा वर्णन की गति बड़ी क्षिप्र होती है, यदि इस दष्टि से संस्कृत, प्राकृत के गद्य - कथा - काव्यों को देखा जाए तो उसमें कथा - आख्यायिका तथा शास्त्रीय प्रबन्ध-काव्य दोनों की वस्तु योजना-संबंधी पद्धतियों का समन्वय दिखायी पड़ता है। शास्त्रीय प्रबन्धों के वस्तु वर्णन की पद्धति उनमें है अवश्य पर किसी भी काव्य में संस्कृत के शिशुपाल वध या नैषधीयचरित की तरह प्रकृति-चित्रण, जल-क्रीड़ा, मंत्रणा आदि के वर्णन वाले अलग-अलग स्वतंत्र सर्गों का विधान नहीं है और न कथा - आख्यायिकाओं की तरह उनमें अवान्तर कथाओं की सृष्टि और कथान्तर योजना ही अधिक है । इसका कारण मुख्यतः कथाभिप्रायों के खण्ड २१, अंक २ २२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524584
Book TitleTulsi Prajna 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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