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________________ कथानक-रूढ़ियों के आलोक में संस्कृत-प्राकृत के गद्य-कथा-काव्य • प्रियंका प्रिगशिनी शिप्ले ने कथानक रूढ़ि (कथाभिप्राय) की परिभाषा देते हुए लिखा है कि कथानक रूढ़ि कथा का सबसे छोटा, किन्तु स्पष्ट पहचान में आने वाला वह तत्त्व होता है जो अपने आप में एक कहानी तैयार कर देता है। तुलनात्मक अध्ययन के लिए कथानक रूढ़ियों का बहुत अधिक महत्त्व हैं, क्योंकि कथाभिप्रायों के अध्ययन से ही यह पता चल सकता है किस वर्ग-विशेष की कहानी के कौन से उपकरण दूसरे वर्ग की कहानियों में भी समान रूप से प्रयुक्त हुए हैं। वर्गों के अध्ययन से यह पता चल जाता है कि किस प्रकार कथा सम्बन्धी ये अभिप्राय कथानक रूढ़ि बन जाते हैं। कथानक रूढ़ियों की दृष्टि से संस्कृत एवं प्राकृत का कथा-साहित्य अत्यन्त महत्त्व का है। इस साहित्य में कथानक रूढ़ियों का मुख्य उपयोग कथानक में चमत्कार उत्पन्न करने या उसे आगे बढ़ाने के लिए होता था । आधुनिक उपन्यासों व कहानियों की तरह उस युग में यथार्थ जीवन की घटनाओं और गतिविधियों का अनुकरणात्मक चित्रण नहीं किया जाता था, बल्कि कथाकार कथा में अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए संभव-असंभव सभी प्रकार की घटनाओं और क्रियाओं को या तो पूर्व प्रचलित कथानक रूढ़ियों द्वारा या निजी कल्पना-शक्ति की सहायता से नियोजित करता था। इस तरह निर्मित कथा चाहे ख्यात वृत्त पर आधारित हो या कल्पना के आधार पर निर्मित वृत्त पर, कथाभिप्रायों के प्रयोगों के कारण आश्चर्य और कुतूहल उत्पन्न करने वाली होती थी। कुतूहल वृत्ति को बराबर जागृत रखना कथानक का एक प्रमुख तत्त्व है। कथाभिप्रायों के प्रयोग द्वारा यह तत्त्व सहज ही नियोजित हो जाता था। कवि को सचेष्ट रूप से उसकी कल्पना नहीं करनी पड़ती थी। कोई कथा प्रारम्भ होकर जब किसी ऐसे बिंदु पर पहुंचती थी, जहां उसे आगे बढ़ने का अवकाश नहीं होता था, तो वहीं कथाकार कोई ऐसी आश्चर्यजनक घटना उपस्थित कर देता था कि कथा फिर तीव्र गति से आगे बढ़ने लगती थी। इस घटना या क्रिया से, जो प्रायः किसी न किसी कथाभिप्राय के रूप में होती है, पाठक की कुतूहल वृत्ति फिर जागृत हो उठती है और वह कथा के साथ तीव्र गति से बढ़ने लगती है। इस तरह संस्कृत के गद्य-कथा काव्यों में आश्चर्य और कुतूहल उत्पन्न करने की अद्भुत क्षमता कथाभिप्रायों के अधिक प्रयोग के कारण ही है । जैसे बाण रचित खण्ड २१, अंक २ २२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524584
Book TitleTulsi Prajna 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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