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________________ ब्रह्मचर्येण विद्यया... |" छान्दोग्य में निर्दिष्ट है कि ब्रह्मचर्य से ब्रह्मलोग की प्राप्ति होती है-ब्रह्मलोकं ब्रह्मचर्येणानुविन्दन्ति ।" अनेक स्थलों पर ऐसा उल्लेख मिलता सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम्-मुण्डक० ३.१.५ तेषामेवैष ब्रह्मलोको येषां तपो ब्रह्मचर्यम्-प्रश्न १.१५ तद ब्रह्मचर्येण ह्यव-छान्दोग्य० ८.५.१ । ब्रह्मचारी के कर्तव्यों का भी निर्देश मिलता है। छान्दोग्योपनिषद् में उसे आचार्यकुलवासी कहा गया है ब्रह्मचारी आचार्यकुलवासी।' वह भिक्षाजीवी होता है-ब्रह्मचारी बिभिक्षे।" वह तपस्यारत, शम-दम का धारक एवं यमी होता हैतप्तो ब्रह्मचारी, छा• ४.१०.४, दमायन्तु ब्रह्मचारिणः तैत्ति० १.४.२, शमायन्तु ब्रह्मचारिणः (१.४.२)। उपनिषदों में दो तरह के ब्रह्मचारियों का उल्लेख मिलता है-१. बालब्रह्मचारी २. गृहस्थ धर्म का निर्वाह एवं सांसारिक कार्य पुत्रादि को समर्पित कर ब्रह्मचर्य धारण करने वाला । आरुणिकोपनिषद् में द्वितीय श्रेणी के ब्रह्मचारी को 'कुटीचर' कहा गया है-कुटीचरो ब्रह्मचारी कुटम्बं विसृजेत्, पात्रं विसृजेत्।" वहीं पर उसके लिए विस्तृत आचार-संहिता का भी निरूपण है। ६.४. अपरिग्रह-पदार्थ में ममता का परित्याग अपरिग्रह है। आचारांगकार का दृष्टिकोण है कि जो व्यक्ति पदार्थ में राग, आसक्ति आदि से रहित है वह अपरिग्रही है-आवंती केआवंती लोयंसि अपरिग्गहावंती, एएसु चेव अपरिग्गहावंती । अर्थात् इस जगत् में जितने अपरिग्रही है, वे वस्तुओं में मूर्छा न रखने के कारण अपरिग्रही हैं। वहीं पर अध्यात्म तत्त्वदर्शी के लिए परिग्रह वर्जन का निर्देश है-परिग्गहामो अप्पाणं अवसक्केज्जा" अर्थात् परिग्रह से अपने आपको दूर रखें। बहु पि लर्बु ण णिहे"- अर्थात् बहुत मात्रा में लाभ हो जाने पर भी उसका संग्रह न करे। भिक्षु के लिए दिव्य और मानुषी, सभी प्रकार के विषयों में अमूच्छित-परिग्रहातीत रहने के लिए कहा गया है -सव्वोहिं अमुच्छिए।" उपनिषदों में अनेक स्थलों पर अपरिग्रह का निरूपण साधन के रूप में मिलता है । तेजोविन्दुपनिषद् में ध्यान के अधिकारी के लिए 'अपरिग्रह' अनिवार्य माना गया हैनिर्द्वन्द्वो निरहंकारो निराशोरपरिग्रहः । जाबालोपनिषद् में निर्दिष्ट है कि जो परिग्रह से रहित है. पवित्र है वह महापातकों से मुक्त हो जाता है-मुण्डोऽपरिग्रहः शुचिः ।" योगसूत्र के अनुसार विषयों के अर्जन, रक्षण, क्षयादि में हिंसादि दोषों का दर्शन कर उनका परित्याग करना अपरिग्रह है—विषयाणामर्जन रक्षणक्षयसंगहिंसादोष दर्शनाद अस्वीकरणमपरिग्रहः ।" कठोपनिषद् के नचिकेता-यमराज संवाद में स्पष्ट रूप से अपरिग्रह शब्द का तो प्रयोग नहीं मिलता लेकिन उसके स्वरूप पर प्रकाश पड़ता है । यमराज कहते हैं--धनदौलत, युवतियां, महेन्द्रराज्य सब ले लो लेकिन आत्मविद्या रूप वरदान मत मांगो। नचिकेता स्पष्ट शब्दों में परिग्रहण का निषेध करता है-न वीतेन तर्पणीयो मनुष्यः ।। १४० तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524584
Book TitleTulsi Prajna 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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