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________________ प्रभूत निर्देश है श्रद्धा सत्यं ब्रह्मचर्य विधिश्च--मुण्ड० २.१.७ सत्येन लभ्यस्तपसा ह्यष आत्मा-मु० ३.१.५ सत्येनेनं तपसा योऽनुपश्यति-श्वेता० १.१५ । इसीलिए औपनिषदिक शिक्षा का प्रारम्भ इस मन्त्र से होता है-सत्यंवद धर्मचर । अर्थात् सत्य बोलो, धर्माचरण करो। उपनिषदों में सत्य को ही ब्रह्म एवं आत्मा कहा गया है-तत्सत्यं स आत्मा (छा० ६.८.७), सत्यं ब्रह्म सत्यं ब्रह्मति सत्यं ह्य व ब्रह्म (बृह० ५.४.१ । बृहदारण्यकोपनिषद् में सत्य को ही धर्म कहा गया है-यो वै स धर्मः सत्यं वै तत् । तस्मात् सत्यं वदन्तमा हुर्धर्म वदतीति । अर्थात् सत्य ही धर्म है। इसलिए जो सत्य बोलता है वह धर्मकथन करता है। इस प्रकार सत्य की महत्ता दोनों परम्पराओं (ग्रन्थों) में स्वीकृत है । स्वरूप की पूर्ण समानता है । ६.३. ब्रह्मचर्य -- आचारांगसूत्र और उपनिषद् दोनों ब्रह्मचर्य के प्रतिपादक ग्रन्थ हैं। ब्रह्मचर्य का अर्थ है -आत्मविद्या या आत्मविद्या-मिश्रित आचरण। आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने आचागंगभाष्य के (प्रथम अध्ययन के) भाष्य में लिखा है-ब्रह्मचर्यम्-आत्मविद्या तदाश्रितमाचरणं वा ।३१ अन्यत्र आचारांगभाष्य में ही ब्रह्मचर्य के तीन अर्थ किए गए हैं-आचार: मैथुनविरति: गुरुकुलवासश्च । २ अर्थात् १. आचार २. मैथुनविरति और गुरुकुलवास । आचारांगकार ने आत्मसाधना के लिए ब्रह्मचर्य को श्रेष्ठ साधन माना है । यही पुरुष पराक्रमी, वीर एवं अनुकरणीय होता है जो ब्रह्मचर्य के द्वारा कर्मशरीर को कृश कर देता है अर्थात् कर्मविनाश या बन्धनमुक्ति का श्रेष्ठ साधन है ब्रह्मचर्य-जे घुणाइ समुस्सयं, वसित्ता बंभचेरंसि ।३ ब्रह्मचर्य साधना के लिए अनेक उपाय निर्दिष्ट हैंनिर्बल भोजन, अवमौदर्य (कम खाना), ऊर्ध्वस्थान कर कायोत्सर्ग, ग्रामानुग्राम विहार, आहार परित्याग, स्त्रियों के प्रति दौड़ाने वाले मन का परित्याग आदि ।" ऋषि स्पष्ट निर्देश करता है कि प्राणत्याग श्रेय है लेकिन ब्रह्मचर्य का खण्डन नहीं होना चाहिएतवस्सिणो हु तं सेयं जमेगे विहमाइए'५ अर्थात् तपस्वी के लिए यह श्रेय है कि वह ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए फांसी लेकर प्राणविसर्जन कर दे। वहीं पर ब्रह्मचारी के लिए कुछ आवश्यक करणीय का भी निर्देश दिया गया है-- ब्रह्मचारी के लिए कामकथा, वासनापूर्ण दृष्टि से किसी को देखना, परस्पर कामुक भावों का प्रसारण, ममत्व, शरीर सजावट, विकत्थन (मौन रहित), मनचांचल्य और पापवृत्ति आदि सर्वथा परित्याज्य हैं। उपनिषदों में आत्मदर्शन के लिए अनिवार्य साधनों में ब्रह्मचर्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है । कहीं-कहीं तप, श्रद्धा, अहिंसा आदि के साथ इसका निर्देश है तो कही स्वतंत्र रूप में । मुण्डकोपनिषद् में तप, सत्य, श्रद्धा के साथ ब्रह्मचर्य को ब्रह्म से उत्पन्न बताया गया है-श्रद्धासत्यं ब्रह्मचर्य विधिश्च । प्रश्नोपनिषद् में पिप्पलाद ऋषि भारद्वाज आदि ऋषियों को ब्रह्मचर्य की आराधना का आदेश देते हैं तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया संवत्सरं संवत्स्यथ । वहीं पर ब्रह्मचर्य द्वारा आत्मसाधना की पुष्टि की गई हैखंड २१, अंक २ १३९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524584
Book TitleTulsi Prajna 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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