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नचिकेता कहता है कि हे यमदेव ! ये धन-दौलत सब आप ही के पास रहें क्योंकि ये इन्द्रियों के तेज को हर लेते हैं
श्वोभावा मर्त्यस्य यदन्तकतत्सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेजः ।
अपि सर्व जीवितमल्पमेव तवैव वाहास्तव नृत्यगीते ॥ ६.५. तप-तप का महत्त्व सभी आचार्यों ने स्वीकार किया है योगभाष्य में क्षुधापिपासा, शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वों को सहने को तप कहा गया है-तपोद्वंद्वसहनम् ।" गीता में शरीर, वाणी और मनस् भेद से तप के तीन भेद किए गए हैं। उपदेश साहस्त्री में मन और इन्द्रियों की एकाग्रता को तप कहा गया है-मनश्चेन्द्रियाणां च ह्य कायं परमं तपः ।" जैन दर्शन में तपस्या को संवर और निर्जरा का प्रमुख साधन माना गया है-तपसा निर्जरा च ।" वहीं पर उसके बाह्य और आभ्यन्तर दो भेद बताकर प्रत्येक के छ:-छः उपभेदों का निरूपण किया गया है। आचारांग सूत्र में अवमौदर्य काय-क्लेश, ध्यान आदि का अनेक बार उल्लेख मिलता है। नवम अध्ययन में भगवान महावीर की तपश्चर्या का विस्तृत एवं व्यावहारिक रूप प्राप्त होता है । उपनिषदों में तप की विस्तृत चर्चा है। आत्म-प्राप्ति के प्रमुख साधनों में तप का प्रमुख स्थान है । तैत्तिरीयो० का स्पष्ट आदेश है कि तप से ब्रह्म को जानो-'तपसा ब्रह्मविजिज्ञासस्व' क्योंकि तप ही ब्रह्म है.---'तपो ब्रह्म इति ।५८ मुण्डकोपनिषद् में अनेक बार तप की महत्ता का संगायन किया गया है। एक स्थल पर तप ब्रह्म की संकल्पशक्ति के रूप में निर्दिष्ट है-'तपसाचीयते ब्रह्म तप की महिमा का उल्लेख केन० ३३, छान्द० २.२३.२, ३.१७.४, बृहदा० १.२.६, १५.१, ३.८.१०, ४.४.२२, तैत्तिरीय० १.९.१, २.६.१, कठ० २.१५, ४.६, श्वेताश्वर. १-१५,१६, मैत्रेयी० १.२, ४.३-४, ६.६ आदि अनेक स्थलों पर मिलता है। ६.६. ध्यान की महत्ता को सबने स्वीकार किया है । चित्त की एकाग्रता को ध्यान कहा जाता है। शंकर ने 'मैं ब्रह्म हूं' इस प्रकार की चित्तवृत्ति से जो परमानन्ददायिनी निरालम्ब स्थिति होती है उसको ध्यान कहा है
ब्रह्म वास्मीति सद्वृत्त्या निरालम्बतया स्थितिः । ध्यानशब्देन विख्याता परमानन्ददायिनी ॥
तैलधारा के समान ध्येय वस्तु में चित्त की एकाग्रता ध्यान है-चेतज्ञ वर्तन चैव तैलधारासमम् ।।१ उमास्वाति का दृष्टिकोण भी यही है -उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्ता निरोधो ध्यानम्,६२ अर्थात् उत्तम संहनन वाले का एक विषय में चित्त की एकाग्रता ध्यान है।
चारांग में ध्यान का विस्तृत विवेचन मिलता है। अकर्मा की साधना २३७, ५.१२०, अनन्यदर्शन २.१७३, अनिमेष प्रेक्षा या त्राटक २.१२५, अपायविचय ९.१६१, आत्मसंप्रेक्षा ४.३२, प्रतिपक्ष भावना २.३७, प्रेक्षा करना २.१६०, विपश्यना २.१२५ एवं शरीर संप्रेक्षा ५.२१ आदि का विवरण उपलब्ध है।
उपनिषदों में भी अनेक स्थलों पर ध्यान के स्वरूप, प्रक्रिया, अधिकारी और लाभ आदि की विस्तृत विवृत्ति उपलब्ध होती है। मण्डल ब्राह्मणोपनिषद् में योगसूत्र
खंड २१, अंक २
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