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मन में संस्कृत पढ़ने की प्रबल इच्छा थी । अवैतनिक रूप में कोई ऐसा पंडित नहीं मिल रहा था जो संस्कृत पढ़ा सके; किन्तु जयाचार्य की इस प्रबल भावना को सफल होने का एक मार्ग मिल गया ।
एक श्रावक का लड़का प्रतिदिन रात्रि के समय जयाचार्य का दर्शन करने आता था। एक दिन वह दर्शन करके पास में बैठ गया । जयाचार्य ने सहज भाव से पूछातुम क्या पढ़ते हो ? उसने कहा मैं संस्कृत - व्याकरण पढ़ता हूं। ऐसा सुनते ही जयाचार्य का मन प्रसन्नता से भर गया। आपने कहा दिन में स्कूल में जो तुम व्याकरण पढ़ते हो, रात्रि के समय वह मुझे बताया करो। उसने वैसा ही किया । दिन में जो पढ़ता उसको रात्रि में बताने लगा। बालक जितना ग्रहण कर सकता था, याद रख सकता था और अभिव्यक्त कर सकता था, उतना बताता था । कई बार जयाचार्य की शंकाओं का समाधान न कर वह स्वयं उलझ जाता था । ग्रहणशील और तीक्ष्ण बुद्धि के कारण जयाचार्य विषय को पकड़ लेते थे । उन सुने हुए सूत्र, वृत्ति, कारिका और उदाहरणों को स्मृति में रख लेते और दूसरे दिन राजस्थानी भाषा में उन पर पद्यों की रचना कर लेते थे । इस क्रम से पंच संधि की साधनिका पर २०१ पद्यों की रचना हो गई। उस समय जयाचार्य की अवस्था २१ वर्ष की थी ।
ग्रंथ की उपयोगिता
श्री अनुभूतिस्वरूपाचार्य ने सरस्वती का वरदान पाकर सरल प्रक्रिया बनाई । श्रीमद् जयाचार्य ने उस सरलता में एक कड़ी और जोड़ दी । अल्पबुद्धि वालों को भाषा ( राजस्थानी भाषा) में ही पंच संधि का ज्ञान कराने के लिए यह पद्यानुवाद सहयोगी बन गया । ग्रंथ की भाषा सरल है और जोड में संस्कृत व्याकरण के सूत्रों, वृत्ति, कारिका तथा उदाहरणों का संपूर्ण समावेश हुआ है । कुछेक सूत्रों का दोहों के साथ अध्ययन करें । जैसे "अवर्जा नामिनः " यह सूत्र है। सूत्र का अर्थ है अ को छोडकर स्वरों की नामि संज्ञा होती है । इसके लिए दोहा है
अ आ वर्ज द्वादशा स्वर, नामि संज्ञ निहाल । प्रत्याहार कहूं हिवै, व्यंजन स्वर सुविशाल ॥
-संज्ञाप्रकरण दोहा ६
अ और आ को छोड़कर शेष स्वरों की नामि संज्ञा होती है । प्रत्याहार में सारे व्यंजनों को इस प्रकार व्यवस्थित किया गया है कि आदि और अंत के व्यंजन को मिलाकर एक संज्ञा दी जाती है । बीच के सारे व्यंजन प्रत्याहार के अनुसार ग्रहण किए जाते हैं । इसके बाद एक सूत्र है- “आद्यन्ताभ्यां " और इसके लिए दोहे हैं
आदि अंत ने वर्ण करि, ग्रहण करता सोय । मध्यम वर्ण ग्रहि जियं, आद्यंत संज्ञा होय ॥७॥ अकार बकार करि ग्रहित, मध्यम वर्ण अब नाम । इम इल प्रत्याहार हूँ, कहिये समझ तमाम ॥ ८ ॥
२१, अंक २
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-संज्ञाप्रकरण दोहा ७, ८
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