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२०. सारस्वत (क्रिया)
रूपमाला
२१. सारस्वत मण्डनम्
२२. सारस्वत वृत्ति
२३. सारस्वत वृत्ति
२४. सारस्वत वृत्ति
२५. सिद्धान्त रत्नम् २६. पंचसंधि की जोड
पद्मसुंदरगणी
मण्डन
उपाध्याय भानुचन्द्र
सहज कीर्ति
हर्ष कीर्ति सूरि जिनरत्न
जयाचार्य
पंच संधि कही ते मक्षं, विरुद्ध आयो ह्व कोय ।
ते मिच्छामि वुक्कडं, सिद्ध साखे अवलोय ॥४५॥ | पंडित जांण सिद्धन्तना, सुद्ध कर लीजो देष । करी उतावल मैं इहां, सहित माहे संपेष ॥ ४६ ॥ भीक्खू भारीमालजी, तीजे पट ऋषराय । तास प्रसाद करी रची, भाषा जयजश पाय ॥४७॥
१९०७
का
इन टीकाओं में पंचसंधि की जोड नामक टीका पर यहां संक्षिप्त अध्ययन अभिधेय है । श्रीमज्जयाचार्य की यह अप्रकाशित कृति - पंचसंधि की जोड सारस्वत व्याकरण में पंचसन्धि के सूत्रों पर आधारित है । रचना के नामकरण से ही विषय स्पष्ट है । इसका रचनाकाल ईस्वी सन् १९०७ है । जोड अर्थ है - राजस्थानी भाषा में पद्यात्मक व्याख्या । सम्पूर्ण रचना दोहों में है । इसमें संज्ञा प्रकरण के ३२ दोहे, स्वर संधि के ४५ दोहे, प्रकृति भाव के १२ दोहे, व्यंजन संधि के ६४ दोहे और विसर्ग संधि के ४४ दोहे हैं। शेष ४ दोहों में आत्म निवेदन, गुरु कृपा और रचनाकाल का उल्लेख है । कुल मिलाकर २०१ दोहे हैं । इसके रचनाकार जैन श्वेताम्बर तेरापंथ के चतुर्थं आचार्य श्री जीतमलजी हैं । जो जयाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हैं । वे सत्यशोधक थे । उनमें आग्रह नहीं था । सरल हृदय से वे आत्म निवेदन में कहते हैं । यह जोड मैंने उतावलपण में की है । कहीं अशुद्ध या व्याकरण के सिद्धांत के विरुद्ध लिखा गया हो तो इस विषय के पंडित शुद्ध कर लें । ग्रंथ की रचना विक्रम संवत् १९०७ फाल्गुन कृष्णा २ सोमवार को जोमनेर ( जोबनेर ) में हुई। अंतिम के दोहों में इसका उल्लेख इस प्रकार है
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संवत उगणीसे सही, सातै फागुण मास ।
विद पष बीज सुसोमवार, जोमनेर सुख वास ॥ ४८ ॥
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संवत् १७४० १५वीं शती
१७वीं शताब्दी
१६८१
अज्ञात
अज्ञात
जयाचार्य अपने को रचना में जय जश नाम से उल्लेख करते हैं । ख के स्थान पर का प्रयोग हुआ है, जिसका उच्चारण 'ख' किया जाता था ।
रचना का इतिहास -
इस रचना के पीछे एक घटना है। जयाचार्य जैन आगमों का गहराई से अध्ययन करना चाहते थे । आगमों की टीका संस्कृत भाषा में है । संस्कृत न जानने के कारण आगमों के गूढ रहस्यों को पकड़ने में वे कठिनाई की अनुभूति कर रहे थे । उनके
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तुलसी प्रज्ञा
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