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सूत्र-कार्यायेत् । किसी काम के लिए कोई वर्ण ग्रहण किया जाता है उसकी इत् संज्ञा होती है । काम होने के बाद इत् का लोप कर दिया जाता है। इस पर दोहा देखिए
किण ही कार्य नै अर्थ जे, कीज वर्ण उचार ।
ते वर्ण इत् संज्ञा कह्यो, तसु करि लोप विचार ॥१०॥ व्याकरण शास्त्र में किसी का लोप किया जाता है और किसी को लुक किया जाता है । लोप और लुक में क्या अंतर है ? इस रहस्य को दोहों में पढिए
वर्ण अवर्शन लोप कह्म, वर्ण नाश जहां होय । पिण संधि नौ नहि नाश त्यां, लोप कहीजे सोय ॥११॥ लोपश् वर्ण विरोध ज्यां, एक वर्ण नौ नाश । अन्य वर्ण उत्पत्ति नहि, संधि न होवे तास ॥१२॥ प्रत्यय नौं अणदेखवौ, लुक् कहिये तसुं नाम ।
लुक् कीधे तसं निमित्त लक्ष, किंचित् नहि तिहां ठाम ॥१३॥ आगम, आदेश और संयोग संज्ञा को समझने के लिए निम्न दोहा है। मित्र तुल्य आगम कह्यो, शत्रु तुल्य आदेश । हस स्वर रहित अनेक हस, संजोग तास कहेश ॥
--संज्ञाप्रकरण दोहा १४ जयाचार्य ने अपने दोहों में सारस्वत व्याकरण के प्रत्येक सूत्र के जितने पद हैं उनको सूत्र के साथ अंकों में उल्लिखित किया है। दोहों में अंकों के साथ कहीं कहीं वर्गों में भी उसका उल्लेख किया है । सूत्र-"न षि"
न बि २ द्विपद ष पर छते, तवर्ग नो टु नाहि । भवान् षष्ठः रहे मूलगो, न को ण नहि थाय ॥
-~-(व्यंजन संधि, दोहा २५) नषि सूत्र है । इसमें न और षि दो पद हैं। दोहे में षि के आगे २ का अंक है और उससे आगे अक्षरों में द्विपद शब्द है । सूत्र-नःसक छते।
इसके लिए दोहा है
नः सक् छते ३ त्रिपद कह्या, नांत पद अवधार । छत प्रत्याहार पर छतां, सक् नो आगम विचार ॥
-(व्यंजन संधि दोहा २८) इस सूत्र में नः, सक् और छते ये तीन पद हैं। दोहे में ३ का अंक है और 'त्रिपद' यह शब्द भी है।
संधि दो पदों में होती है। समास को छोड़कर दोनों पद विभक्त्यन्त होते हैं । प्रथम पद के अंतिम वर्ण और दूसरे पद के आदि के वर्ण को मिलाकर संधि की जाती है, शेष वर्णों की इतनी उपयोगिता नहीं है। इसलिए प्रथमपद अवश्य विभक्त्यन्त
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तुलसी प्रज्ञा
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