SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भक्ताम्भर स्तोत्र " भक्ताम्भर" शब्द से प्रारम्भ यह स्तोत्र 'भक्ताम्भर स्तोत्र' के नाम से प्रसिद्ध आदिनाथ ( ऋषभ ) स्तोत्र कहलाता है। वैसे इसमें कहीं भी किसी तीर्थंकर विशेष के संबंध में कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिलता ।" फिर भी इसमें प्रयुक्त युगादी प्रथम जिनेन्द्र तथा आद्य शब्दों" के कारण इसे आदिनाथ स्तोत्र कहते हैं । पर यदि प्रथमं जिनेन्द्र का अर्थ जिनेन्द्रों (अरहन्तों) में प्रमुख तीर्थंकरदेव मान लें, व 'युगादी' का अर्थ तीर्थंकर के जन्म से प्रारम्भ होना मान लें तो यह सामान्यतः सभी तीर्थंकरों या जिनेन्द्रों की स्तुति है । इसके श्लोकों की संख्या को लेकर भी मतैक्य नहीं है । दिगम्बर सम्प्रदाय में इनकी संख्या ४८ मानी गयी है ।" जबकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में ३२ से ३५ तक चार प्रतिहायों के वर्णन सम्बन्धी चार श्लोकों को छोड़कर उनकी संख्या ४४ ही मानी गई है। हालांकि श्वेताम्बर संप्रदाय में भी प्रतिहार्य मान्य हैं। कल्याण मंदिर स्तोत्र जो श्वेताम्बर संप्रदाय द्वारा भी मान्य है उसमें भी श्लोक संख्या तो ४४ है पर उसमें भी आठों प्रतिहार्यों का वर्णन मिलता है। यही नहीं फाल्गुन शुक्ला ६ वी नि. सं. २४८६ के जैन मित्र में इन ४८ से भी भिन्न, ४ श्लोक और छपे थे, पर वे मानतुंगाचार्य कृत नहीं है ।" कटारिया बन्धु को इनसे भी अलग एक गुटके में ४ श्लोक और मिले हैं पर वे भी मानतुंगाचार्य कृत प्रतीत नहीं होते विस्तृत खोज की आवश्यकता है । इस सब पर भक्ताम्भर स्तोत्र दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदाय में समान रूप से मान्य" एक अत्यन्त लोकप्रिय स्तोत्र है । जिस तरह कालिदास के मेघदूत ने खण्डकाव्य की एक नई परंपरा को जन्म दिया, उसी तरह मानतुंग के भक्ताम्भर स्तोत्र ने भी जैन स्तोत्र साहित्य में एक नई परंपरा को जन्म दिया । उसका अनुसरण करते हुए कई स्तोत्रों की रचना की गई। यही नहीं इसके प्रत्येक पद्य के प्रत्येक चरण पर, कितने ही समस्या-पूर्त्यात्मक स्तोत्र काव्य लिखे गए, जिनमें से कितने ही आज उपलब्ध है ।" इतना ही नहीं इसके संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी और भारतीय लोक ( प्रांतीय ) भाषाओं में शताधिक गद्य-पद्यात्मक अनुवाद हो चुके हैं और अभी हो रहे हैं। लौकिक वांछा की रुचिवालों की दृष्टि से भट्टारकीय युग में इसके आधार पर, मंत्र-तंत्र संबंधी कई प्रकार के चमत्कारिक साहित्य का भी युगीन आवश्यकतानुसार निर्माण किया गया, वह आज उतना उपयोगी न भी हो, पर तब इसकी लोकप्रियता का एक कारण अवश्य रहा होगा । मानतुंग ने इसमें भक्ति, दर्शन और काव्य की त्रिवेणी को इस खूबी के साथ बहाया है कि वह सबका मन मोह लेती है । भक्ति भाव एवं शांत रस का एक अनुपम स्तोत्र होते हुए भी जैनधर्म / जैनदर्शन के सिद्धांतों का भी इसमें सुन्दर निदर्शन है | 'सम्यक्' विशेषण, जो जैन अध्यात्म का केन्द्र बिन्दु है इस स्तोत्र में दोबार 'सम्यक् प्रणम्य जिनपाद युगम्' । तथा 'त्वमेव सम्यगुपलम्य जयतिन्त मृत्युं '-- आया है । २४ पहले श्लोक में कवि कहता है कि हमारा प्रणाम तभी सार्थक होगा, जब हम यह जानें की हम प्रणाम किसे क्यों और कैसे कर रहे हैं । इसी तरह अगला श्लोक मृत्यु पर विजयपताका फहराने का मंत्र बोध कराने वाला है। इस स्तोत्र में भक्त १२२ तुलसी प्रशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524584
Book TitleTulsi Prajna 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy