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________________ यह इस लघु कृति में सुचारू ढंग से चचित है। प्रस्तुत कृति गुजरात में स्थित 'दीव' अंडरगार स्थल पर रची गई है। कृति का मूल पाठ निम्न प्रकार है : नयकणिका वर्धमान स्तुमः सर्वनयनद्यर्णवागम् । संक्षेपतस्तदुन्नयीतनयभेदानुवादनः ॥१॥ सर्व नयो-रूप नदियों के लिए समुद्र सदश श्री वर्धमान स्वामी के द्वारा कथित नयों के भेदों को संक्षेप में अनुदित करके स्तुति करता हूं। नैगमः संग्रहश्चैव व्यवहारर्जुसूत्रको। शब्दः समभिरूढवंभूतो चेति नयाः स्मृताः ॥२॥ नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ये (सात) नय कहे जाते हैं। अर्थाः सर्वेऽपि सामान्यविशेषा उभयात्मकाः। सामान्यं तत्रं जात्यादि विशेषाश्च विभेदकाः ॥३॥ सर्व पदार्थ, सामान्य और विशेष, उभयात्मक है। पदार्थों में ऐक्य बुद्धि कराने वाली जाति सामान्य है तथा दो पदार्थों में भेद उत्पन्न करने वाली-भेदक को विशेष कहा जाता है। ऐक्य बुद्धिर्थहशते भवेतसामान्यधर्मतः। विशेषाच्च निजं निजं लक्षयन्ति घटं जनाः ॥४॥ शत घटों में ऐक्यबुद्धि (अर्थात् यह घट है, यह घट है, ऐसी समान बुद्धि) पदार्थ में स्थित सामान्य धर्म के कारण होती है। पदार्थ में स्थित विशेष धर्म के कारण मनुष्य अपने-अपने घट को पृथक-पृथक् मानता है । (अर्थात् पदार्थ में स्थित विशेष धर्म के कारण विभिन्न घट में विभिन्न बुद्धि उत्पन्न होती है ।) नैगमो मन्यते वस्तु तदेतदुभयात्मकम् । निर्विशेषं न सामान्यं विशेषोऽपि न तद्धिना ॥५॥ नैगम नयानुसार पदार्थ सामान्य एवं विशेष, उभयात्मक है। (क्योंकि) विशेष रहित सामान्य का अस्तित्व नहीं है और सामान्य रहित विशेष नहीं होता । संग्रहो मन्यते वस्तु सामान्यात्मकमेव हि। सामान्यव्यतिरिक्तोऽस्ति न विशेषः खपुष्पवत् ॥६॥ (द्वितीय) संग्रह नयनानुसार वस्तु-पदार्थ सामान्य मात्र ही है। जैसे आकाशकुसुम का अस्तित्व नहीं है अर्थात् असत् है. वैसे ही सामान्य से भिन्न विशेष का अस्तित्व नहीं है। विना वनस्पति कोऽपि निम्बाम्रादिर्न दृश्यते । हस्तान्तर्भाविन्यो हि नाङ गुलाद्यास्ततः पृथक् ॥७॥ (संग्रह नय अपने मत का स्पष्टीकरण करने के हेतु सोदाहरण बताता है कि) नीम-आम्र आदि वृक्ष वनस्पतिरूप सामान्य के अभाव में नहीं दिखाई देते । अर्थात् वनस्पति रूप सामान्य के अस्तित्व में ही नीम आदि वृक्ष का अस्तित्व संभवित है। तुलसी प्रशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524584
Book TitleTulsi Prajna 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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