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________________ श्री विनयविजयोपाध्याय विरचित "नयकणिका" ब डॉ० जीतेन्द्र वी० शाह प्रस्तुत कृति के रचयिता उपाध्याय विनयविजयजी हैं। उनके जीवन, शिक्षादीक्षा आदि की जानकारी अद्यावधि उपलब्ध नहीं है। उनके द्वारा विरचित 'लोकप्रकाश' सर्ग ३६ के अनुसार उनकी माताजी का नाम 'राजश्री' (राजबाई) एवं पिताजी का नाम 'तेजपाल' प्रतीत होता है, अतः कह सकते हैं कि वे वणिक-पुत्र थे। वे तपागच्छीय विजयसिंह सूरि के शिष्य विजयप्रभसूरि के शिष्य कीर्तिविजय उपाध्याय के शिष्य थे। उनका स्वर्गगमन संवत् १७३८ में हुआ था, अतः उनका अस्तित्व काल १८वीं सदी अन्त से मानने में कोई आपत्ति नहीं है। उपाध्याय विनयविजयजी समर्थ जैन विद्वान थे। वे प्रसिद्ध दार्शनिक महामहोपाध्याय यशोविजय के समकालीन थे। वे संस्कृत एवं गुजराती भाषा के महान् पंडित तो थे ही, दर्शनशास्त्र के भी विशिष्ट ज्ञाता थे। उन्होंने कठिनतम विषयों को लोकभोग्य भाषा में प्रस्तुत करने में सफलता पायी थी। उनके द्वारा विरचित ग्रंथों की सूची विस्तृत है। संस्कृत ग्रन्थों में-(१) कल्पसूत्र (सुबोधिनिटीका), (२) लोकप्रकाश, (३) हेमलघु प्रक्रिया, (४) नयकणिका, (५) शांतसुधारस आदि उल्लेखनीय हैं। गुजराती रचनाएं - (१) श्री धर्मनाथ स्तवन, (२) पांच कारण स्तवन, (३) पुण्यप्रकाश स्तवन, (४) श्रीपालरास (पूर्वार्द्ध), (५) भगवती सूत्र सज्झाय, (६) षड् आवश्यक स्तवन, (७) जिनपूजा चैत्यवंदन, (८) आदि जिन विनती, (९) आंवील सज्झाय, (१०) विनयविलास, (११) अध्यात्मगीता, (१२) जिन चौवीसी (३) विएरमान विशी आदि हैं । ये सभी ग्रन्थ प्रकाशित एवं जनता में प्रचलित हैं। 'नयकणिका' संस्कृत भाषा में निबद्ध लघु कृति है, जिसमें 'नय' की चर्चा की गई है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में परमात्मा महावीर को नमस्कार करके नयों के विवेचन द्वारा उनकी स्तुति की प्रतिज्ञा की है। तत्पश्चात् सात नयों का क्रमशः वर्णन किया गया है। जैनदर्शन के अनुसार वस्तु अनन्त धर्मात्मक होने से वस्तु विशेष का कथन करते समय वक्ता किसी एक वस्तु-धर्म का कथन नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में अन्य धर्मों को गौण मानने में आते हैं जो 'नय' है । यदि अन्य सभी धर्मों का अपलाप करके मात्र एक ही धर्म को प्रमुख मानने में 'नयाभास' होता है। नय के सात भेद इस प्रकार हैं-(१) नैगम, (२) संग्रह, (३) व्यवहार, (४) ऋजुसूत्र, (५) शब्द, (६) समभिरूढ़, (७) एवंभूत । प्रत्येक नय की दृष्टि से वस्तु का स्वरूप भिन्न होता है, बंर २१, अंक २ २०९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524584
Book TitleTulsi Prajna 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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