________________
९. जैन एवं अन्य दर्शनों में ईश्वर और परमात्मा का प्रायः एक ही अर्थ में प्रयोग
हुआ है। इस विषय में जैनदर्शन की मान्यता का प्रतिपादन करते हुए डा० गैरोला लिखते हैं "जैनियों का परमात्मा (परम+आत्मा) या जिनेश्वर ही ईश्वर है । तीर्थङ्कर भी उनके लिए परमात्मा के ही रूप हैं।"
(देखें-'भारतीय दर्शन', डा० वाचस्पति गैरोला, पृ० ११७) १०. "जनानां मीमांसकानां च नये यद्यप्यात्मस्वरूपं नित्यमिति तस्योपत्तिविनाशा
भावान्न प्रागभावः प्रध्वंसश्च संभवति ।" (मधुसूदन सरस्वती रचित 'सिद्धान्तबिन्दु' पर महामहोपाध्याय वासुदेव शास्त्री . अभ्यंकर कृत टीका का टिप्पणी भाग, पृ० १८) जैनदर्शन के अनुसार ईश्वर संसार का भाग्यविधाता नहीं है। वह सर्वज्ञ, अजर एवं अमर है। विश्व के उत्पत्ति, विनाश आदि कार्यों से उसका कोई वास्ता
नहीं है।
(विशेष जानकारी हेतु देखें-डा० वाचस्पति गैरोला रचित 'भारतीय दर्शन',
पृ० ११७-११८) १२. 'भारतीय दर्शन', डा० वाचस्पति गैरोला, पृ० ८४ । १३. जैनदर्शन, न्याय एवं मीमांसादि दर्शनों के समान वेद को अपौरुषेय नहीं
मानता। सम्भवत: इसीलिए कतिपय विद्वान् जैनदर्शन को नास्तिक मानते
१४. 'वेदों में और उपनिषदों में मांस-भक्षण और अश्लीलता नहीं है' ले० पाण्डेय
पं० श्री रामनारायणदत्तजी शास्त्री, उपनिषद्-अङ्क', गीता प्रैस, गोरखपुर,
पृ० १२१ । १५. “यः पौरुषेयेण ऋविषासमक्ते यो अश्त्येन पशुना यातुधानः । यो अन्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च ॥"
(ऋग्वेद ८।४।८।१६) १६. "मा हिंसीः पुरुषान्पशृंश्च (अथर्ववेद, ६।२।२८।५), मागामनागामदिति वधिष्ट
(ऋग्वेद, ६१८७।४), अजां मा हिंसीः, अवि सा हिंसीः, इमं मा हिंसीद्विपादं
पशुम् (यजुर्वेद १३।४७), मा हिंसीरेकशर्फ पशुम् (यजु० १३।४३) १७. "से अविहिंसमाणे अणवयमाणे, पुट्टो फासे विप्पणोल्लए ।"
('आचाराङ्ग', ५।२६) १८. "एस समिया परियाए वियाहिते।"
(वही, ५।२७)
-१३, म्युनिसिपल कालोनी,
सोनीपत (हरियाणा)
२०८
तुलसी प्रज्ञा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org