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इसी प्रकार अन्य उपनिषदों में भी ऐसी पंक्तियां उपलब्ध हैं
केनेषितं पतति प्रेषितं मनः । - केनोपनिषद्, १
कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति । - मुण्डकोपनिषद्, १.१.३ किं कारणं ब्रह्म कुतः स्म जाता जीवाम केन क्व च सम्प्रतिष्ठा ।
- श्वेताश्वर, १.१ ३. दोनों का प्रमुख विषय आत्ममीमांसा है। गौणरूप से अनेक विषयों की चर्चा उपलब्ध है । औपनिषदिक ऋषि संसार को श्रेष्ठ बनाकर आत्मप्राप्ति में तल्लीन दिखाई पड़ता है । अनासक्त रूप से कर्म करने वाला व्यक्ति ही सत्यधर्म में प्रतिष्ठित हो सकता है । ईशावास्योपनिषद् का मही स्वारस्य है
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः ।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥ अर्थात् शास्त्रीय विधि से अनासक्त भाव से कर्म की अभिलाषा करनी चाहिए। ऐसा (अनासक्त भाव से) लिप्त नहीं होता तथा इससे अतिरिक्त मुक्ति का कोई मार्ग नहीं है ।
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ।।
अर्थात् हे परमेश्वर ! सत्यस्वरूप आपका मुख ज्योतिर्मय पात्र से ढका हुआ है इसलिए मुझे (भक्त के लिए) दर्शन कराने के लिए उस आवरण को हटा दीजिए ।
उपर्युक्त प्रसंग से सिद्ध होता है कि औपनिषदिक ऋषि को अनासक्ति योग के साथ संसार का निर्वाह और अन्त में सत्यस्वरूप परमपद की उपलब्धि काम्य है । नचिकेता द्वारा याचित तीन वरदानों की क्रमबद्धता में यही मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण है । नचिकेता के तीन वरदान हैं
१. पितृ परितोष २. स्वर्ग सुख की अभीप्सा और ३. आत्मविद्या ।"
करते हुए सौ वर्ष तक जीवन करने से मनुष्य कर्मबन्ध में
रूप में भौतिक सुख की कामना,
परन्तु आचारांग का ऋषि संसार या लोकसंग्रह से सर्वथा निर्विण्ण होकर केवल परलोक या मुक्तिचिंतन में अनुरक्त दिखाई पड़ता है लेकिन यह तथ्य पूर्ण रूप से प्रतिपादित है कि जो इस जीवन को तप आदि के द्वारा संवारेगा वही मुक्ति का अधिकारी हो सकता है ।
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४. दोनों की विषय प्रतिपादन शैली में समानताएं और किंचित् विषमताएं हैं । उपनिषद् में जिज्ञासा - समाधान, प्रश्नोत्तर, प्रतीकात्मक, सूत्रात्मक, निरुक्त्यात्मक, आख्यायिका, उपमान, संश्लेषणात्मक (समन्वयात्मक ), आत्मसंलाप, अरुन्धतीन्याय, विश्लेषणात्मक, अन्वय-व्यतिरेक एवं अधिदेवत शैलियों किंवा प्रतिपादन विधियों का उपयोग किया गया है । आचारांग में सूत्रात्मक, निरुक्त्यात्मक, आत्मसंलाप आदि पद्धतियों का उपयोग किया गया है ।
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तुसली प्रज्ञा
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