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________________ ५. चिंतन शैली के विकास में, दोनों में अन्तर है। औपनिषदिक ऋषि देहात्मवाद (भूतात्मवाद छान्दोग्य, ८.८) से चिंतन सरणि का प्रारम्भ कर प्राणात्मवाद (इन्द्रियात्मवाद), मनोमय आत्मा, प्रज्ञात्मा, विज्ञानात्मा, आनन्दात्मा और चिदात्मा तक जाता है, अर्थात् पांच कोशों से व्यतिरिक्त परम तत्त्व में पर्यवसित होता है। आचारांग के चिंतन का प्रारम्भ आत्मवाद से होता है और शुद्धात्मा में निलयित हो जाता है। ६. दोनों ग्रन्थों में आत्मप्राप्ति के साधन का विस्तार से वर्णन मिलता है । आत्मप्राप्ति के साधनों में प्रमुखतया महाव्रतों का पालन, रत्नत्रय में प्रतिष्ठित होना, हिंसा में आतंकदर्शन, अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, संयम, लोभ-विरति, काम-त्याग, धर्मसेवन, तपश्चरण, अप्रमत्तता का आचरण, समत्वयोग, दान, दया, आकिंचन्य, कषायविजय आदि की विस्तृत चर्चा दोनों ग्रन्थों में उपलब्ध होती है। कुछ संसाधनों का संक्षिप्त उपन्यास अधोविन्यस्त है। ६.१. अहिंसा-अहिंसा शब्द हिंसा का पूर्ण निषेध का वाचक एवं दया, करुणा, मुदिता, मैत्री आदि अनुकूल या सदृश भावों का संग्राहक है।" जैन दर्शन का प्राणतत्त्व अहिंसा ही है । आचारांग में इसका विस्तार से वर्णन मिलता है। ऋषि हिंसा का पूर्ण निषेध करता है। हिंसावादियों के वचन के सम्बद्ध भगवान् महावीर का कथन है'अणारिय वयणमेयं" अर्थात् हिंसा की व्याख्या करने वाले वचन अनार्य (त्याज्य) हैं। संसार में कोई भी जीव बध्य नहीं है इस तथ्य का प्रतिपादन आचारांगकार करते हुए कहते हैं तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वं ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं अज्जावेयव्वं ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं परितावेयन्वं ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं परिघेतव्वं ति मनसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं उद्दवेयव्वं ति मनसि । मुनि सब प्रकार से कर्मों को जानकर वह किसी की हिंसा नहीं करता है। वह इन्द्रियों का संयम करता है, उनका उच्छृखल व्यवहार नहीं करता है इति कम्मं परिण्णाय, सव्वसो से ण हिंसति । संजमति णो पगम्भति ।" यह अहिंसा धर्म तथ्य है। यह वैसा ही है, यह अर्हत् प्रवचन में सम्यक् निरूपित है तच्च चेयं तहा चेयं, अस्सि चेयं पवुच्चइ ।५ चतुर्थ अध्ययन के प्रारम्भ में ही ऋषि उद्घोष करता है-सव्वे पाणा सव्वे भूता सम्वे जीवा सम्वे सत्ता ण हंतव्वा ण अज्जावेयव्वा ण परिघेतव्वा ण परितावेयव्वा, ण उद्दवेयव्वा।" अर्थात् किसी भी प्राणी भूत, जीव और सत्त्व का हनन नहीं करना चाहिए। आचारांग के सदृश ही ईशायास्योपनिषद् में विवरण मिलता है । ईशा० की दृष्टि में वही व्यक्ति मोहरहित एवं शोकवियुक्त हो सकता है जो सर्वभूत मात्र को अपने सदृश जानता हो। सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते । तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः ॥" प्राणाग्निहोत्रोपनिषद् में अहिंसा को आत्मसंयम का प्रमुख साधन माना गया है ब्र २१, अंक २ १३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524584
Book TitleTulsi Prajna 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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