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________________ प्रस्तुत पद्य में ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए प्राणों का नाश करना प्रशस्त मरण कहलाता है, क्योंकि वहां राग-द्वेष की प्रवृत्ति नहीं होती है। यहां सामान्य से विशेष का समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास अलंकार है । ८. व्यतिरेक अलंकार व्यतिरेक वह अलंकार है जहां उपमान की अपेक्षा उपमेय का व्यतिरेक वणित किया जाता है।" सम्बोधि में इसका भरपूर वर्णन किया गया है एकमासिकपर्यायो, मुनिरात्मगुणे रतः । व्यन्तराणां च देवानां, तेजोलेश्या व्यतिव्रजेत् ॥७ भगवान् ने बताया कि आत्मा में लीन रहने वाला मुनि एक मास का दीक्षित होने पर भी व्यन्तर देवों के सुखों को लांघ जाता है—उन से अधिक सुखी बन जाता है। यहां मुनि का सुख उपमेय रूप में उत्कर्ष को प्राप्त है एवं व्यंतरदेव के सुखों को उपमान रूप में वर्णित करा उसे ह्रस्व दिखाया गया है इसलिए व्यतिरेक अलंकार है। ९. कायलिंग अलंकार जहां किसी बात को सिद्ध करने के लिए उसके कारण का निर्देश किया जाता है, वहां काव्यलिंग अलंकार होता है । यह अलंकार तर्क एवं न्याय मूलक होता है । संबोधि में इसके अनेक उदाहरण आए हैं। विमात्राभिश्च शिक्षाभिर्ये नरा गृहसुव्रताः । आयान्ति मानुषी योनि, कर्म-सत्या हि प्राणिनः ॥" ____ जो लोग विविध प्रकार की शिक्षाओं से गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी सुवती हैं, वे मनुष्य योनि को प्राप्त होते हैं, क्योंकि प्राणी के कर्म-सत्य होते हैं जैसे कर्म करते हैं वैसे ही फल को प्राप्त होते हैं। यहां मनुष्य योनि प्राप्ति का कारण सुव्रती होना बताया गया है। इसलिए यहां कायलिंग अलंकार है। १०. दृष्टांत अलंकार जहां उपयोग, उपमान और साधारण धर्म का बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव हो, वहां दृष्टान्त अलंकार होता है । इस अलंकार द्वारा कही हुई बात का निश्चय कराया जाता है। इसमें धर्म का पार्थक्य होते हुए भी भाव का साम्य पाया जाता है । अर्थात् 'उपमेय और उपमान का साधारण धर्म एक न होने पर भी दोनों की समता दिखाई देती है। गेहाद् गेहान्तरं यान्ति, मनुष्या: गेहवर्तिनः । देहाद् देहान्तरं यान्ति, प्राणिनो देहवर्तिनः ॥२१ घर में रहने वाले मनुष्य जैसे एक घर को छोड़कर दूसरे घर में जाते हैं उसी प्रकार शरीर में रहने वाले प्राणी एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाते हैं। यहां घर में रहने वाले मनुष्य और शरीर में रहने वाले प्राणी की परलोक गमन में समानता दिखाई गई है। अतः उपमेय और उपमान का बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव है। । खण्ड २१, अंक २ २१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524584
Book TitleTulsi Prajna 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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