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________________ वर्ष बड़े जिम्मेदारी के होते है । यह धैर्य और सहनशीलता के साथ बर्दाश्त करने का समय होता है । प्रारंभिक वर्षों में उतार-चढ़ाव का तूफान आना स्वाभाविक होता है । क्योंकि लड़की को नये लोगों के साथ रहना है और लड़के को थोड़ा-सा मातापिता से हटकर पत्नी की ओर झकना है । लडके का प्यार बंट जाता है। इस स्वाभाविक क्रिया को माता-पिता यह समझ बैठते हैं कि उनका बेटा अब छिन रहा है और पत्नी के निर्देशन में चल रहा है । इन परिस्थितियों में माता-पिता की भी बड़ी जिम्मेदारी है । वे जब अपनी जिम्मेदारी को निभाने के बजाय भटक जाते हैं तो घर का तो सर्वनाश हो ही जाता है, इसके साथ-साथ वे अपने बेटे के लिये भी भयावह एवं संकटपूर्ण समस्याओं के बीज बो देते है। इससे बड़े परिवार में रहना तो दाम्पत्य-जीवन के सुख से लगभग वंचित हो जाना है । क्योंकि जितने सदस्य उतनी समस्याएं । जीवन की जटिल से जटिल समस्याएं सुलझाई जा सकती है। किन्तु पारिवारिक समस्याओं को सुलझाने में सारा जीवन स्वहा हो सकता है, फिर समस्याएं ज्यों की त्यों मुंह फाड़े निगलने को तैयार रहती हैं। दाम्पत्य जीवन की चर्चा में हमें स्वास्थ्य जैसे महत्त्वपूर्ण पक्ष का भी विश्लेषण करना होगा । एक पुरानी कहावत है कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का वास होता है । इस विज्ञान के युग में जहां समस्याओं को सुलझाने के अनेक साधन उपलब्ध हैं किन्तु समस्याओं को सुलझाने वाला व्यक्ति जटिल हो गया है, वहां अब यह कहना पड़ता है कि स्वस्थ मन से स्वस्थ शरीर का विकास होता है। विवाह के पश्चात पति को अपने और पत्नी के स्वास्थ्य की और पत्नी को अपने तथा पति के स्वास्थ्य की पूरी देखभाल रखनी चाहिये । विवाह से पूर्व इस बात की पूरी जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिये कि जहां हम अपने संबंध स्थापित करने जा रहे हैं, उस परिवार में वंशानुक्रमिक रोग के लक्षण तो नहीं हैं या लड़का-लड़की में से कोई किसी गम्भीर रोग से पीड़ित तो नहीं है या मानसिक-स्तर पर सामान्यता की कसोटियों पर खरा उतरता है या नहीं आदि । अन्ततोगत्वा, यह भली-भांति जान लेना चाहिये कि शारीरिक और मानसिक स्तर पर रोगमुक्त होना अति आवश्यक है। क्योंकि विवाह से पूर्व के शारीरिक और मानसिक लक्षण दाम्पत्य जीवन को बांधे रखने में बाधा डालते हैं। कुल मिलाकर हम यह कह सकते हैं कि दाम्पत्य जीवन के परम-सुख के लिये पति-पत्नी में एक सामान्य-समझदारी होना अति आवश्यक है। एक दूसरे के प्रति विश्वास होना चाहिये । धैर्य और सहानुभूतिपूर्वक एक दूसरे की बात तो सुननी ही चाहिये और उस पर अमल भी करना चाहिये । छोटी-मोटी बातों पर अधिक वादविवाद में नहीं फंसना चाहिये । एक-दूसरे के माता-पिता को लेकर लम्बी-चौड़ी आलोचना या व्यर्थ की बातचीत में उलझने से अपने को दबाव की स्थिति में डाल देना है। किन्हीं विशेष मुद्दों पर जब भी विरोधी विचार हो तो तुरन्त निबटा लेना चाहिये । अधिक समय तक तनाव की स्थिति में रहना कोई अच्छी बात नहीं है। छोटी-छोटी बातों को बड़ा रूप कभी नहीं देना चाहिये। संतान को लेकर एक-दूसरे घर २१, अंक २ १८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524584
Book TitleTulsi Prajna 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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