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________________ वर संज्ञा बावन वरण वरण स्थान सुविचार । संज्ञा संधि प्रथमास वर, आषी अधिक उदार ॥३२॥ इति संज्ञा प्रक्रिया हिवै स्वर संधि कहीजीये, इयं स्वरे उदार । इवर्ण को य होत है, स्वर पर छतां संभार ॥१॥ वधि जानय इति स्थिते द् ध् यु आनय । हसे ह्रसहसत परैः रह वजित हस कोय । हस पर छतेज वा विकल्प अवसाने धि होय ॥२॥ दध्ध आनय झभे जबा ए सूत्र है, झस केरौ जब होय । झभ पर छते हुवै सवर्ण, वर्ग माहिलो जोय ॥३॥ उदाहरण इण सूत्रे करी पूर्व धकार नों दकार हुवे । स्वरहीनं परेण संयोज्यं दद्धयानय इति सिद्धं । दध्यानय ए विकल्पे करि। रहाधपोद्विः त्रिपदं, स्वर पूर्व ह सोय । तातें रह तातें सुपर यपद्वि विकल्प होय ॥४॥ उदाहरण-गौरी अत्र गौर्यत्र गौर्यत्र । नहि अस्ति नह य्यस्ति नहयस्ति । जलतुंबिक न्याये करी, रेफ उर्ध्व गमनाय । अग्र रेफ अध जात है, पूर्व रेव उर्द्ध आय ॥५॥ जहां सूत्र ने अक्षर करि कार्य सिद्धि नहि होय । तहां अन्य सूत्र पदे करी कार्य सिद्धि कर सोय ॥६॥ उवर्ण को व होत है, उवं द्विपदं सूत्र । स्वर पर छत सुजांण जो मधु अत्र मध्वत्र ॥७॥ ऋ र सो ऋ वर्ण को स्वर पर छत र थाय । पितृ अर्थः शब्द नौ पित्त्रर्थ: हुय जाय ॥८॥ ल लं सो लु वर्ण को स्वर पर छत ल होय । लु अनुबंध तणौ हुवै, लनुबंध अवलोय ॥९॥ ए अय् द्विपद सूत्र ए, एकार नौं अय् होय । स्वर पर छत सुजांण जो, ने अनं नयनं जोय ॥१०॥ ओ अव् द्विपद सूत्र ए, ओकार नौं अव् होय । स्वर पर थकां सुजांण जो, भो अति भवति सोय ॥११॥ गवादिक न जे शब्द कू, अवर्ण आगम आंण । अक्षादिक पद पर छतां, गो अक्ष गवाक्ष जांण ॥१२॥ गो इंद्र गवेंद्र गो अजिनं, गवाजिनं सिद्ध थाय । गो अग्र गवाग्र प्र ऊढ नौं, प्रौढ सिद्ध हो जाय ॥१३॥ प्र ऊढी को प्रौढी हुवै, स्व ईरं स्वैरं जेह । अक्ष ऊहिणि अक्षौहिणी शब्द गवादिक एह ॥१४॥ तुलसी प्रज्ञा १७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524584
Book TitleTulsi Prajna 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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