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गुणसम्पन्न व्यक्ति ही आत्मज्ञान का अधिकारी हो सकता है। उपनिषदों में इन्हीं तथ्यों की उद्घोषणा की गई है । अनेक चरित्र एवं आख्यानों के माध्यम से भी इस तथ्य पर प्रभूत प्रकाश डाला गया है। मुण्डकोपनिषद् में महाशाल शौनक एवं कठोपनिषद में कथित नचिकेता के चरित्र से इस विषय पर काफी स्पष्टीकरण हो जाता है । मुण्डक. के अनुसार आत्मविद्या के अधिकारी के लिए निरहंकारता, गुरु के प्रति श्रद्धा, तितिक्षा, चित्तप्रशांति, एकाग्रता, अनासक्तता आदि गुणों का होना अनिवार्य है। ऋषि वाक्य प्रमाण हैं- तस्मै स विद्वानुपसन्नाय सम्यक्,
प्रशान्तचित्ताय शमान्विताय । येनाक्षरं पुरुषं वेद सत्यं,
प्रोवाच तां तत्त्वतो ब्रह्मविद्याम् । अर्थात् ज्ञानी महात्मा के शरण में आए हुए, पूर्ण शांतचित्त वाले शमदमादि साधनयुक्त शिष्य के लिए ब्रह्मविद्या का उपदेश करना चाहिए जिससे कि वह अविनाशी तत्त्व को जान ले।
वह विशुद्ध सत्त्व-विशुद्ध अन्तःकरण वाला (मु० ३.१.८), आप्तकाम (३.१.६) क्षीणदोष-दोषों से रहित (३.१.५) होता है। वेदान्तसार के प्रणेता श्री सदानन्द ने ब्रह्मविद्या के 'अधिकारी-स्वरूप' पर विस्तृत प्रकाश डाला है --अधिकारी तु विधिवदधीतवेदवेदाङ्ग वेनापतितोऽधिगता खिलवेदार्थोऽस्मिन् जन्मनि जन्मान्तरे वा काम्यनिषिद्धवर्जनपुरस्सरं नित्यनैमित्तिकप्रायश्चित्तोपासनानुष्ठानेन निर्गतनिखिलकल्मषतया नितान्तनिर्मलस्वान्त साधनचतुष्टयसम्पन्नः प्रमाता । अर्थात् जो पुरुष वेदों और वेदों के अङ्गभूत शास्त्रों का विधिवत् अध्ययन कर सम्पूर्ण वेदार्थ का आपातज्ञान प्राप्त कर लेता तथा इस जन्म में अथवा पूर्वजन्म में काम्य, निषिद्ध कर्मों का त्याग करते हुए नित्य, नैमित्तिक कर्म प्रायश्चित्त और उपासना के अनुष्ठान से समस्त कल्मष को निवृत्त कर अपने अन्तःकरण को नितान्त निर्मल बना लेता है वह साधन चतुष्टय से सम्पन्न (१. नित्यानित्य वस्तु विवेक २. भौतिक-स्वर्गिक सुख-भोग से विरक्ति ३. शम दम, उपरति तितिक्षा, श्रद्धा और समाधान-समाधि ४. मुमुक्षत्व) प्रमाता पुरुष ही ब्रह्मविद्या का अधिकारी होता है । आगे श्रुति का श्लोक उद्धृत करते हैं
प्रशान्तचित्ताय जितेन्द्रियाय च प्रहीणदोषाय यथोक्तकारिणे । गुणान्वितायानुगताय सर्वदा
प्रदेयमेतत्सततं मुमुक्षवे ॥" अर्थात् जिसका मन शांत है, जो जितेन्द्रिय है, जिसकी इन्द्रियां विषयों से निवृत्त हो चुकी हैं, जो सन्यास ले चुका है, जिसके मनोदोष दूर हो चुके हैं, जो गुरु और शास्त्रानुसार क्रियारत रहता है, जो निरभिमान तथा आचार्यांनुगत हो वही इस विद्या का अधिकारी हो सकता है-उसी को आत्मविद्या देनी चाहिए। अनेक श्रुतिवाक्य इस विषय में उपलब्ध होते हैं
शान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः समाहितो भूत्वाऽऽत्मन्येबात्मानं पश्यति । ७२
खण्ड २१, अक २
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