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________________ उपनिषद् का एक प्रसंग है जिसमें स्वयं विद्या के द्वारा ही अपने अधिकारी का व्याख्यान किया गया है विद्या ह वै ब्राह्मणमाजगाम गोपाय मा शेवधिष्टेऽहमस्मि । असूयकायानुजवेऽयताय न मां ब्रूयाः वीर्यवती तथा स्याम् ॥ - मुक्तिकोपनिषद् १.५१ अर्थात् विद्या ब्राह्मण (ऋषि) के पास आई और उससे कहने लगी- ब्राह्मण ! मेरी रक्षा करना । मैं तुम्हारी बहुत बड़ी निधि हूं। मुझे ऐसे व्यक्ति को मत देना, जो ईर्ष्यालु हो, जो ऋजु (सरल) न हो और संयमयुक्त न हो । यदि तुम ऐसा करोगे तो मैं शक्तिशालिनी बनूंगी, मुझमें ओज प्रस्फुटित होगा । श्रीमद्भगवद्गीता में विद्या के अधिकारी पर विस्तार से वर्णन मिलता है । विशेषकर तेरहवें अध्याय में अधिकारी के अद्वेष्टा, सर्वभूतमंत्री, करुणा, निर्ममता, निरहंकारता, तितिक्षा, क्षमी, संतुष्ट, योगी, यतात्मा, दृढ़निश्चयी आदि गुण बताए गए हैं। इस प्रकार आत्मविद्या के अधिकारी के स्वरूप संधारण में सभी भारतीय आत्मवादी प्रस्थानों में मतैक्य दृग्गोचर होता है । ८. आत्मज्ञ की स्थिति - जो आत्मा को जान लेता है । उसका स्वरूप क्या है, वह कैसा हो जाता है ? आदि प्रश्नों के उत्तर में दोनों परम्पराओं की मान्यताएं समान हैं । आत्मज्ञ पुरुष अपने ही समान सम्पूर्ण जगत् को देखता है । सम्पूर्ण जगत् में अपने को तथा अपने में सम्पूर्ण विश्व को प्राप्त कर लेता है-योऽसावसौ पुरुषः सोऽहमस्मि ।" आचारांग का ऋषि कहता है कि आत्मज्ञ पुरुष उपशान्त हो जाता है, मन-वचन-काय की सम्यक् प्रवृत्ति में स्थिर हो जाता है । भगवान् महावीर के प्रसंग में कहा गया हैअभिणिव्वुडे अमाइल्ले ।" जो मात्र एक आत्मा को जान लेता है वह सर्वज्ञ हो जाता जे अज्झत्थं जाणइ से बहिया जाणइ । जे बहिया जाणइ से अज्झत्थं जाणइ ॥ ७५ जो अध्यात्म को जानता है वह बाह्य को जानता है, जो बाह्य को जानता है वह अध्यात्म को जानता है । शीतोष्णीय अध्ययन में आचार्य कहते हैं-जे एगं जाणइ से सव्वं जाण । " अर्थात् जो एक को जानता है वह सबको जान लेता है । ईशावास्योपनिषद् एवं गीता का वचन है कि बाहर भीतर आत्मदर्शी व्यक्ति शोक-मोह से रहित हो जाता है यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद् विजानतः । तत्र कः मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः ॥ * ૧૭૭ छान्दोग्य० का वचन है-तरति शोकमात्मवित् । " आत्मवेत्ता सर्वज्ञ हो जाता है - स आत्मवित्स सर्ववित् ।" मैत्रेयी० में उदिष्ट है कि आत्मविद् को ही दान देना चाहिए ।" गीता में भगवान् कृष्ण कहते हैं-आत्मदर्शी समदर्शन हो जाता है— ૪૪ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524584
Book TitleTulsi Prajna 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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