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________________ भक्तामर स्तोत्र में भाव गाम्भीर्य के साथ-साथ, भाषा सौष्ठव, भी आकर्षक है । कवि की अलंकार योजना भी बहुत सुन्दर है। उसके इस काव्य में जगह-जगह अनुप्रास, उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, व्यतिरेक, विषम, श्लेष, अतिशयोक्ति और दृष्टान्त आदि अलंकारों का सुन्दर प्रयोग किया है । कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं "नास्तं कदाचिदुपयासी न राहु-गम्य:........."""" वे कहते हैं कि हे भगवान आपकी महिमा तो सूर्य से भी बढ़कर है, क्योंकि न तो वह कभी अस्त होती है, न उसे राहु ग्रसता हैं और न ही वह कभी मेधाच्छन्न होती है । आप तो सदैव तीनों लोकों को प्रकाशित करते हैं, जबकि राहु ग्रस्त या मेघाछन्न सूर्य अकेले मध्यलोक को भी प्रकाशित करने में अक्षम है। इसी प्रकार निम्नांकित श्लोक में वक्रोक्ति की छटा देखिए । कवि कहता है कि आपको देखने के वाद, कोई दूसरा देव मन को नहीं भाता, इससे तो हरिहरादि देव कहीं अच्छे हैं, जिन्हें देखकर मन आपके विषय में संतुष्ट हो जाता है "मन्ये वरं हरिहरादय एव दृष्टा, ___ दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति । ........ अलंकार ही नहीं कवि की प्रतीक योजना और रूपकों का प्रयोग भी कम आकर्षक नहीं है । देखिए निम्नांकित श्लोक में वे मृत्यु को एक जीवन्त रूपक के रूप में प्रस्तुत करते हुए कहते हैं--- "त्वन्नाम मंत्र मनिशं मनुजा स्मरन्त: सद्यः स्वयं विगत-बन्ध-भया भवन्ति ।।"33 उन्होंने मन/मान को मदोमत्त हाथी" क्रोध को सिंह" के प्रतीक के रूप में सुन्दर चित्रण किया है । दावानल के प्रसंग में वन का रूपक बड़ा ही सटीक है । इसमें वन संसार का प्रतीक है-कल्पान्त-काल पवनोद्धत-वह्नि कल्पं । दावनलं ज्वालित मुज्जवलमुत्स्फुलिंगम् ।"........ ___ इसी प्रकार ४१ वें श्लोक में कवि का लोभ का रूपक भी वहुत सुन्दर है। इसके आगे ४२ व ४३ वें श्लोकों में कवि ने मनुष्य के भीतर छिड़े महाभारत का, संग्राम के प्रतीकों के माध्यम से बड़ा सुन्दर चित्रण किया है। कवि ने इस स्तोत्र में बसन्त तिलका जैसे सरस व सरल छन्द का भी बड़ा सुन्दर प्रयोग किया है। इस प्रकार भाव-पक्ष और कला-पक्ष के साथ-साथ कवि ने तत्कालीन सामन्तों की स्वैराचारी" दण्ड व्यवस्था और राजनीति" आदि का सुन्दर चित्रण किया है। भाव-विचार, रस-छन्द, अलंकार, भाषा तथा समकालीन परिवेश आदि सभी की दृष्टि से आचार्य मानतुंग का भक्ताम्भर स्तोत्र एक कालजयी स्तोत्र है। सन्दर्भ १. डॉ. प्रेमसुमन जैन, भक्ताम्भर यात्रा कथा, तीर्थकर, ११/९, पृ. १८५ २. दिगम्बर जैन ग्रंथकर्ता और उनके ग्रन्थ, जैनहितैषी, पृ. ५३ ३. पं. रतनचन्द भारिल्ल,भक्ताम्भर प्रवचन, प्रस्तावना, पृ. ११ १२४ तुलसी प्रमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524584
Book TitleTulsi Prajna 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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