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________________ (क) पूर्वान्तकल्पित धारणाएं पांच मतों में विभाजित की गई हैं(१) शाश्वतवाद (२) नित्यता-अनित्यतावाद (३) सान्त-अनन्तवाद (४) अमराषिक्षेपवाद, तथा (५) अकारणवाद या अधीत्यसमुत्पाद । इनमें से शाश्वतवाद, नित्यता-अनित्यतावाद, सान्तअनन्तवाद और अमराविक्षेपबाद इन चारों मतों में से प्रत्येक का प्रामाणत्व चार धारणाओं से और अन्तिम अकारणवाद का प्रामाण्य दो धारणाओं से किया जाता था। इन्हीं १८ (अठारह) धारणाओं से पूर्वान्तकल्पित मत भिन्न-भिन्न रूप से निर्दिष्ट होते थे। शाश्वतवाद का मूल सिद्धांत था 'आत्मा और लोक नित्य, अपरिणामी, कूटस्थ और अचल हैं । प्राणी चलते-फिरते, उत्पन्न होते और मरते हैं, किन्तु अस्तित्व नित्य है । 'यह मत चार धारणाओं पर अवस्थित था १. चित्त के समाधि लाभ करने पर जन्मजन्मान्तर की स्मृति होती है। २. एक संवर्तविवर्त से लेकर दस संवर्त-विवर्त तक समाधि में अपने जन्म-जन्मा न्तर की स्मृति होती है ।। ३. दस संवर्त-विवर्त से लेकर बीस संवर्त-विवर्त या चालीस संवर्त-विवर्त आदि तक अपने जन्म-मरण की स्मृति होती है । ४. तर्क के आधार पर । नित्यता-अनित्यतावादी ब्राह्मण वे थे जो आत्मा और लोक को अंशत: नित्य और अंशतः अनित्य मानते थे। ऐसा चार वस्तुओं के कारण था१. चित्त के समाधि प्राप्त करने पर मनुष्य अपने पहले जन्म को स्मरण करता है, उससे पहले को नहीं। वह ऐसा कहता है-जो ब्रह्मा, महा-ब्रह्मा है जिसके द्वारा हम निर्मित किए गए हैं. वह नित्य, ध्रुव, शाश्वत और अपरिणाम धर्मी है और ब्रह्मा के द्वारा निर्मित किए गए हम अनित्य, अध्रुव, अशाश्वत, परिणामी और मरणशील हैं। २. समाधि में पूर्व जन्मों की स्मृति के फलस्वरूप आत्मा क्रीडाप्रदूषिक देवों को च्युत होता हुआ देखती है और जो ऐसा नहीं है उनको अच्युत देखती है-इस प्रकार की अनुभूति होती हैं अर्थात् आत्मा और लोक अंशतः नित्य और अंशत: अनित्य ३. इसी प्रकार मनः प्रदूषित देवों को च्युत होता हुआ देख और उनसे विपरीत को अच्युत देख उपर्युक्त प्रकार की अनुभूति होती है । ४. तर्क के द्वारा इस प्रकार का निश्चय कि ये चक्षु, श्रोत्र, नासिका, जिह्वा तथा शरीर अनित्य और अध्रुव है और यह जो मन, चित्त अथवा विज्ञान है, वह नित्य और ध्रुव है। सान्त-अनन्तवाद में विश्वास करने वाले मानते थे कि लोक सान्त है और परिच्छिन्न भी, सान्त और अनन्त, परिच्छिन्न और अपरिच्छिन्न तथा न सान्त न अनन्त, ११६ तुलसी प्रहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524584
Book TitleTulsi Prajna 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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