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न परिच्छिन्न और न अपरिच्छिन्न ही । ऐसा वे चार धारणाओं के आधार पर कहते
१. समाहित चित्त में इस प्रकार के भान होने से कि लोक सान्त है, परिच्छिन्न है । २. ऐसा भान होने से कि लोक अनन्त है, अपरिच्छिन्न है ।
३. ऐसा भी मान होने से कि लोक ऊपर से नीचे की ओर सान्त तथा दिशाओं की
ओर अनन्त है ।
४. तर्क से विनिश्चय द्वारा कि लोक न सान्त है न अनन्त ।
अमराविक्षेपवादी वे थे जो किसी प्रश्न का उत्तर पूछे जाने पर कोई निश्चित उत्तर ही नहीं देते थे । अमराविक्षेपवादी नाम इसलिए पड़ा क्योंकि अमराविक्षेप नाम की छोटी-छोटी मछलियां होती हैं जो बहुत फिसलने वाली और चंचल होने के कारण हाथ में नहीं आती और इन्हीं मछलियों के समान अमराविक्षेपवादी के सिद्धांतों में भी कोई स्थिरता नहीं थी । 'यह भी मैंने नहीं कहा- वह भी मैंने नहीं कहा - अन्यथा भी नहीं, ऐसा नहीं है - यह भी नहीं, यह भी नहीं कहा- ऐसी उनकी विभ्रमकारिणी बुद्धि रहती थी । इसके लिए उनके पास चार आधार भी थे
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१. सम्यक् ज्ञान नहीं होने से असत्य भाषण के भय से वह न यह कह सकता है कि 'यह अच्छा है' और न यह कि 'यह बुरा है ।'
२. असत्य भाषण करके अनर्थं सम्पादन करने के भय से वह प्रश्नों के पूछे जाने पर कुछ निश्चित बात नहीं कहता ।
३. सम्यक ज्ञान नहीं होने से अधिक कुशल शास्त्रार्थ करने वालों से डरकर कुछ निश्चित उत्तर नहीं देता ।
४. वह स्वयं जानता ही नहीं कि परलोक, औपपातिक देव और सुकृत तथा दुष्कृत कर्मों के विपाक है अथवा नहीं, अतः वह कोई निश्चित उत्तर ही नहीं देता । अकारणवावी या अधीत्यसमुत्पन्नवादी वे थे जो मानते थे कि लोक और आत्मा न शाश्वत है और न अशाश्वत, न स्वयंकृत है और न परकृत, बल्कि बिना ही किसी कारण के उत्पन्न है, अधीत्यसमुत्पन्न है, और ऐसा दो धारणाओं से
१. असंज्ञित्व नाम के देव जब संज्ञा के उत्पन्न होने से इस लोक में श्रेष्ठ पुरुषों के रूप में जन्म लेते हैं तो समाहित चित्त होने पर वे संज्ञा के उत्पन्न होने को स्मरण करते हैं, उसके पहले नहीं । वे ऐसा कहते हैं—-आत्मा और लोक अकारण उत्पन्न हुए हैं । सो जैसे हम पहले नहीं थे, हम नहीं होकर भी उत्पन्न हो गए । २. तर्क के आधार पर ।
(ख) अपरान्तकल्पित धारणाएं मुख्यतया पांच भागों या मतों में बांटी गई हैं१. मरने के बाद आत्मा का संशित्व प्रतिपादन करने वाला वाद ।
२. असंज्ञित्व प्रतिपादन करने वाला वाद |
३. नैव संज्ञित्व नैव असंज्ञित्व वाद |
४. उच्छेदवाद |
५. दुष्टधर्म निर्वाणवाद ।
खण्ड २१, अंक २
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