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पर कौन शब्द पहले प्रयोग किया जाना चाहिए ? यह शंका उत्पन्न होती है । इस शंका के समाधान हेतु सूत्र दिया गया है- " द्वन्द्वऽल्पस्वरप्रधाने कारोकारान्तानां पूर्वं निपातो वक्तव्यः ( पृ० २४८ ) " अर्थात् द्वन्द्वसमास में अल्प स्वरों वाले पद, इकारान्त तथा उकारान्त पद पूर्व निपात के रूप में प्रयोग किये जाते हैं। यहां उकारान्त का उदाहरण ग्रन्थकार ने दिया है - "पटुगुप्ती" विग्रह-पटुश्च गुप्तश्च । यहां समान स्वर होने पर भी उकारान्त होने के कारण 'पटु' शब्द का पहले प्रयोग किया गया है । अतः "चार्थे द्वन्द्व : " सूत्र से द्वन्द्व समास होने पर “समास प्रत्यययोः " सूत्र से विभक्तिलोप तथा " उक्तार्थानामप्रयोगः सूत्र द्वारा चकार लोप हुआ । इतरेतरयोग होने पर "इतरेतरयोगे द्विवचनम् " के आधार पर प्रथमा के द्विवचन में 'ओ" विभक्ति प्राप्त हुई । तत्पश्चात “ओ ओ ओ" सूत्र से औकार होकर "पटुगुप्ती" सिद्ध हुआ ।
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द्वन्द्वसमास के अन्तर्गत एक विशेष सूत्र दिया है " देवता द्वन्द्वे पूर्व पदस्य वा दीर्घो वक्तव्यः” अर्थात् देवता वाचक शब्दों में द्वन्द्वसमास होने पर पूर्वपद के अन्त्य - स्वर को दीर्घ होता है । यथा - " अग्नीषोमी" विग्रह-अग्निश्च सोमश्च । " चार्थेद्वन्द्व " सूत्र से द्वन्द्वसमास होने पर " समासे प्रत्ययो: " सूत्र से विभक्तिलोप होकर " उक्तार्थानामप्रयोगः " के आधार पर चकार लोप हुआ । अतः अग्नि सोम यह स्थिति होने पर "देवताद्वन्द्वे पूर्वपदस्य सूत्र से अग्नि शब्द को दीर्घ ईकार हुआ । देवता होने के कारण । तदनन्तर सूत्र दिया गया है – “अग्न्यादेः सोमादीनां षत्वं वक्तव्यम | " यह सूत्र अग्नि आदि से परे सोमादि के सकार को षकारादेश करता है । अतः उक्त सूत्र द्वारा सकार को षकारादेश होने के कारण यहां " क्विलात्षः सः " सूत्र का प्रयोग नहीं होता । अतः प्रथमा के द्विवचन में "ओ" विभक्ति प्राप्त होने पर ओकार होकर "अग्नीषोमी" रूप सिद्ध हुआ ।
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समाहार द्वन्द्व में एकवद् भाव अथवा एकवचन करने हेतु सूत्र दिया गया है" एकवद भावो वा समाहारे वक्तव्यः ।" यह सूत्र विकल्प से एकवचन करता है । पक्षान्तर में बहुवचन ही रहेगा । यथा -- शशाश्च कुशाश्च पलाशाश्च - मा शशकुशपलाशम पक्षे - शशकुशपलाशाः । इसकी सिद्धि पूर्व प्रक्रियानुसार ही होगी । मात्र एकवचन अथवा बहुवचन करने हेतु "एकवद् भावो वा समाहारे वक्तव्यः " सूत्र का प्रयोग किया
जाएगा ।
द्विगुसमास
द्विगुसमास के लक्षण को बताने हेतु ग्रन्थकार ने सूत्र दिया है- "संख्या पूर्वो द्विगु: - संख्यापूर्वः समासो द्विगुनिर्गथते ( पृ० २५२ ) " अर्थात् संख्यावाची शब्द यदि पूर्व में हो तो वहां द्विगु समास होता है। वहां भी द्विगुसमास करने हेतु उक्त सूत्र (१०) ही दिया गया है । " काशिका" में इसकी वृत्ति दी गई है—
"तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च" इत्यत्र यः संख्यापूर्वः समासः स द्विगुसंज्ञो भवति । ( २।१।५२ ) ।”
द्विगु को तत्पुरुष नाम यद्यपि पाणिनि ने दिया है । तथापि यहां एक संज्ञा नियम में बाधा सी प्रतीत होती है । पाणिनि ने द्विगु की तत्पुरुष संज्ञा हो जाने पर तत्पुरुष
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तुलसी प्रज्ञा
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