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इनका उदाहरण है-"ग्राम प्राप्तः । विग्रह-प्रामं प्राप्तः । उक्त सूत्र में "अमादो" सूत्र का प्रयोग किया गया है। यहां अमादो से तात्पर्य द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी तथा सप्तमी विभक्तियों से है। ग्राम प्राप्तः यह द्वितीयान्त पूर्वपद है । यहां अमादो तत्पुरुषः सूत्र से विभक्ति लोप होने पर नाम संज्ञा होने के कारण प्रथमा एकवचन में प्राप्त 'सि" के सकार को विसर्गादेश होकर "ग्राम प्राप्तः रूप सिद्ध हुभा।
___ इसी प्रकार दात्रेण छिन्न-दाछिन्न (तृतीय एकवचन) यूपायदारू-यूपदार (चतुर्थी एकवचन) । वृकेभ्यो भयं-बुकभयम् (पंचमी तत्पुरुष)। राज्ञः पुरुषोराजपुरुषः (षष्ठी तत्पुरुष)। अक्षेषु शौण्ड: अक्षशौण्ड : (सप्तमी तत्पुरुष) इत्यादि उदाहरण तत्पुरुष समास के अन्तर्गत देखने को मिलते हैं।
___ "क्वचिदमाद्यन्तस्य परत्वम (पृ० २४५)" अर्थात् तत्पुरुष समास में वर्तमान द्वितीयाविभक्त्यन्त प्रथमान्त पूर्वपद के परे भी होता है, किन्तु ऐसा कहीं-कहीं देखने को मिलता है सर्वत्र नहीं । यथा-अग्नी आहित इति आहिताग्निः । पूर्व भूत इति भूतपूर्वः ।
नत्र पूर्वपद में रहते जो अन्वय है वह तत्पुरुषसमास संज्ञक होता है-"ननिनबि पूर्वपदे सति योऽन्वयः स तत्पुरुषसंज्ञकः समासो भवति (पृ. २४६)"। यथा-न ब्राह्मणः । यहां न पूर्वपद में होने के कारण तत्पुरुषसमास हुआ है। समास होने पर नन् (न) को अकारादेश होता है" नाकादि को छोड़कर (७)। अतः न को अकारादेश होकर "अब्राह्मणः रूप बना ।" नाकादिवर्जमं से तात्पर्य नाकः । नागः । नमुचिः। नक्षत्रं । नखं । नपुसंकं । नकुलः । इत्यादि से है। यहां न को आकार नहीं होता।
तत्पुरुष समास के अन्तर्गत एक कार्य यह भी बताया गया है- समास के रहते न को अन् आदेश होता है स्वर परे रहते । इस हेतु सूत्र दिया गया है—"अन् स्वरे" यथा-अनश्वः । विग्रह न अश्वः । यहां 'नमि' सूत्र से समास होने पर "समास प्रत्ययोः सूत्र से विभक्ति लोप हुआ। “अश्व" शब्द परे रहते । "अन् स्वरे" सूत्र से न को अनादेशे होकर "अनश्वः" रूप सिद्ध हुआ।
इसी प्रकार अन्य कई उदाहरण हमें तत्पुरुषसमास से संबंधित मिलते हैं। द्वन्द्वसमास
सारस्वतकार के अनुसार समुच्चय, अन्वाचय, इतरेतरयोग तथा समाहार इन चार अर्थों में द्वन्द्वसमास होता है । इस हेतु सूत्र दिया गया है-“चार्थे द्वन्द्वः (१० २४७)।" प्रक्रिया कोमुदी में द्वन्द्व समास की परिभाषा दी गई है--"उभयार्थ-प्रधानो द्वन्द्वः" इति स च दे॒धा-इतरेतरयोगार्थः, समारारार्थश्च (छ)।"
पाणिनि ने इस हेतु सूत्र दिया है -"चाऽर्थे द्वन्द्वः (२।२।२९)" यद्यपि सारस्वतकार का दिया हुआ सूत्र पापिनि से मिलता है तथापि दोनों की वृत्ति भिन्न है। "लघुसिद्धान्तकौमुदी' में उक्त सूत्र की वृत्ति दी गई है
अनेक सुबन्तं चाऽर्थे वर्तमानं या समस्यते, स द्वन्द्वः ।
समुच्चयाऽन्वापयेतरेतरयोग-समाहारा चाऽर्था (९)॥" द्वन्द्व समास की परिभाषा देने के उपरान्त द्वन्द्व समास में पदों की समानता होने खण्ड २१, अंक २
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