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________________ सभी नय सम्मिलित होकर श्रेष्ठ सिद्धांत की भक्ति करते हैं। जैसे युद्धकला : पराजित परस्पर विरोधी शत्रु राजा भी चक्रवर्ती के पद्मकमल की पूजा सम्मिलित होकर करते हैं, वैसे परस्पर विरोधी नय आपकी सेवा करते समय सम्मिलित होकर भक्ति करते हैं। इत्थं नयार्थकवचः कुसुमैजिनेन्दुर्वीरोचितः सविनयं विजयाभिधेन । श्री द्वीपवन्दरवरे विजयादिदेव सूरिशितुर्विजयसिंहगुरोश्च तुष्टय ॥२३॥ इस प्रकार नय रूपी अर्थ को जताने वाले वचनों रूपी पुष्पों से विनय नामक साधु द्वारा जिनों में चंद्र समान महावीर स्वामी की अर्चना की गई है। यह रचना' विजयदेवसूरि के शिष्य विजयसिंहसूरि गुरु की तुष्टि हेतु श्रीद्वीप नामक श्रेष्ठ बन्दरगाह में रचित है। -शारदाबेन चिम्मनभाई एज्यूकेशनल रिसर्च सेन्टर शाहीबाग, अहमदाबाद-४ २१४ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524584
Book TitleTulsi Prajna 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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