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________________ सूत्र के आधार पर स्त्रीलिंग के रूप पुंवद होंगे । अतः ईप की निवृत्ति होने पर "रूपवत्भार्य" हुआ "चपा अबे जबाः" सूत्र से तकार को दकार होकर सकार को सिर्गादेश होने पर "रूपवद्भार्यः" रूप सिख हुआ। कर्मधारय समास पदद्वय अर्थात् जहां पूर्वपद एवं उत्तरपद दोनों एकार्थनिष्ठ अर्थात् एक ही वस्तु के वाचक हों वहां कर्मधारय समास होता है। यद्यपि अन्य वैयाकरणों ने इसे तत्पुरुष समास के अन्तर्गत माना है किन्तु सारस्वतकार इसे स्वतन्त्र मानते हैं। तथा इस हेतु सूत्र प्रस्तुत करते हैं-"कर्मधारयस्तुल्यार्थे-पदद्वये तुल्यार्थे एकार्थनिष्ठत्वेसति कर्मधारयसंज्ञकः समासो भवति ।" इस समास का उदाहरण दिया है --नीलोत्पलम्-नीलं च तदुत्पलं । यहां "नील" शब्द विशेषणभूत है तथा उत्पल शब्द विशेष्यभूत । नील शब्द विशेषण होने के कारण पूर्व में प्रयोग किया जाएगा। "गुणव्ययोराधाराधेयसंबन्धित्वात् एकार्थनिष्ठत्वम् (चन्द्रकीर्ति टीका, पृ० २६२)" के आधार पर कर्मधारय समास हुआ। "समास प्रत्यययोः" सूत्र से विभक्ति लोप होकर (उक्तार्थानामप्रयोगः) नियम के आधार पर नील उत्पल यह स्थिति हुई। "लिंगार्थे प्रथमा" सूत्र से प्रथमा एकवचन में "सि" विभक्ति प्राप्त हुई। "उ ओ" सूत्र से उकार को ओकार तथा "अतोऽस्" सूत्र से "सि" को अमादेश होकर "नीलोत्पलम्" रूप सिद्ध हुआ। कहीं समास होने पर तद्धित, कृदन्त प्रत्यय होने पर भी विभक्ति का लोप होता है तथा इस हेतु सूत्र दिया गया है--"अलुक् क्वचित् समासे तद्धिते कृदन्तेऽपि विभक्तेरलुग्भवति । "यथा-कृच्छान्नुक्तः ।" यहां तत्पुरुष समास हुआ। उक्त सूत्र द्वारा पूर्वपद की विभक्ति का लोप होकर "समास प्रत्ययोः" सूत्र से उत्तरपद की विभक्ति का लोप होने पर "लिंगार्थे प्रयमा" सूत्र से प्रथमा एकवचन में प्राप्ति सि (स) को विसर्ग होकर कृच्छान्मुक्त:/कुच्छात्मुक्तः रूप सिद्ध हुआ। निस्कर्ष समास प्रकरण के अन्तर्गत सारस्वतकार ने समास लक्षण, समासभेद इत्यादि का बड़े विस्तार से वर्णन किया है । यद्यपि अन्य व्याकरण ग्रन्थों में भी समास-प्रकरण को लिया गया है तथापि सारस्वत जैसी सरलता, बोधगम्यता कहीं देखने को नहीं मिलती। सारस्वतकार ने जिन छः समास भेदों का वर्णन किया,है उनका नाम तथा लक्षण पुनः यहां "समास दीपिका" में वर्णित श्लोकों द्वारा किया जा रहा है पूर्वऽव्ययेऽव्ययीभावोत्रमादो तत्पुरुषः स्मृतः । चकारबहलो द्वन्द्रः संख्यापूर्वो दिगुः स्मृतः।। यस्य येन बहुव्रीहिः स चासो कर्मधारयः । इति किंचित्समानां षण्णां लक्षणमीरितम् ।। (१३) इति । तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524584
Book TitleTulsi Prajna 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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