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________________ मागीटीकाकार के सम्मुख उपस्थित छह कठिनाइयां गिनाई गई है(१) सत्संप्रदाय (अर्थ बोध की सम्यक् गुरुपरंपरा) प्राप्त नहीं है । (२) सत् ऊह (अर्य की आलोचनात्मक कृति) प्राप्त नहीं है । (३) अनेक वाचनाएं हैं। (४) पुस्तकें अशुद्ध हैं। (५) कृतियां सूत्रात्मक होने से बहुत गंभीर हैं । (६) अर्य विषयक मतभेद भी है। --और पाठ संशोधन एवं अर्थ मीमांसा की पद्धति बताई गई है। चूणि और वृत्ति से उसमें संक्षेपीकरण और संशोधन की समस्या का हल निकाला गया है । पाठान्तर की परम्परा में मूलपाठ और व्याख्या पाठ के सम्मिश्रण को चीह्ना गया है। उच्चारण सुविधा, प्रवाहपातीपाठ, वर्णक और जावपद, इत्यादि की समस्याओं का समाधान करते हुए आगमों की भाषा पर सटीक टिप्पणी हुई है और समग्र दृष्टि से लिखा है- "भाषा शास्त्रीय दृष्टि से आगमों का अध्ययन बहुत अपेक्षित है । अतीत का अनुसंधान करना संपादन का एक पक्ष है। उसका दूसरा पक्ष है, वर्तमान युग की उपलब्धियों के आलोक में आगमिक तथ्यों का निरीक्षण और परीक्षण ।।" इस प्रस्तुत प्रकाशन में केवल प्राथमिक सकेत मात्र दिए हैं और उसके सम्पादक द्वारा निर्धारित नये (younger) और पुराने (older) पद पाठ भी प्राचीन और नवीन दोनों प्रकार की हस्त लेखों में मिलते हैं--(Further we can see that some times there are younger forms in the palm leaf Mss. which are dated earlier and sometimes there are older forms in the paper Mss. which are dated later---PP. 65-66)--- जिससे उनकी आधार भित्ति ही लचक जाती है। फिर भी डॉ० के. आर. चंद्र ने इस दिशा में प्राथमिक कार्य किया है, नया द्वार खोला है जिसके लिए हम उनके परिश्रम और अध्यवसाय की प्रशंसा करते हैं । २. स्व. बिमलप्रसाद जैन स्मृति के प्रकाशन-चेतना के गहराव में; शब्द... शब्द विद्या का सागर भोर मुक्तक शतक । लेखक --संत आचार्यश्री विद्या सागरजी । प्रकाशक-विजयकुमार जैन । मूल्य-चिंतन-मनन । आचार्यश्री विद्यासागरजी की परम शिष्या आयिका श्री दढ़मति माताजी के रोहतक (हरियाणा) आगमन के सुअवसर पर श्री विजयकुमार जैन ने अपने स्व. पिता श्री बिमलकुमार जैन की पुण्य स्मृति में आचार्यश्री विद्यासागरजी के काव्य-चेतना के गहराव में; नर्मदा का नरम कंकर; तोता क्यों रोता; डूबो मत लगाओ डुबकी और मुक्तकशतक का प्रकाशन किया है। ये प्रकाशन, इससे पूर्व जबलपुर (मध्य प्रदेश) तथा अमरावती, अजमेर से प्रकाशित हो चुके हैं। "मुक्तक शतक' प्रथम बार छप रहा है। __आचार्य विद्यासागर का जन्म नाम विद्याधर था किन्तु अपने गुरु आचार्य श्री ज्ञानसागर की असीम कृपा से उनका कवि, योगी, साधक, चिंतक, दार्शनिक आदि २३२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524584
Book TitleTulsi Prajna 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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