Book Title: Payaya Kusumavali
Author(s): Madhav S Randive
Publisher: Prakrit Bhasha Prachar Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ॐ नमो सुयदेवयाए । श्री प्राकृत भाषा प्रचार समिति, पाथर्डी (जि. अहमदनगर) के द्वारा प्राकृत भाषा प्राज्ञ परीक्षा के लिए नियुक्त पाययकुसुमावली प्रा. माधव. श्री. रणदिवे, एम्. ए. प्राकृत-पाली-विभागप्रमुख छत्रपति शिवाजी महाविद्यालय, सातारा वीर सं. २४९८) मूल्य रु. १५/पैसे (सन् १९७२ For Private And Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुवर्ण नामावली सदुपदेशक-परमश्रद्धेय आचार्यसम्राट् बालब्रह्मचारी पंडितरत्ना १००८ श्री आनन्द ऋषिजी महाराज माल आधारस्तम्भाः- श्री गुलशनराय अँड सन्स देहली आधार स्तम्भ- शाह केशवजी जवेरचन्द (जामनगरवाले) जालना, (महाराष्ट्र) श्रीमान् सोहनलाल जी जुगलकिशोरजी जोन लुधियाना, (पंजाब) परामर्शदाता- डॉ. आ. ने. उपाध्ये एस. ए.डी.लिट. डायरेक्टर ऑफ जैनालॉजी अँड प्राकृत म्हैसूर (वार्नावको मार्गदर्शक-प्राचार्य एम्. वाय. वैद्य, एम्. ए. विद्यार्थिनी कॉलेज, धुळे अध्यक्ष- श्रीमान् चंद्रभानजी रूपचन्दजो डाकलिया, श्रीरामपूर कार्याध्यक्ष श्रीमान् उत्तमचंदजी बोगावत (अॅडव्होकेट) अहमदनगर उपाध्यक्ष- श्रीमान् कांतीलालजी बाठिया पनवेल कोषाध्यक्ष- श्रीमान् चुनीलालजी गुगले, पाथर्डी मंत्री- (ट्रस्टमण्डल ) श्रीमान् सुगनचन्दजी कुचेरिया पाथर्डी मंत्री कार्यकारिणी- पं. बदरीनारायण द्वा. शुक्ल, पाथर्डी उपमंत्री-प्रा. मा. श्री रणदिवे. सातारा. For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ॥ ॐ नमो सुयदेवयाए ॥ श्री प्राकृत भाषा प्रचार समिति, पाथर्डी ( जि. अहमदनगर ) के द्वारा वीर सं. २४९८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राकृत भाषा प्राज्ञ परीक्षा के लिए नियुक्त बाययकुसुमाबली प्रा. माधव. श्री. रणदिवे, एम्. ए. प्राकृत - पाली - विभागप्रमुख छत्रपति शिवाजी महाविद्यालय, सातारा मूल्य रु.५० से For Private And Personal Use Only ( सन् १९७२ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकाशकपं. बदरीनारायण द्वारिकाप्रसाद शुक्ल मन्त्री-धीप्राकृत भाषा प्रचार समिति पाथर्डी (अहमदनगर) प्रश्रमावृत्ति १००० नम्र सूचन इस ग्रन्थ के अभ्यास का कार्य पूर्ण होते ही नियत समयावधि में शीघ्र वापस करने की कृपा करें. जिससे अन्य वाचकगण इसका उपयोग कर सकें. मुद्रकपं. बदरीनारायण द्वारिकाप्रसाद शुक्ल श्री सुधर्मा मुद्रणालय ८१० मंत्री गली, पाथर्डी (अहमदनगर) For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुरस्कार भारतीय प्राच्य भाषाओं में प्राकृत का अपना अनोखा स्थान है । प्राचीन तथा मध्ययुगीन भारतीय संस्कृति का अच्छी तरह से आकलन होने के लिए और आधुनिक भारतीय भाषाओं के यथार्थ अध्ययन के लिए प्राकृत का यथायोग्य अध्ययन होना अत्यावश्वक है । साहित्य के संपूर्ण पाखाओं से , विशेषतः कथात्मक साहित्य से प्राकृत सुसंपन्न है । माध्यमिक विद्यालयीन स्तर पर से व्याकरण के प्रावभमि पर प्राकृत भाषा और साहित्य की जानपहचान होने के बाद विद्यार्थियों को प्राकृत साहित्य के विविध क्षेत्रों में प्रवेश करने को विज्ञासा निर्माण होती है। मैं बहोत प्रसन्नता से पाहता है की मनोरंजक और उद्बोधक पाठ चुन कर तैयार की गयी यह 'वषयकुसुमावली' विद्यार्थियों की यह जिज्ञासा पूरी कर सकती है। इसके प्रत्येक पाठ के आरंभ में मूलग्रंथ, ग्रंथकार, समय, आदि के बारे में प्रास्ताविक लिखकर अन्त में कठिन शब्दार्थ तथा प्रत्येक पाठ का शब्दशः अनुवाद दिया है। इसलिए यह पुस्तक विद्यार्थियों में प्राकृत भाषा और साहित्य की दिलचस्पी निर्माण करेगा ऐसी मेरी प्रामाणिक श्रध्दा है । इसलिए मैं प्रा. मा. श्री. रणदिवे का अभिनन्दन करता हूँ। आजकल पाथर्डी में श्री प्राकृत भाषा प्राचार समिति अपने सामने बडे आदर्श रख कर अभिनन्दनीय कार्य कर रही है यह बात अत्यंत श्लाघनीय है । समिति के इस अंगिकृत कार्य में दिन-प्रतिदिन प्रगति हो और नवचैतन्य प्राप्त यही मेरी हार्दिक सदिच्छा है। कर्नाटक आर्टस् कॉलेज धारवाड ३१-५-१९७२ बी. के. खडबड़ी For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निवेदन श्रमण संस्कृति के प्रवर्तक भ. महावीर और भ. बुद्ध ने बहुजनहिताय बहुजनसुलाय ऐसा समतामयी मानवता का सन्देश आम जनता को समझाने के लिये उस समय की लोक भाषा प्राकृत-पाली के ही माध्यम से जगह-जगह घूम-घूम कर दिया। श्रमणसंस्कृति के इन प्राकृत-पालि भाषाओं का महत्त्व जानकर समाजशुभचिन्तक परमोपकारी पण्डितरत्न बालब्रह्मचारी आचार्यसम्राट् पूज्य श्री १००८ श्री आनन्दऋषिजी महाराज ने लुधियाना के चातुर्मास में वीर संवत् २४९२ ( इ. स. १९६६) के भाद्रपद शुद्ध पंचमी के शुभ अवसर पर इन भाषाओं के तौलनिक अध्ययन के लिये जो प्रेरणा दी, उसका फलस्वरूप पाथर्डी में श्री प्राकृत भाषा प्रचार समिति की स्थापना होकर तब स यह समिति कार्यान्वित हो गई। फरवरी १९६८ से प्राकृत भाषा प्रथमा और द्वितीया परीक्षा के द्वारा समिति का परीक्षण कार्य शुरू हुआ । इसके आगे बी. ए. ऑनर्स तक का अभ्यासक्रम ( प्राकृत प्राज्ञ, प्राकृत प्रवीण और प्राकृत प्रभाकर) भी तैयार किया गया है। समिति के आरंभकाल से ही प्रा. मा. श्री. रणदिवे अंत:करण से सहयोग दे रहे है । अगले प्राकृत माषा प्राज्ञ परीक्षा के लिए भी प्रा. रणदिवेजी ने 'पाययकुसुमावली' यह पाठ्यपुस्तक तैयार किया है इसलिये हार्दिक धन्यवाद ! For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्नाटक आर्टस् कॉलेज, भारवाड के प्राकृत विभाग प्रमुख डॉ. के. बी. खडबडी, एम्. ए. पी-एच्. डी. ने प्रस्तुत पुस्तक को पुरस्कार दे कर समिति के कार्य को उत्तेजना दी है । एतदर्ष हम उनके मनःपूर्वक आभारी है । प्राकृत भाषा द्वितीया परीक्षा पास तथा प्री-डिग्री और बी. ए. पार्ट फर्स्ट ( या सत्सम कक्षा ) के विद्यार्थियों को प्राकृत प्राज्ञ परीक्षा में बैठाकर अध्यापक तथा प्राध्यापक समिति के कार्य आगे बढावें यही सदिच्छा है । पापों ९ जून १९७२ पं. बदरीनारायण शुक्ल 'जैन सिद्धान्ताचार्य, सर्वदर्शनशास्त्री' मन्त्री तथा परीक्षाधिकारी श्री प्राकृत भाषा प्रचार समिति, पाथर्डी जि. अहमदनगर (महाराष्ट्र) For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुक्रमणिका पुरस्कार. निवेदन. कविलमुणिचरियं २. कालगायरियकहा विवागदारुणो मायाचारो कमलाई कद्दमे संभवंति ५. कुलवहू ६. थावच्चापुत्तस्स पावज्जा ७. दमयंतीसयंवरो ८. पदुमावदी उदअणस्स दिण्णा ... ९. मुक्खत्तणस्स पाहुडो १०. नमुक्कारप्पभावो ११. वज्जालग्गं १२. उज्जलसीलो दहमुहो १३. बोहिदुल्ल हकहा १४. अगडदत्तस्स सम्माणो १५. अप्पसरूवं १६. कप्पूरमंजरीसिंगारो १७. पवयणसारो कठिन शब्दार्थ मराठी भाषांतर शुद्धिपत्रक For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कविल मुणिचरियं 'उत्तरउझयणसुत्तं' ( उत्तराध्ययन सूत्रम् ) इस जैनागम के मूलसूत्र पर श्रीदेवेन्द्राचार्य या ( नेमिचन्द्रसूरि ) ने ई. स. १०७३ में सुखबोधा नाम की संस्कृत में टीका लिखकर पूर्ण की। उन्होंने श्लोकादि के स्पष्टी. करणार्थ प्राकृत ( जैन महाराष्ट्री ) में सविस्तर कथाएँ लिखी है यही इस टीकाग्रंथ की विशेषता है। उत्तराध्ययन में 'काविलियं' नाम के ८वें अध्याय पर टीका लिखते समय देवेन्द्रने प्रथम कपिलमनि की कथा दी है। लोभ का अमर्याद स्वरूप देखकर कपिल संसारविरक्त मुनि कैसे बना, यह वत्तान्त देवेन्द्र सूरि ने आकर्षक शैली में लिखा है। 'उत्तरज्झयणसुत्त' (उत्तराध्ययन सूत्रम् ) या जैनागमातील मूलसूत्रावर देवेंद्राचार्य किंवा ( नेमिचन्द्रसूरि ) यांनी ई. स. १०७३ मध्ये सुखबोधा नावाची संस्कृतात टोका लिहून पूर्ण केली. या टीकेचे वैशिटय म्हणजे श्लोकादींच्या स्पष्टीकरणार्थ त्यांनी प्राकृत (जैन महाराष्ट्री ) भाषेत लिहिलेल्या सविस्तर कथा होत. उत्तराध्ययनातील 'काविलिय' या ८ व्या अध्यायावर टीका लिहिताना देवेंद्रांनी प्रथम कपिलाची कथा दिली आहे. येथे लोभाचे अमर्याद स्वरूप पाहून तो संसार विरक्त मुनि कसा बनला, हे मोठ्या आकर्षक पद्धतीने सांगितले आहे. ) For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाययकुसुमावली तेणं कालेणं देणं समर्पणं कोसंबी नाम नयरी । जियसत्ते राया । कासवो बमणो चोद्दसविज्जाठाणपारगी, राइणा बहुमओं । वित्ती से उवकप्पिया । तस्स जसा नाम भारिया । तेसि पुत्तो 'कविलो नाम | कासवो तम्मि कविले खुडलए चेव कालगओ । " ताहे तस्मि मए तं पयं राइणा सोय आसेण छत्तेण य धरिज्जमाणेण परुन्ना । कविलेण पुच्छिया । ताए सिठ अन्नस्स मरुयगस्स दिन्नं । वच्चइ । तं दट्टण जसा जहाँ 'पिया ते एवंवि हाए डीए निम्गच्छियाइओ, जेण सो विज्जासंपन्नो' सो भणइसपने 'अह हा भणइ - 'इह तुमं सिक्खावेई 1X वच्च सावत्थीए नयरीए तत्थ नाम माहणो सो तुमं सिक्खावेही ।' मच्छरेण न कोइ पियमित्तो इंददत्तो नाल सो गओ सावत्थ । पत्तो य तस्समीवं निवडिओ चलणेसु । पुच्छिओ - 'कओ सि तुमं । तेण जहावत्तं कहियं विणयपुव्वयं च पंजलिउडेण भूणियं - 'भयवं, अहं विज्जत्थी तुम्ह तायनिव्विसेसाणं पायमूलं आगओ । ता करेह मे विज्जाए अज्झावणेण पसाओ ।' उवज्झाएण वि पुत्तयसिणेहं उब्वहंतेण भणियं । वच्छ, जुत्तो ते विज्जागहणुज्जमो)। विज्जाविहीणो पुरिसो पगुणो निव्विसेसो होई । इहपरलोए य विज्जा कल्लाणहेऊ । ता अहिज्जसु विज्जं । साहीणाणि य तुह सव्वाणि विज्जासाहणाणि । परं भोयणं मम घरे निष्परिग्गहत्तणओ नत्थि । तमंतरेण य न संपूज्जए पढणं ।' तेण भणियं - 'भिक्खामित्तेण वि संपज्जइ भोयं । उवज्झाएण भणियं - 'न भिक्खावित्तीहि पढि सविकज्जए । ता आगच्छ पत्थेमो कंचि इब्भं तुह भोयणनिमित्तं 1 For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कविलमणिचरियं • गया ते दो वितन्निवासिणो सालिभ इन्भस्स सयासं । प्रयोजण पुच्छिओ इन्भेण पयण उवज्झाएण भणियं - एस मे मित्तस्स पुत्तोकोसंबीओ विज्जत्थी आगओ । तुज्झ भोयणनिस्साए अहिज्जइ विज्जं मम सयासे । तुज्झ महंतं पुण्णं विज्जोवगाहकरणेण | सहरिसं च पडिवण्णं तेण । * वाढा सो तत्थ जिमिउं जिमिउं अहिज्जइ । दासचेडी य तस्स परिवेसेइ । सो य सभावेण हसणसीलो । विगारबहुलयाए जोव्वणस्स, दुज्जयत्तणओ कामस्स तीए अणुरत्तो सावि य तम्मि | भावना अन्नया दासीण महो आगओ । सा य उब्विग्गा अच्छइ । तेण पुच्छिया 'कओ ते अरई ।' तीए भण्णइ - ' दासीमहो उवट्टिओ । ममं वृत्तफुल्लाणं मोल्लं नत्थि । सहीण मज्झे विगुप्पिस्सं ।' ताहे सो अधिइं पगओ तीए, भण्णइ 'मा अधिरं करेहि । एत्थ धो नाम सेट्टी | अप्पाए चैव जो णं पढमं वद्धावेहि सो तस् दो सुवण्णमासए देइ । तत्थ तुमं गंतूण वद्धावेहि ।' 'आमंति तेण भणिए तीए लोभेण अन्नो गच्छिहि त्ति अइप्पभाए पेसिओ । वच्चते य आरक्खियपुरिसेहिं गहिओ बद्धो य । पहाराची • तओ पभाए पसेणइस्स सो उवणीको राशा पुच्छिओ । तेण सब्भावो कहिओ । राइणा भणियं 'जं मग्गसि तं देमि ।' सो भणइ - ' चितिउं मग्गामि । राइणा 'तह' त्ति भणिए असोगवणिया चितेउं आरद्धो । 'दोहिं मासेहिं वत्थाभरणाणि न भविस्संति, ता सुवण्णसयं मग्गामि । तेण वि भवणजाणवाहणारं न भविस्संति, ता सहस्सं मग्गामि । इमेण बि डिंभरूवाणं परिणयणाइवओ न पूरेइ ता लक्खं मग्गामि । एसो वि सुहिसयणबंधुसम्माणदीणा For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ * * * * * पाययकसमावलो णाहाइदाणविसिट्ठभोगोवभोगाण न पज्जत्तो, ता कोडि कोडिसयं कोडिसहस्सं वा मग्गामि ।' एवमाइ चिंतंतो सुहकम्मोदएण तक्खणमेव सुहपरिणाम उवगओ संवेगं आवन्नो लग्गो परिभाविउं - 'अहो लोभस्स विलसियं। दोण्ह सुवण्णमासाण कज्जेण आगओ लाभं उवट्ठियं दट्ठण कोडीहिं पि न उवरमइ मणीरहो। अन्नं च, विज्जापढणत्थं विदेसं आगओ जाव ताव अवहीरिऊण जणणि अवगणिऊण उवज्झायहियउवएसं अवमण्णिऊण कुलं एईए इयर-- रमणीए जाणमाणो वि मोहिओ । ता अलं सुवण्णेण, अलं विसयसंगण, अलं संसारपडिबंधेण ।' एवमाइ भावेमाणो जाई सरिऊण जाओ सयंबुद्धो । सयमेव लोयं काऊण देवयाविदिन्नगहियायारभंडगो आगओ राइसगासं । राइणा भणियं-'किं चितियं ।' तेण य निययमणोरहवित्थरो कहिओ । पढियं च 'जहा लाभो तहा लोभो लाभा लोभो पवड्डइ । दोमासकयं कज्जं कोडीए वि न निट्ठिय ।।' राया पहट्ठमणो भणइ-कोडि पि देमि, गिण्हसु अज्जो।' इयरेण भणियं-पज्जत्तं अत्थेण । परिचत्तो मए घरवासो।' तओ धम्मलाभिऊण रायाणं निग्गओ नयरीओ। छम्मासाणंतरं च उप्पन्नं से केवलं नाणं। ( उत्तराध्ययनसूत्र-सुखबोधा टीका. पा. १२३-१२५) For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालगायरियका ( ख्यातनाम जैनाचार्य श्रीकालकसूरि का जीवनकाल वीर संवर ४०० से ४६५ तक ( ई. स. पू. १२६ से ६१ तक ) माना जाता है। इस महान् आनार्य की बोधपरक जीवन-कथा अनेक जैनाचार्यों ने प्राकृत, संस्कृत तथा गुजराती भाषाओं में रोचक शैली में गद्य तथा पद्य में लिखी है । सर्वप्राचीन कथा श्रीजिनदास महत्तर विरचित निशीथचूणि तथा आवश्यकचणि ( संवत् ७३३ ) में मिलती है। श्री भद्रबाहुस्वामि, मलधारी हेमचन्द्रमूरि, श्री भद्रेश्वर, श्री धर्मघोषसूरि, अज्ञालसूरि, श्री विनयचन्द्रसूरि आदि ने प्राकृत में, देवेन्द्रसूरि, श्री रामभद्र, महेश्वरसूरि, आदि ने संस्कृत में तथा श्री रामचन्द्रसूरि और,श्री गुणरत्नसुरि ने प्राचीन गुजराती में कालक. कथा लिखी है । उन विविध कथाओं के माधार से विद्यार्थियों के लिए मैने सुलभ प्राकृत ( जैन महाराष्ट्रो ) में इस कथा की रचना की है। श्री साराभाई मणिलाल नवाब ( अहमदाबाद ) ने श्री कालक-कथा-संग्रह के दो भाग ई. स. १९४९ में प्रकाशित किये हैं। पहले भाग में उन्होंने अंग्रेजी में विविध कथाओं का तौलनिक विवेचन किया है और इसमें प्रसंगानुरूप प्राचीन सुन्दर सुन्दर चित्र भी दिये हैं । दूसरे भाग में प्राकृत संस्कृत और गुजराती भाषा में लिखी गयी विविध कथाएँ संग्रहीत की है । इस कथा For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाययकुसुमावली में राजपुत्र कालक ने विरागी बनकर मुनिदीक्षा ली, फिर गृहस्थी वेष धारण कर शकराजा की मदत से भगिनी सरस्वती साध्वीकी दुष्ट गर्दभिल्ल राजा के अंतःपुर से छुटका की और फिर संयम धारण किया यह रोचक वृतान्त है । पर्युषण पर्व के दिन में बदल और शकराजा के भारत में प्रवेश का ऐतिहासिक वृत्तान्त भी हमें यहाँ मिलता है । सुप्रसिद्ध जैनाचार्य श्री कालसूरी यांचा जीवनकाल वीर संवत् ४०० ४६५ पर्यंत ( इ. स. पूर्व १२६ से ६१ मानला जातो' अनेक जैनाचार्यानी या थोर कालकाचार्यांची कथा प्राकृत, संस्कृत व गुजरातीमध्ये गद्य आणि पद्यात आकर्षक शैलीमध्ये लिहिली आहे. त्यांची सर्वात प्रथम कथा श्री. जिनदास महत्तर विरचित निशीथचूर्णी आणि आवश्यकचूर्णीमध्ये ( संवत् ७३३) मिळते. श्री. भद्रबाहुस्वामी, मलधारी श्री. हेमचन्द्रसूरी, श्री. भद्रेश्वर, श्री. धर्मघोषसूरी, श्री. अज्ञातसूरी, श्री. विनयचंद्रसूरी, इत्यादींनी प्राकृतात, श्री देवेंद्रसूरी, श्री. रामभद्रसूरी इत्यादींनी संस्कृतात. तसेच श्री रामचद्रसूरी आणि श्री गुणरत्नसूरींनी प्राचीन गुजरातीत कालक कथा लिहिली. या विविध कथांच्या आधाराने विद्यार्थ्याकरिता मी सुलभ प्राकृतात ( जैन महाराष्ट्री ) मध्ये ही कमा पुनः लिहिली आहे. श्री. साराभाई मणिलाल नबाब ( अहमदाबाद ) यांनी श्री कालक- कथा संग्रहाचे दोन भाग ई. स. १९४९ मधे प्रकाशित केले, त्यांनी पहिल्या भागात इग्रजीमध्ये विविध कथांचे तोलनिक विवेचन केले असून प्रसंगानुरूप त्यात प्राचीन सुंदर चित्रेही दिली आहेत. दुसन्या भागात प्राकृत, संस्कृत वा गुजरातीत विविध कथांचा संग्रह केला आहे. या कथेत कालकराजपुत्रानें विरागी बनून मुनिदीक्षा घेतली व पुनः गृहस्थी वेष घेऊन शकराजाच्या मदतीने आपली भगिनी साध्वी सरस्वतीची दुष्ट गर्दभिल्ल राजाच्या अंतःपुरातून सुटका केली आणि पुन: संयमात स्थिर झाले. हा वृत्तांत दिला आहे. पर्युषणपर्व दिवसाचा बदल आणि शकराजाचा भारतात प्रवेश हा ऐतिहासिक वृत्तांतही आपणास येथे मिळतो. ) For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गाय रियकहा अस्थित्व भारहे वासे धारावासं नयरं अमरावईसरिसं । तत्थ आसि सिंह व्व वेरिसिंहो नरेसरो । सुरसुंदरि त्ति से गुणसीलकलिया रूववई देवी । तीसे कुच्छीए सुत्तीए मोत्तियं व कालगो नाम महागुणो कुमारो जाओ । नामेण गुणेहि य तस्स सरस्सई नाम बहिणी । * * अह अन्नया कुमरो कीलाए बहिरुज्जाणे गओ । तत्थ चूय पायवरस हेट्ठा तेण दि गुणधरो नाम आयरिओ । विणण पाए वंदिऊण सो गुरुदेसणं सुणइ । 'अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः । नाही. नित्यं संनिहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्मसंग्रहः ॥ 3 इत्यादी इच्चाइ धम्मदेसणं सोऊण कुमरो परिबुद्धो सरस्सईइ संजुत्तो पव्वइओ य । अइरेण सुयणाणं पढिय सो गीयत्थो जाओ । 'जोग्गो "त्ति कलिऊण सूरिवरेण सो सूरिपए ठिओ । गामाणुगामं भव्वाणं पडिबोहणं कुणंतो बहुसीसपरीवारो कालगसूरी उज्जर्याणि पत्तो । चारुचारित्तभूसणा अज्जिया सरस्सई वि साहुणी समं तत्थ गया । तहि महाबलि इत्थीलोलो गद्दभिल्लो राया । तेण सा रुवसुंदरी दिट्ठा । 'जइ हंत इमा वि वयं करेइ परिचत्तरइसुहा बाला । तो विहलपुरियारो किह अज्ज वि वम्हहो जियइ ॥ ' ति चितिऊण कामग्गहगहिल्लेण तेण दुटुण gig For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * * * * * पाययकुसुमावली 'हा सुगुरु, हा सहोयर, हा पवयणनाह, कालय मुणिंद । चरणधणं हीरंतं मह रक्ख रक्ख अणज्जनरवइणो ।' इञ्चाइ विलवमाणी अणिच्छमाणी य सा साहुणी बला घेत्तूण ओरोहे छ। अह कालगसूरी विहु कह वि एवं वइयरं नाऊण नरिंदपासे गंतूण कोमलगिराहिं भणइ 'सारयाण चंदो इंदो जह सुरगणाण नरनाह । तह लोयाण पमाणं तं चिय ता कह इमं कुणसि ।। अन्नाण वि परजुवईण राय-संगो दुहवहो चेव । जो लिंगिणीण संगो सो पुण गरुयं महापावं ।। बहुनरवरधूयासंगमे वि निव गओसि न परिओसं । निरवणो य रिसीण धम्म वड्डति न मुसंति ॥ तो चितिऊण् इमाइ मुंच सयमेव मह बहिणिं ।' इच्चाइ जुत्तिजुत्तं सूरिणा नराहिवो भणिओ वि न मुयइ साहुणि'। जहा महोसही खीणाउसं तहा सूरिणो संघस्स मंतीणं च संबोहणं मिच्छं जायं) तओ रुट्टो कालगसूरी पईण करेइ-'पुढेवीए बद्धमूल पि गद्दभिल्लनिवरुक्खं पर्वणो' व्व् जडू न उम्मूलेमि, तो पवयणसंजमोवग्यायगाण तमुवेक्खाण य गई गच्छामि ।' ताहे कईयवेण कय:म्मत्तिगवेसो कालगज्जो हिंडइ नगरमज्झे असंबद्धपलवंतो 'जइ गद्दभिल्लो राया तो किमतः परं । जइ वा अंतेउरं रम्म तो किमः परं ॥ For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालगायरियकहा * * * * * विसओ जइ वा रम्मो, तो किमतः परं । सुणिवेटा पुरी जइ तो किमतः परं । 3GH रातो जइ वा जणो सुवेसो तो किमतः परं । जइ वा हिंडामि भिक्खं तो किमतः परं । जइ सुण्णगिहे सुमिणं करेमि तो किमतः परं ।' अह पारसकुलं गंतूण सूरी इनकसाहिणा ( मंतिणा ) सह साहाणुसाहिणो ( राइणो ) सहाइ वच्चइ सव्वस्स सुहइ बुल्लइ ।। एवं सो वयणरसेण रायप्पमहलोयं, रंजइ/ विज्जाइगुणेहि गुरु त्ति सगराइणा पडिवन्नी । तत्तो सूरिवयणाओ सयलसंगसाहिणो दुगदृभिल्लेण सह जुज्झिउं निग्गया। अह तेसु चलंतेसु गिरिणो धुज्जति, धरणी थरहरइ, धूलीहिं च झंपिओ सूरो। कमेण सिंध-- नई उत्तरिऊण ते सुरट्रमंगले पत्ता। भार॥ अह पाउसम्मि पत्ते से ठिया तत्थ1 वटुंते सरयसमए लाडारायाणो जे गद्दभिल्लेण अवमाणिया ते मेल्लेउं अन्ने य तओ उज्जेणि रोहति । एगया रयणीइ सुन्नमणं सूरि पासित्ता सासणूदेवया शुणइ-- 'मुणिवर, दुक्खं मा धरसु नियहियए । सीलेण सीयासरिसंसर-- स्सइं जाण, तस्सीलपभावेण तुह् जयपत्तं होहि' त्ति अइंसणं पत्ता अह पांगारं सुन्नं ददै णे सगाइराईहि सूरी पुट्ठो। तो साहिय . गद्दभीविज्जो सूरी कहेइ-'अज्ज अट्ठमी दिणो। राया गद्दभिल्लो विहियउवव सो गद्दर्भ विज्जं साहइ । ताहे सा गद्दभी महंतेण सद्देण For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १० * * * * * पाययकसमावली णादइ । तिरिओ मणुओं वा जो परबलिच्चो सदं सुणइ स सव्वो रुहिरं वमंतो भयविहलो नट्ठसन्नो धरणियले निवडइ ।' तओ सूरिणो आएसेण जाव सा गद्दभी मुहं उप्पाडिय सदं न करेइ ताव जोहेहिं अप्पणो वाणेहिं तोए मुहं पूरियं । हयसत्ती सा गद्दभिल्लुवरि हग्गिउं मुत्तेउं च लत्ताहि य हंतूण गया। ____ जोहेहिं पुरी गहिया । गद्दभो व्व बंधिउं आणिओ गद्दभिल्लो। सूरिणा तज्जिओ - रे दुरायार, भवंतरे पावतरुपुप्फ पाविहिसि अओ य नरयफलं ।' खमिऊण य गद्दभिल्लो उज्जणीओ निद्धाडिओ । सगराया रज्जे ठविओ भणिओ य-'सगराय, नाई पयावच्छलो होहि। धम्मेण रज्ज पालेहि । धम्मेण रज्जं अमरं होही अधम्मेण य विणस्सहि त्ति मा विसुमरसु।' अह सूरिणा अप्पा संजमे ठविओ। सा वि भइणी सरस्सई पायच्छित्तेण संजमे सुज्झविया । ( विविहकालग-कहाहितो संगहिऊण ) For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विवागदारुणो मायाचारो ई. स. ८ वें शतक में हरिभद्रसूरि नाम के एक महान् जैनाचार्य हुए। पहले वे बड़े विद्वान् तथा दृढ़ वैदिकधर्मी ब्राह्मण थे। चित्रकूट में जितारि राजा के आश्रय में वे पुरोहित थे। उन्मत्त हाथी के आक्रमण से बचने के लिए उन्होंने जिनमदिर का आश्रय लिया और याकिनी महत्तरा के सदुपदेश से जैनधर्म अंगीकार किया। वे बडे आचार्य बन गये। उन्होंने संस्कृत और प्राकृत में विपुल ग्रंथ-रचना की है । समराइच्चकहा' (समरादित्यकथा) नाम की उनकी प्राकृत में प्रदीर्घ और बोधप्रद धर्मकथा है । उस ग्रंथ के दूसरे भव में मायाकषाय का स्वरूप दिखाने के लिए उन्होंने अमरगुप्तमनि की उपकथा कही है। यहाँ अमरगुप्त का पहला सोमानामक रुद्रदेव की पत्नी का भव दिया है । विषयासक्त रुद्रदेव ने अपने सुखोपभोग में व्यत्यय देखकर मायाचार से सम्यक्त्वी सोमा को कैसे मारा, यह वृत्तांत है। इ. स. च्या ८ व्या शतकात हरिभद्रसूरी नावाचे एक थोर जैनाचार्य होऊन गेले. प्रथम ते मोठे विद्वान् कट्टर वैदिकधर्मी ब्राह्मण होते. ते चित्रकटात जितारीराजाच्या पदरी पुरोहित होते. उन्मत हत्ती पासून बचावण्याकरिता त्यांनी जिनमंदिराचा आश्रय घेतला आणी याकिनी महत्तराच्या सदपदेशाने जैनधर्म स्वीकारला, ते मोठे आचार्य बनले, त्यांनी संस्कृत व For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२ * * * * * पाययकुसुमावली प्राकृतात विपुल ग्रंथरचना केली आहे त्यांची' समराइच्चकहा, (समरादित्यकथा ) नावाची प्राकृतात प्रदीर्घ अशी बोधपर धर्मकथा आहे. त्यातील दुसन्या भवात मायाकषायाचे स्वरूप दाखविण्याकरिता अमरगुप्ताची उपकथा सांगितली आहे. येथे अमरगुप्ताचा पहिला सोमानावाच्या रुद्रदेवाच्या पत्नींचा भव दिला आहे, विषयलोलुपी रुद्रदेवाने विषयसुखात अडथळा येत असल्यामुळे सम्यक्त्वी सोमाला मायाचाराने कसे ठार केले, ही हकीकत आहे. ) अत्थि इहेव विजए चंपावासं नाम नयरं । तत्थाईयसमयम्मि सुधणू नाम गाहावई होत्था । तस्स घरिणी धारिणी नाम । ताण य सोमाभिहाणा सुया आसि । संपत्तजोव्वणा य दिना तन्नयरनिवासिणों नंदसत्थवाहपुत्तस्स रुदेवरस । कओ य जेण विवाहो । ते जहाणुरूवं विसयसुहमणुहवंति । __ एगया तत्थ अहाकप्पविहारेण विहरमाणा विविहतवखवियदेहा सुयरयणपसाहिया रूवि व्व सासगदेवया समागया बालचंदा नाम गणिणी । दिट्ठा य सा तीए ससुरकुलाओ नाइकुलमहिगच्छंतीए विहारनिग्गमणपएसे । तं च दट्ठ ण तीए समुप्पन्नो पमोओ, वियसियं लोयणेहिं, पणट्ठ पावेण, ऊससियमंगेहि, वियंभियं धम्मचित्तेणं । तओ तीए नाइदूरओ चेव विणयरइयकरयलंजलीए सबहुमाणमभिवंदिया भयवई। तीए वि य दिन्नो सयलसुहसस्सबीयभूओ धम्मलाभो । जायाओ य तीए तं पइ अईव भत्तिपीईओ। पुच्छिओ तीए भयवईए पडिस्सओ। साहिओ साहुणीहिं । तओ सा जहोचिएण विहिणा पच्जुवासिउं पवत्ता । साहिओ तिस्सा भयवईए कम्मवणदावाणलो दुक्खसेलवज्जासणी सिवसुहफलकप्पपायवो वीयरागदेसिओ धम्मो । तओ कम्मक्खओवसमभावओ For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विवागदारुणो मायाचारो * * * * १३ पत्तं सम्मत्तं, भाविओ जिणदेसिओ धम्मो। विरत्तं च तीए भवचारयाओ चित्तं । __ तओ सो रुदृदेवो कम्मदोसेण पओसं काउमारद्धो। भणियं च तेण-परिच्चय एवं विसयसुहविग्यकारिणं धम्मं ।' तओ सोमाए भणियं-'अलं विसयसुहेहिं, अइचंचला जीवलोयठिई, दारुणो य विवागो विसयपमायस्स ।' तेण भणियं-वियारिया तुमं, मा दिट्ठ परिच्चइय अदिट्ठ रई करेहि ।' तीए भणियं-किमेत्थ दिट्ठ नाम । पसुगणसाहारणा इमे विसया । पच्चक्खोवलब्भमाणसुहफलो कहं अदिट्ठो धम्मा त्ति । तओ सो एवमहिलप्पमाणो अहिययरं पओसमावन्नो । परिचत्तो य तेण तीए सह संभोगो । वरिया य नाग - देवाभिहाणस्स सत्थवाहस्स धूया नागसिरी नाम कन्नगा । न संपाइया तायबहुमाणेणं नागदेवसत्थवाहेण । रुद्ददेवेण चितियं'न एयाए जीवमाणीए अहं भारियं लहामि, ता वावाएमि एयं ।' तओ मायाचरिएणं रुद्ददेवेणं कहिंचि घडगयमासीविसं काऊण संठविओ एगदेसे घडओ। अइक्कंते पओससमए संपत्ते य कामिणि जणसमागमकाले भणिया सा तेण-' उवणेहि मे इमाओ नवघडाओ कुसुममालं' ति । तओ सा तस्स मायाचरियमणवबुज्झमाणा गया घडसमीवं । अवणीयं तस्स दुवारघट्टणं धरणिमाऊलिंगं । तओ हत्थं छोढूण गहिओ भुयंगा । डक्का सा तेण । तओ तं ससंभमं' उज्झाऊण सज्झसभयवेविरंगी समल्लीणा तस्स समीवं । 'डक्क भुयंगमेणं' ति सिट्ठ रुद्ददेवस्स । नियडीपहाणओ य आउलीहओ रुद्ददेवो। पारद्धो तेण निरत्थओ चेव क लाहला । For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाययकुसुमावली * * * * * १४ एत्थंतरम्मि बीइयं सीए अंगेहि, वियलियं संधीहिं, उव्वत्तियं पिव हियएण, भमियं पिव पासायंतरेण, परिवत्तियं पिव पुहवीए। अवसा सा निवडिया धरणिवट्ठ । अओ परमणाचिवखणीयमवत्थंतरं पाविऊण पुव्वसम्मत्ताणुभावओ चइऊण देहं सोहम्मकप्पे लीलावयंसए वरविमाणे पलिओवमट्टिई देवत्ताए उववन्ना सा । तत्थ य सो देवो पवरच्छरापरिगओ दिब्वे भोए उवभुंजइ । तओ रुद्ददेवो वि तं नागदत्तसत्थवाहधूयं परिणीय तीए सद्धि जहाणुरूवे भोए उवभुंजइ। सो कालमासे कालं काऊण रयणप्पभाए पुढवीए खट्टक्खडाभिहाणे नरए पलिओवमाऊ चेव नारगो उववन्नो। ( सिरिहरिभद्दसूरिविरइया समराइच्चकहा-बीओ भवो) (पा. ८३-८४) For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कमलाई कद्दमे संभवंति ( ई. स. ५ या ६ शतक में 'वसुदेवहिंडी' स प्राचीन प्राकृत कथासाहीत्य की रचना हुई । इसमें दो भाग हैं। पहला भाग श्री संघवासगणि ने और दूसरा भाग श्रीधर्मसेनगणि ने लिखा है। इनमें विविध दृष्टांत कथाएँ तथा धर्म-कथाएँ हैं। यहाँ जंबूनामक श्रीमान् वणिकपुत्र अपने नव-विवाहित बत्तीस स्त्रियों के साथ विरागी बनने के लिए वाद कर रहा था। उसी समय उसका धन लूटने के लिए आए हुए कुप्रसिद्ध डाकू प्रभव ने उससे कहा, इन बहिनों के साथ सुखोपभोग भोगते गृहस्थाश्रम का पालन करो। तब संसार में वासनावश मनुष्य अज्ञान से कैसा अघोर--पाप कर सकता है इसका जंबूकुमार इस कथा द्वारा स्पष्टोकरण कर रहा है । इ. स. ५ व्या किंवा ६ व्या शतकात 'वसुदेवहिंडी' या प्राचीन प्राकृत कथासाहित्याची रचना झाली . याचे दोन भाग असून पहिला भाग श्रीसंघदासगणींनी व दुसरा श्रीधर्मसेनगणींनी लिहिला. यात अनेक दृष्टांतकथा व धर्मकथा आहेत . येथे जंबू नावाचा श्रीमान् वणिक्पुत्र आपल्या नवविवाहित बत्तीस स्त्रियांशी विरागी बनण्याबद्दल वाद घालीत आहे, त्याच वेळी त्याची संपत्ती लुटण्याकरिता आलेल्या कुप्रसिद्ध प्रभव चोराने ही 'त्यास संसारात For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ * * * * * पाययकसमावली राहून या बहिणीसह सुखोपभोग भोगत रहा' असे सांगितले तेव्हा संसारात वासनेच्या आधीन गेल्यामुळे माणूस आज्ञानाने 'कस-कसे अघोर पातक करतो' ते या कथेच्या द्वारा जंबू कुमार समजावून देत आहे.) महुराए नयरीए कुबेरसेणा गणिया । पढमगब्भदोहलखेइया सा जणणीए तिगिच्छगस्स दंसिया। तेण भणिया-जमलगभ.दोसेण एईसे परिबाहा । नत्थि कोइ वाहिदोसो दीसई ।' एवमुवलद्धत्थाय जणणीए भणिया -'पुत्ति, पसवणकालसमए मा णे सरीरपीडा भवेज्जा) गालणोवायं गवेसामि । तओ निरामया भविस्ससि । परिभोगबाहाओ य न होहिइ । गणियाण य किं पुत्तभंडेहिं । तीए न इच्छियं । भणइ-'जायपरिच्चायं करिस्सं ।' तहाणुमए य समए पसूया दारगं दारिगं च । जणणीए भणिया 'उज्झिज्जंतु तीए भणिय-'दसरायं ताव पूरिज्जउ ।' । तओ य णाए दुवे मुद्दाओ कारियाओ, नामंकियाओ कुबेरदत्तो कुबेरदत्ता य । अईए दसराईए डहरिकासु नावासु सुवण्णरयणपूरियासु छोढूण जउणानई पवाहियाणि । कुभंताणि य भवियव्वयाए सोरियनयरे पच्चूसे दोहिं इन्भदारएहि दिट्ठाणि । धरियाउ नावाउ। गहिओ एगेण दारगो, इक्केण दारिया । सधणाई ति तु?हिं सयाणि गिहाणि नीयाणि त्ति । कमेण परिवड्डियाणि पत्तजोव्वणाणि। जुत्तसंबंधो' त्ति कुबेरदत्ता कुबेरदत्तस्स दिन्ना । कल्लाणदिवसेसु य वट्टमाणेसु वहुसहीहिं वरेण सह जूयं पओजियं । नाममुद्दा य कुबेरदत्तहत्याओ For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कमलाई कद्दमे संभवंति * * * * * १७ गहेऊण कुबेरदत्ताए हत्थे दिन्ना । तीसे पेच्छमाणीए सरिसघडणनामओ चिंता जाया 'केण कारणेण मन्ने नाममुद्दाकारसमया इमासि मुद्दाणं । न य मे कुबेरदत्ते भत्तारचित्तं, न य अम्हं कोई पुत्वज्जो एयनामो सुणिज्जइ । तं भवियव्वं एत्थ रहस्सेणं' ति चितेऊण वरस्स हत्थे दो वि मुद्दाउ ठावियाओ। ___ तस्स वि पस्समाणस्स तहेव चिंता समुप्पन्ना ! सो बहूए मुई अप्पेऊण माउसमीवं गओ । सा य णेण सवहसाविया पुच्छियातपए जहासुयं कहियं । तेण भणिया-'अम्मो, अजुत्तं तुब्भेहिं कयं' ति । सा भणद-मोहिया मो, तं होउ पुत्त ! वहू हत्थग्गहणमेत्तदूसिया । न एत्थ पावगं ।। अहं विसज्जेहामि दारिगं सगिह। तव पुण दिसाजत्ताओ पडिनियत्तस्स विसिट संबंधं करिस्सं ।' एवं वोत्तूण कुबेरदत्ता सगिहं पेसिया । मेलीइ वि जणणी तहेव पुच्छिया,तोए जहावत्तं कहियं । सा तेण निव्वेएण समाणी पब्वाइया । पवत्तिणीए सह विहरइ । मुद्दा य णाए सारक्खिया पवत्तिणिवयणेण । विसुज्झमाणचरित्ताए ओहिनाणं समुप्पन्नं । आभोइओ य णाए कुबेरदत्तो कुबेरसेणाए गिहे वत्तमाणो। 'अहो ! अन्नाणदोस' त्ति चितेऊण तेसि संबोहनिमित्तं अज्जाहिं समं विहरमाणी महेर गया। कुबेरसेणाए गिहे वसहि मग्गिऊण ठिया। तीए बंदिऊण भणिया 'भगवईयो, अहं केवलं जाईए गणिया, न उण समायारेण ।जओ सपयं सुकुलवहु व्व एक्कपुरिसगामिणी हं । असंकिया मह वसही। ता अच्छह मम अणुग्गहं काऊणं ति । ठियाओ For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८ * * * * * पाययकूसमावली य ताओ तत्थ । तीसे य दारगो बालो सा तं अभिक्खं साहुणीसमीवे निक्खिवइ । तओ तेसिं खणं जाणिऊण अज्जा पडिबोहनिमित्तं दारगं परियंदेइ 'बॉलय, भायो सि मे देवरो सि मे पुत्तो सि मे । सवत्तिपुत्तो भतिज्जाओ सि पित्तिज्जो सि ॥ १॥ जस्स आसि पुत्तो सो वि मे भाया । भत्ता पिया पियामहो ससुरो पुत्तो वि ।। जीसे गब्भजो सि सा वि मे माया । सासू सवित्ती भाउज्जाया पियामही वहू ।। ३ ।। संच तहाविहं परियंदणयं सोऊण कुबेरदत्तो वंदिऊणं पुच्छइ "अज्जे, कह इमं च कस्स विरुद्धमसंबद्धकित्तणं । उदाहु दारगविणोयणत्थं अअज्जमाणं भणियं ।' एवं पुच्छिए अज्जा भणइ'सावग, सच्चं एयं में तओ य णाए ओहिणा दिदै तेसि दोण्ह वि जणाणं सपच्चयं कहियं । मुद्दा य इंसिया। कबरदत्तो य तं सौऊण जातिव्वसंवेगो 'अहो! अन्नाणेण अपदं कारिओ' त्ति विभवं दारगस्स दाऊणं अज्जाए कयनमोकारो 'तुम्हेहिं मे कओ पडिबोहो, करिस्सं अत्तणो पत्थं' ति तुरियं निग्गओ । साहुसमीवे गहियलिंगाज्यारो अपरिवडियवेरग्गो तवो-- वहाणेहिं विगिट्ठहिं खवियदेहो गओ देवलोयं। कुबेरसेणा वि गहियगिहिवास जोगनियमा साणुक्कोसा ठिया। अज्जा वि पवत्तिणीसमीवं गया। ( सिरिसंघदासगणि वायगविरझ्यावसुदेवहिंडी पा.-१-१०-१२ ) 16 aKAHANI For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुलवहू (धी जयसिंहसूरि ने 'धर्मोपदेशमालाविवरण' नामकधर्म कथा ग्रंथ की रचना ई. स. ८५८ में की है। इसमें ९८ प्राकृत गाथाएँ हैं। उनमें निर्दिष्ट की गई कथाएँ विवरण में विस्तार से कही हैं। इसमें गद्य-पद्य मिश्रित अनेक उपदेशात्मक धर्मकथाएँ हैं। यहाँ जवानी के उन्माद से विच. लित हुई कुलवधू को कर्तव्यतत्पर बना कर शीलपालन में कैसे स्थिर किया, यह कहा है। श्री. जयसिंहसूरींनी 'धर्मोपदेशमालाविवरण' या धर्मकथाग्रंथाची रचना इ. स. ५५८ मध्ये केली. यात मळ ९८ प्राकृत गाथा असून गाथांमध्ये निर्दिष्ट केलेल्या कथा विवरणामध्ये विस्ताराने सांगितल्या आहेत. यात गद्य-पद्यमिश्रित उपदेश वजा अनेक धर्मकथा आहेत. येथे तारुण्यसुलभ उन्मादाने विचलित झालेल्या कुलवधूस कर्तव्यतत्पर बनवून शील पाळण्यात कसे स्थिर केले आहे, हे सांगितले आहे.) पुंडवद्धणे नयरे एगो इब्भजुवाणओ संपुण्णजोव्वणं नियय-२ जायं मोत्तूण गओ देसंतरं । समइक्कंताणि एक्कारस वासाणि । For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २० * पाययकुसुमावली अन्नया_सयललोगउम्माह्यजणणे कुसुमरयरेणुगभिणे वियंभियदाहिणाणिले ससुच्छलियकलयले मणहचच्चरिसद्दाणंदियतरुणयणे पयट्टे महुसमए सहियायणपरिवुडा गया बाहिरुज्जाणं बहू । दिद्वाणि सिणेहसारं चक्कवायमिहुणयाणि दीहियाए रमताणि, अन्नत्थ य सारसमिहुणाणि । पुलइओ हंसओ हंसियमणितो । तओ कामकोवणयाए वसंतस्स, रम्मयाए काणणस्स, रागुक्कडयाए परियणस्स, अगभववभत्थयाए गामधम्माणं विगारबहुलयाए जोव्वणस्स चंचलयाए इंदियाणं, महावाही दिन पडियमहादुक्खो विभिओ सव्वंगिओ विसमसरो । चितियं च णाए - वोलिणो तेण निच्चएण दिन्नो अवही, न संपत्तो, ता पवेसेमि जुवाणयं किंचि ।' भणिया एएण वइयरेण रहस्समंजूसियाभिहाणा चेडी । तीए भणियं , www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * } ★ एत्तियकाल परिरक्खिऊणमा सीलखंडण कुणसु । को गोपयम्मि बुडुइ जर्लाहि तरिऊण बालो वि वहुए भणियं - 'हले, संपयं न सक्कुणोमि अणंगबाणघायं, ता किमेत्थ बहुणा । पवेसेसु किंपि ।' तीए भणियं - 'जइ एवं ता मा झुरसु सनीहियं । ' तओ साहिओ एस वृत्तंती सासूए वि तीए सह कवडकलहं काऊण भणिया सासू घरपालणस्स जोग्गा, ता परिवज्जसु सव्वं तुमं ।' करेमि भे तीए वि भतुणो । तेण बहू - ' वच्छे न एसा तव ' एवं ' ति पडिवन्ने निरूविया सव्वेसु गेहकायव्वेसु । तओ For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra * " www.kobatirth.org * कुलवहु २१ | रेयणीए चरमजामे उबट्टिऊण तंदुलाइखंडणपीसणसोहण रंधणपरिवेसणाईणि अन्नाणि य अणेगाणि कायव्वाणि जहन्नमज्झिमुत्तमाणि करेंतीए कुसुमाभरणवत्थतंबोलविलेवणविसिद्वाहाराइरहियाए कमेण पत्तो रयगीए पढमजामो । भुत्तं सीयललुक्खमणुचियं भोयणं । अच्चंत खिन्ना पसुत्ता एसा । एवमणुदिणं करेंतीए पणट्टरूवलायतंबोलविले वणवम् महाए वोलिणों कोइ कालो । 'अवसरो' त्ति काऊण भणिया दासचेडीए- किं आणेमि पुरिसं । तीए भणियं 'हले, मुद्धिया तुमं जा पुरिसं झायसि, मज्झ पुण भोयणे वि संदेहो । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * * कालंतरेण आगओ भत्तारो । कयं वद्धावणयं । तुट्ठा बहू सह गुरुणं ति । एसो उवणओ-जहा तीए कायव्वासत्ताए अप्पा रक्खिओ । एवं साहुणा वि किरिया नाणाणुद्वाणेणं ति । सुयदेविपसाएणं सुयाणुसारेण साहियं चरियं । वहुयाए निसुणतो अप्पाणं रक्खए पुरिसो || (श्रीजयसिंहसूरिविरचितं धर्मोपदेशमालाविवरणं (पा. १८१-८२ ) For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir थावच्चापुत्तस्स पव्वज्जा ( श्वेतांबर-जैनागम के अंग विभाग में 'नायाधम्मकहाओ' ( ज्ञाताधर्मकथा: ) नाम का छठा ग्रंथ है । इस ग्रंथ में मेधकुमार, शैलक, भ. मल्ली, देवकी आदि के चरित्र दिये हैं। तथा कूर्मक, तुंबक चार वधूनों, आदि की रूपक कथाएं भी दी है। यहाँ स्थापत्यापुत्र ने इस संसार में जरा, रोग मृत्यु अटल होने के कारण आत्म-तारण के लिए धर्म के सिवा दूसरा कोई मार्ग नहीं है इस लिए २२ वें तीर्थंकर भगवान अरिष्टनेमि के चरणकमलों में भगवती दीक्षा स्वीकार की' यह बतलाया है। श्वेतांबर जैनागमाच्या अंगविभागात 'नायाधम्मकहाओ' (ज्ञाताधर्म कथा: ) नावाचा सहावा ग्रंथ आहे. या ग्रंथात मेघकुमार शैलक, भगवानमल्ली, देवकी, इत्यादींचे चरित्र असून कूर्मक तुंबक, चार सुनादि रूपक कथाही दिल्या आहेत. म्हातारपण, रोग, मृत्यू अनिवारणीय असल्या मुळे धर्माशिवाय मात्मतारण होणार नाही म्हणून स्थापत्या पुत्राने भगवान अरि. ष्टनेमी तीर्थंकरच्या चरणापाशी भागवती दीक्षा घेतली, हे सांगितले आहे.) For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir थावच्चात्तस्स पव्वज्जा * * * * २३ तए णं से कण्हे वासुदेवे चाउरंगिणीए सेणाए विजयं हत्थिरयणं दुरूढे समाणे जेणेव थावच्चाए गाहावइणीए भवणे तेणेव उवागच्छइ । उवागच्छित्ता थावच्चापुत्तं एवं वयासी-मा णं तुमं देवाणुप्पिया, मुंडे भवित्ता पव्वयाहि । भुंजाहि णं देवाणुप्पिया, विउले माणुस्सए कामभोगे मम बाहुच्छायापरिग्गहिए । देवाणुप्पियस्स जं किंचि आबाहं वा विबाहं वा उप्पाएइ तं सव्वं निवारेमि ।' तए णं से थावच्चापुत्ते कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ते समाणे कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-जइ णं देवाणुप्पिया, जीवियंतकरणिज्जं मच्चुं निवारेसि जरं वा सरीररूवविणासणि निवारेसि, तए णं अहं तव बाहुच्छायापरिग्गहिए विउले. माणुस्सए कामभोगे भुंजमाणे विहरामि ।' तए णं से कण्हे वासुदेवे थावच्चापुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे थावच्चापुत्तं एवं वयासी-'एए णं देवाणुप्पिया, दुरइक्कमणिज्जा नो खलु सक्का सुबलिएणावि देवेण वा दाणवेण वा निवारित्तए, नन्नत्थ अप्पणो कम्मक्खएणं ।' तए णं से थावच्चापुत्ते कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-जइ णं एए दुरइक्कमणिज्जा, नो खलु सक्का सुबलिएणावि देवेण वा दाणवेण वा निवारित्तए, नन्नत्थ अप्पणो कम्मक्खएणं, तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया, अण्णाणमिच्छत्तअविरकसायसंचियस्स अत्तणो कम्मक्खयं करित्तए। तए णं से कण्हे वासुदेवे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४ * * * * * पाययकुसुमावली थावच्चापुत्तस्म निवखमणविहिं करित्तए आणवेइ । तए णं से कण्हे वासुदेवे थावच्चापुत्तं पुरओ काउं जेणेव अरहा भगवं अरिट्ठणेमी तेणेव उवागच्छइ । थावच्चापुत्तो भगवओ अरिट्ठणेमिस्स अंतिए आभरणं ओमुयइ तए णं सा थावच्चा गाहावइणी हंसलक्खणेणं पडगसाडएणं आभरणमल्लालंकारं पडिच्छइ अंसूणि विणिमुंचमाणी एवं वयासीजइयव्वं जाया, घडियव्वं जाया, परक्कमियव्वं जाया, अस्सि च णं अट्ठ नो पमाएयव्वं ।' तए णं से थावच्चापुत्ते पुरिससहस्सेणं सद्धि सयमेव पंचमुट्टियं लोयं करेइ जाव पब्बएइ । (नायाधम्मकहाओ-पंचमं अज्झयणं संक्षिप्त करके) For Private And Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दमयंतीसयंवरी (सोमप्र माचार्य ने 'कुमारपालप्रतिबोध' नाम का ग्रंथ १२ वें शतक में लिखा था। इसमे पाँच प्रस्ताव है । ग्रंथ की भाषा मुख्यतः प्राकृत है । तो भी कुछ कथाएँ संस्कृत और अपभ्रंश में भी लिखी हैं। ग्रंथ गद्यपद्यमिश्रित है । ख्यातनाम कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य ने विविध कथाएँ कहकर गजरात के कुमारपाल राजा को धर्मप्रवत्त किया। यहाँ दमयंती स्वयंवर का वर्णन नाटयमय और बहुत रोचक ढंग से किया है। सोमप्रभाचार्यांनी कुमारपाल-प्रतिबोध' ग्रंथ १२ व्या शतकात लिहिला. यात पाच प्रस्ताव आहेत. ग्रंथ मुख्यतः प्राकृतात असला तरी काही कथा संस्कृत व अपभ्रंश भाषेत ही लिहिल्या आहेत. ग्रंथ गद्य पद्यमिश्रित आहे. सुप्रसिद्ध कलिकालसर्वज्ञ हेमचंद्राचार्यांनी या निरनिराळ्या कथा सांगून गुजरातच्या कुमारपालराजाला धर्मप्रवृत्त बनविले. येथे दमयंती स्वयं - वराचे नाट्यमय सुंदर वर्णन दिले आहे. ) For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६ * * * * * पाययकसमावली अत्थि इह भारहखिते कोसलदेसम्मि कोसलानयरी। तत्थ इक्खागुकुलुप्पन्नो निरुवमनयचायविक्कमजुत्तो निसहो नाम निवो । तस्स सुंदरीदेवीकुक्खिसंभूया जणमणाणंदे दुवे नंदणा नलो कूबरो य । इओ य विदब्भदेसमंडणं कुंडिणं नयरं । तत्थ अरिकरिजूहसरहो भीमरहो राया। तस्स सयलंतेउरतरुषुप्फ पुप्फदंती देवी । ताणं विसयसुहमणुहवंताण समुप्पन्ना सयलतइलोक्कालंकारभूया धूया। तीए तिलओ जाओ सहजो भालम्मि तरणिपडिबिंबं । सप्पुरिसस्स व वच्छत्थलम्मि सिरिवच्छवररयणं । जणणीगब्भगयाए इमीए मए सव्वे वेरिणो दमिय त्ति पिउणा कयं तीए दमयंति त्ति नाम]। सियपक्खचंदलेह व्व सव्वजणनयणाणंदिणी पत्ता सा वुद्धि समए समप्पिया कलोवज्झायस्स । आयंसे पडिबिंबं व बुद्धिजुत्ताइ तीइ सयलकलाओ। संकताओ जाओ य सक्खिमत्तं उवज्झाओ ॥ पत्ता य सा जुव्वणं । तं दट्ठ ण चितियं जणणीजणएहिं'एसा असरिसरूवा, विहिणो विन्नाणपगरिसो य । ता नत्थि इमीए समाणरूवो वरो । अत्थि वा तहवि सो न नजइ । अओ सयंवरं काउं जुत्तो।' तओ पेसिऊण दूए हक्कारिया रायाणो रायपुत्ता य। आगया गयतूरयरहपाइक्कपरियरिया ते। नलो वि निरूवमसत्तो पत्तो For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra दमयंती सयंवरो २७ तत्थ भीमनिवइणा कयसम्माणा ठिया ते पवरावासेसु । कराविओ कणयमयक्खंभमंडिओ सयंवरमंडवो । ठवियाई तत्थ सुवत्तसिंहासाई । निविट्ठा तेसु रायाणो । * www.kobatirth.org ( Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * एत्यंतरे जणयाएसेण समागया पसरियपहाजालभालतिलयालंकिया पुब्वदिस व्व रविविबबंधुरा पसन्नवयणा पुन्निमनिस व्व संपुन्नस शिसुंदरा धवलदुकूलनिवसणा सयंवरमंडवं मंडयंती दमयंती | तं दण विम्हियमुहेहि महिनाहेहि स च्चेव चक्खुविक्खेवस्स लक्खीकया । तो रायासेणं भद्दा अंतेउरस्स पडिहारी । कुमरीए पुरो निवकुमरविक्कमे कहिउमाढत्ता ॥ - * कासिनयरीनरेसो एसो दढभुयबलो बलो नाम । वरसु इमें जइ गंगं तुंगतरंगं महसि दठ्ठे || " दमयंतीए भणियं - 'भद्दे, परवंचणवसणिणो कासिवासिणो सुव्वंति, ता न मे इमम्मि रमइ मणं ति अग्गओ गच्छ ।' तहेंव काऊण भणियं तीए 'कुंकणवई नरिंदो एसो सिंहो ति बेरिकरिसिंहो । वरिऊण इमं कयलीवणेसु कीलसु सुहं गिम्हे || ' दमयंतीए भणियं-'भद्दे, अकारणकोवणा कुंकणा,] तान पारेमि इमं पए पर अणुकूलिउं । तो अन्नं कहेसु ।' अग्गओ गंतूण भणियं तीए For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * * * * * पाययकुसुमावली ‘कम्हीरभूमिनाहो इमो महिंदो महिंदसमरूवो । कुंकुमकेयारेसुं कीलिउकामा इमं वरसु ।' कुमरोए वुत्तं-- भद्दे, तुसारसंभारभीरुयं मे सरीरयं]। किं न तुमं जाणसि । तो इओ गच्छामो' त्ति भणती गंतुण अग्गओ भणिउं पवत्ता पडिहारी - 'एसा निवो जयकोसो कोसंबीए पहु पउरकोसो। मयरद्वयसमरूवो किं तुह हरिणच्छि हरइ मणं ।। कुमरीए वुत्तं- 'कविजले, अइरमणीया वरमाला विणम्मविया ।' भद्दाए चिंतियं- 'अप्पडिवयणमेव इमस्स नरिंदस्स पडिसेहो।' तओ अग्गे गंतूण वुत्तं भद्दाए 'कलयंठकठि कंठे कलिंगवइणो जयस्स खिव मालं । करवालराहुणा जस्स कवलिया वेरिजसससिणो॥' कुमरीए बुत्त-तायसमाणवयपरिणामस्स नमो एयस्स।' तओ भद्दाए अग्गओ गंतुण भणियंत ‘गयगमणि वीरमउडो गउडबई तुज्झ रुच्चइ किमेसो। जस्स करिनियरघंटारवेण फुट्टइ ब बंभंडं ।' कुमरीए जंपियं-'अम्मो ! एरिसं पि कसिणभेसणं माणसाणं रूवं होइ ति तुरियं अग्गओ गच्छ । वेवइ मे हिययं ।' तओं ईसि हसंती गया अग्गओ भद्दा जंपिउं पत्ता For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दमयंतीसयंवरो * * * * * 'पउमच्छि पउमनाहं अवंतिनाहं इमं कुणसु नाहं । सिप्पातरंगिणीतीरतरुवणे रमिउमिच्छंती ।।' कुमरीए वुत्तं-'हद्धि ! परिस्संतम्हि इमिणा सयंवरमंडवसंचरणेण, ता किच्चिरं अज्ज वि भद्दा जंपिस्सइ।' चिंतियं च "भद्दाए-'एसो वि न मे मणमाणंदइ त्ति कहियं कुमरीए । ता अग्गआ गच्छामि' त्ति तहेव काउं जंपिउं पवत्ता भद्दा 'एसो नलो कुमारो निसहसुओ जस्स पिच्छिउं रूवं । मन्नइ सहस्सनयणो नयणसहस्सं धुवं सहलं ।' चितियं विम्हियमणाए 'दमयंतीए-'अहो ! सयलरूववंतपच्चाएसो अगसन्निवेसो, अहो] असामन्नं लावण्णं, अहो ! उदग्गं सोहगं, अहो ! महुरिमनिवासो, विलासो । ता हियय, इमं पहुं 'पडिवज्जिऊग पावेसु प्रस्मपरिओस ति । तओ खित्ता नलस्स कंठकंदले वरमाला । 'अहो ! सुप्रियं, सुवरियं ति समुट्ठिओ जणकलयो । ( श्रीसोमप्रभाचार्यविरचितः कुमारपालप्रतिबोधः पा. ४७-५० ) For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पदुमावदी उदअणस्स दिण्णा (भास संस्कृत नाटककारों के कुल का आद्य पुरुष है इसलिए कालदृष्टि से अनपूजा का मान उसको दिया जाता है । भास का समय कौन सा है इस बारे में तीव्र मतभेद है। सब अंतर्गत और बहिर्गत आधारोंसे वह भगवान महावीर और भगवान गौतमबुद्ध इन द्रष्टाओं के पश्चात् लेकिन शूद्रक-कालिदास के पूर्व के समय में हो गया होगा। भास नाटकचक्र में तेरह नाटक और 'यज्ञफलम्' यह नव उपलब्ध नाटक भास के नाम पर चलते हैं। उसने 'दूतवाक्यम्' 'उरूभंग' आदि एकांकी नाटक प्रारंभी अवस्था में तथा 'प्रतिमा'. 'स्वप्नवासवदत्तम्', आदि प्रौढ नाटक पश्चात् काल में लिखे होंगे । सब दृष्टि से उत्कृष्ट स्वप्नवासवदत्तम्' नाटक ने भास को चिरंजीवत्व प्रदान किया है। यहाँ वत्सराज उपयनराजा की प्रिय सम्राज्ञी वासवदत्ता अज्ञातावस्था में थी, तब उसी के सामने पद्मावती राजकन्या का विवाह राजा उदयन से करने की वार्ता उसे मिलती है। यह मार्मिक प्रसंग भास ने अत्यंत कौशल्य से चित्रित किया है । इस पाठ की भाषा शौरसेनी है। ___ संस्कृत नाटककारांच्या कुलाचा आद्यपुरुष म्हणून कालद्रष्टयाचा अग्रपूजेचा मान भासाकडे जातो भासाच्या कालासंबंधी तीव्र मतभेद आहेत For Private And Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पदुमावदी उदअणस्स दिण्णा * * * * * ३१ सर्व अंतर्गत व बहिर्गत पुराण्यांचा विचार करता तो भगवान महावीर व भगवान गौतमबुद्ध या द्रष्टयांच्या नंतर परंतु शूद्रक, कालिदासांच्या पूर्वीच्या काळात होऊन गेला असावा, भास नाटकचक्रातील तेरा नाटके व यज्ञफलम्' हे नवीन उपलब्ध नाटक ही भासाच्या नावावर मोडतात. त्याने 'दूतवाक्यम्', 'उरूभंग' आदि एकांकी नाटके सुरवातीस; तर 'प्रतिमा' 'स्वप्नवासवदत्तम्' आदि प्रौढ नाटके अखेरीस लिहिली असावीत. सर्व दृष्टया उत्कृष्ट असलेल्या 'स्वप्नवासवदत्तम्' नाटकाने भासास चिरंजीवत्व मिळवून दिले आहे. येथे वत्सराज उदयनराजाची प्रिय राणी वासवदत्ता अज्ञातावस्थेत असताना तिच्या समोरच पद्मावतीचा उदयनराजाशी विवाह करण्याचे ठरल्याची वार्ता तिला कळते. हा मार्मिक प्रसंग भासाने मोठ्या कौशल्याने रंगविला आहे. या पाठातील भाषा शौरसेनी आहे. (ततः प्रविशति चेटी ।) चेटी+ ( आकाशे ) कुंजरिए, कुंजरिए, कुहिं कहिं भट्टिदारिआ पैदुमावदी। (श्रुतिमभिनीयू), कि भशासि ‘एसा भट्टिदारिआ महिवालदामडवस्स पस्सी कुदुऐण कीलदि' त्ति । जाव भट्टिदारिअं उपसैप्पीमि । (परिक्रम्यावलोक्य) अम्मो, इअं भट्टिदारिआ उकारदकण्णेचौलएंणू वाआमसजादसेदबिंदुविइत्तिदेण परिसरमणीअसणे" मुहण कंदुएणकीलंतो इदो एव्व आअच्छदि। जाव उवसप्पिस्सं । (निष्क्रान्ता) इति प्रवेशकः । त्यानंतर तश ) (ततः प्रविशति कन्दुकेन क्रीडन्ती पद्मावती सपरिवारावासवदत्तया सह ।) For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२ * * * * * पाययकसुमावली वासवदत्ता-हला, एसो दे कंदुओ । असने यावेळी पद्मावती-अय्ये, भोदु दाणि एत्तअं। वासवदत्ता-हला, अदिचिरं कंदुएण, कीलिअं अहिअसंजादराआ परफेरआ विअ दे हत्था संवुत्ता। घेटी-कोलदु, कीलदु दाव भट्टिदारिआ। णिव्वत्तीअदू दाव अअं कण्णाभावरमणीओ कालो। पद्मावती- अय्ये, किं दाणी मं ओहसि, विणिज्झाअसि । वासववत्ता-हि णहि । हला, अधिकं अज्ज सोहसि । अभिदो विअ दे अज्ज वरमुहं पेक्खामि पाहत. प्रमावती-अवेहि । मा दाणि मं ओहस । वासवदत्ता-एसम्हि तुण्हिआ भविस्समहासेणवहू । पद्मावती-को एसो महासेणो णाम । वासवदत्ता-अस्थि उज्जइणीए राआ पज्जोओ णाम । तस्स बला. परिमाण णिव्वुत्तं णामहेअं महासेणो त्ति । चेली-भट्टिदारिआ तेण रण्णा सह सबंध णेच्छदि। वासवदत्ता -अह केण खु दाणिं अभिलसदि । चेटी-अत्थि वच्छराओ उदअणो णाम । तस्स गुणाणि भट्टिदारिआ अभिल सदि। For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पदुमावदी उदअणस्स दिण्णा * ३३ वासवदत्ता - (आत्मगतम्) अय्यउत्तं भत्तारं अभिलसदि । ( प्रकाशम्) केण कारणेण । चेटी - साक्कोस त्ति | वासवदत्ता - ( आत्मगतम् ) जाणामि, जाणामि । अअं वि जणो एव्वं उम्मादिदो । चेटी- भट्टिदारिए, जदि सो राआ विरूवो भवे- वासवदत्ता - हि हि । दंसणीओ एव्व । पद्मावती - अय्ये, कहं तुवं जाणासि । `वासवदत्ता-(आत्मगतम्) अय्यउत्तपक्खवादेण अदिक्कतो समुदाआरो। किं दाणि करिस्सं । होदु दिट्ठ । (प्रकाशम्) हला, एव्वं उज्जइणीओ जणो मंतेदि । पद्मावती - जुज्जइ । ण खु एसो उज्जइणीदुल्लहो । सव्वजणमणोभिरामं ख सोभग्गं णामं । ( ततः प्रविशति धात्री । ) धात्री - जेदु भट्टिदारिआ । भट्टिदारिए, दिष्णा सि । वासवदत्ता अय्ये, कस्स धात्री - वच्छराअस्स उदअणस्स । वासवदत्ता - अह कुसली सो राआ । For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४ * * * * * पाययकुसुमावली धात्री-कुसली । सो इह आअदो । तस्स भट्टिदारिआ पडिच्छिदा आ वासवदत्ता-अच्चाहिदं । धात्री-किं एत्थ अच्चाहिदं। वासवदत्ता-ण हु किं चि । तह णाम संतप्पिअ उदासीणो होदि त्ति। धात्री-अय्ये, आअमप्पहाणामि सुलहपय्यवत्थाणाणि महापुरुसहिअ आणि होति । वासवदत्ता-अय्ये, स एव्व तेण वरिदा । धात्री-णहि णहि । अण्णप्पओअणेण इह आअदस्स अभिजविण्णा णवरोरूवं पेक्खिअ स एव महाराएण दिण्णा । वासवदत्ता-(आत्मगतम्) एव्वं । अणवरद्धो दाणिं एत्थ अय्यउत्तो। अपराचेटी-(प्रविश्य) तुवरदु तुदरदु दाव अय्या । अज्ज एव्व किल सोभणं णक्खत्तं । अज्ज एव्व कोदुअमंगलं कादव्वं ति अम्हाणं भट्टिणी भणादि । वासवदत्ता-( आत्मगतम् ) जह जह तुवरदि, तह तह अंधीकरेदि मे हिअ। धात्री--एदु, एदु भट्टिदारिआ। ( निष्क्रान्ताः सव । ) (भासकृतम् स्वप्नवासवदत्तम्-द्वितीयोऽङ्कः) For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुक्खत्तणस्स पाहुडो (घनश्याम अपनेको 'महाराष्ट्रचुडामणि' कहता था और कंठरव 'उपाधि लगाता था। उसका समय ई. स. १७०० से १७५० तक था । वह महान् ग्रंथकार था। उसने १८ वें वर्ष लेखन शुरू किया और ६४ ग्रंथ संस्कृत में, २० प्राकृत में और २५ मराठी में लिखे हैं ऐसा उसने कहा है। राजशेखर के 'कर्पूर मंजरी' के सदृश उसने 'आनंद सुंदरी' नाम का सट्टक लिखा है । यहाँ विदूषक अपनी मूर्खता से बाघ का चित्र देखकर भयभीत होता है और दूसरे को भी भयभीत करता है । बाघ का नाम सुनते ही आनंदसुंदरी चिल्लाकर राजा को आलिंगन देती है । विदूषक की मूर्खता से ही राजा को उसका आलिंगन सुख मिलता है ; इसलिए राजा अपने हाथ से रत्नजडित सुवर्णकडा पारितोषिक के रूप में देता है। यह प्रसंग नाटककारने बहुत विनोदपूर्ण ढंगसे चित्रित किया है। इसमें गद्यमाग शौरसेनी और पद्यभाग माहाराष्ट्री में लिखा है। स्वत:ला ' महाराष्ट्रचूडामणी' म्हणवून घेऊन ' कंठी रब' बिरुद वापरणारा घनश्याम हा कवी इ. स, १७०० ते १७५० या काळात होऊन गेला तो महान ग्रंथकार असून त्याने वयाच्या १८व्या वर्षां पासून लेखणास सुरवात केली. त्याने ६४ ग्रंथ संस्कृतात, २० प्राकृतात व २५ मराठीत लिहिले For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पारा विदूषकः - मह वित्ति भगह । * ३६ पायय कुसुमावली असे त्याने म्हटले आहे. राजशेखरच्या कर्पूर मंजरी प्रमाणेच त्याने आनंदसुंदरी' नावाचे सट्टक लिहिले. येथे विदूषक आपल्या मूर्खपणाने वाघाचे चित्रपाहुन घाबरतो व दुसन्यालाही घाबरवितो. वाघाचे नाव काढताच आनंदसुं - दरी किंचाळून राजाला मिठी मारते. विदूषकाच्या या मूर्खपणानेच राजाला तिच्या दृढालिगनाचे सुख मिळते, म्हणून तो आपल्या हातातील रत्नजडित सोन्याचे कडे त्यास बक्षीस देतो. नाटककाराने हा प्रसंग अत्यंत विनोदपूर्ण रंगवला आहे. यातील गद्यभाग शौरसेनीत तर पद्यभाग महाराष्ट्री भाषेत आहे. ) राजा के उण दुवे एदे | विदूषकः - एसो कंचुई, एसा उणू दाई । राजा - (उपसृत्य) अवि कुसलं धत्तीचणं । कस ज्यामुळे उभौ - (स्वगतम्) कहं महाराओं जेव्व समादी । ( प्रकाशम् ) महाराअस्स पाअकमलणिहालणेण । भारत मी. यावेळी प्रतिहारी- अय्य, कूहं अहिंदो वि मक्कडचे पअडेसि । म्हणू सुदी व्याकु विदूषकः - हुं दाणि मा कवि भण, खुहापिसाआविद्रोहि । ठेवलेली प्रतिहारी - वित्तं ठाइ मज्झ हत्थम्मि । • विशाल मन्दारकः - ण हु पिसाओ पिसाओ रा)) बाहइ i राजा - मा तह जंप, ब्रम्हणो खु । राहातारा विदूषकः- (सक्रोधमे) ठरावसद, पुणो वि एक्कवारं बोल्ल । मन्दारकः - किं तुह तादो मेरो ण जादों । झार विदूषकः- के' संणिहाणो महाराअस्स वअस्सतादं दूसेसि । पिंगलकः तुवं कहं महाराअस्स कंचुइणं उवालहसि । For Private And Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir GIRAIL मुक्खत्तणस्स पाहुडो * * * * * ३७ विदूषकः-पिंगलअ, भत्तारस्स पिअसहं ममं मा अवमण्णसु । (पिंगलको लज्जते ।) प्रतिहारी-अज्ज, किं ति तुमं धणिधरजामाअरो विअ बम्हण बट्टकी विअ तुरुक्कपोसि अवीसकद्द विअ रोइगोमाऊ विअ सव्वलोअंडससि। लोकाना .. विदूषकः-कुक्कुरो बडबडइ, राआ आअण्णेदि । धात्रीकञ्चुकिनौ-जं बम्हणसिरोमणी आणवेदि।। आनन्दसुन्दरी-- (स्वगतम्) अहो बम्हणस्स अशाअरिअत्तणं। । राजा--(जनान्तिक) वास्स, अंतेउरं गदुअ रहस्सदाए मंदार___अकंचुइणं पच्चारेहि। विदूषकः-तह । (इति निष्क्रम्य तेन सह प्रविशति ।) मन्दारकः-(श्रममभिनीय स्खलननाटिकतेन) कहं पइट्ठाणं ठक्कामि । (निश्वस्य उपसृत्य) जेदु भट्टा। विदूषक:-(समन्तादवलोकयन् उच्चकैः भो वग्धो वग्यो । ( आनन्दसुन्दरी ससंभ्रमरणरणिकं राजानमालिंगति । धात्रीकुरंगको मन्दारकश्च भयं नाटयन्ति ।) प्रतिहारी--किं एवं उवट्ठिअं । ( मन्दारको दिशो निभालयन दण्ड-4 ___ मधो घट्टयति ।) विदूषक:- (कण्ठे यज्ञसूत्रं बध्नन्) कहिं णु खु धावामि । राजा-हुं मुक्ख, कहं पडिघडिअं भमो। विदूषकः-सच्चं पेक्खणिज्जं खु। मन्दारक:-णं मह विभंती जादा । For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra * तह हि, www.kobatirth.org ३८ राजा - ( स्पर्शसुखं नाट्यन् ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * ससिअरपज्झरंतचंदकंतो चणअहिमंविहिचंदणं वा ॥ सुरउलपगिदो सुहारसो किं पिअजणफंसवसा गं होइ एव्वं ॥ मन्दारकः कत्थ भाए सो वग्घो । विदूषकः - संगीदसालादुवारअलोवरिभाअम्मि | पाययकुसुमावली अंगेसुं पहुविअईलफुलमुद्दा डोलेसुं सरससरोअकोसलच्छी । मुत्तीए णववरिसापओदकिच्चं चित्ते मे उण परब्रम्हमोअसारो ॥ राजा -- अहह, मुक्खेण चित्तवग्धं पेक्खिअ तुम्हि कोलाहलो किओ विदूषक (स्वगतम् ) किं णु खु इमस्स ऊणत्तणं परं दु गल्लूरणादिअ णत्थि । ( प्रकाश सरोषम् ) भी दिग्घो सि जं मह पाहावेण आलिंगणं पत्तो वि एव्वं मंतेसि । राजा - ( सहर्षम् ) तुह पाहाओ ( इति विदूषकाय मणिवलयमपयति । विदूषक -- (करे धृत्वा ) भो अहअं वि अद्धमहीसव्वभोमो राजा - तं कहं । विदूषकः-जं तुए सह मह वि एक्कं हत्थकडअं For Private And Personal Use Only ( घणस्सामविरइआ आणंदसुंदरी - १ पा. १४-१६) *3* Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नमुक्कारप्पभावो (इस पाठ में पंचनमस्कार मंत्र का महत्त्व तथा प्रभाव बतलाने वाले कुछ श्लोक विविध ग्रंथों से चुनें हैं । या पाठात पंचनमस्कार मंत्राचे महत्व व प्रभाव वर्णन करणारे काही श्लोक विविध ग्रंथातून निवडून घेतले आहेत.) नमो परमपूयारहाणं अरिहंताणं । नमो सुहसमिद्धाणं सिद्धाणं । नमो पंचविहायारमायरंताणं आयरियाणं । नमो सज्झायज्झाणरयाणं उवज्झायाणं । नमो मोक्खसाहगाणं साहूणं ॥१॥ ( बारवईविणासो ) एसो पंचणमोयारो सव्वपावपणासणो । मंगलेसु य सब्बेसु पढमं हवइ मंगलं ॥२॥ (मूलाचारः) सुचिरं पि तवो तवियं निच्चं चरणं सुयं च बहुपढियं । जइ ता न नमोक्कारे रइ ताओ तं गयं विहलं ॥३॥ (श्रीनमस्कारबृहत्फल) ताव न जायइ चित्तेण चितियं पत्थियं च वायाए । काएण समाढतं जाव न सरिओ नमुक्कारो ॥४॥ (श्रीमहानिशीथसूत्र) For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४० * * * * * पाययकुसुमावली एस नमुक्कारो सरणं संसारसमरपडियाणं । कारणमसंखदुक्खक्खयस्स हेऊ सिवपहस्स ।।५।। कल्लाणकप्पतरुणो अवज्झवीयं पयंडमायंडो। भवृहिमगिरिसिहराणं पक्खिपहू पावभुयंगाणं ।।६॥ ( वृद्धनमस्कारफल ) वाहिजलजलणतक्करहरिकरिसंगामविसहरभयाइं । नासंति तक्खणेणं नवकारपहाणमंतेणं ।।७ । न य तस्स किंचि पहवइ डाइणिवेयालरक्खमारिभयं । नवकारपहावेणं नासंति य सयलदुरियाइं ॥८॥ हिययगुहाए नवकारकेसरी जाण संठिओ निच्च । कम्मट्ठगंठिदोघट्टघट्टयं ताण परिणटुं।९।। (करकंडुचरियं) जिणसासणस्स सारो चउदसपुब्बाण जो समुद्धारो। जस्स मणे नवकारो संसारो तस्स किं कुणइ ॥१०॥ (लघुनमस्कारफल) नवकारओ अन्नो सारो मंतो न अस्थि तियलोए। तम्हा हु अणुदिणं चिय पढियब्बो परमभतीए ।।११।। - (श्राद्धदिनकृत्यसूत्रम्) भोयणसमए सयणे विबोहणे पवेसणे भए वसणे । पंचणमुक्कारं खलु सुमरिज्जा सव्वकालं पि ॥१२।। (उपदेशतरंगिणी) For Private And Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वज्जालग्गं (परंपरासे माना जाता है कि 'वज्जालग्गं' का कर्ता जयवल्लभ है; लेकिन तीसरी गाथा से 'जयवल्लभं वज्जालग्गं' यही इस ग्रंथ का नाम है ऐसा स्पष्ट होता है । ७९४ वें गाथा में कहा है कि 'वज्जालए सयललोयभिट्रिए' सब लोगों को अभिलषणीय वज्जालग्गं का नाम जयवल्लभ जगवल्लभ है यही सिद्ध होता है। वज्जालग्गं के संस्कृत छायाकार रत्नदेव ने (ई. स. १३३६) अपनी टीका में 'इसका कर्ता श्वेतांबर जैन था ऐसा कहा है। वह १४ वें शतक के पूर्व हुवा होगा ऐसा अनुमान किया जाता है । हाल की 'गाहासत्तसई' (गाथासप्तशती) में सिर्फ एक ही गाथा में शब्द द्वारा एक ही प्रसंग का हुबह चित्र दिया है । लेकिन वज्जालग्गं में एकत्र ही विषय पर अनेक गाथाओं का संग्रह कर विषय स्पष्ट किया है। बज्जा याने पद्धति और वज्जालग्गं का अर्थ है एक ही विषय पर अनेक गाथाओं का संग्रह । इसमें सोदार, गाहा कव्व, सज्जण दुज्जण, सेवय. भमर, गुण, चंदण, आदि विषयों पर ७९५ गाथाओं का संग्रह है। यहाँ दीणवज्जा' में दीन मनष्य की याचक वृत्ति, सिंहवज्जा' मे शेर की स्वतंत्र पराक्रमी वृत्ति, तथा 'चंदनबज्जा' में परोपकारी सज्जन के समान चंदन की पद्धति दी है। For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२ * * * * * पाययकुसुमावली परंपरेने 'वज्जालम्गं' चा कर्ता जयवल्लभ मानला जातो. पण तिसऱ्या गाथेवरून 'जयवल्लभ वज्जालग्गं' हेच या ग्रंथाचे नाव असल्याचे दिसून येते. ७९४गायेत 'वज्जालए सयललोर भिट्टिए-सर्व लोकांना अभिलषणीय अशा 'वज्जालगंचे नाव 'जयवल्लभ' जगवल्लभ होय हेच सिद्ध होते. यावर संस्कृत छाया लिहिणाऱ्या रत्नदेवाने (इ.स' १३३६) याचा कर्ता श्वेतांबर जैन होता असे सांगितले आहे. १४व्या शतकाच्या अगोदर होऊन गेला असावा असे अनुमान केले जाते. हालाच्या गाहासत्तसई' (गाथासप्तशती) मध्ये केवल एकाच गावेत एका प्रसंगाचे हुबेहुब शब्दचित्र रेखाटले आहे. परंतु वज्जालग्गंमध्ये एकाच विषया वरील अनेक गाथांचा संग्रह करून तो विषय स्पष्ट केला आहे. 'वज्जा' म्हणजे पद्धती आणि 'वज्जालग्गं' म्हणजे एकाच विषयावरील अनेक गाथांचा केलेला संग्रह. यात सोयार गाहा, कव्व सज्जन, दुज्जन, सेवय भमर, मुण, चंदण, आदि विषयावर सुभाषितवज्जा ७९५गाथांचा सग्रह आहे येथे दीनवज्जा मध्ये दीन मनुष्याचो याचकवृत्ती, "सिंहवज्जेत' सिंहाची स्वतंत्र पराक्रमी वृत्ती आणि चंदन बज्जत परोपकारी सज्जनाप्रमाणे चंदनाची पद्धती वर्णिली आहे.) ( अ ) दीणवज्जा परपत्थणापवनं मा जणणि जणेसु एरिसं पुत्तं ।। उयरे वि मा धरिज्जसु पत्थणभंगो कओ जेण ।। १ ।। ता रूवं ताव गुणा लज्जा सच्चं कुलक्कमो ताव । ताव च्चिय अहिमाणो देहि त्ति न भण्णए जाव ।। २ ।। तिणतूलं पि हु लहुयं दीणं दइवेण निम्मियं भुवणे । वाएण कि न नीयं अप्पाणं पत्थणभएण ॥ ३॥ For Private And Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वल्जालग्गं थरथरथरेइ हिययं जीहा घोलेइ कंठमज्झम्मि । नाइ मुहलावण्णं देहि त्ति परं भणतस्स ॥ ४ ॥ * किसिणिज्जंति लयंता उदहिजलं जलहरा पयत्तेण । धवलीहुति हु देता देतलयंतंतरं पेच्छ ॥ ५ ॥ (म ) सीहवज्जा किं करइ कुरंगी बहुसुएहि ववसायमाणरहिएहि । एक्केण वि गयघडदारणेण सिंही सुहं सुवइ ॥ ६॥ जाइविसुद्धा नमो ताण मइंदाण अहह जियलोए । जे जे कुलम्मि जाया ते ते मय कुंभनिद्दलणा ॥७॥ मा जाणह जइ तुंगत्तणेण पुरिसाण होइ सोंडीरं । महो वि मदो करिवराण कुंभत्थलं दलइ ॥८॥ बेfor fव रणुप्पन्ना बज्झति गया न चेव केसरिणो । संभाविज्जइ मरणं न गंजणं धीरपुरिसाणं ॥९॥ सुसिएण निहसिएण वि तह कह वि हु चंदणेण महमहियं । सरसा वि कुसुममाला जह जाया परिमलविलक्खा ||१०|| परसुच्छेयपहरणेण निहसणे नेय उज्झिया पयई । चंदण सन्नयसीसो तेण तुमं वंदए लोओ ॥ ११ ॥ For Private And Personal Use Only ४३ (र) चंदणवज्जा Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * * * * * * पाययकसमावली उत्तमकुलेसु जम्मं तुह चंदण तरुवराण मज्झम्मि । दुज्जीहाण खलाण य निच्चं चिय तेण अणुरत्तो ॥१२॥ एक्को च्चिय दोसो तारिसस्स चंदणदुमस्स विहिघडिओ। जीसे दुट्ठभुयंगा खणं पि पासं न मेल्लंति ।।१३।। बहुतरुवराण मज्झे चंदणविडवो भुयंगदोसेण । छिज्जइ निरावराहो साहु व्व असाहुसंगेग ।।१४॥ ६१३३-१३७, २००-२०३, ७२८-७३२) For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२ उज्जलमीलो दहमुहो ( श्रीविमलसूरि ने मर्यादापुरुषोत्तम रामचन्द्र के चरित्र पर 'पउमचरियं ' ( पद्मचरित्रम् ) नाम का प्राकृत ग्रंथ लिखा। वे ई. स. के पहले तीन शतक के अवधि में हो गये होंगे। 'पउमचरियं' में ११८ पर्व हैं और २००० के ऊपर श्लोक हैं। रावणमहाराज राक्षसवंशीय विद्याधर राजा लंका में राज्य करते थे। वे ६३ शलाकापुरुष में प्रतिवासुदेव थे। सिर्फ सीताहरण का दोष छोड़ दिया जाय, तो वे उज्ज्वल चारित्र्य के थे, यही इस पाठ से ज्ञात होता है । श्रीविमलसूरींनी मर्यादापुरुषोत्तम रामचंद्रांच्या चरित्रावर 'पउम. च रयं' ( पद्मचरित्रम् ) नावाचा प्राकृतात ग्रंथ लिहिला. ते इ. स. च्या पहिल्या तीन शतकात केव्हा तरी होऊन गेले असावेत. 'पउमचरियं' मध्ये ११८ पर्व असून २००० वर श्लोक आहेत. रावणमहाराज राक्षसवंशीय विद्याधर राजा असून लंकेमध्ये राज्य करीत होते. ते ६३ शलाकापुरुषात प्रतिवासुदेव होते. केवळ सीताहरणाचा दोष सोडून दिला तर ते उज्ज्वल चारित्रशील हाते. हेच या पाठात दिसून येते. ) For Private And Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६ * * * * * पाययकुसुमावली एत्थंतरम्मि जो सो ठविओ इंदणलोगपालते। नलकुब्बरो ति नाम दुल्लंघपूरे परिव्वसइ ॥ १ ॥ अह तेण अग्गिपउरो पायारो जोयणा सयं रइओ। जंताणि बहुविहाणि य रिउभङ्गजीयंतनासाणि ॥२॥ गंतूण नंदणवणं वंदित्ता चेइयाणि भावेणं । पुणरवि य पडिनियत्तो दहवयणो निययआवासं ॥३॥ सन्नद्धबद्धकवया पहत्थपमुहा भडा बलसमग्गा । पेसेइ गहणहेउं दुल्लंघपुरि दहग्गीवो ।। ४ ।। पत्ता पेच्छंति पुरि समंतओ जलणतुंगपायारं । जंतेसु अइदुल्लंघं भयजणणं सत्तुसुहडाणं ।। ५ ॥ अह वेढियं समत्थं अल्लीणा रक्खसा कउच्छाहा । हम्मंति वेरिएणं बहुविविज्जापओगेहिं ।। ६ ।। मारिज्जतेहि तओ रक्खससुहडेहि पेसिओ पुरिसो। गंतूण सामियं सो भणइ पहू मे निसामेहि ।। ७ ।। डझंति अल्लियंता सव्वत्तो धगधगंतजलणेणं । मारिज्जति पहुत्ता जंतेसु करालवयणेसु ॥ ८ ॥ सोऊण इमं वयणं लंकाहिवमंतिणो मइपगब्मा । निययबलरक्खण? जाव उवायं विचितेति ॥ ९ ॥ ताव य उबरंभाए दूई नलकुब्बरस्स महिलाए। संपेसिया य पत्ता दहमुहनेहाणुरत्ताए ।। १० ।। For Private And Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७ उज्जलसीलो दहमहो * * * * काऊण सिरपणामं एगंते भणइ रावणं दुई। जेण निमित्तेण पहू विसज्जिया तं निसामेही ॥ ११ ॥ नलकुब्ब रस्स महिला उवरंभा नाम अत्थि विक्खाया। ताए विसज्जिया हु नामेण विचित्तमाला हं ॥ १२॥ सा तुज्झ दरिसणुस्सुयहियया चिंतेइ पेमसंबधा । निब्भरगुणाणुरत्ता कुणसु पसायं दरिसणेणं ।। १३ ॥ ठइऊण दो वि कण्णे रयणासवनंदणो भणइ एवं । विसं परमहिलं पि य न रूवमंतं पि पेच्छामि । १४ ।। इहपरलोयविरुद्धं परदारं वज्जियब्वयं निच्चं । उच्छिट्ठभोयणं पिव नरेण दढसीलजुत्तणं ॥ १५ ॥ नाऊण दुइकज्जं भाणिओ मंतीहि तत्व कुसलेहिं । अलियमवि भासियव्वं अप्पहियं परिगणंतेहिं ।। १६ ॥ तुट्ठा कयाइ महिला सामियभेयं करेज्ज नयरस्स । सम्माणदिनपसरा सब्भावपरायणा होइ ।। १७ ॥ भणिऊण एवमेयं दूई वि विसज्जिया दहमहेणं । गंतूण सामणीए साहइ संदेसयं सव्वं ।। १८ ।। सुणिऊग य उवरंभा वयणं दूईए निग्गया तुरिया । पत्ता दसाणणहरं तत्थ पविट्ठा सुहासीणा ।। १९ ।। भणिया य दहमुहेणं भद्दे कि एत्थ रइसुहं रणे । न य होइ माणियव्यं दुल्लंघपुरं पमोत्तूणं ।। २० ॥ For Private And Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८ * * * * * पाययकुसुमावली का तायदा लगा. दी शान सोऊणं उवरंभा तं वयणं महुरमम्मणुल्लावं । देइ भयणाउरा सा विज्जा आसालिया तस्स ।। २१ ॥ तं पाविऊण विज्जं दहृवयणो सब्वैबलसमण । दुल्लंघपुरनिसेस गण हरई पायोरं ॥ २२ ।। सोऊण रावणं सो सेमगिय नासियं च पायारं । अहिमाणेण य राया विणिग्गओ कुब्बरो सहसा ॥ २३ ॥ दामदुसुम सा काली. अह जुज्झिउँ पर्वतों समय चिय रक्खसेहि संगामे । सरसत्तिकोंततोगभिओक्खिपतसंघाए ।। २४ ।। दोघानीटात मंधाभस्ये ,अह दारुणम्मि जुज्झे वट्टते सुहडजीवनासयरें। गहिओ बिहीसणेणं नलकुब्बरपत्थिवो समरे ॥ २५ ॥ लंकाहिवेण भणिया उवरंभा मह तुमं गुरू भद्दे । “जंदेसि बलसमिद्धं विज्ज आसालियं नाम ।। २६ ।। पदमभूमी उत्तमकुलसंभूया जाया वि य सूदरीए गब्भम्मि । कासद्धयस्स दुहिया सीलं रक्खंतिया होहि ।। २७ ।।. अज्ज वि तुज्झ पिययमो जीवइ भद्दे सरूवलायण्ण एएण सह विसिट्ठ भुंजसु भोए चिरं काल ।। २८ ।। संपूइऊण मुक्को राया नलकुब्बरो दहमुहेणं । अमणियदोस विभौआ जइ भोगे स मं तीए ।। २९ ॥ ( सिरिविमलसूरिविरइयं पउमचरियं-१२: ३८, ४५ - ७२ ) रामा. पदभमत. For Private And Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १३ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बोहि दुल्लह कहा (लक्ष्मणगणि ने ७ वें तीर्थंकर भगवान् सुपार्श्वनाथ के चरित्र पर 'सुपासणाह चरियं' नाम का प्राकृत में ग्रंथ लिखा है । उसमें श्रावक धर्म के अणुव्रत, गुणव्रत तथा शिक्षाव्रतों के प्रत्येक अतिचार पर अनेक कथाएँ लिखी हैं। बोध कितना दुर्लभ है यह दिखाने के लिए यहाँ एक कंजूस श्रीमान् की कया द्वारा अत्यंत मार्मिकता से दिखाया है । लक्ष्मणगणींनी ७ वें तीर्थंकर भगवान सुपार्श्वनाथांच्या चरित्रावर 'सुपासणाहचरियं' नावाचा प्राकृतात ग्रंथ लिहिला आहे. त्यात श्रावकाची अणुव्रते, गुणव्रते व शिक्षाव्रते आणि त्यांच्या प्रत्येक अतिचारावर अनेक कथा सांगितल्या आहेत. येथे बोध मिळणे किती दुर्लभ आहे हे एका कंजूष श्रीमं ताची जीवन कथा देऊन मोठ्या मार्मिक पणे दाखवले आहे.) येथेच इत्थेव असि सेट्ठी सागरदत्तो त्ति नाम दविणडो । अइदविण रक्खणज्जणपरायणो सव्वकालं पि ।। १ ।। अह अन्नयाय मंतेइ नियतणयं सोहडं जहा बच्छ I दुक्खेण इमा लच्छी समज्जिया जाणसि तुमं पि ॥ २ ॥ For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५० * * * * * पाययकुसुमावली तम्हा कीरउ रक्खा इमीए बाहिं गिहस्स दूरम्मि । गेहम्मि ठिया संती साहीणा सव्वलोयस्स ॥ ३ ॥ सायात ता पेयवणे गंतुं निहणिज्जउ कम्मि रहपएसम्मि । आवइगयाण जेणं साहिज्जं कुगइ अम्ह इमा ।। ४ ॥ एवं रहम्मि मंतिवि तणएण सम गओ मसाणम्मि । खणिऊण गुरुं गत्तं निहणंति तहिं दविणकलसे ।। ५ ।। पूरेऊणं गत्तं भणिओ तो सेट्ठिणा इमं तणओ। पुत्त पलोएसु तुमं गंतुं सव्वं पि दिसिचक्कं ।। ६ ।। जइ पुण केण वि दिट्ट हविज्ज सो भणइ ताय । निउणो तं अइभीसणे मसाणे रयणीए एइ को एत्थ ।। ७ ।। तो भणइ पिया सुनिरूवियस्स इह होइ वच्छ को दोसो। इय भणिए पुत्तेणं गंतूण निरूवियं सव्वं ॥ ८॥ दिट्टो तो कप्पडिओ पडिओ मयखिड्डएण गयचेटो। सासं निरंभिऊणं दवट्ठाणं पलोयंतो ।। ९ ।। तेणागंतुं कहियं गयसासो को वि चिट्ठए तत्थ । तो सेट्ठिणा वि भणियं जइ पुण सो दव्वलोभेण ॥ १० ॥ सुनिलंभिऊण सासं पडिओ मयखेड्डयं विहेऊण । ता कि पि तस्स अंग छेत्तुं छुरियाए लहुं एहि ॥ ११ ॥ इय कहिए तक्कण्णं छेत्तूण समागओ तओ भणिओ। बीयं पि छिंद सवणं जइ पुण धुत्तो इय सहेइ ।। १२ ।। For Private And Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बोहिदुल्लह कहा * * * * * ५१ तेण वि तहेण विहियं छिन्ना नासा वि ओ?उडसहिया । तेण वि सव्वं सहियं दब्वट्ठा जेण इय भणियं ॥ १३ ॥ तं नत्थि जं न कुव्वंति पाणिणो साहसं दविणकज्जे । नियजीवियं पि विच्चंति किं पुणो छेयणं तणुणो ॥ १४ ॥ तो कप्पडियं मडयं कलिऊण गओ गिहम्मि सो सेट्ठी । सुयपरिकलिओ इत्तो कप्पडिएणावि हु झडत्ति ॥ १५ ।। उ8ऊणं गहियं तं दव्वं गोवियं च अन्नत्थ । गहिउं कित्तियमेत्तं पत्तो नयरम्मि गिण्हेइ ॥१६॥ वत्थागरुकप्पूरप्पमुहाइं निवसणेण सुहुमेण । पच्छाइयलयअंगो विलसइ वेसाण गेहेसु ॥ १७ ॥ अह अन्नया य सो वि हु गच्छइ उज्जाणे । मोयगमंडगवडयाइं नेइ तत्थप्पणा सद्धि ॥१८॥ नयरस्स पाउलाई वि तेणं सद्दावियाइं सव्वाइं । हिट्ठो ताण पयच्छइ भोयणवत्थाइयं सव्वं ।। १९॥ तह मग्गणाण जम्मं गिराण दीणाइयाण वि जहिच्छं । ते वि हु तुट्ठा वण्णंति कण्णनामं विहेऊण ॥२०॥ तो जणपरंपराए तं सोउं तस्स संकिओ सेट्टी। मम दव्वं नो गहियं तट्ठाणाओ इमेणं ति ॥२१॥ जइ पुण सो कप्पडिओ तइआ सासं निरंभिरं थक्को.। इय चितंतो तस्स वि पलोयणत्थं गओ तत्थ ॥२२॥ पापी For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२ * * * * * पाययकुसुमावली पेच्छइ य तयं कुंकुमपिंजरियं वेसलोयपरियरियं । वरवत्थपिहियछिन्नोट्टनासियं चिंतए तत्तो ।।२३।। दुक्खेण जो विढप्पइ अत्थो दुक्खेण भुज्जए सो उ । चोरचरडाण पायं चरियं एवंविहं होइ ।।२४।। इय चिंतिउं मसाणे पत्तो सो पिच्छइ तयं गत्तं। कलसजुयलेण रहियं अहियं तो विलविउं लग्गो ॥२५॥ हा देव दव्वनासो कह जाओ मज्झ मंदपुण्णस्स । सच्चं चिय जं केण वि विउसेणं पढियमेवं ति ।।२६।। न य मे दिन्नं दाणं न विलसियं विविहभोगभंगीहि । नासो वि य लच्छीए जाओ तो जामि रायउले ॥२७॥ सव्वं कहेमि रन्नो जइ वि हु अप्पावए इमाउ धणं । तो कोसल्लियपुव्वं साहइ रन्नो जहा देव ॥२८॥ उज्जाणे जो विलसइ विविहपयारेहिं सो धुवं चोरो। मह दव्वं उक्खणिउं गहियं इमिणा मसाणाओ ।।२९।। इय सुणिउं नरवइणा भणिओ आरक्खिओ जहा। सिग्घं आणेसु मज्झ पासे बंधेउं तं महाचोरं ॥३०॥ तेण वि तहेव विहिए तेणो जंपेइ मज्झ को दोसो। भणइ निबो तइ अत्थो गहिओ एयस्स उक्खणिउं ॥३१॥ सो भणइ देव इमिणा गहियं मम संतियं किमवि अत्थि। तो अप्पावसु तो हं दविणं एयस्स अप्पिस्सं ॥२२।। For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बोहिदुल्लह कहा * * * * * ५३ रन्ना दिट्टिक्खेवे कयम्मि वज्जरइ सो वणी । न मए गहियं किंचि वि एयस्स जपए तो इमं तेणो ॥३३॥ पइसमखिन्नो नरपहु तत्थाहं आसि निब्भरं सुत्तो। नासावंसो सवणा य कड्डिया मह इमेणेव ॥३४॥ ता मह एसो सवणाई अप्पिउं लेउ अप्पणो दव्वं । इय भणिओ सो सेट्ठी सविलक्खो ठाइ इत्तो य ॥३५॥ जइया इमस्स अप्पिहिसि सेट्ठी सवणाइयं तया दव्वं । (लहिहिसि तं इइ भणिउंइ विसज्जिया दो वि नरवइणा ॥३६॥ तो सेट्ठी गिहपतो पुत्तं पन्नवइ जायवेरग्गो । जह लच्छी वच्छ गया खणेण तह जीवियं जाही ॥३७॥ जम्माउ जर। लोए जराउ मच्चू अवस्स देहीणं । तम्हा मच्चुमुहगया जीवा जीवंति थेवदिणे ॥३८॥ ता जइ तै परलोए गहिउं सद्धम्मसंबलं जंति । ता धुवमसोयणिज्जा सुहिया य हवंति तत्थ गया ॥३९॥ ( सिरिलक्खणगणिरइयं सुपासणाहचरियं पा. ५२३-५२५) For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगडदत्तस्स सम्माणो (देवेन्द्रसूरिने उत्तराध्ययनसूत्र की सुखबोधा टीका में ४ थे ' असंखयं' अध्ययन के छठे श्लोक के स्पष्टीकरणार्थ अगडदत्तकथा पद्य में बडी आकर्षक शैली में लिखी । यहाँ अगडदत्त की उन्मत्त हाथी से हुई विजयी जझ देखकर काजा ने उस विजयी कुमार का कैसा सम्मान किया यह कहा है। देवेंद्रसूरींनी उत्तराध्ययनसूत्रावरील सुखबोधा टीकेत ४ थ्या 'अंसंखय' अध्यायातील ६ व्या श्लोकाच्या स्पष्टीकरणार्थ अगडदत्तकथा पद्यात अत्यंत आकर्षक शैलीत लिहिली आहे. येथे अगडदत्ताची उन्मत्त हत्तीशी झालेली विजयी झुंज पाहून राजाने त्या विजयो कुमाराचा सत्कार कसा केला हे सांगितले आहे.) अन्नम्मि दिणे सो रायनंदणो वाहियालीए मग्गेणं । तुरयारूढो वच्चड तों'नयरे कलयलो जाओ ।। १ ॥ १. तन अवि य - किं चलिउ व्व संमुद्दो किं वा जलिओ हुयासणो घोरो । कि पत्तं रिउसेन्नं तडिदंडो निवडिओ किं वा ।। २ ।। For Private And Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगडदत्तस्स सम्माणो * * * * * ५५ एत्यंतरम्मि सहसा दिट्ठो कुमरेण विम्हियमणेण । मयवारणो उ मत्तो निवाडियालाणबरखंभो ।। ३ ।। हमिटेण वि परिचत्तौ मारतो सोंडगोयर पत्ते । सडंमुहं चलंतो कालो व्व अकारणे कुद्धो ॥ ४ ॥ तुट्टपयबधरज्ज संचणियभवणेहट्टदेवउलो। खणमेत्तेण पयंडो सो पत्तो कुमरपुरओ त्ति ।। ५ ॥ तं तारिसरूवधरं कुमरं दट्ठ ण नायरजणेहिं । गहिरसरेणं भणिओ ओसर ओसर करिपहाओं ॥ ६ ॥ कुमरेण व नियतुरयं परिचइऊणं सुक्खगइग़मणं । हक्कारिओ गइदो इंदगइंदस्स सारिच्छौं। सुणिउं कुमारसदं दंती पुज्झरियमयजलपवाहो। तुरिओ पहाविओ सो कुद्धों काली व्व कुमरेस्स ॥८॥ कुमरेण य पाउरणं संवेल्लेऊण हिट्ठचित्तेण । धावंतवारणस्स सोंडापुरओ उ पक्खित्तं ।। ९॥ कोवेण धमधमेंतो दंतच्छोभे य देइ सो तम्मि । कुमरो वि पुट्ठभाए पहणइ दढमुट्ठिपहरेणं ॥ १०॥ ता ओधावइ धावइ चलइ खलइ परिणओ तहा होइ । परिभमइ चक्कभमणं रोसेणं धमधमेंतो सो।। ११ ।। अइव महंतं वेलं खेल्लावेऊण तं गयं पवरं । निययवसे काऊणं आरूढो ताव खंधम्मि ॥१२॥ का For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org * Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६ अह तं गइंदखेडं मोइरं सवलनयरलोयस्स । अंते उरसहिएणं पलोइयं नरवरिदेणं ॥ १३ ॥ * द कुमरं गयखंधसंठियं सुरवई व सो राया । पुच्छइ नियभिच्चयण को एसो गुणनिही बालो ।। १४ ।। नौकर 2017-mail ते एणं अहिमयरो सोमत्तगएण तह य निसिनाहो । सव्वकलागमकुसलो वाई सूरो सुरूवो य ॥ १५ ॥ पाययकुसुमावली एक्केण त भणियं कलयायरिम्स मंदिरे एसो । कुलपरिसमं कुणतो दिट्ठो मे तत्थ नूरनाह ॥ १६ ॥ 61 D 1 तो सो कलयायरिओ नरवइणा पुच्छिओ हरिसिएणं । को एसो वरपुरिसो गयवरसिक्खाए अइकुसलो ॥ १७ ॥ अभयं परिमग्गेउं कलयारिएण कुमरवृत्तंतो । सविसेसं परिकहिओ नरवइणो बहुजणजयस्स ।। १८ ।। तं निसुणिऊण राया नियहियए गरुयतोसमावन्नो । संपेसइ पडिहारं कुमरं आणेहि मम पासं ॥ १९ ॥ यधरिट्टियओ अह सो भणिओ य दारवालेणं । हक्कारइ नरनाहो आगच्छसु कुमर रायउलं ॥ २० ॥ रायासेण ओहत्थि स्वंभमि अग्गलेऊणं । कुमरो ससंकहियओ पत्तो नरनाहपासम्म ।। २१ ॥ जाणूकरुत्तमं महीए विणिहित्तु गरुयविणएगं । जाव न कुणइ पणामं अवगूढो तात्र सो रन्ना । २२ ॥ For Private And Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगडदत्तस्स सम्माणो * * * * * ५७ तओ चिंतियं राइणा उत्तमपुरिसो एसो य जओ - विणओ मूलं पुरिसत्तणस्स मूलं सिरीए ववसाओ। धम्मो सुहाण मूलं दप्पो मूलं विणासस्स ॥ २३ ॥ अन्नं च - को चित्तेइ मऊर गई च को कुणइ रायहंसाणं ।। को कुवलयाण गंधं विणयं च कुलप्पसूयाणं ॥ २४ ॥ अवि य - साली भरेण तोएण जलहरा फलभरेण तरुसिहरा । विणएण य सप्पुरिसा नमंति न हु कस्स वि भएण ।। २५ ।। तंबोलासणसंमाणदाणपूयाइपूइओ अहियं । कुमरो पसन्नहियओ उवविठ्ठो रायपासम्मि ।। २६ ॥ ( उत्तराध्ययनसूत्र-सुखबोधा टीका अगडदत्तकहा -५१-७६ ) For Private And Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अप्पसरूवं (उद्योतनसूरि ई. स. ८ वे शतक में हो गये। उन्होंने 'कुवलय माला' माम की प्रदीर्घ धर्मकथा लिखी है। यहाँ आत्मा का स्वरूप कैसा है यह सामान्य जनता को भी समझाने के लिए विविध उपमा देकर स्पष्ट किये हैं। उद्योतनसूरी हे इ. स. आठव्या शतकात होऊन गेले त्यांनी 'कुवलयमाला' नावाची प्राकृतात गद्य पद्यामध्ये प्रदीर्घ धर्मकथा लिहिली आहे. येथे आत्म्याचे स्वरूप कसे आहे हे सामान्य जनतेसही कळावे म्हणून विविध उपमा देऊन स्पष्ट केले आहे.) जह किर तिलेसु तेल्लं अह्वा कुसुमम्मि होइ सोरभं । अन्नोन्नाणुगयं चिय एवं चिय देहजीवाणं ।। १॥ जह देहम्मि सिणिद्ध लग्गइ रेणू अलविखओ चेय। रायद्दोससिगिद्धे जीवे कम्मं तह च्चेय ।। २ ।। जोडा. जह वच्चंते जीवे वच्चइ देहं पि जत्थ सो जाइ । तह मत्तं पिव कम्मं वच्चइ जीवस्स निस्साए ॥ ३ ॥ For Private And Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org * अप्पसरूवं जह मोरो उड्डीणो वच्चइ घेत्तुं कलावपब्भारं । तह वच्चइ जीवो वि हु कम्मकलावेण परियरिओ ॥ ४ ॥ * Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * * जह कोइ इयरपुरिसो रंधेऊणं सयं च तं भुंजे । तह जीवो विसयं चिय काउं कम्मं सयं भुंजे ॥ ५ ॥ प्रो. जह विथ सरें गुंजावायाहओ भमेज्ज हढों । तह संसारसमुद्दे कम्माइद्धो भम जीवो ॥ ६ ॥ जह बच्चइ को विनरो नीहरिडं जरघराज नवयम्मि । सोउन् बाघरात तह जीवो चइऊणं जरदेहं जाई देहम्मि || ७ || जह रयणं मयणसुगू हियं पि अंतोफुरंतकं तिल्लं । इय कम्मरासिगूढो जीवो वि हु जाणए किंचि ॥ ८ ॥ जह दीवो वरभवणं तुंगं पिहूदीहरं पि दीवेइ | मल्लयसंपुडछूढो तत्तियमेत्तं पयासेइ ॥ ९ ॥ तह जीवो लक्खसमूयसियं पि देहं जणेइ सज्जीवं । पुण कुंथु देहछूढो तत्तियमित्तेण तु ॥ १० ॥ मुग जह गयणयले पवणो वच्चंतो नेय दीसइ जणेण । भवरूपी सागर तह जीवो वि भमतो नयणेहि न घेप्पइ भवम्मि ॥ ११ ॥ जह किर घरम्मि दारेण पविसमाणो निरंभई वाऊं । इय जीव घरे रुंभ इंदियदाराई पावस्स ॥ १२ ॥ For Private And Personal Use Only ५९ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६० * * * * * पाययकसुमावली जह डज्झइ तणकट्ठ जालामालाउलेण जलणेणं । तह जीवस्स वि डज्झइ कम्मरयं झाणजोएण ॥ १३ ।। बीयंकुराण व जहा कारणकज्जाई नेय नज्जति । इय जीवकम्मयाण वि सहभावो णंतकालम्मि ।। १४ ।। मजलायन जह धाऊपत्थरम्मि समउप्पणम्मि जलणजोहि। डहिऊण पत्थरमलं कीरइ अह निम्मलं कणयं ।। १५ ॥ . अनदिन धान तह जीवकम्मयाणं अणाइकालाम्म झाणजोएण । निज्जरियकम्मकिट्टो जीवो अह कीरए विमलो ॥ १६ ॥ जह विमलो चंदमणी झरइ जलं चंदकिरणजोएण । तह जीवो कम्ममलं मुंचइ लद्धण सम्मत्तं । १७ ।। जह सूरमणी जलणं मुंचइ सूरेण ताविओ संतो। तह जीवो वि हु नाणं पावइ तवसोसियप्पाणो ॥ १८ ॥ जह पंकलेवरहिओ जलोवरि ठाइ लाउओ सहसा । तह सयलकम्ममुक्को लोगग्गे ठाइ जीवो वि ।। १९ ।। ( उज्जोयणसूरिविरइया कुवलयमाला पा. ९८) 44 For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १६ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कप्पूरमंजरी सिंगारो ( यायावर कुल में कविराज राजशेखर ई. स. ८८४ से ९६० तक की कालावधि में हो गया । वह महेंद्रपालराजा के आश्रय में था । वह सब भाषा में चतुर था। उसने काव्य, नाट्य, शास्त्र का गहरा अध्ययन किया । चाहुआण कुल को अवन्ती सुंदरी उसकी पत्नी थी । उसने ६ प्रबंध ( अमुपलब्ध ) 'बालरामायण; 'बालभारत' ( या प्रचंड पांडव ) 'विद्धशालभंजिका' नाटक, 'कर्पूरमंजरी' प्राकृत सट्टक तथा काव्यमीमांसा' यह काव्यशास्त्र पर ग्रंथ, ऐसी विपुल ग्रंथरचना की। उसका कर्पूरमंजरी सट्टक सामने रखकर ही नयचंद्र ने रंभा मंजरी, रुद्रदास ने चंद्रलेखा, मार्कंडेय ने विलासवती विश्वेश्वर ने शृंगारमंजरी और घनश्याम ने आनंद सुंदरी सट्टकों की रचना की । यहाँ दूसरी जवनिका में विचक्षणा दासी नायिका कर्पूरमंजरी का विरहाकुल प्रेममत्र राजा को देती है । तब राजा उसे पूछता है, विभ्रमलेखा रानी ने कर्पूरमंजरी को अत:पुर मे लेने के बाद उसके बारे में क्या किया ? तब विलक्षणा कर्पूरमंजरी का साजशृंगार कैसा किया यह कहती हैं और राजा रसिकता से उस पर मोहक कल्पना करता है । यहाँ कविराज राजशेखर का कल्पनाविलास नजर में आता है । इसकी भाषा महाराष्ट्री हैं । For Private And Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२ * * * * * पाययकुसुमावली यायाकरकुलातील कविराज राजशेखर या इ. स. ८८४ ते ९६०च्या दरम्यान होऊन गेला. तौ महेंद्रपालराजाच्या पदरी असून ‘सर्व भाषाचतुर' होता. त्याने काव्य, नाटय, शास्त्रांचा अभ्यास केला होता. चाहुआण घराण्यातील अवंतीसुंदरी त्याची पत्नी होती. त्याने सहा प्रबंध (अनुपलब्ध) तसेच बालरामायण, बालभारत (किंवा प्रचंड पांडव) व विद्धशालभंजिका ही नाटके, कर्पूरमंजरी हे प्राकृतातील सट्टक आणि काव्यमीमांसा हा काव्य शास्त्रावरील ग्रंय अशी विपुल रचना केली. त्याचे कर्पूरमंजरी सट्टक समोर ठेवूनच नयचंद्राने रंभामंजरी, रुद्रदासाने चद्रलेखा, मार्कंडेयाने विलासवती, विश्वेश्वराने शृंगारमंजरी आणि घनश्यामाने आनंदसुंदरी सट्टकाची रचना केली. येथे दुस या जवनिकेत विचक्षणा दासी नायिका कर्पूरमंजरीचे विरहाकुल प्रेमपत्र राजाकडे घेऊन येते. नंतर राजा तिला विचारतो, 'विभ्रमलेखागणीने कर्ष मंजरीला अंतःपुरात नेल्यावर काय केले ? तेव्हा तिचा कसा साजशृंगार केला हे विचक्षणा सांगते आणि त्यावर राजा रसिकतेने मोहक कल्पना करतो. यथे कविराज राजशेखराचे काव्यकौशल्य दिसून येते. यातील भाषा महाराष्ट्री आहे.) राजा अध अंतेउरं णइअ देवीए कि किदं तिस्सा। विचक्षणा-देव, मज्जिदा टिक्किदा भूसिदा तोसिदा अ। राजा- कधं वि। विचक्षणा ___ घणमुवट्टिअमंगं कुंकुभरसपंकपिंजरं तिरसा । राजा रोसाणिअ फुडं ता कंचणपंचालिआरूवं ।।१।। For Private And Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कप्पूरमंजरी सिंगारो * विचक्षणा राजा विचक्षणा राजा विचक्षणा राजा राजा विचक्षणा राजा www.kobatirth.org मरगअमंजरिजुअं चलणा से लंभिआ वअंसीहिं । भमिअमहोमुहपंकअजुअलं ता भमरमालाहिं ॥ २ ॥ राअसुअपिच्छणीलं पट्टसुअजुअलअं णिअत्था सा । अलीअ कंदली ता दरपवणपणोल्लिअदलग्गा ||३|| तीए णिअंबफलए णिवेसिआ पोम्मराअमणिकंची । कंचणसेलसिलाए ता बरिही कारिओ ट्टं ॥४॥ विचक्षणा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विचक्षणा दिण्णा वलआवलीउ करकमलपओट्टणालजुअलम्मि । ता भह किं ण रेहइ विवरीअं मअणतोणीरं ॥ ५ ॥ कंठम्म ती ठविओ छम्मासिअमोत्तिआणं बरहारो । सेवइ ता पतीहि मुहअंदं तारआणिअरो ॥६॥ उह सँ विसवणेसुं णिवेसिअं रअणकुंडलजुओं से ६३ For Private And Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४ * * * * * पाययकसमावली राजा ता वअणवम्महरहो दोहि वि चक्केहि चंकमिओ॥७॥ विचक्षणा जच्चंजणजणिअपसाहणाई तीए कआईं णअणाइँ । राजा ____ता अप्पिउ णवकुलअसिलीमुहो पंचबाणस्स ।।८।। विचक्षणा कुडिलालआण माला णिडाललेहग्गसंगिणी रइआ। राजा ___ता ससिबिबस्सोवरि बट्टइ मज्झाउ सारंगो । ९॥ विचक्षणा घणसारतारणअणाइ गूढकुसुमुच्चओ चिहुरभारो। राजा ससिराहुमल्लजुझं ता दंसिअमेणणअणाए ॥१०॥ विचक्षणा इअ देवीअ जहिच्छं पसाहणेहिं पसाहिआ कुमरी । राजा ता केलिकाणणमही विहूसिआ सुरहिलच्छीए ॥११॥ (राजशेखरविरचिता कर्पूरमंजरी सट्टकं द्वितीयम् जवनिकान्तरम पा. १२-२२) For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra .१६ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( भगवान् महावीर के प्रवचन का सार ऐसे कुछ बोधपर श्लोक बटुकेर, कुंदकुंदादि दिगंबर आचार्यों के ग्रन्थ से तथा श्वेतांबर आगमादि सूत्र से चुनकर यहाँ एकत्र किए हैं। दिगंबर आचार्यों की भाषा जंनशोरसेनी है और श्वेतांबर आगम की भाषा अर्द्धमागधी है । संबुज्झह किन बुझह पेच्च संबोही खलु नो हुवणमंत राईओ नो खलु पुणरावि जीवियं ॥ १ ॥ भगवान महावीरांच्या प्रवचनांचा सारच असे काही बोधपर श्लोक घट्टकेर, कुंदकुंदादि दिगंबर आचार्यांच्या ग्रंथातून निवडून येथे एकत्र केले आहेत, दिगंबर आचार्यांची भाषा जैनशौरसेनी असून श्वेतांबर आगमाची अद्धमागधी आहे. ) दुल्लहा | पवयणसारो ( सूत्रकृतांग १ - २ - १-१ } For Private And Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६ जम्मं मरणेण समं संपज्जदि जुव्वणं जरासहिदं । लच्छी विणाससहिया इय सव्वं भंगुरं मुणध ॥ २ ॥ भवरणे जीवमिओ जो गहिओ तेण मरणसीहेण । असमत्था मोएडं सयणा देवा य इंदोवि ॥ ३ ॥ पायय कुसुमावली ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा - ५ ) ( जीवदयाप्रकरण १०८ ) जस्सत्थि मच्चुणा सक्खं जस्स चत्थि पलायणं । जो जाणे न मरिस्सामि सो हु कंखे सुए सिया ॥ ४ ॥ ( उत्तराध्ययनसूत्र १४ -२७ ) जीवियं नाभिकखेज्जा मरणं नो वि पत्थए । दुहओ विन सज्जेज्जा जीविए मरणे तहा ॥ ५ ॥ धीरेण वि मरियव्वं काउरिसेण वि अवस्स मरियव्वं । दुहं पि हु मरियवे वरं खु धीरत्तणे मरिउं ॥ ७ ॥ ( आचारांग १ - ८-८-४ ) जइ वा विसगंड्स कोई घेत्तूण नाम तुहिक्को । अण्णेण अदीसंतो किं नाम ताओ न व मरेज्जा ।। ६ ।। ( सूत्रकृतांग नियुक्ति ५२ ) ( आतुर प्रत्याख्यान ६४ ! For Private And Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पवयणहारो * पुत्तकलत्तणिमित्तं अत्थं अज्जदि पावबुध्दीए । परिहरदि दयादाणं सो जीवो भमदि संसारे ॥ ८ ॥ * किच्चा परस्स णिदं जो अप्पाणं ठवेदु मिच्छेज्ज । सो इच्छदि आरोग्गं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( कुंदकुंदाचार्य - अनुप्रेक्षा - ३० ) परम्मि कडुओस पिए ॥ ९ ॥ कसिणं पि जो इमं लोयं पsिपुण्णं दलेज्ज इक्कस्स । तेणावि से न संतुस्से ss दुष्पूरए इमे आया ॥ १०॥ ( भगवती आराधना ३७१ ) ( उत्तराध्ययन सूत्र ८ - १६ ) सक्का वही निवारे वारिणा जलिओ बहिं | सव्वोयही जणावि मोहग्गी दुन्निवारिओ ॥११॥ ६७ ( ऋषिभाषितानि ३ - १० ) नाणंकुसेण संधह मणहत्थि उप्पहेण वच्चतं । मा उप्प पडिवो सीलारामं विणासिज्जा ।।१२ । ( नानावृत्तक प्रकरण ८१ ) जहा कालो इंगालो दुद्धोओ न पंडुरो होइ । तह् पावकम्ममइला उदएण न निम्मला हुंति ॥ १३॥ ( नानावृत्तकप्रकरण ५० ) For Private And Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८ * * * * * पाययकूसुमावली जीवे न हणइ अलियं न जंपए चोरियं पि न करेइ । परदारं पि न वच्चए घरे पि गंगादहो तस्स ॥१४॥ (नानावत्तकप्रकरण ५८) सो पंडिओ त्ति भण्णइ जेण सया नेय खंडियं सीलं । सो सूरो वीरहडो इंदियरि उनिज्जिया जेण ॥१५॥ (जीवदयाप्रकरण १०५) सो सव्वस्स वि पुज्जो सव्वस्स वि हिययआसमो होइ । जो देसकालजुत्तं पियवयणं जाणए वुत्तुं ॥१६॥ (जीवदयाप्रकरण ११४) जदि पडदि दीवहत्थो अवडे ___किं कुणइ तस्स सो दीवो। जदि सिविखऊण अणयं करेदि किं तस्स सिक्खा फलं ॥१७॥ (मूलाचार-समयसाराधिकाराः १५) सुचिरं पि अच्छमाणो वेरुलिओ कायमणिओमीसे । न य उवेइ कायभावं पाहन्नगुणेण नियएण ॥१८॥ (ओघनियुक्ति ७७२) For Private And Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पक्ष्यणसारो * * * * * ६९ जहा खरो चंदणभारवाही भारस्स भागी न हु चंदणस्स। एवं खु नाणी चरणेण हीणी नाणस्स भागी न हु सोग्गईए ॥ १९ ॥ ( आवश्यकनियुक्ति १०० ) नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा। एयमग्गमणुपत्ता जीवा गच्छंति सोग्गइं ।। २० ॥ ( उत्तराध्ययनसूत्र-२८-३ ) अंबत्तणेण जीहाइ कूइया होइ खीरमुदगम्मि । हंसो मोत्तूण जलं आपियइ पयं तह सुसीसो ॥ २१ ॥ ( बृहत्कल्पभाष्य ३४७ ) जं कल्लं कायव्वं अज्ज चिय तं करेह तुरमाणा । बहुविग्धों य मुहुत्तो मा अवरण्हं पडिक्खेह ॥ २२ ॥ ( जीवदयाप्रकरण ११५ ) लब्भंति सुंदरं चिय सम्वो घोसेइ अप्पणो पणियं । केइएण वि घित्तव्वं सुंदरं सुपरिक्खिउं काउं ।। २३ ।। ( नानावृत्तकप्रकरण ६) विज्जारहमारूढो मणोरहपहेसु भमइ जो चेदा । सो जिणणाणपहावी सम्मादिट्ठी मुणेदव्यो ।। २४ ।। ( समयसार २३६ ) For Private And Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ७० * www.kobatirth.org जह दीवो दीवस पइप्पए सोय दिप्पए दीवो दीवसमा आयरिया समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिदसमो | समलो कंचो पुण जीविदमरणे समो समणो ॥ २५ ॥ जहा निसंते तवणच्चिमाली Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पभासइ केवलभारहं तु । एवारिओ सुयसीलबुद्धीए * अप्पं च परं च दीवंति ॥ २६ ॥ ( प्रवचनसार ३ ४१ ) पाययकुसुमावली ( उत्तराध्ययननियुक्ति ) विरायइ सुरमज्झे व इंदो ॥ २७ ॥ ( दशवैकालिकसूत्र ९-१-१४ ) सुई जहा ससुत्ता ण णस्सदि दु पमाददोसेण । एवं ससुत्तपुरिसो ण णस्सदि तहा पमाददोसेण ॥ २८ ॥ ( मूलाचार - समयसाराधिकार ९८०) रागो दोसो मोहो इंदियचोरा य उज्जदा णिच्चं । णचयंति पहंसेदुं सप्पुरिससुरक्खिदं णयरं ॥ २९॥ (मूलाचार अनगारभावनाधिकार : ११२ ) For Private And Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पवयणसारो * * * * * ७१ धम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं णमंसंति जस्स धम्मे सया मणो ॥३०॥ (दशवैकालिकसूत्र १-१) सव्वजगस्स हिदकरो धम्मो तित्थंकरेहिं अक्खादो। धण्णा तं पडिवण्णा विसुद्धमणसा जगे मणुया ।।३१।। (मूलाचार-द्वादशानुप्रेक्षाधिकारः ६०) For Private And Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्पूर्ण For Private And Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कठिन शब्दार्थ For Private And Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १. कविलमुणिचरियं - बहुमओ-( बहुमतः ) अत्यंत अभिटीत ( मोठा मामान्य केला गेलेला) वित्ति-(वृत्ति) जीविका, निर्वाह साधन (उपजीविकेचे माधन) उवकप्प-(उप+क्ल) करना (करण) खुड्डुलप-(दे.) बचपन (बालपन) कालगओ-(कालगतः) मर गया (मरण पावला) मरुगय-(मरुक) ब्राह्मण. आस-(अश्व) घोडा. वच्च-(व्रज्) जाना (जाणं) इड्डि- ऋद्धि) वैभव, ऐश्वर्य. अहिज्ज-(अधि+ ई) पढना (अभ्यास करणे) निविसेस-(निविशेष ) विशेष रहित, समान. पसाय-(प्रसाद) कृपा निप्परिग्गहत्तणओ-( नि+परिग्रहान् ) परिग्रह रहित होने से ( अपरिग्रही (अरिग्रही असल्यामुळे ) संपज्ज-(सं+पद्) संपन्न होना, सिद्ध होना, मिलना ( प्राप्त होण, साध्य होणे) पत्य-(प्रार्थय) प्रार्थना करना ( विनवणी करणे, इब्म-(इभ्य) धनी (श्रीमत) पओयण-(प्रयोजन) प्रयोजन, कारण जिम-(जिम्, भुज्) भोजन करना 'जेवणे) For Private And Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दासवेडी-(दासचेटी) दासी (मोलकरीण) परिवेम-(परि+विष्) परोसना (वाढणे) मह-(मह) उत्सव अरइ-(अरति) वेचैनी (दुःख) विगुप्प-( वि+गोपय् ) फजिहत या तिरस्कार करना ( फजिती किंवा तिरस्कार करणे) अधिइ-- अति) धीरज का अभाव ( धैर्य गलित ) अप्पहाय- अप्रभात) बडी सबेर (पहाट) . वद्धाव- (वर्धय वर्धापय् ) बधाई देना ( अभ्युदयाची इच्छा करणे ) मास-(माष) परिमाणविशेष, मासा.. आरक्खियपुरिस- (आरक्षित पुरुष) कोटवाल (कोतवाल) डिभरूव-(डिम्भरूप) बालक परिणयण-(परिणयन) विवाह पज्जत-(पर्याप्त काफी (पुरे) परिभाव-(परि+भावय) पर्यालोचन करना ( चिंतन करणे) उवरम-(उप+रम्) निवृत्त होना, विरत होना (विरत होणे) अवहीर-(अव+धीरय) अवज्ञा करना (अवज्ञा करणे) अवगण-(अव+ गणय् ) अनादर करना (अनादर करणे) अवमण्ण-(अव+मन्) तिरस्कार करना ( तिरस्कार करणे ) इयर-इतर) सामान्य सर-(स्म) स्मरण करना (स्मरण करणे) आयारभंडग-(आचारभण्डक) मुनि उपकरण निट्ठिय-(निप्ठित) निष्पन्न, सिद्ध. धम्मलाभ-(धर्म लाभ) धर्म लाभ हो ऐसा आशीष ( धर्मलाभ होवी असा आशीर्वाद For Private And Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २. कालगायरियकहा सरिस-(सदृशः समान सुत्ति-(शुक्ति) सीप (शिंपली) चूयपायव-(च्यूतपादप) आम्रवृक्ष देसणा-(देशना) उपदेश) सुयणाण-(श्रुत ज्ञान) अंग, उपांगादि धर्मग्रंथ. गीयत्य-(गीतार्थ) ज्ञानी जैन मुनि मूरि-(सूरि) आचार्य इत्थीलोलो-(स्त्रीलोलुप) स्त्रीलोलुप (स्त्रीलंपट) विल-(विफल) फलरहित धम्मह-(मन्मथ) कामदेव, मदन कामगहगहिल्ल-( कामग्रहग्रसित ) कामपिशाच से प्रसित (कामपिशाच्चाने झपाटलेला) ओरोह-(अवरोध) अंतःपुर छूढ-(क्षिप्त) क्षिप्त (टाकले गेले) लिगिगी-(लिंगिणी) साध्वी मुस- मुष्) चोरी करना (लुबाडणे) मुय-(मुञ्च्) मुक्त करना (सोडणे मिच्छा-(मिथ्या) मिथ्या, व्यर्थ होना, (फुकट जाणे) कइयव-(कैतव) कपट, दंभ. झंप-(आ+च्छादय्) झांपना, आच्छादन करना (झाकून टाकण) रोह-(रुद्ध) घेरना (वेढा देणे) र हिर-(रुधिर) रक्त तज्ज- तर्जय) तर्जन करना, भर्त्सना करना (निर्भत्सना करणे) निद्धाड-(निर्धारय् ) बाहर निकालना (हाकलून देणे) सुज्झ-(शुध्) शुद्ध होना (शुद्ध होणे) : **++ For Private And Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३. विवागदारुणो मायाचारो ** * * सुया-(सुता) कन्या - अहाकप्प-(यथा कल्प) शास्त्रनियम के अनुसार (शास्त्रनियमानुसार) सुय-(श्रुत) ज्ञान गणिणी-(गणिनी) प्रवर्तिनी, प्रमुख साध्वी नाइकुल-(ज्ञातिकुल) पीहर, मायका (माहेर) ऊसासिय-(उच्छ्वासित) उल्लसित, पुलकित. वियंभ-(वि+जृम्भ) विकसना (पसरणे) सस्स-(शस्य) धान्य. पडिस्सय-(प्रतिश्रय) जैन साधुओं को रहने का स्थान, उपाश्रय.... पज्जुवास-(पर्युप+ आस ) सेवा करना, भक्ति करना, (सेवा करना (सेवा करणे, भक्ती करणे) सेल-(शैल) पहाड (पर्वत) वज्जासणि-(वजाशनि) बन चारय-(दे.) कैदखाना, कारावास पओस-(प्रद्वेष) द्वेष. विवाअ-(विपाक) परिणाम. वियारिय-(विकृत) विकृत संपाइय-(संपादित) साधित, प्राप्त. For Private And Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७९) वावाय-(व्या+पादय) मार डालना (ठार करणे) आसीविस- (आशी विष) जहरीला मॉप (विषारी माप) पोससमय--(प्रदोषसमय) सन्ध्यासमय. उवणी-'उप+नी) समीप में लाना, अर्पण करना (घेऊन येणे, अर्पण करणे) अवी-(अप+नी) दूर करना, हटाना ( दूर करणे, काढणे) धरणि माउलिंग-(धरणिमातुलिंग ) मिट्टी का बनाया बीजोरे के फल के आकार का घट्टण ( म्हाळुगाच्या आकाराचे घड्यावरील मातीचे झाकण) नुवारघट्टण-(द्वारघट्टन) झाकण. मज्झस-(साध्यस) भय. नियडि-(निकृति) माया, कपट. सीइय-(सन्न) विन्न, परिश्रान्त. उय्वत्त-(उद् + वृत्) चलना-फिरना (फिरणे) परिवत्त-(परि+वर्तम् । पलटाना, फिराणा (परिभ्रमण करणे.) अवसा-(अवशा) आलम्बन या सहारा रहित (निराधार) चिक्खणीय-(दे.)सहनशील सोहम्मकप्प-(सौधर्मकल्प) सौधर्म नाम का पहला स्वर्ग ( सौधर्म नावाचा पहिला स्गर्ग) रयणप्पभा-(रत्नप्रभा ) रत्नप्रभा नाम की पहली नरकभूमि ( रत्नप्रभा नावाची पहिली नरकभुमी) For Private And Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४. कमलाई कद्दमे संभवंति कद्दम- (कर्दम) कीचड़ (चिम्बल) गणिया-(गणिका) ( वेश्या ) खेइय- (म्वेदित) पीडित, व्यथित. तिगिच्छग-(चिकित्सक) वैद्य पाहि-(व्याधि) व्याधि, रोग गालणोवाय-( गालनोपाय ) ( गर्भ ) गिरवाने का उपाय ( गर्भपाताचा उपाय) गवेस- (गवेषय) खोजना (शोधणे ) निरामय-(निरामय) रोगरहित, निरोगी वाघाय-(व्याघात) प्रतिबन्ध (अडथळा) जायपरिच्चाय-(जातपरित्याग) संतान त्याग उज्म-(उज्झ्) त्याग करना (त्याग करणे, सोडणे) राय, राइ, रत्ति-(रात्रि) रात (रात्र) मुद्दा-(मुद्रा) मुद्रिका, अंगूठी (आंगठी) डहरिया (का)-(दे.) छोटी (लहान) पच्चूस-(प्रत्यूष) सुबह (सकाळ) गिह-(गृह) मकान (घर) जय--(यूत) द्यूत For Private And Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८०) पओज, पउंज-(प्र+युज्) प्रवृत्त या प्रेरणा करना (प्रवृत्त करणे ) सवहसाविया-(शपथ शापिता) सौगन्धपूर्वक (शपथ घालून) दिसाजत्ता-(दिशायात्रा) देशाटन (प्रवास) सारक्ख-(सं-- रक्ष्) अच्छी तरह रक्षण करना (चांगल्यारीतीने सांभाळणे । पवत्तिणि-(प्रवर्तिनी) प्रमुख साध्वी अनाण, अन्नाण- अज्ञान) अज्ञान, अजाणता अज्जा-(आर्या) साध्वी असंकिय-(अशङ्कित ) शंकारहित अभिक्ख-(अभीक्षण) बारबार (पुनः पुन्हा) परियंद-(परि+वन्द) वन्दन या स्तुति करना (वंदन किंवा स्तुती करणे) पित्तिज, पित्तिय-(पितृव्य) पिता का भाई, चाचा ( काका ) उदाहु-(उताहो) अथवा विणोयणत्थं-(विनोदनार्थम् ) कौतुक करने के लिए (कौतुक करण्याकरिता) संवेग- संवेग) संसार से विरक्ति और धर्म पर श्रद्धा ( संसारापासून विरक्ती आणि धर्माविषयी श्रद्धा) पत्थ-पथ्य) हितकारक तुरियं-(त्वरित) जल्दी (लगेच) तवोवहाण-(तपोषधान) तपाचरण विगि?-(व्युत्कृष्ट) उत्कृष्ट खब-(क्षपथ्) नाश करना, क्षय करना (क्षय करणे ) साणुक्कोस-(सानुक्रोश) दयालु (दयाळू) For Private And Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५. कुलवहु पाया-(जाया) पत्नी दाहिणाणिल-(दक्षिणानिल) दक्षिणवायु चच्चरी-(चर्चरी) गानेवाली टोली (गाणाऱ्यांचे पथक) महुसमय-(मधुसमय) वसंतऋतु का समय (वसंतऋतूचा समय) दीहिया-(दीपिका ) वापी, जलाशय अणुणी-(अनु-नी) अनुनय करना (अनुनय करणे) उक्कडया-(उत्कटता) उत्कटता, तीव्रता अब्भत्यय-(अभ्यस्तक) अभ्यास (सवय) गामधम्म- (ग्रामधर्म) विषयाभिलाषा, विषयप्रवृत्ति विसमसर-(विसमशर) मदन. वोल-(गम्) गुजरना (जाणे) निच्चुड (ड) (दे.) निर्दय, बाहर निकला हुआ (बाहेर गेलेला) अवही-(अवधि) अवधी. झूर-(क्षि) झुरना (झुरणे) समीहिय-(समीहित) इच्छित सोहन-(शोधन) सफाई करना (साफ करणे, पाखडणे) रंधण-(रन्धन) रान्धना (स्वयंपाक करणे) उवणय-(उपनय) दृष्टांत. For Private And Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६. थावच्चापुत्तस्स पव्वज्जा दुरूढ-(आरूढ) अधिरूढ, ऊपर चढ़ा हुआ (आरूढ, वर चढलेला) पवय-(प्र+व्रज) दीक्षा लेना (दीक्षा घेणे) आबाहा-(आबाधा) बाधा, त्रास. विबाहा-(विबाधा) दुःख, बाधा. दुरइक्कमणिज्जा-(दुरतिक्रमणीय) निवारण करने के लिए अत्यंत कठिन (निवारण करण्यास अत्यंत कठिण) अविरइ-( अविरति ) पाप कर्म से अनिवृत्ति ( पापी कर्मापासून निवृत्त न होणे) निक्खमण-(निष्क्रमण) दीक्षा ग्रहण. यज-(यत् ) यत्न करना (यत्न करणे ) घड- (घट) परिश्रम करना (परिश्रम करणे) पमाय-(प्र+मद्) प्रमाद करना, बेदरकारी करना ( प्रमाद करणे, निष्का ळजी राहणे) लोअ-(लोच) लुंचन, केशों का उत्पाटन (केस उदटणे, केश लोच) - For Private And Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७. दमयंती सयंवरो मय-(नय) न्याय, नीति. पाय-(त्याग) त्याग कुक्खि -(कुक्षि) उदर (कूख) सरह-(शरभ) अष्टपाद भयानक शरभ नाम का पशु कि जो हाती या शेर से भी सामर्थ्यशाली होता है । ( हत्ती किंवा सिंहाहूनही अधिक शक्तिशाली असे शरभ नावाचे आठ पायांचे रानटी जनावर) जह-(यूथ) समूह (कळप) तरणि-(तरणि) सूर्य सिरिवच्छ-(श्रीवत्स) तीर्थकरादि महापुरुष के वक्षस्थळ पर चार दल के कमल के समान वाल का शुभ चिह्न । तीर्थकरादि महापुरुषाच्या छातीवर चार पाकळ्या युक्त कमळासारखे असलेले केसांचे शुभ चिन्ह) दम (दमय) दमन करना (दमन करणे) सियपक्ख-(सितपक्ष) शुक्लपक्ष. कलोवज्झाय-(कलाउपाध्याय) कलाओं का अध्यापक (कलांचा अध्यापक) आयंस-(आदर्श) दर्पण (आरसा) संकंत- (संक्रान्त) संक्रांत होना, आत्मसात होना (आत्मसात होणे) असरिस-(असदृश) असामान्य सुवत्त-(सुवृत्त) उत्तम प्रकार वाले (उत्तम आकार असलेले) बंधुर--(बंधुर) मोहक, सुंदर. दुकल--(दुकूल) रेशमी वस्त्र. महिनाह--(महिनाथ) पृथ्विपति, राजा. चक्खुविक्खेव--(चक्षुर्विक्षेप) नेत्रकटाक्ष. परवंचणवसणिणो--(परवञ्चना व्यसनशीला:) परवंचना करने का जिनका अभ्यास है वे ( दुसऱ्याची फसवणूक करण्याची सवय असलेले) For Private And Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पार--(ग) सकना, करने में समर्थ होना ( शक्य होणे ) केयार--(केदार) क्षेत्र, कुंकुम-(कुंकुम) केशर. तुसार-(तुषार) हिम, बर्फ. कोस--(कोश) कोश (द्रव्यकोश, द्रव्य भांडार) मयरद्धय-(मकरध्वज) जिसके ध्वज पर मकर का चिह्न है वह मदन (ज्याच्या ध्वजावर मकराचे चिन्ह आहे तो मदन) कविजला--( कपिजला ) कपिजला नाम की दूसरी सखी दामी, जिसने वरमाला तैयार की थी। (जिने वरमाला तयार केली ती कपि जला नावाची दुसरी सखी दामी) अप्पडिवयण--(अप्रतिवचन) जवाब न देना (उत्तर न देणे) पडिसेह-(प्रतिषेध) निषेध. कलयंठ--(कलकण्ठ) मधुर स्वरयुक्त, कोकिला. करवाल--(करवाल) खड्ग (तलवार) नियर--(निकर) समूह. फुट्ट--( स्फुट ) फुटना ( फुटणे) भेसण--(भीषण ) भयानक. वेव--( वेप ) कंपना ( कापणे, थरथरणे) ईसिं--( ईषत् ) किंचित्. तरंगिणी-(तरङ्गिणी ) जिसमें तरंग हो वह, नदी. परिस्संत-(परिश्रान्त ) श्रान्त (दर्पण) किच्चिरं--( कियत् चिरं) कितना काल ( किती वेळ ) सहस्सनयण-( सहस्र नयन), जिसके सहस्र आँख हो वह, इंद्र पच्चाएस-(प्रत्यादेश ) निराकरण. कंदल--(कन्दल ) लताबिशेष, अंकुर. For Private And Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८. पदुमावदी उदअणस्स दिण्णा * * * कंदुअ-( कन्दुक ) चेंडू. कण्णचूलिआ--( कर्ण चूलिका ) कर्णफूल. राअ--( राग ) लाल, प्रेम. णिवत्तीअदु-- ( निवर्त्यताम्-परिसमान्यताम् ) उपभोग करे (उपभोग दे (घालवू दे) अभिदो--( अभितः ) साणुक्कोस--( सानुक्रोश ) दया, कृपा समुदाआरो--( समुदाचारः ) मर्यादा ( चाल रीत ) सुलहपय्यवस्थाणाणि-(सुलभानि पर्यवस्थानानि सुलभं पर्यवस्थानं येषां तानि) सुलभता से पूर्वस्थिति पर आनेवाली ( सहजपणे पूर्वस्थितिवर येणारी) ९. मुक्खत्तणस्स पाहुडो कंचुइ-( कञ्चुकिन् ) अन्तःपुर का प्रतिहारी ( अंत:पुरातील द्वारपाल ) दाई--(दे.) दाई. धत्ती-(धात्री) दाई. णिहालण--(निभालन ) निरीक्षण, अवलोकन अभिदो-( अभितः ) चारों ओर, समन्तात् ( चोहोकडे) आविट्ठ--( आविष्ट ) व्याप्त, आवृत्त। बाह-बाध ) विरोध करना, पीडा करना (विरोध करण, पीड़ा देणे ) For Private And Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८६) उवालह--( उपा+लभ ) उलाहना देना ( भमना करण ) तुरुक्क-(तुरुष्क) तुरुष्क. वीसकद्द --(विश्वकद्रु मृगयाकुशलः शुनकः) मृग या कुशल कुत्ता (शिकारी कुत्रा) गोमाउ--(गोमायु ) शृगाल, गीदड़ ( कोल्हा, गिधाड) रोइ-( रोगिन) बिमार ( रोगी) कुक्कुर--(कुक्कुर ) कुत्ता ( कुत्रा) पच्चार--(दे. ) बुलाना पाचारण करणे बोलावणे ) ठक्क--(दे. ' रखना (ठेवणे) घट्ट-(भ्रंश) भ्रष्ट होना (पडणे) विन्भंती-(विभ्रान्ति ) भ्रान्ती ( भम ) चणअ--( चणक ) धान्यविशेष, मसुर. ( चणकहिमाम्बु-चणकगुल्येषु आस्तीर्णैर्वस्त्रादिभिः संभृत्य तुषारोदकमित्यर्थः । एतेन अतिशैत्यं द्योत्यते ।) विअईल-- ( विचकिल ) मल्लिका ( अवयवेषु पुलकमुद्रा । नयनयोर्मुकुलीभावः गात्रे सात्विक भावात् स्वेदसमृद्धिर्मनसि चाखण्डसच्चिदानन्दनपरब्रह्मसाक्षा त्कारो भवती ति भावः । ) तुम्हि- ( तूष्णीम् ) मौन, चुपकी (मौन, उगीच ) मणत्तणं-- ( ऊनत्वं ) न्यूनत्व ( कमीपणा ) गल्लूरणादिअं-- ( गल्लूरणादिकं व्याघ्रस्य भीषणगम्भीरकण्ठध्वनिर्गल्लूरण शब्दार्थः। ( वाध की भयंकर गर्जना (वाघाची भयंकर डरकाळी) किदग्ध--( कृतघ्न ) ( कृतघ्न. For Private And Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०. नमुक्कारप्पहावो -- पूयारूह--( पूजार्ह ) पूजा का पात्र (पूजेस पात्र ) चरण-( चरण ) आचरण | सुय-(श्रुत ) श्रुत, आगम, सिद्धान्तशास्त्र. सर--(स्मर ) स्मरना ( स्मरणे) सिवपह--( शिवपथ ) मोक्षमार्ग. अवज्झ-( अवध्य ) अवध्य, न मरने वाला (न मरणारे ) मायंड--( मार्तण्ड ) सूर्य. पक्खिपह--( पक्षी प्रभ ) पक्षीराज गरुड. तक्कर--( तस्कर ) चोर. हरि-( हरि ) शेर (सिंह) करि--(करिन) हाथी (हत्ती) विसहर--(विषधर ) सर्प. दुरिय--( दुरित) संकट. दो घट्ट, दोग्घट्ट--( दे. ) हाथी, हत्ती. घट्टय, घट्ट- (घट्ट ) आहत करना, ( हल्ला करणे ) चउदमपुब--( चतुर्दशपूर्व ) चौदह पूर्व ग्रंथ कि जिनमें जैनदर्शन समाविष्ट है (ज्यामध्ये जैनदर्शन समाविष्ट आहे असे चौदा पूर्व ग्रथ ) सुमर'सुमर) स्मरण करना ( स्मरण करणे) For Private And Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११. वज्जालग्गं दोण ज्जा पवन्न प्रपन्न ) लीन होना ( गढून जाणे ) कुलक्कम--(कुलक्रम ) कुलक्रम, कुलपरंपरा. तूल--(तूल) रुई, रुआ (कापूस ) उदहि--( उदधि) मागर. ले--(ला) लेना (घेणे ) जलहर-- जलधर मेघ. सिंहवज्जा कुरंगी--(कुरङ्गी ) हरिणी. मइंद--(मगेन्द्र ) वनराज, शेर (सिंह) सोंडीर-(शौण्डीर ) महानता . मडह--(दे.) छोटा ( लहान गंजण--( गजन ) कलंक, अपमान चंदणदज्जा सुसिय--(शोषित ) शुष्क (वाळलेले ) निहस--( नि । घृष् ) घिसना ( घासणे ) महमह, मघमघ-- प्र+म.) पैलना, गन्ध का पसरना ( दरवळ, घमघमाट सुटणे) विलक्ख--(विलक्ष ) लज्जित. परसु--(परशु ) परश् ( कुन्हाड सन्नय-- (संनत) विनम्र, नत. दुजीह, दुज्जीह--(द्विजिह्वा) साँप (सर्प) मेल्ल, मिल्ल-- ( मुच) छोडना, त्यागना (सोडणे, त्याग करणे) For Private And Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२. उज्जलसीलो दहमुहो पायार-(प्राकार) तट, दुर्ग. भड--(भट) योद्धा. चेइय-(चैत्य) प्रतिमा, मूर्ति. बल--(बल) सेना. निसाम-(नि+श्रु) सुनना (ऐकणे) उह-(दह,) जलना (जळणे पहुत्त-बहुत (पुष्कळ) कराल-(कराल) विकराल, भयंकर. मइपगब्भ--(मतिप्रगल्भ) अत्यंत बुद्धिमान. विसज्ज-भेजना (पाठवणे) मच्छि8-(उच्छिष्ट) जूठा (उष्टे) उम्मण-कामजनक पत्थिव-(पाथिव) राजा. मुण-(दे.) जानना (जाणणे) For Private And Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३. बोहिदुल्लकहा दविणड्ड-(द्रव्यऋद्ध) धनसंपन्न. मंत-(मन्त्रय) गुप्त परामर्श करना, मसलहत करना (गुप्त विचारविनिमय किंवा मसलत करणे) पेयवमे-(प्रेतवन) स्मशान. रहपरास्त-(रहप्रदेश) गुप्तस्थान. आवइ-(आपद्) आपदा (संकट) गत्त, गड्ड-(गर्त) गड़हा, गड्डा (खड्डा) कप्पडिय-(कार्पटिक) भीखमंगा (भिकारी) खिड्डय, खेड्डय-(खेल) बहाना, छल. निरंभ-(नि+रुध् ) निरोध करना (रोखणे) सवण-(श्रवण) कर्ण. विच्च-(वि-+अय्) व्यय करना (वेचणे) इत्तो, इओ-इतस्) इससे (येथून) झडत्ति-(झटिति) शीघ्र, जल्दी. अगुरु-(अगुरू) चंदन. निवसण-(निवसण) वस्त्र. सुहम-(सूक्ष्म) भूक्ष्म. बारीक (झिरझिरित , लुय-(लून) काटा हुआ, छिन्न (कापलेले) पाउल-(पापकुल) हलके कुल का (हलक्या कुळातील) हिट्ठ, हट्ठ-(हृष्ट) हर्षयुक्त, आनन्दित. कुकुम-(कुङ्कुम्) केशर For Private And Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परड-(चरट) लुटेरे की एक जाति (एक प्रकारचा लढाक विउस-(विद्वस्) विज्ञ, पण्डित. भंगी-(भङ्गि) प्रकार कोसल्लिय-(कोशलिक) भेंट, उपहार (नजराणा) तेण-(स्तेन) चोर. वज्ज र-(कथय) कहना (सांगणे) विसज्ज-(वि+सुज्) बिदा करना (निरोप देणे) पन्नव-(प्र+झापय् ) उपदेश करना (उपदेश करणे) देहि-(देहिन्) जीव, प्राणी. थेव, थोव-(स्तोक) अल्प, थोड़ा. संबल-(शम्बल) पाथेय, रास्ते में खाने का भोजन (शिदोरी) १४. अगडदत्तस्स सम्माणो वीहियाली-(वाघ्ताली) अश्व खेलने की जगह (घोडमैद्यान ) तुरय-(तुरग) अश्व, घोडा. खल-(चल्) काँपना, हिलना (कापणे, हालणे, खवळणे) हुयासण-(हुताशन) अग्नि. तडिदंड-(तडिदण्ड) विद्युदंड । विजेचा लोळ) भयवारण-(मदवारण) मदवाला हाथी (मद सरत असलेला हत्ती। आलाण-(आलान) बंधा हुआ (बाँधलेला) मठ, मेंठ-(दे.) महावत ( माहत ) For Private And Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (९२) सवडंमुह, सवडंहुत्त- दे.) अभिमुख, संमुख (समोर, पुढे) ओसर-(अप+सृ) पीछे हटना, सरकना (मागे होणे, दूर होणे) दंति-(दन्तिन्) हाथी (हत्ती) पज्झरिय-(प्रक्षरित) टपका हुआ (वाहत असलेला) संवेल्ला-(संवेष्ट) लपेटना (गुंडाळणे) धमधम-(धमधमाय) धम् धम् ' आवाज करमा. (धुमसण). छोभ, छोह-(दे.) प्रहार. खल-(स्खल) पड़ना, गिरना (पडणे) सुरइ-(सुरपति) देवेंद्र. भिच्च-(भृत्य) सेवक. . अहिमयर-(अ-हिमकर) सूर्य. आगम-आगम) धर्मशास्त्र, सिद्धान्तशास्त्र वाई-(वादी) वाक्पटु. गरुय-(गरुक) अत्यंत. जाणु-(जानु) घोंटू, घोटना (गुढगा) उत्तमंग, उत्तिमंग- उत्तमाङ्ग) मस्तक. विणिहा- विति+धा) स्थापन करना (ठेवफे.) अवगूढ-(अवगूढ) आलिंगित दप्प-(दर्प) अहंकार कुवलय- कुवलय) कमल तोय-(तोय) जल (पाणी) For Private And Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५. अप्पसरूवं - - सोरभ-(सौरभ) सुगंध. रेणु-(रेण) रज, धूली, (धूळ) निस्सा- निश्रा) आलम्बन, महारा, आश्रय. कलाव-(कलाप) सम्ह. परियरिय-(परिवृत्त) परिवेष्टित (समवेत) रंध-(रध, राधम्) रांधना, पकाना स्वयंपाक करणे हठ-(हढ) जल में होनेवाली वनस्पति-विशेष ( पाण्यातील हह नावाचे रोपटे) नीहर-(निर्+स) बाहर निकलना बाहेर पडणे मयण-(मदन) मोम (मेन) मल्लय-(मल्लक) पात्र-विशेष ( भांडे) समूससिय-(समुच्छ्वसित) निश्वास. कृथ-(कुन्थु) एक क्षुद्र जन्तु, त्रीन्द्रिय जन्तु की एक जाति ( कुंथु बाबाचा तीन इंद्रिये असणारा कीटक) 'कट्ट-(किट्ट) धातु का मल, मैल (मळ) लाउ, अलाउ-(अलाबु) तुम्बी फल, तुम्बा (भोपळा) For Private And Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६. कप्पूरमंजरीए सिंगारो मज्ज-(मन्ज्) स्नान करना (स्नान करणे) टिक्किद-(दे.) तिलक विभूषित (तिलक लावला) टिक्क-- दे.) तिलक. पिंजर-(पिञ्जर) पीतरक्त वर्ण (घासून स्वच्छ केलेले) रोसाणिअ-(मृष्टः) शुद्ध किया हुआ, मार्जित रोसाण-(मृज) मार्जन करना, शुद्ध करना (स्वच्छ करणे) सुअ-(शुक) शुक (पोपट) कचि-(काश्चि) कटीमेखला (मासपट्टा) बरिही, बरहि-(बहिन् ) मोर. पओट्ट, पउट्ठ-(प्रकोष्ठ) हाथ का पहुँचा (मनगद) तोणी-(तूणीर) शरधि (बाणाचा भाता) चंकम-(चक्रम) चलना-फिरना (चालणे) जच्चंजण-(जात्यञ्जन) उत्तम अंजन वाला सिलीमुह-(शिलीमुख) तीर, शर. कुडिलालअ-कुटिलालक) धुंघराले बाल (कुरळे केस) णिडाल-(ललाटभाल (कपाळ) घणसार-(धनसार) कपूर (कापूर) तार-(तार) चमकता, देदीप्यमान (चमकदार) चिहुरभार-(चिकुरभार) केश संभार. एणणअणा-(एणनयना) मृगनयना (हरिणाक्षी) एण-(एण)हरिण. सुरहिलच्छी-(सुरभिलक्ष्मी) वसंतऋतुका वसंत श्री For Private And Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७. प्रवचनसार सबुज्झ-(सं+बुध्) समझना, ज्ञान पाना ( ज्ञान मिळवणे, आत्म जागृत होणे ) बुज्झ-(ब) जानना, जागना (जाणने, जागे होणे) संबोहि-(संबोधि) सत्य धर्म की प्राप्ति, आत्म जाति, ( सत्य धर्माची प्राप्ति) पेच्य-(प्रेत्य) परलोक. मुण-(दे.) जानना (जाणणे) कख- काङ्क्ष ) चाहना, वांछना (इच्छा करणे) सज्ज-(सङ्ग्) आसक्ति करना (आसक्त होणे) गंडूस-(गण्डूष) पानी का कुल्ला (पाण्याची चूळ) काउरिस-(कापुरुष) डरफोक पुरुष (म्याड मनुष्य) कलत्त-(कला) पत्नी. कसिण--(कृत्स्न) संपूर्ण. ज्यहि-- (उदधि) सागर उप्पह--(उत्पथ) उन्मार्ग, कुमार्ग (आडमार्ग) आराम-- आराम) उद्यान इंगाल--(अन्गार) जलता हुआ कोयला (रखरखीत कोळसा For Private And Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अलिक- (अलीक) झूठा (खोटे, दह--(द्रह) कुंड. भड-(भट) योद्धा. अवड-(दे.) कूप, कुंआ (विहीर) अणय--(अनय) अनीति, अन्याय, चारित्रभंग. वेरुलिय--(वैडूर्य) वैडुर्यरत्न. ओमीस--(अवमिश्र) मिश्रीत. खर--(खर) गधा (गाढव.) खीर-(धीर) दुग्ध दूध. कल्लं--(कल्यं) कल उद्या अवरण्ह--(अपराह्न) दोपहर, (दुपार) पणिय--(पण्य ) विक्रय वस्तु (विक्रीचा माल) सुत्त--(सूत्र) धागा, धर्मशास्त्र. अक्खाय--(आख्यात) प्रतिपादित, कथित (हितोपदेशिलेले) For Private And Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १ कपिल मुनीचे चरित्र त्या काळी आणि त्या वेळी कौशांबी नावाची नगरी होतो. (तेथे) जितशत्रु राजा होता. काश्यप ब्राह्मण चौदा विद्यास्थानामध्ये पारंगत असून राजाकडून बहुमानिला जात होता. त्याच्या उपजीविकेची व्यवस्था केली होती. त्याची यशा नावाची पत्नी होती. त्यांना कपिल नावाचा पुत्र होता. तो कपिल लहान असतानाच काश्यप मरण पावला. तेव्हा तो मेल्यावर राजाने ते पद दुसऱ्या ब्राह्मणास दिले. तो ( मस्तकावर ) छत्र धरले जात असताना घोड्यावरून (मोठया थाटाने) जात असे. त्याला पाहून (पतीचे वैभव आठबून) यशा रडू लागली. कपिलाने विचारले. तिने सांगितले ते असे-'तुझे वडील अशाच थाटाने जात असत, कारण ते विद्यासंपन्न होते.' तो म्हणाला 'मी पण अध्ययन करीन.' ती म्हणाली, 'येथे तुला मत्सराने कोणी शिकवणार नाही. श्रावस्ती नगरीत जा, तेथे तुझ्या पित्याचा मित्र इंद्रदत्त नावाचा ब्राह्मण आहे. तो तुला शिकवील.' तो श्रावस्तीस गेला. त्या ( गुरू ) जवळ जाऊन त्यांच्या चरणांवर त्याने लोटांगण घातले. (गुरूनी) विचारले, 'तू कोठून For Private And Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आलास?' त्याने घडले होते तसे सांगितले आणि विगयपूर्वक हात जोडून म्हटले, 'भगवान, मी विद्यार्थी वडिलासमान असलेल्या तुमच्या पायापाशी आलो आहे. तेव्हा विद्या शिकवण्याची माझ्यावर कृपा करावी.' पुत्रप्रेम वाटत असलेल्या उपाध्यायांनीही म्हटले, 'बाळ, विद्याध्ययनाचा तुझा प्रयत्न स्तुत्य आहे. विद्या नसलेला मनुष्य पशू असून त्याला (काहीच) महत्व नसते. इह व परलोकी विद्या कल्याणप्रद आहे. तेव्हा विद्या शिक. विद्येची सर्व साधने. तुझ्या स्वाधीन आहेत. परंतु अपरिग्रही असल्यामुळे माझ्या घरी भोजन (मिळणार नाही. त्या शिवाय शिकणे होणार नाही.' तो म्हणाला, ' केवळ भिक्षा मागूनही भोजन मिळवता येईल. उपाध्याय म्हणाले, 'भिक्षावृत्तीने शिकणे होणार नाही. तेव्हा चल, तुझ्या भोजनाकरिता कोणातरी श्रीमंताकडे विनवणी करू या.' . ते दोघेही तथे राहत असलेल्या शालिभद्र श्रेष्ठीकडे गेले. श्रेष्ठीने ( येण्याचे ) कारण विचारले. उपाध्याय म्हणाले, 'हा माझ्या मित्राचा पुत्र विद्यार्थी म्हणून कौशांबीतून आला आहे. आपल्याकडे भोजन करेल व माझ्यापाशी विद्या शिकेल. विद्या शिकण्याला साहाय्य केल्यामुळे तुम्हाला मोठे पुण्य लागेल.' त्याने आनंदाने मान्यता दिली... तो तेथे जेवग करून अध्ययन करू लागला. दासी त्यास वाढत असे. तो स्वभावतःच थट्टेखोर होता. तारुण्याच्या अत्यंतिक विकारामुळे आणि कामविकाराच्या दुर्जयतेमुळे तो तिच्यावर अनुरक्त झाला आणि तीही त्याच्यावर (प्रेम करू लागली). For Private And Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकदा दासींचा उत्सव सुरू झाला. ती खिन्न झाली. त्याने विचारले, 'तुला कसले दुःख झाले आहे ?' ती म्हणाली, 'दासींचा उत्सव चालू आहे. माझ्यापाशी पानांफुलांनाही पैसे नाहीत. मैत्रिणीमध्ये माझे हसे होईल.' तेव्हा तो धैर्यगलित झाला. ती म्हणाली, ' ( असे ) धैर्यगलित होऊ नका. येथे धन नावाचा श्रेष्ठी आहे. अगदी सकाळीच जो प्रथम त्याच्या भाग्याची इच्छा करेल त्याला तो दोन सुवर्ण मासे देतो. तेथे जाऊन तुम्ही त्याच्या भाग्याची इच्छा व्यक्त करा.' 'ठीक आहे' असे त्याने म्हटल्यावर तिने लोभाने दुसरा ( कोणी ) जाईल म्हणून भल्या पहाटे त्याला पाठविले. जात असताना कोतवालांनी त्याला (चोर म्हणून) पकडले व बांधले. _तेव्हा सकाळी त्याला प्रसेनजित ( राजा ) पाशी नेले. राजाने विचारले. त्याने खरी हकिगत सांगितली. राजा म्हणाला, 'जे मागशील ते देतो.' तो म्हणाला, 'विचार करून मागतो.' राजाने 'ठीक आहे' असे म्हटल्यावर अशोकबागेत तो विचार करू लागला, 'दोन माशांनी वस्त्रालंकार होणार होणार नाहीत, तेव्हा शंभर सुवर्ण मोहरा मागेन. त्यानेही घर, गाडीवाहन होणार नाही. तेव्हा हजार मागेन. तेही मुलाबाळांच्या लग्नादींना पुरे पडणार नाही, तेव्हा लाख मागेन. तेही मित्र, स्वजन, बांधव यांचा सन्मान करणे, दीन-अनाथांना दान देणे, विशिष्ट भोगोपभोग भोगणे यांना पुरे होणार नाही, तेव्हा कोटी, शंभर कोटी किंवा हजार कोटी मागेन.' अशा त-हेने विचार करत असता शुभकर्मोदयाने त्याच क्षणी शुभ परिणाम होऊन संवेग निर्माण झाला For Private And Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४) आणि तो चिंतन करू लागला, 'काम ही लोभाची लीला ! दोन सुनर्णमाशाकरिता आलो आणि लाभ होतो आहे हे पाहून कोटी. नीही मनोरथ पूर्ण होईना. दुसरे म्हणजे विद्या शिकण्याकरिता परदेशी आलो आणि आईची अवज्ञा करून, उपाध्यायांच्या हितकर उपदेशाचा अनादर करून आणि कुलाचा तिरस्कार करून जाणत असूनही सामान्य स्त्रीवर मोहीत झालो. तेव्हा नको ते सुवर्ण, नको तो विषयसंग, पुरे झाले हे संसारातील बंधन.' अशी भावना करीत असताना जातिस्मरण होऊन तो स्वयंसंबुद्ध झाला. स्वतःच केशलोच करून देवतेने दिलेली ( मुनि ) आचाराची उपकरणे घेऊन तो राजा जवळ आला. राजाने विचारले, 'विचार केला का ?' त्याने स्वतःचे मनोगत विस्ताराने सांगितले. तो गाऊ लागला-'जसा लाभ तसा लोभ, लाभाबरोबर लोभ वाढत जातो. दोन माशाकरिता काम होते ( पण ) कोटींनीही सिख होईना.' राजा आनंदाने म्हणाला, 'आर्य, कोटीही देतो, घ्या.' दुसरा म्हणाला, 'पुरे झाली संपती. म. गृहस्थधर्माचा त्याग केला आहे.' तेव्हा राजाला धर्मलाभ आशीर्वाद देऊन नगरीतून निघाला. सहा महिन्यानंतर त्याला केवलज्ञान झाले. For Private And Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ कालकाचार्यांची कथा येथे भारतवर्षामध्ये अमरावतीप्रमाणे धारावास नगर होते तथे सिंहाप्रमाणे (पराक्रमी असा) वैरीसिंह राजा होता. त्याची गुणशीलसंपन्न रूपवती अशी सुरसुंदरी नावाची राणी होती. शिंपल्यातील मोत्याप्रमाणे तिच्या पोटी कालक नावाचा महागुणी पुत्र झाला. नाव व गुणांनी (सार्थ अशी त्याची सरस्वती नावाची बहिण होती. ___ आता एकदा राजकुमार क्रीडा करण्याकरिता (नगरा) बाहेरील बगेत गेला. तेथे त्याने आंब्याच्या झाडाखाली गुणधर नावाचे आचर्य पाहिले. विनयाने ( त्यांच्या) चरणांना वंदन करुन तो आचार्यांचा उपदेश ऐकू लागला. _ 'शरीर अनित्य आहे, वैभव शाश्वत नाही, आणि मृत्यू नेहमी जवळ आहे, (तेव्हा) धर्मसंग्रह करणे कर्तव्य होय.' इत्यादि धर्मोपदेश ऐकून कुमार आत्मजागृत झाला आणि त्याने सरस्वतीसमवेत दीक्षा घेतलो. लौकरच श्रुतज्ञानाचे अध्ययन करून तो ज्ञानी मुनी झाला. 'हा योग्य आहे.' आसे जाणून आचार्यवरांनी त्यास आचार्यपदावर स्थापले. कालकाचार्य अनेक शिष्यासमवेत गावोगाव भव्यजनांना हितोपदेश करीत उज्जनीत आले. उत्तम चारित्र्याने विभूषित सरस्वती साध्वीही साध्वींच्या बरोबर तेथे गेली. For Private And Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तेथे अत्यंत बलशाली व स्त्रीलंपट असा मर्दभिल्ल राजा होता. त्याने त्या रूपसुंदरी (साध्वी ) ला पाहिले. 'हाय ! जर विषयसुखांचा त्याग करून ही युवतीही व्रत पाळू लागली, तर पुरुषार्थ विफल झालेला कामदेब आजही कसा विजयी आहे ?' असा विचार करून कामपिशाच्चाने झपाटलेल्या त्या दुष्टाने 'हाय ! प्रवचननाथ सद्गुरू कालक मुनिश्वर भाऊ चारित्र्यधन हिरावून नेले जात असलेल्या माझे अनार्यराजापासून रक्षण कर.' अशारीतीने विलाप करणाऱ्या त्या तरुण साध्वीला तिची इच्छा नसतानाही त्याने बळजबरीने घेऊन अंतःपुरात टाकले. आता मालकाचार्यही खरोखर ही गोष्ट मासीतरी जाणूच राजापाशी जाऊन मृदुशब्दांनी म्हणाले, .. 'ज्याप्रमाणे तारकांमध्ये चंद्र,देवगणामध्ये इंद्र, त्याच प्रमाणे, हे राजा, लोकांमध्ये तूच मुख्य आहेस. तेव्हा तू असे कसे करतोस ? राजा अजाणपणही परस्त्रीचा संग दुःखदायक असतो. पुनः जो साध्वीशी संग तो तर अत्यंतिक महापाप आहे. राजा, अनेक राजकन्यांशी मिलन करूनही तू तृप्त झाला नाहीस. राजे मुनींचा धर्म बाढवितात, लुटत नाहीत. तेव्हा या (गोष्टीं) चा विचार करून स्वतःच माझ्या बहिणीला सोड.' अशारीतीने युक्तिप्रयुक्तीने आचार्यांनी सांगूनही राजाने साध्वीला सोडले नाही. ज्याप्रमाणे आयुष्य क्षीण झालेल्यास महाऔषधी व्यर्थ आहे, त्याप्रमाणे आचार्याचा, संघाचा आणि मंत्र्यांचा बोध व्यर्थ झाला. तेव्हा क्रोधाविष्ट झालेल्या कालकाचार्यानी प्रतिक्षा केली, 'पृथ्वीमध्ये बद्धमूल झालेलेही गर्दभिल्ल राजाल्मी शास For Private And Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जर वायाप्रमाणे मी उपटून काढले नाही, तर मी प्रवचन संयमाचा घात करणाऱ्या आणि त्यांची उपेक्षा करणाऱ्यांच्या गतीस जाईन.' तेव्हा कपटाने उन्मत्त वेष धारण करून कालकाचार्य असंबद्ध बडबडत नगरामध्ये फिरू लागले 'जर गर्दभिल्ल राजा असेल तर यापेक्षा चांगले काम असणार ? जर अंत:पुर रमणीय असेल तर यापेक्षा चांगले काय असणार ? जर प्रदेश रम्य असेल तर यापेक्षा चांगले काय असणार ? जर राजधानी (श. नगरी) चांगली वसली असेल तर यापेक्षा चांगले काय असणार ? जर लोक चांगला वेष धारण केले असतील तर यापेक्षा चांगले काय असणार ? जर मी भिक्षेकरिता फिरलो तर यापेक्षा चांगले काय असणार? जर ओसाह परात झोपलो तर यापेक्षा चांगले काय असणार ?' आता आचार्य पारसकुलात जाऊन मंत्र्यासह राजाच्या दरबारात जाऊन सर्वांना सुखकर बोलू लागले. अशारीतीने त्यांनी गोड बोलून (श. वचन रसाने) राजा इत्यादि लोकांना रंजविले. विद्यादि गुणांमुळे शकराजाने त्यास गुरू मानले. तेव्हा आचार्यांच्या सांगण्यावरून सर्व शकसैन्य दुष्ट गर्दभिल्लावरोबर युद्ध करण्याला निघाले. आता ते जात असताना पर्वत हलू लागले, पृथ्वी थरथरू लागली आणि धूळोने सूर्य झाकला. क्रमाने सिंधुनदी ओलांडून ते सौराष्ट्रपरिसरात आले. आता पावसाळा सुरू झाल्यामुळे ते तेथे राहिले. शरदऋतू सुरू झाल्यावर गर्द भिल्लाने ज्या लाट राजांचा अपमान केला होता ते आणि दुसरे एकत्र येऊन त्यांनी उज्जनीस वेढा घातला. For Private And Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकदा रात्री भून्यमनस्क आचार्यांना पाहून शासनदेवता म्हणाली, ' मुनिवर, मनात दुःख धरू नका. सरस्वतीला शीलाने सीतेसमान माना. तिच्या शीलप्रभावाने आपणांस विजय प्राप्त होईल.' असे म्हणून ती अदृश्य झाली. आता प्राकार शून्य पाहून शकादिराजांनी आचार्यांना विचारले. तेव्हा गर्दभीविद्या साध्य झालेले आचार्य म्हणाले, 'आज अष्टमीचा दिवस. गर्दभिल्ल राजा उपवास करून गर्दभीविद्या साधेल. नंतर ती गर्दभी मोठ्या आवाजाने आरडेल. शत्रसैन्यातील जे तिर्यंच (पशूदि) किंवा मानव आवाज ऐकतील ते सर्व रक्त ओकीत भयाने व्याकुळ व चेतनाविहीन होऊन धरणीवर कोसळतील.' तेव्हा आचार्यांच्या आदेशाने जोवर गर्दभीने तोंड उघडन आवाज केला नाही, तोवर योध्यांनी आपल्या बाणांनी तिचे मुख भरून टाकले. शक्तीहीन झालेली ती गर्दभिल्लावर मलमूत्र विसर्जन करून त्याला लाथांनी मारून गेली. योध्यांनी (उज्जनी) नगरी हस्तगत केली, 'अरे दुराचारी, दुसन्या जन्मात पापवृक्षाचे फूल आणि नंतर नरक फळ मिळेल.' क्षमा करून गर्दभिल्लाला उज्जैनीतून हाकलून दिले. शकराजाला राज्यावर बसविले आणि म्हटले, 'शकराजा, न्यायी आणि प्रजावत्सल हो. धर्माने राज्याचे पालन कर. धर्माने राज्य अमर होईल आणि अधर्माने नाश पावेल. हे विसरू नकोस.' ___आता आचार्य स्वतः संयमात स्थिर झाले. त्या सरस्वती भगिणीलाही प्रायदिचस्ताने संयमात शुद्ध करण्यात आले. For Private And Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ कमळे चिखलात उगवतात मथुरानगरीमध्ये कुबेरसेना गणिका होती. पहिल्या गर्भार. पणात डोहाळयाचा त्रास झाल्यामुळे मातेने तिला वैद्यास दाखवले. त्याने म्हटले. 'गर्भातील जळचाच्या दोषाने हिला त्रास होतो आहे. (दुस-या) कोणत्या रोगाचा दोष नाही.' ही गोष्ट कळताच माता म्हणाली, 'मुली, प्रसूतीचीच्या बेळी तुला शारिरीक त्रास होऊ नये (म्हणून) गर्भपाताचा उपाय शोधते. तेव्हा तू निरोगी होशील आणि सुखोपभोगात अडथळा (ही) होणार नाही. (नाहीतरी) वेश्यांना मुले काय कामाची?' . तिने (तशी) इच्छा केली नाही. ती म्हणाली, 'मुलांना सोडून देईन' तसे काबूल करताच (योग्य) वेळी ती मलगा व मुलगी प्रसूत झाली. मातेने म्हटले, ' यांचा त्याग केला जाऊ देत.' 'ती म्हणाली, तोवर दहा दिवस (श. रात्री) पुरे होऊ देत. तेव्हा तिने कुबेरदत्त व कुबेरत्ता अशी नावे कोरलेल्या दोन आंगठया करविल्या. दहा दिवस (स.रात्री) संपल्यावर (भरपूर) सोने व रत्ने भरलेल्या छोटयाशा (दोन ) होडयात त्यांना (अलग अलग) ठेवून यमुनानदीत सोडले. वाहत जात असताना दोन श्रीमंतांच्या मुलांनी त्यांना पाहिले. त्यांनी होडया धरल्या. एकाने मुलास व ऐकाने मुलीस घेतले. द्रव्ययुक्त असल्यामुळे संतुष्ट होऊन त्यांनी त्यांना मापापल्या घरी नेले. For Private And Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋमाने वाढत ती दोधे) तारुण्यात आली. योग्य संबंध' म्हणत कुबेरदतेला कुबेरदत्तास दिले. लग्नदिवस संपताच वधूच्या मैत्रिणींनी घराशी द्यूत आरंभिले. (तो हरल्यावर ) त्यांनी कुबेरदत्ताच्या हातून (त्याच्या ) नावाची आंगठो घेऊन कुबेरदत्तेच्या हाती दिली. ती पाहत असताना सारखी घडण व नाव पाहून (तिच्या मनात)विचार आला, मला वाटते, कोणत्या कारणाकरिता बरे या आंगठयांची नावे, आकार सारखी आहेत? माझ्या (मनात ) कुवरदत्ताविषयी पतिभाव नाही. आमचा कोणी पूर्वज या नावाचा ऐकिवात नाही. तेव्हा या बाबतीत ( काहीतरी ) रहस्य असावे.' असा विचार करून तिने घराच्या हाती दोन्ही आंगठया ठेवल्या. (त्या)पाहत असताना त्याच्याही(मनात) तसाच विचार आला. वधूला आंगठी देऊन तो आईपाशी गेला. त्याने तिला शपथ घालून विचारले. तिने जसे ऐकले होते तसे सांगितले. तो म्हणाला, आई तुम्ही अयोग्य केले.' ती म्हणाली, 'आम्ही मोहवश झालो होतो (जे झाले ) ते झाले. केवळ पाणिग्रहण करण्यापुरतीच वधू दूषित झाली आहे. याबाबतीत पाप नाही. मी मुलीला तिच्या घरी पाठवीन, तू प्रवासाहून परत आल्यावर तुझा योग्य संबंध घडवून आण.न.' असे म्हणून तिने कुबेरदत्तेला तिच्या घरी पाठविले. तिनेही (आपल्या) आईला तसेच विचारले. तिने जसे घडले तसे सांगितले. त्यामुळे संसाराविषयी विरक्ती वाटून तिने दीक्षा घेतली. प्रवर्तिनी बरोबर ती विहार करू लागली. प्रवर्तिनीच्या सांगण्यावरून तिने आगठया जपून ठेवल्या. चारित्र्य शुद्ध होत असल्यामुळे तिला अवधिज्ञान प्राप्त झाले ( अवधिशानाने ) कुबेरसेनेच्या घरी राहत असलेल्या कुधरदत्तास For Private And Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाहिले. हाय! (काय हा) अज्ञानाचा दोष!' विचार करुन त्यांना बोध करण्याच्या हेतूने साध्वींच्या बरोबर विहार करीत ती मथुरेस गेली. ती कुबरसेनेच्या घरी वस्ती मागून (म्ह. राहण्याची परवानगी घेऊन राहिली ती (कुबेरसेना) वंदन करून म्हणाली, 'भगकतींनो. भी केवळ जन्लाने गणिका आहे, पण आचरणाने नव्हे. कारण आता चांगल्या कुळातील वधूप्रमाणे मी एका पुरुषाची सेवा करते. माझे निवासस्थान शंकाविरहित आहे. तेव्हा माझ्यावर अनुग्रह करून आपण ( येथे ) राहावे.' त्या तेथे राहिल्या. तिचा ( कुबेरदत्ता पासून झालेला) मुलगा लहान होता. ती त्याला पुनः पुन्हा साध्वी जवळ ठेवू लागली. तेव्हा त्यांची (योग्य वेळ (म्ह. काललब्धी) जाणून साध्वी त्यांना बोध करण्याकरिता खालील गाथा गाल मुलाला जोजवू लागली (श. मुलाची स्तुती करू लागली.) 'बाळ, तू (एकाच आईच्या पोटी जन्मलेला म्हणून) माझा भाऊ आहेस' एकाच आईच्या पोटी जम्मलेला असा माझ्या पतीचा भाऊ म्हणून) माझा दीर आहेम, ( माझ्या पतीपासून झालेला म्हणून) माझा पुत्र आहेस, ( माझ्या पतीच्या दुसन्या स्त्रीचा पुत्र म्हणून ) सवतीपुत्र आहेस, (माझ्या कुबेरदत्त भावाचा पुत्र म्हणून) भाचा आहेस, आणि ( एकाच मातेच्या पोटी जन्मल्यामुळे माझा भाऊ झालेल्या तुझा पिता पर्यायाने माझाही पिता झाला. एकाच मातेच्या कुबेरसेनेच्या पोटी जन्मल्यामुळे तु त्याचाही माऊ झालास. म्हणजे पर्यायाने पित्याचा भाऊ म्हणून) काका आहेम. तू ज्याचा पुत्र आहेस तोही ( कुबेरसेनेच्या पोटी जुळा अन्मलेला म्हणून माझा भाऊ, (त्याशी लग्न झाले म्हणून)पती, (बालक For Private And Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काकाचा पिता म्हणून) आजोबा, (दिराचा पिता म्हणून ) सासरा आणि (आई सवत आल्याने तिचा) पुत्रही आहे. ___ तू जिच्या गर्भात जन्मलास तीही ( तिच्याच पोटी जन्मले म्हणून) आई. (पतीची आई म्हणून) सासू. (पतीची दुसरी स्त्री म्हणून ) सवत, (भावाची पत्नी म्हणून भावजय, (बालक भाऊ पुत्राच्या पित्याची आई म्हणून) आजी आणि सवतीच्या पुत्राची पत्नी म्हणून) सूनही आहे.' ते तशात-हेचे जोवणे (श. स्तुती) ऐकून कुबेरदत्ताने वंदन करून विचारले, ' साध्वी (माते),हे (परस्पर) विरुद्ध व असंबद्ध वर्णन कसले व कोणाच्या बाबतीत आहे.? अथवा मुलाला खेळ. विण्याकरिता अयोग्य असे बोललात ?' असे विचारल्यावर साध्वी म्हणाली, 'श्रावक हे, खरे आहे. तेव्हा तिने अवधिज्ञानाने पाहिलेले त्या दोघाही जणांना प्रमाणपूर्वक सांगितले आणि आंगठयाही दाखविल्या. ते ऐकून तीब्र वैराग्य निर्माण होऊन कुबेरदत्ता 'हाय! (कसले है) अज्ञानाने दुराचरण करविले ! 'असा (विचार करून) द्रव्य मुलास देऊन साध्वीला वंदन करून ' तुम्ही मला बोध केला, मी स्वतःचे हित करीन' असे (म्हणून) लगेच निघाली. मुनिवेष व आचार (धर्म गहण करून वैराग्य विचलित होणार नाही अशा उत्कृष्ट तपाचरणांनी देहाचा क्षय करून तो देवलोकात गेला. कुबेरसेनाही गृहिणीस योग्य असे नियम घेऊन दयाळू वृत्तीने राहू लागली. साध्वीही प्रवतिनीपाशी गेली. ००० For Private And Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५ कुलवधू पुडवर्धननगारात एक श्रीमान तरुण ऐन तारुण्यात आलेल्या आपल्या पत्नीस सोडून (व्यापाराकरिता) देशांतरास गेला. आकरा वर्षे उलटलीः एकदा नवं लोकात उन्माद निर्मान करणारा, रज रेणूंनी भरलेली फुले असलेला, दक्षिणे कडील (सुखकर असा मलय) वायू पसरविणारा, कालकलाट माजविणारा आणि मेळयातील गायकांच्या आकर्षक गीतांनी तरुणजनांना आनंदित करणारा वसंतऋतू सुरू झाला असताना वधू मैत्रिणीसमवेत (नगरा) बाहेररील बागेत गेली.(तेथील) वापिकेत प्रेमाचा आदर्श अशी चक्रवाकांची जोडपी क्रीडा करत असलेली आणि दुसरीकडे सारसांची जोडपी ( रमत असलेली) पाहिली. हंसीचा अनुनय करणारा हंस (पण)पाहिला. तेव्हा वसंताच्या कमावासना उद्दीपित करण्यामुळे, उपवनाच्या रमणीयते. मुळे, परिवाराच्या उत्कट प्रेमामुळे, विषयाभिलेषाच्या अनेकजन्मातील सवयोमुळे, तारुण्याच्या विकारबाहुल्यामुळे आणि इंद्रियाच्या चंचलतेमुळे अत्यंत दुःख देणाऱ्या महाव्याधीशप्रमाणे तिच्या सर्व शरीरात मदनाचा संचार झाला. तिने (परतण्याचा) विचार केला (प्रवासास गेलेल्या) त्या निर्दयाने दिलेला अवधी संपला, तो आला नाही, तेव्हा कोणातरी तरुणाला आणविते.' तिने हे काम For Private And Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रहस्यमंजुषिका नावाच्या दासीला सांगितले. ती म्हणाली, 'एवढा काळ (शीलाचे) रक्षण करून शीलभंग करू नका. कोणी मूर्ख तरी सागर तरून जाऊन गोपदामध्ये बुडेल का?' वधू म्हणाली, सरवी. आता मदनबाणांचा आषात मी (सहन करू शकत नाही, तेव्हा याबाबतीत आधिक (सांगून) काय उपयोग? कोणाला तरी पाठव.' ती म्हणाली, 'जर असे असेल तर काळजी करू (श. झुरू) नका. आपली अभिलाषा मी (पुरी) करते.' तेव्हा तिने ही गोष्ट सासूला सांगितली. तिनेही पतीला (सांगितली). त्यानेही तिच्या बरोबर खोटे भांडण करून सुनेला म्हटले, 'मुली, ही तुझी सासु घर सांभाळण्यास पात्र नाही, तेव्हा तू सर्व (जबाबदारी) स्वीकार.' 'ठीक' म्हणून कबूल केल्यावर घरातील करावयाची सर्व कामे तिला समजाऊन दिली, तेव्हा रात्रीच्या शेवटच्या प्रहरी (म्ह. पहाटे) उठून तांदूळ वगैरे कांडणे, दळणे, पाखडणे, स्वयंपाक करणे, वाढणे, इत्यादि (कामे) आणि दुसरी अनेक लहान, मध्यम, मोठी कामे करीत असताना, फुले, दागिने कपडे, पानाचा विडा, उटी, विशिष्ट प्रकारचा आहार न मिळता क्रमाने रात्रीचा पहिला प्रहर होत असे. ती थंड, रूक्ष व अनुचित अन्न खात असे आणि अत्यंत दमून झोपत असे. अशारीतीने दररोज ( कामे ) करीत असताना तिचे रूप-तारुण्य नष्ट झाले. पानाचे विडे, (सुगंधित) द्रव्यांची उटी व शृंगार मिळेनासे झाले. काही काळ निघून गेला. For Private And Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१५) (हीच) संधी' असा विचार) करून दासी विला म्हणाली, 'पुरुषाला आणू का?' ती म्हणाली, 'सखी, मूर्ख आहेस तू. तुला पुरुष सुचतो. पण जेवणाविषयीही मला शंका वाटते.' ... कालांतराने ( तिचा ) पती ( परत ) आला. आनंदोत्सव झाला. वडिलधाऱ्यासह वधू आनंदली. (या दृष्टांताचे) हे स्पष्टीकरण-ज्याप्रमाणे तिने कामात मग्न होऊन स्वतःस सावरले, त्याप्रमाणे मुनीनेही क्रिया व ज्ञानाच्या अनुष्ठानाने (आत्म्याचे रक्षण करावे). श्रुतदेवीच्या कृपेने धर्मशास्त्रानुसार सांगितलेले ( कुल ) वधूचे चरित्र ऐकणाऱ्या माणसाने स्वतःचे रक्षण करावे. ००० For Private And Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६ स्थापत्यापुत्राची दीक्षा त्यावेळी कृष्णवासुदेव चतुरंगिणी सेनेसमवेत उत्कृष्ट अशा विजय (नावाच्या) हनीवर आरूढ झाल्यावर स्थापत्यागृहणीचा जेथे वाडा होता तेथे गेले. जाऊन स्थापत्यापुत्रास असे म्हणाले, 'हे देवप्रिय, केश लोच ( श. मुंडन ) करून दीक्षा घेऊ नको. हे देवप्रिय, माझ्या बाहूंच्या संरक्षणाखाली विपुल मानवी वैषयिक सुखोपभोगांचा (मनसोक्त) उपभोग घे. देवप्रियास जो आसं किंवा दुखापत होईल त्या सर्वांचे मी निवारण करीन.' . तेव्हा कृष्णवासुदेवांनी असे म्हटल्यावेळी स्थापत्यापुत्र कृष्णवसुासुदेवांना असे म्हणाला, 'हे देवप्रिय, जर जीवीताचा अंत करणाऱ्या मृत्यूस थोपवाल आणि (श. किंवा) शरीर सौंदर्य नष्ट करणाऱ्या म्हातारपणास रोखाल; तर आपल्या बाहूंच्या संरक्षणाखाली विपुल मानवी वैषयिक सुखोपभोगांचा उपभोग घेत राहीन.' तेव्हा स्थापत्यापुत्राने असे म्हटल्यावेळी कृष्णवासुदेव स्थापत्यापुत्रास असे म्हणाले, 'हे देवप्रिय, यांचे निवारण करणे अत्यंत कठिण आहे. खरे म्हणजे आपल्या कर्माचा क्षय झाल्यासिवाय महासार्थ्यशाली देव किंवा दानवांनाही यांचे निवारण करणे (शक्य) नाही.' तेव्हा तो स्थापत्यापुत्र कृष्णवासुदेवांना असे म्हणाला, 'जर यांचे निवारण करणे अत्यंत कठिण असेल आणि खरोखर आपल्या For Private And Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्माचा क्षय झाल्याशिवाय महासामथ्यंशाली देव किंवा दानवांना (ही) यांचे निवारण करणे शक्य नसेल; तर, हे देवप्रिय, अज्ञान, मिथ्यात्व, अविरती, कषायाद्वारे संचित केलेल्या स्वतःच्या कर्माचा क्षय करण्याची मी इच्छा करतो.' तेव्हा त्या कृष्णवासुदेवांनी घरच्या नोकरांना बोलावले, बोलावून स्थापत्यापुत्राचा दीक्षाविधी करण्याची आज्ञा दिली. नंतर त्या स्थापत्यापुत्रास पुढे घालून ते कृष्णवासुदेव जेथे अरिहंत भगवान अरिष्टनेमी होते तेथे गेले. स्थापत्यापुत्राने भगवान अरि. ष्टनेमींच्या (चरणा) पाशी अलंकार काढले. तेव्हा त्या स्थापत्यागृहिणीने हंसालंकृत वस्त्रामध्ये (वस्त्रा) भरण, पुष्पमाला व अलंकार घेतले व आसवे गाळीत असे म्हटले, 'बाळ, यत्न कर; बाळ, परिश्रम कर; बाळ पराक्रम कर आणि या (मुनिधर्माचे आचरण करण्याच्या) गोष्टीत निष्काळजी राहू नकोस.' तेव्हा त्या स्थापत्यापुत्राने हजार पुरुषासमवेत स्वत:च पंचमुष्ठिकेशलोच केला आणि दीक्षा घेतली. 000 For Private And Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७ दमयंती स्वयंवर येथे भारतक्षेत्रात कोशलदेशामध्ये कोशलानगरी होती. तेथे इक्ष्वाकुकुलात जन्मलेला, असामान्य न्याय, त्याग व पराक्रमाने युक्त असा निषध नावाचा राजा होता. त्यास सुंदरीगणीच्या पोटी जन्मलेले, लोकांच्या मनाला आनंद देणारे नल व कबर (नावाचे) दोन पुत्र होते. इकडे विदर्भदेशाला भूषणभूत असे कुंडिननगर होते. तेथे शत्रूरूपी हत्तींच्या कळपांना ( जेरीस आणणारा ) शरभ असा भीमरथ राजा होता. त्याची सर्व अंतःपुररूपी झाडाचे ( मोहक ) फूलच अशी पुष्पदंती राणी होती. वैषयिक सूखांचा उपभोग घेत असताना त्यांना अखिल त्रिभुवनाला भूषणभूत अशी कन्या झाली. · सत्पुरुषाच्या छातीवर उत्कृष्ट श्रीवत्सचिन्ह ( श. रत्न ) असावे, त्याप्रमाणे तिच्या कपाळावर सूर्यबिंबासारखा स्वाभाविक तिलक होता. ही मातेच्या गर्भात असताना मी सर्व शत्रूचे दमन केले, असा (विचार करून) पित्याने तिचे दमयंती असे नाव ठेवले. शुक्लपक्षातील चंद्रकोरीप्रमाणे सर्व जनतेच्या डोळ्यांना आनंद देणारी ती मोठी होऊ लागली. आणि (योग्य) वेळी (विद्या प्रहण करण्याकरिता) तिला कलाध्यापकाच्या स्वाधीन केले. For Private And Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरशातील प्रतिबिंबाप्रमाणे बुद्धिमान असलेल्या तिन्या. मध्ये सर्व कला संक्रांत झाल्या आणि अध्यापक केवळ साक्षी होता. ती तारुण्यात आली. तिला पाहन आईवडिल विचार कर लागले,'ही असामान्य सौंदर्यशालीनी असून विधीच्या विज्ञानाचा प्रकर्ष आहे. तेव्हा हिला अनुरूप वर (दिसत) नाही. जरी असला तरीही तो आम्हाला माहित नाही. म्हणून स्वयंवर करणे योग्य आहे.' तेव्हा दूत पाठवून राजे आणि राजपुत्रांना बोलावले. ते हनी, घोडे, रथ व पायदळाममवेत आले. अनुपमेय सत्वशील असा नळही तेथे आला. भीमराजाने सन्मान केल्यावर ते उत्कृष्ट निवासस्थानी राहिले. सुवर्णमय खांबांने सुशोभित असा स्वयंवर मंडप करविला. तेथे उत्तम आकाराची सिंहासने ठेवली. त्यावर राजे बसले. इतक्या अवधीत पित्याच्या आदेशानुसार मोहक रविबिंब असलेल्या पूर्वदिशेप्रमाणे पसरलेल्या प्रभाकिरणसमूहांनी युक्त अशा भालावरील (स्वाभाविक) तिलकाने अलंकृत झालेली संपूर्ण चंद्रम्याने सुंदर दिसणाऱ्या पौणिमेच्या रात्रीप्रमाणे प्रमन्न नेहरा असलेली आणि शुभ्र रेशमी वस्त्र परिधान केलेली दमयंती स्वयंवर मंडप भूषवित आलो. तिला पाहून आश्चर्ययुक्त चेहयांनी राजांनी तिलाच आपल्या नेत्र कटाक्षाचा लक्ष्य केले. - तेव्हा राजाच्या आदेशाने अंतःपुरातील द्वारपालिका भद्रा राज. कुमारीच्या पुढे होऊन राजांचे व राजकुमारांचे विक्रम सांगू लागली. For Private And Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२०) 'दृढ बाहुबल असलेले बल नावाचे हे काशीनगरीचे महाराज आहेत. (उंचच) उंच (उफाळणा-या) लाटा असलेली गंगा (नदी) पाहण्याची इच्छा असेल तर यांना वर.' दमयंती म्हणाली, 'भद्रे, काशीतील निवासी दुसन्याची फसवणूक करण्याची सवय असलेले आहेत असे ऐकायला येते. तेव्हा माझे मन यांच्यात रमत नाही म्हणन पुढे हो.' तसेच करून तो म्हणाली, या हतींना सिंहच असे हे सिंह नावाचे कुंकणाधिप महाराज आहेत. यांना वरून ग्रीष्मऋतूमध्ये केळीच्या बनात (यांच्याशी । सुखान क्रीडा कर.' दमयंती म्हणाली, 'भद्रे, कुंकणवासी विनाकारण रागाव. तात, तेव्हा पावला-पावलागणिक यांची मनधरणी करणे मला शक्य होणार नाही. तेव्हा दुसऱ्याविषयी सांग.' पुढे होऊन ती म्हणाली, ‘महेंद्राप्रमाणे सौंदर्य असलेले हे महेंद्र काश्मीर देशचे महाराज आहेत. केशराच्या वाटिकेमध्ये क्रीडा करण्याची मनीषा असेल तर यांना वर.' राजकुमारी म्हणाली, 'भद्रे, माझे शरीर ( गार ) तुषारसंचयाला घाबरते हे तुला माहित नाही का? तेव्हा येथून जाऊया,' असे म्हणत असताना द्वारपालिका पुढे जाऊन म्हणू लागली, "विपूल द्रव्यभांडार असलेले हे जयकोश महाराज कौशांबोचे स्वामी आहेत. मृगनयने, कामदेवाप्रमाणे रूप असलेले हे For Private And Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुझे मन मोहून टाकतात का ?' राजकुमारी म्हणाली, 'कपिजले, गुंफलेली ही वरमाला अत्यंत रमणीय आहे.' भद्रेने विचार केला, ‘उत्तर न देणे हाच यांना नकार आहे.' तेव्हा पुढे जाऊन भद्रा म्हणाली, ___ 'कोकीळकंठी, ज्यांच्या तलवाररूपी राहू (दत्या) ने शत्रूच्या कीर्तीचंद्रांना ग्रासिले आहे त्या कलिंगाधिपती जय (महाराजां) च्या गळ्यात माळ घाल.' राजकुमारी म्हणाली, 'तातासमान वृद्ध वय ( श. परिपक्व वय) झालेल्या यांना प्रणाम असो' तेव्हा भद्रेने पुढे जाऊन म्हटले, ‘गजगामिनी, ज्यांच्या हत्तींच्या कळपांच्या (गळयातील) घंटांच्या निनादाने जणू ब्रह्मांड फुटते ते हे गौडपती बीरमुकुट (महाराज) तुला आवडतात का ?' राजकुमारी म्हणाली, 'बाई ग ! असेही माणसांचे काळेकुट्ट भयानक रूप असते ? त्वरित पुढे चल, माझे हृदय थरथरू लागले.' तेव्हा किंचित हसत भद्रा पुढे गेली आणि बोलू लागली, हे पद्माक्षी, सिप्रा नदीच्या किनाऱ्यावरील वृक्षवाटिकेत क्रीडा करण्याची इच्छा असेल तर या अवंतिपती पद्मनाभांना नाथ कर.' राजकुमारी म्हणाली, 'हुशऽ ! या स्वयंवरमंडपात फिरून मी दमून गेले. तेव्हा अजून किती वेळ सांगणार आहे ?' भद्रेने' विचार केला, " हे पण माझ्या मनाला भानंद देत नाहीत," असे For Private And Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजकुमारीने सुचविले ( श. सांगितले ). तेव्हा पुढे जाते.' असा (विचार करून) तसेच करून भद्रा बोलू लागली, 'ज्यांचे सौंदर्य पाहून सहस्राक्ष ( इद्रा ) ला ( आपले ) हजार डोळे निश्चितपणे सफळ झाले असे वाटते ते हे निषधपुत्र युवराज नळ आहेत.' . आश्चर्यचकित मनाने दमयंतीने विचार केला, 'ओहो ! सर्व रूपवंतांना मागे सारणारी ( काय ही ) शरीराची ठेवण (म्ह. मोहक अंगलट) ! ओहो ! (काय हे) असामान्य लावण्य ! ओहो ! (काय है) विपुल सौंदर्य ! ओहो ! माधुर्याचा निवास असलेला (काय हा) विलास ! तेव्हा, हृदया, यांना पती मानून परम प्रसन्नता मिळव.' तेव्हा तिने नळाच्या नाजूक गळभात वरमाला घातली. 'ओहो ! हिने उत्तम वर निवडला, चांगल्या (अनरूप बरा)स.वरले' असा लोकात कलकलाट माजला.' ००० For Private And Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ पद्मावती उदयनास दिली ( नंतर दायी येते.) दासी-(अंतराळात) कुंजरिके, (अग) कुंजरिके, कोठे कोठे आहेत राजकन्या पद्मावती ? ( ऐकल्याचा अभिनय करून ) काय म्हणालीस ? 'या राजकन्या माधवीलताकुंजापाशी चेंडूने खेळताहेत' म्हणून ? तोवर राजकुमारीपाशी जाते. (फिरून पाहून) अय्या ! कर्णफुले उंचावलेल्या, व्यायामाने निर्माण झालेल्या धर्मबिंदूंनी आकर्षक (श. चित्रविचित्र) झालेल्या आणि श्रमामुळे चेहरा मोहक दिसत असलेल्या या राजकन्या इकडेच येत आहेत. तोवर मी जवळ जाते. (जाते) ( असा प्रवेशक (संपतो) ) ( तेव्हा चेंडूने खेळत असलेली पद्मावती परिवारासमवेत वासवदत्तेसह प्रवेश करते) . वासवदत्ता-सखी, हा (घे) तुझा चेंडू. पद्मावती-आर्ये, आता एवढे (खेळणे पुरे) होऊ दे. वासवदत्ता-सखी, खूप वेळ चेंडूने खेळून अधिक आरक्त झालेले तुझे हात जणू 'दुसन्यांचे' झाले आहेत. ( अतिशय लालसर झाल्यामुळे जणू ते तिचे नव्हेत कारण For Private And Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रमलेल्या हातावर तिचा ताबा न राहून ते जण परक्याचे झाले. तसेच यावेळी तिच्या लग्नाच्या वाटाघाटी सुरू असल्यामुळे अत्यंत प्रेमामुळे ते हात आता दुसऱ्याचे झाले असा श्लेष) दासी-खेळावे, तोवर राजकुमारींनी खेळावे, तोवर कौमार्यपणाचा हा रमणीय काळ उपभोगावा. पद्मावती-आर्ये, चेष्टा करण्याकरिताच जणू आता माझ्याकडे रोखून का पाहता ? वासवदत्ता-नाही, नाही. हले आज तू भारीच सुंदर दिसतेस. जणू सर्वबाजूंनी आज तुझे बरमुख पाहते आहे. ( श्लेषाने श्रमाने अधिक लाल झालेला तुझा सुंदर चेहरा सर्व बाजूंनी पाहावासा वाटतो. तुझ्या वराचे वदन जणू तुझ्या सन्निध फिरतेम्हणजे विवाह जवळ आलेल्या कन्येसारखी आज तू मला अतिशय सुंदर दिसतेस) पद्मावती-जा. आता माझी चेष्टा करू नका. वासवदत्ता-महासेनाच्या भावी सूनबाई, ही मी गप्प बसले. पद्मापवती-हा महासेन नावाचा कोण ? वासवदत्ता-उज्जैनीचा प्रद्योत नावाचा राजा आहे. सैन्याच्या ( मोठया) प्रमाणावरून त्याचे महासेन असे नाव पडले आहे. दासी- त्या राजाशी संबंध (जडावा अशी) राजकुमारीची इच्छा ..नाही. . For Private And Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२५) वासवदत्ता- तर मग खरोखर आता ती कोणाची अभिलाषा करते ? दासी- उदयन नावाचे वत्स (देशाचे) महाराज आहेत. त्यांच्या गुणावर राजकुमारी लुब्ध आहेत. वासवदत्ता-(स्वगत) आर्यपुत्र पती (व्हावा अशी) अभिलाषा करते ? (उघड) कोणत्या कारणाने ? दासी- ते दयाळू आहेत म्हणून. वासवदत्ता- (स्वगत) माहित आहे, मला माहित आहे. याच (गुणा ) मुळे मी त्यांच्यावर मोहित झाले होते. दासी- राजकुमारी, जर ते महाराज विद्रूप असतील - वासवदत्ता- नाही, नाही. (ते) सुंदरच आहेत. पद्मावती-आर्ये, आपण कसे जाणले ? वासवदत्ता-(स्वगत) आर्यपुत्राविषयीच्या पक्षपातामुळे मी मर्या. देचे । श. चालरीतीचे) उल्लंघन केले. आता काय करावे ? असू देत. समजले (उघड) असे उजनीतील लोक बोलतात. पद्मावती-(हे) जुळते. खरोखर हे उजैनीला अपरिचित नाहीत. सर्व लोकांच्या मनाला आनंददायक तेच खरे सौंदर्य. (तेव्हा दाई प्रवेश करते ) . दाई-राजकुमारींचा विजय असो. राजकुमारी (आपणाला) दिले. . (म्ह. आपला विवाह ठरला).. वासवदत्ता-आर्ये, कोणाला ? दाई-वत्स ( देशा ) च्या उदयनमहाराजांना. वासवदता आता त्या महाराजांचे कुशल आहे ना? For Private And Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाई-कुशल आहे. ते येथे आले आहेत आणि त्यांची राजकुमारोंना मान्यता आहे. कासवदत्ता-महा संकट (कोमळले). वाई-याबाबतीत महा संकट कोणते ? वासवदत्ता-खरोखर काही नाही. (प्रथमपत्नीच्या मृत्यूने) तशा प्रकारे दुःख करून (माता) उदासीन व्हावे (हे योग्य नव्हे). वाई-आर्य, शास्त्रानुसार थोर पुरुषांची हृदये सहज (म्हणजे चटकन) मुळपदावर येतात (शांत होतात) वासवदत्ता-आर्य, स्वतःच त्यांनी मागणी घातली? दाई-छे, छे ! दुसऱ्या कामासाठी येथे आले असता त्यांचे उत्तम कुळ, (विशेष) ज्ञान, (तरुण) वय व (सुंदर) रूप पाहम स्वतःच महाराजांनी देऊ केले. वासवदत्ता- (स्वगत) अस्से ! आता याबाबतीत आर्यपुत्र दोषी नाहीत. दुसरी वासी-(प्रवेश करून) स्वरा करावी, तोवर भार्येने त्वरा करावी. आजच खरोखर चांगला मुहूर्त आहे. आजच मंगल विवाह करावा असे आमच्या महाराणो म्हणतात. वासवदत्ता- (स्वगत) जसजशी घाई होते आहे. तसतशी माझे हृदय अंधःकाराने भरून जाते आहे. दाई-चलावे, राजकुमारीनी चलावे. (सर्व जातात) For Private And Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९ मूर्खपणाचे बक्षीस राजा-पण हे दोघे कोण? विदूषक-हा कंचुकी आणि (श. पण) ही दाई. राजा- (जवळ जाऊन) दाई आणि कंचुकींचे कुशल आहे ना? दोघे- (स्वगत) कसे महाराजच आले ? (उघड) महाराजांच्या पदकमलांच्या दर्शनाने. विदूषक-माझ्याही असे म्हणा. प्रतिहारी-आर्य, चोहोकडूनही कशा माकडचेष्टा प्रकट करतोस? विदूषक-हं ! आता काही सुद्धा म्हणू नको. भूकेने व तहानेने _ व्याप्त झालो आहे. प्रतिहारी-माझ्या हाती येत आहे. मंदारक-खरोखर पिशाच्च पिशाच्चाला पीडा देत नाही. राजा-तसे म्हणू नको. खरोखर- (हा) ब्राह्मण आहे. विदूषक- (क्रोधाविष्ट होऊा) थेरड्या, पुनः एक वेळ बोल. मंदारक-तुझा बाप म्हातारा झाला नव्हता का? विदूषक-महाराज जवळ असताना त्यांच्या मित्राच्या वडिलांना . कसे दूषण देतोस ? पिंगलक-तू कशी महाराजांच्या कंचुकीची चेष्टा केलोस ? विदूषक-पिंगलक, राजाचा प्रिय मित्र असलेल्या माझा अपमान करू नको. (पिंगलक लाजतो.) For Private And Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org (२८) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतिहारी-आर्य, श्रीमंताघरच्या जावायाप्रमाणे ब्राह्मणाच्या बटकीप्रमाणे, तुरुष्काने पोसलेल्या शिकारी कुत्र्याप्रमाणे आणि रोगी कोल्ह्याप्रमाणे तू सर्व लोकांना का दंश करतोस ? विदूषक - कुत्रा भुंकतो, राजा आशा करतो. दाई व कंचुकी-जशी ब्राह्मणशिरोमणीची आज्ञा. आनंदसुंदरी - (स्वगत) काय हा ब्राह्मणाचा अपमान ! राजा - ( बाजूला) मित्रा, अंतःपुरात जाऊन एकांतात मंदारक कंचुकीस बोलाव. विदूषक - ठीक. ( जाऊन त्याच्या सह येतो. ) मंदारक - ( श्रम झाल्याचा अभिनय करून दमल्याचा आव आणून मी कोठे प्रतिष्ठान ठेवू म्ह. बसू ) ? (निश्वास टाकून जवळ जाऊन ) महाराजांचा विजय असो. विदूषक - ( चोहोकडे पाहून मोठ्याने) अरे, वाघ ! वाघ ! ! ( आनंदसुंदरी घाबरून ओरडून राजाला आलिंगन देते. दाई व कुरंगक आणि मंदारक ( ही ) घाबरल्याचा अभिनय करतात. ) प्रतिहारी - हे काय उद्भवलं ? ( मंदारक दिशा न्याहाळून काठी खाली पाडतो. ) विदूषक - गळयातील जानवे बांधत म्ह. जानव्याची गाठ धरत ) खरेच मी कोठे धावू ? राजा - हं ! मूर्ख ! प्रत्येक घटकेला कसा भ्रम होतो ? विदूषक - खरोखर पाहण्यासारखे आहे. मंदारक- मला भ्रम झाला.. For Private And Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घमा-(मर्शसुख अनुभवीत) चंद्राच्या किरणांनी पाझरणारी चंद्रकांतमणी की मसुराच्या थंडगार पाण्यात घासलेले, चंदन की स्वर्गातून पडलेला अमृतरस ? (आपल्या) आवडत्या माणसाच्या स्पर्शाधीन झाल्यानेच असे होते. तसेच खरोखर अवयवांवर माल्लिका फुलांची मोठी मुद्रा, डोळपात रसरशीत कमळ कोशाचे सौंदर्य, शरीरावर नव-स्वेदसमध्दी, पुनः मनात परब्रह्मच्या आनंदाचा (अखंड) साक्षात्कार ! मंदारक-तो वा कोणत्या ठिकाणी आहे ? विदूषक-संगीतशाळेच्या दाराच्या तळाशी वरच्या भागामध्ये. राजा-अरे ! मूर्खाने चितारलेला वाघ (म्ह. वाघाचे चित्र) पाहून उगीचच ओरडा केला. विदूषक- (स्वगत) खरेच याला कसला कमीपणा आला? पण वाघाची डरकाळी नव्हती. (उघड क्रोधाने ) अरे, कृतघ्न आहेस. कारण माझ्या प्रभावाने आलिंगन ( सुख) मिळूनही असा विचार करतोस ? राजा-'हने ) तुझा प्रभाव. ( विदूषकाला रत्नजडीत कडे देतो) विदूषक-(हातात धन) अरे, मीही अर्ध्या पृथ्वीचा सार्वभौम आहे. राजा-ते कसे ? विदूषक-कारण तुझ्या बरोबर माझ्याही हातात एक कडे आहे. For Private And Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १० नवकारमंत्राचा प्रभाव , अत्युत्तम पूजेस पात्र असणान्या अरिहंतांना वंदन असो. (अनंत) सुखाने संपन्न असणाऱ्या सिद्धांना वंदन असो, पाच प्रकारचे आचार पाळत असलेल्या आचार्यांना बंदन असो. स्वाध्याय आणि ध्यानामध्ये रममाण असणा-या उपाध्यायांना वंदन असो. निर्वाणा ( करिता साधना करणारे ) साधक असलेल्या मुनींना वंदन असो. २. हा पंचनमस्कार (मंत्र ) सर्व पापांचा नाश करणारा असून सर्व मंगलामध्ये प्रमुख मंगल आहे. ३. दीर्घकाळही तप आचरिले, सदासर्वकाळ (व्रतांचं ) आचरण (केले) आणि सिद्धांत शास्त्राचे (श्रुताचे) पुष्कळ पठण केले आणि जर नमस्कारात मन नसेल तर ते (सर्व) निष्फळ झाले. ४. मनाने चितिलेले, वाचने प्रथिलेले आणि कायने आरंभलेले (कार्य) जोवर नमस्कार (मंत्रा) चे स्मरण केले जात नाही तोवर (पुरे) होत नाही. ५. हा ममस्कर (मंत्र) संसाररूपी समरांगणात पडलेल्यांना आश्रयाचे ठिकाण आहे. असंख्य दुःखांच्या नांशाचे कारण आहे आणि मोक्षमार्गाचा हेतू आहे. For Private And Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६. (हा पंच नमस्कारमंत्र) (शाश्वत) कल्याणरूपी कल्पवृक्षाचे अवध्य (म्ह. न मरणारे) बीज आहे, संसाररूपी हिमपर्वताच्या शिखरांना ( वितळवून टाकणारा ) प्रखर सूर्य आहे आणि पापरूपी नागांना पक्षी राजा (गरुड) आहे. ७. नवकार महामंत्राने रोग, पाणी, अग्नी, चोर, सिंह, हत्ती, युद्ध, साप यांपासूनची भये त्याचक्षणी नाश पावतात.. ८. डाकीण, बेताळ, राक्षस, महामारी यांच्या भयाचा प्रभाव त्याच्यावर किंचितही पडत नाही. नवकार ( मंत्रा) च्या प्रभावाने सर्व संकटे नाहीशी होतात. १. ज्यांच्या हृदयरूपी गुहेमध्ये नवकारमत्ररूपी सिंह सदासर्वकाळ वास करतो आहे, त्यांच्यावर अष्टकर्मग्रंथीरूपी हत्तींचा हल्ला झाला असताना त्यांचाच नाश होतो. १०. ज्याच्या मनामध्ये जिनशासनाचा (दर्शनाचा) सार असलेला आणि चवदा पूर्वांचा उद्धार करणारा नवकार ( मंत्र) आहे. त्याला संसार काय करणार ?.. ११. नवकाराहून दुसरा सारमूत मत्र त्रिभुवनात नाही. म्हणून, खरोखर, दररोजच अत्यंत भक्तिभावाने त्याचे पठन करावे. १२. जेवायच्या वेळी, झोपताना, जागे होताना, (कोठेही) प्रवेश करताना, भयप्रसंगी आणि संकटात, सर्व काळच खरोखर नवकार (मंथा। चा जप करावा. (शा. मंत्राचे स्मरण करावे). For Private And Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११. वज्जालग्गं (4) दीन-पद्धती १. माते, दुसऱ्याकडे याचना करण्यात गढून गेलेल्या अशा मुलास जन्म देऊ नको (आणि) ज्याने (दुसऱ्याने केलेली) याचना धुडकावून लावली आहे त्याला उदरातही थारा देऊ नयेस. जोवर 'द्या' अशी याचना करत नाही, तोवरच रूप, गुण, लन्जा, खरेपणा, घराण्याची परंपरा आणि स्वाभिमान (अशा या सर्व गोष्टी) असतात. . 'खरोखर विधीने या जगामध्ये गवत-कापसापेक्षाही हलका असा दोन (मनुष्य) निर्माण केला आहे.' ' (मग) वाऱ्याने त्याला का वाहून नेले नाही ? ' ( कारण ) आपल्याकडे (च) याचना करेल या भीतीने.' ४. द्या' अशी दुसन्याकडे याचना करत असताना त्या (स्वाभी. मानी दीन माणसा) चे हृदय धडधडू लागते, जीभ षशात अडखळते आणि चेहऱ्यावरील तेज नाहीसे होते. ढग समुद्रातील पाणी प्रयत्नपूर्वक (शोषून) घेत असता काळे. कुट्ट होतात आणि, खरे म्हणजे, (पाऊसाच्या रूपाने पाणी) देत असताना धवल होतात. ( दुसऱ्याकडून दान.) घेणारे आणि ( दुसऱ्यांना दान ) देणारे यांच्यामधील ( मोठे) अंतर पाहा. For Private And Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (R) सिंह-पद्धती ६. कर्तव्यपराङ्मुख व स्वाभिमानशून्य अशी अनेक पाडसे असून हरणीला काय कामाची ? हत्तीचे गंडस्थळ फोडणाऱ्या एकाच छाव्याने सिंहीन निर्धास्तपणे झोपते. विशुद्ध जातीच्या त्या बनराजांना प्रणाम असो. अहाहा ! या पृथ्वीवर जे जे ( जातिवंत ) कुळात जन्मतात ते ते (छावे) हत्तींचे गंडस्थळ विदीर्ण करणारे होतात. ८. मोठया (शरीराच्या) आकाराने माणसाला मोठेपण प्राप्त होते असे समजू नका. वनराज लहान असला तरीही मोठ्या हत्तींचे गंडस्थळ विदीर्ण करतो. ९. दोघेही अरण्यात जन्मतात, (पण) हत्ती जखडले जातात सिंह मुळीच नाही. थोर पुरुषांच्या बाबतीत मरण संभवनीय आहे, अपमान नव्हे. (र) चंदन-पढ़ती १०. चंदन वाळले किंवा ( साणेवर ) घासले तरीही खरोखर तसला कसला तरी घमघमाट सुटतो की जेणेकरून ताज्याही फुलांचा हार सुगंधामध्ये लज्जित होतो. ११. कुन्हाडीच्या घावाने छेदले (किंवा ) (दगडावर) घासले तरी (सुगंध देण्याचा मूळ) स्वभाव सोडत नाहीस, म्हणून हे चंदना, सोक मस्तक नमवून तुला वंदन करतात. For Private And Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (1) १२. चंदना, मोठमोठ्या साडांमध्ये तुझा जन्म उत्तम' मुळात झाला आहे. त्यामुळे साप आणि दुष्ट माणसे तुल्यावर नेहमीच अनुरक्त असतात. १३. विधीने तशा त-हेच्या चंदनाच्या झाडाला एकच दोष पर. विला आहे की ज्याची संगत दुष्ट नाग एक क्षणभरही सोडत नाहीत. १४. दुष्टाच्या संगतीने निरपराधी साधू संकटात पडावा ( श. छेदला जावा ); त्याप्रमाणे अनेक मोठाल्या झाडांमध्ये सापांच्या दोषाने चंदनाचे झाड कापले जाते. For Private And Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२. उज्ज्वल चारित्र्याचा रावण १. मध्यंतरी इंद्राने ज्याला लोकपालपदावर नेमले होते तो नलकूबर दुलंघपुरामध्ये राहत होता. . बाता त्याने विपुल आग्नीयुक्त शंभर योजनाचे तट रचले नाणि शत्रूयोध्यांच्या जीवनाचा नाश करणारी अनेक प्रकारची यंत्रे (केली). नंदनवनात जाऊन आणि (भक्ति) भावाने तीर्थकर मूतींना (श. चे त्यांना म्ह. चैत्यालय-देवालया-तील जिन मूर्तीना ) बंदन करून पुनः रावण आपल्या निवासस्थानी परत आला. रावणाने शस्त्रे (घेऊन) तयार झालेल्या व चिलखत पातलेल्या संन्यासमवेत प्रहस्तप्रमुख योदयांना दुलंघपुभहस्तगत करण्यास पाठविले. येताच त्यांनी चोहोबाजूंनी जळते उंच तट असलेले, यंत्रांमुळे शत्रूयोद्ध्यांना जयभीत करणारे व उलंघिण्यास अत्यंत कठिण (असे ते) नगर पाहिले. भाता उत्साहित राक्षसांनी सभोवती संपूर्ण नगराला वेढा घातला. शत्रू अनेक प्रकारच्या विद्या प्रयोगांनी त्यांना ठार का गवळे. ५. For Private And Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७. तेव्हा मारले जात असताना राक्षसयोस्यांनी (रावणाकडे) दूत पाठवला. जाऊन तो राजाला म्हणाला, 'प्रभू, आपण माझे (म्हणणे) ऐकावे. सर्वत्र धगधगत्या अग्नीमुळे जवळ जाणारे जळताहेत भाणि विकराल मुख असलेल्या यंत्राद्वारे पुष्कळसे मरताहेत. हे बोलणे ऐकून अत्यंत बुद्धिशाली असे त्यावेळी (श. ज्यावेळी) लंकेश्वराचे मंत्री आपल्या सैन्याच्या रक्षणाकरिता उपाय योजू (श. चितू) लागले. १०. त्यावेळी नलकूबराच्या उपरंभाराणीने रावणावर प्रेमा सक्त झाल्यामुळे पाठवलेली दूती आली. ११. मस्तक नमवून प्रणाम कस्न दूती एकांतात रावणाला म्हणाली, 'स्वामी, ज्या कारणाकरिता मला पाठवले ते ऐकावे.' नलकूबर (महाराजां) ची उपरंभा नावाची प्रसिद्ध राणी आहे. खरे म्हणजे, तिने मला पाठविले आहे. माझे नाव विचित्रमाला आहे. ती अंतःकरणपूर्वक आपल्या भेटीस उत्सुक असून आप. ल्याशी प्रेमसंबंध घडावा असा विचार करते. आपल्या गुणा. पर ती अत्यंत अनुरक्त आहे. भेट घेण्याची ( श. दर्शन देण्याची) कृपा करा.' For Private And Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४. दोनही कानांवर (हात) ठेवून रस्लमवापुत्र (रावण) असे म्हणाला, 'रूपवती असलेल्याही वेश्या आणि परस्त्रीकडेही मी पाहत नाही. दढ चारित्र्यशील राजाने इष्टया जेवणाप्रमाणे इह व परलोक (नियमा) विरुद्ध असलेल्या परस्त्रीचा सदासर्वकाळ त्याग करावा.' १६. दूतीकार्य जाणून त्याबाबतीत कुशल मंत्री म्हणाले. 'आरम. हिताचा विचार करणान्यांनी (प्रसंगी) खोटेही बोलावे. १७. स्वामी, संतुष्ट झालेली स्त्री कदाचित नगराचा भेद सांगेल, खूप सन्मान केल्यावर ती सद्भावपरायण होईल.' १८. 'असे (होऊ दे)' असे म्हणून रावणाने दुतीलाही पाठविले. जाऊन तिने ( रावणाचा ) सघं संदेश स्वामिनीला सांगितला. दूतीचे बोलणे ऐकूण उपरंभा लगेच निघाली. ती रावणाच्या निवासापाशी आली. तेथे प्रवेश करून ती आनंदाने (आसनावर) बसली. रावण म्हणाला "भद्रे, येथे अरण्यात कसले रति सुख ! दुर्लघपुर (म्ह. राजवाडा) सोडून ते माननीय होणार नाही.' २१. ते मधुर कामोत्तेजक बोलणे ऐकून कामातुर झालेल्या त्या (उपरंभे) ने त्याला आशालिका विद्या दिली. २२. ती विधा मिळवून सर्व सैन्य समूहासह दुर्लषपुराजवळ For Private And Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जाऊन राबणाने दुर्ग सर केला. २३. रावणाने येऊन दुर्ग सर केल्याचे ऐकून अभिमानाने नाक. बरराजा लगेच बाहेर पडला. २४. आता दोन्ही बाजूंनी बाण, शक्ती, भाले, तोमस फेकल्या जाणाऱ्या युद्धात तो राक्षसांबरोबर युद्ध करू लागला. २५. आता मोठमोठ्या योद्धयांचे जीवन नष्ट होणारे भयंकर युद्ध चालू असताना समरांगणात विभीषणाने नलकूबर राजाला पकडले. २६. लंकेश्वराने उपरंभेला म्हटले, 'भद्रे, तू माझी गुरू आहेस.' कारण आशालिका नावाची बलसमृद्ध विश्वा तू मला दिलीत. २७. उतम कुलामध्ये निर्माण झालेली तू सुंदरीच्या पोटी जन्म लीस. तू आकाश ध्वजाची कन्या आहेस. शीलरक्षण कर. णारी हो. २८. भद्रे, रूपलावण्ययुक्त तुझा प्रिय ( पती, मद्यापीही जिवंत आहे. याच्याशी दीर्घ काळ विशिष्ट भोगांचा उपभोग घे.) २९. रावणाने मत्कार करून नलकूबरराजाला सोडले. (रावणा बरोबर झालेला ) संबंधदोष माहित नसलेला तो तिच्या बरोबर (विषयोपभोग ) भोगू लागला. For Private And Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३. बोधिदुर्लभकथा १. यथेच सागरदत्त नावाचा धनसंपन्न असा श्रेष्ठी होता. तो नेहमीच धनाचे रक्षण व अर्जन करण्यामध्ये अतिशय तत्पर असे. २. आता एकदा तो आपल्या सोहड मुलाशी विचारविनिमय करू लागला, तो असा, 'बाळ, ही संपत्तो कष्टाने मिळविली आहे. हे तूही जाणतोस. ३. म्हणून हिचे घराबाहेर दूर रक्षण करू या. घरी ठेवली असता ती सर्व लोकांच्या स्वाधीन होईल. ४. तेव्हा स्मशानात जाऊन कोठेतरी गुप्त ठिकाणी ती पुरू या. म्हणजे संकटात पडल्यावर ती आम्हाला साहाय्य करेल.' ५. अशारीतीने एकांतात विचार विनिमय करून मुलाबरोबर तो स्मशानात गेला. मोठा खड्डा खणून तेथे द्रव्याचे कलश पुरले. १. तेव्हा खड्डा भरून श्रेष्ठी मुलास असे म्हणाला, 'बाळ, जाऊन तू सर्वच दिशामंडळ पाहा.' ७. यदाकदाचित ( है ) कोणीतरी पाहिले असावे. तो म्हणाला, बाबा, 'आपण चतुर आहोत. येथे अत्यंत भयानक स्मशानात रात्री कोण येणार ?' For Private And Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ तेंव्हा पिता म्हाणाला, 'बाळ, चांगली पाहणी केल्यास येथे कोणता तोटा (श. दोष) होणार आहे ?' असे म्हटल्यावर मुलाने जाऊन सर्व न्याहाळले. ९. तेव्हा मेल्याचे सोंग घेऊन निश्चेष्ट पडलेला व श्वास रोखून द्रव्याच्या ठिकाणी पाहत असलेला भिकारी दिसला १०,११. त्याने येऊन सांगितले, 'श्वास नसलेला कोणीतरी तेथे (पडला) आहे. तेव्हा श्रेष्ठीही म्हणाला, 'पण जर का तो द्रव्यलोभाने श्वास रोखून मेल्याचे सोंग घेऊन पडला असेल, तर सुरीने त्याचा कोणता तरी अवयव कापून लोकर ये.' १२. असे म्हटल्यावर तो कान कापून आला. तेव्हा तो म्हणाला, 'कदाचित पुनः तो धूर्त हे सहन करील. ( सेव्हा ) दुसराही कान काप. १३. त्यानेही तसेच केले. ओठाबरोबर नाकही कापले. त्यानेही धनाकरिता सर्व सहन केले. कारण असे म्हटले आहे. १४. माणसे (श. प्राणी) धनाकरिता जे करणार नाहीत असे साहस नाही. ते स्वतःचे जीवनही बेचतील. मग शरीर. छेदनाविषयी काय (सांगावे) ? १५,१६,१७. तेव्हा भिकायाला मढे समजून तो श्रेष्ठी मुला सह घरी गेला. भिकाऱ्यानेही येथून झटदिशी उठून ते द्रव्य घेतले व दुसरीकडे दडविले. (त्यातील) किती तरी घेऊन तो नगरात गेला. त्याने कपडे, चंदन, कापूर, वगैरे घेतले. झिरझिरीत वस्त्राने कापलेले अवयव झाकून तो वेश्यांच्या घरांमध्ये विलास करू लागला. For Private And Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८. आता एकदा खरोखर तोही बागेत मेला. तेथे आपल्या बरोबर त्याने मोदक, मांडे, वडे वगैरे नेले. त्याने नगरातील सर्वच गरीबांना बोलावले आणि तो आनंदाने त्यांना भोजन, वस्त्रादि सर्व देऊ लागला. . तसेच तो याचकांना, हवे ते मागणाऱ्यांना, दीनादींनाही यथेच्छ (देऊ लागला). संतुष्ट झालेले तेही खरोखर कर्णाचे नाव घेऊन (त्याची) स्तुती करू लागले. २१. तेव्हा लोकपरंपरेने (म्ह. कर्णोपकर्णी) ते ऐकून श्रेष्ठीला त्याची शंका आली. 'याने त्या ठिकाणाहून माझे द्रव्य तर घेतले नसेल ना? २२. पण जर तो भिकारी त्यावेळी श्वास रोखून स्तब्ध असेल. ( तर त्याने निश्चित द्रव्य घेतले असेल ).' असा विचार करीत तो त्यासच पाहण्यासाठी तेथे गेला. २३. त्याने केशराने पिंगट झालेल्या, वेश्या सभोवती असलेल्या आणि उत्तम (झिरझिरीत) वस्त्राने कापलेले ओठ, नाक, ( कान ) झाकलेल्या त्यास पाहिले. तेव्हा त्याने विचार केला. २४. 'जे द्रव्य कष्टाने मिळवले जाते त्याचा कष्टाने उपभोग घेतला जातो. प्रायः चोर, दरवडेखोरांचे चारित्र अशावन्हेचे असते. For Private And Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५. असा विचार करून तो स्मशानात गेला व दोन कलशांनी विरहित असा त्याने तो खड्डा पाहिला. तेव्हा तो अधिक शोक करू लागला. २६. हाय रे देवा ! पुण्यविहीन अशा माझे द्रव्य कसे नाहिसे झाले ? कोणातरी विद्वानाने जे असे म्हटले आहे ते खरेच आहे. २७. मी दान दिले नाही. निरनिराळ्या प्रकारांनी सुखोपभोग भोगले नाही. द्रव्य नाहीसेच झाले. तेव्हा मी राजदरबारी जातो. २८, २९. मो राजाला सर्व सांगतो. खरोखर कदाचित तो याच्या कडून द्रव्य देववेल.' तेव्हा त्याने नजराणा देऊन राजाला सांगितले ते असे, ' महाराज, जो बागेमध्ये अनेक प्रकारांनी विलास करतो आहे, तो निश्चितपणे चोर आहे. याने स्मशानातून खणून माझे द्रव्य घेतले आहे.' ३०. हे ऐकून राजाने कोतवालास आज्ञा केली ती अशी, 'ताबड तोब त्या अट्टल चोराला बांधून माझ्यापाशी आण.' ३१. त्यानेही तसेच केल्यावर चोर म्हणाला, 'माझा कोणता दोष ?' राजा म्हाणाला, 'तू याचे द्रव्य खणून घेतलेस. ३२. तो म्हणाला, ' महराज, याने माझे काही घेतले आहे. ते द्यावयास लावा. मग मी याला द्रव्य देईन.' ३३. राजाने दृष्टिक्षेप केल्यावर तो व्यापारी सांगू लागला, 'भी For Private And Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माचे काहीही घेतले नाही.' तेव्हा चोर असे म्हाणला. ३४. 'महाराज, वाट (चाली) च्या श्रमाने खिन्न होऊन मी गाढ झोपलो होतो. यानेच माझे नाक, (ओठ) आणि कान कापले. ३५,३६. 'तेव्हा याने माझे कान, बगैरे देऊन आपले द्रव्य घ्यावे.' असे म्हटल्यावर तो श्रेष्ठी आश्चर्याने (स्तब्ध) राहिला. ' श्रेष्ठी, जेव्हा यास कान, वगैरे देशील, तेव्हा ते द्रव्य तुला मिळेल.' असे म्हणूण राजाने दोघांनाही तेथून (श. येथून) (बाहेर) घालविले. ३७. तेव्हा वैराग्य उत्यन्न झालेला श्रेष्ठी घरी येताच मुलाला उपदेश करू लागला, 'बाळ, ज्याप्रमाणे क्षणात संपत्ती गेली, तसे जीवन जाईल. ३८. जगामध्ये प्राण्यांना जन्मातून म्हातारपण आणि म्हातार. पणातून मरण निश्चित येते. म्हणून मृत्यूच्या मुखात गेलेले जीव थोडे दिवस जगतात. ११ नेव्हा जर ते सद्धर्माची शिदोरी घेऊन परलोकाला जातील तर तेथे गेल्यावर निश्चितपणे त्यांना शोक करावा लागणार नाही व ते सुखी होतील.' ००० For Private And Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १४. अगडदत्ताचा सन्मान ५. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एके दिवशी तो राजकुमार घोड्यावर बसून घोडयाच्या मैदानाच्या रस्त्यावरून जात होता; तेव्हा (वाराणसी) नगरीत गलबला झाला. आणि तसेच (त्याला वाटले ) - 'समुद्र खवळला आहे का ? किंवा भयंकर अग्नी भडकला आहे ? किंवा शत्रू सैन्य (चालून) आले ? किंवा बीज पडली ? ३४. इतक्या अवधीत राजकुमाराने बांधलेला प्रचंड खांब मोडून ( आलेला ), निष्कारण क्रोधाविष्ट झाल्याने माहुताने ( निरुपाय होऊन ) सोडलेला, कृतांतकाळाप्रमाणे सोंडेच्या टापूत येणाऱ्यांना ठार करीत समोरून येत असलेला, एक मदोन्मत्त हत्ती अवचितपणे आश्चर्यचकित मनाने पाहिला. पायांना बांधलेला दोरखंड तोडून घरे, बाजारातील दुकाने, देवालये विध्वंस करीत तो प्रचंड ( हत्ती ) क्षणात राजकुमारासमोर आला. ६. त्या तशा तऱ्हेच्या रूपसंपन्न कुमाराला पाहून नागरिक गंभीर आवजाने ओरडले, 'दूर हो, हत्तीच्या मार्गातून दूर हो. ' ७. कुमारानेही चालण्यच्या गतीत अत्यंत चतुर असलेल्या आपल्या घोडयास सोडून इंद्राच्या ऐरावतासारख्या असलेल्या गजराजाला हाकारले, For Private And Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८. कुमाराची गर्जना (श. शद्ध) ऐकून (गंडस्थळातून) मदरसाचा प्रवाह झरत असलेला तो संतापलेला हत्ती कृतांतकाळा. प्रमाणे कुमारावर वेगाने धावून आला. ९. कुमाराने हर्षित मनाने (अंगावर ) धावत येणा-या हत्तीच्या सोंडेसमोर वस्त्र गुंडाळून फेकले. १०. क्रोधाने धुमसत असलेला तो (हत्ती) आपल्या दातांनी त्यावर आघात करू लागला आणि कुमारही त्याच्या पाठीवर दृढ मुठीचे प्रहार करू लागला. ११. तेव्हा क्रोधाने धुमसत असलेला तो मागे पळू लागला' (पुढे) धावू लागला, चालू लागला, (अडखळत पडू) लागला. तसेच खाली वाकला आणि गोलाकार फिरू लागला. १२. त्या श्रेष्ठ हत्तीला खूप वेळ अतिशय खेळवून व आपल्या आधीन करून नंतर तो त्याच्या खांद्यावर चढला. १३. आता सर्व नागरिकजनांना आकर्षक बाटणारा तो गजेंद्रा बरोबर चाललेला (कुमाराचा) खेळ अंतःपुरा (तील स्त्रियां) सह राजाने पाहिला. १४,१५. राजाने देवेंद्राप्रमाणे हत्तीच्या खांद्यावर वसलेल्या कुमारास पाहून आपल्या सेवकलोकांना विचारले, 'गुणांचा आगर असलेला, तसेच तेजाने सूर्य, सौम्यपणाने चंद्र, सर्व कला व आगम (शास्त्रा)त कुशल, बोलण्यात चतुर, शूर आणि रूपवान असा हा कोण बरे कुमार ?' १६.. तेव्हा एका (सेवका) ने सांगितले, (महाराज, तेथे कला For Private And Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (शिकविणान्या) आचार्यांच्या घरी हा कलेकरिता परिश्रम करीत असताना मला दिसला. १७. तेव्हा हार्षित होऊन राजाने कलाचार्यांना (बोलवून) विचारले, 'श्रेष्ठ हत्तींना ( वश करण्याच्या ) शिक्षणामध्ये अत्यंत निपुण असलेला कोण हा पुरुषोत्तम ?' १८ कलाचार्यांनी अभय मागून पुष्कळ लोकासमवेत अससलेल्या राजाला राजकुमाराची किंगत सविस्तर सांगितली. १९. ती ऐकून आपल्या मनामध्ये अतिसंतुष्ट झालेल्या राजाने 'कुमाराला माझ्यापाशी आण', (म्हणून) द्वारपालास पाठवले. २०. आता द्वारपालाने हत्तीच्या पाठीवर विराजमान झालेल्या त्याला म्हटले, 'कुमार, महाराज बोलावीत आहेत, राज वाड्यात या.' २१. नंतर राजाज्ञेनुसार हत्तीला खांबाला बांधून संशयित मनाने कुमार राजापाशी आला. २२. आपले गुडघे, हात व मस्तक जमिनीवर टेकवून अत्यंत विनयाने त्याने प्रणाम केला नाही तोच राजाने त्याला आलिंगन दिले. तेव्हा राजाने विचार केला. हा पुरुषोत्तम आहे. कारण २३. 'विनय पुरुषत्वाचे मूळ आहे, उद्योग वैभवास कारण आहे, धर्म सुखाचा मूल (मंत्र) आहे आणि अहंकार विनाशास कारणीभूत आहे. For Private And Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आणि पुनः २४. मोरास कोण चितारतो ? (म्ह. मोरास चित्र विचित्र सौंदर्य कोण देतो ? ) राजहंसांना (डौलदार) चाल कोण देतो? कमळांना कोण सुगंधित (करतो) ? कुलवान (घराण्यात) जन्मलेल्यांना विनय कोण (शिकवतो) ? आणि तसेच २५. साळी (च्या लोंब्या कणसाच्या) भाराने, ढग पाण्याने, झाडांचे शेंडे फळांच्या बहराने आणि सत्पुरुष विनयाने नम्र होतात; ( पण ) खरोखर कोणाच्याही भीतीने नव्हे. २६. पानाचा विडा, (उत्तम) आसन, सन्मान, पारितोषिक, आदर, इत्यादींनी अत्यधिक सत्कार केल्यामुळे प्रसन्न मनाने कुमार राजाजवळ बसला. For Private And Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५. आत्मस्वरूप १. खरे म्हणजे ज्याप्रमाणे तिळामध्ये तेल किंवा फुलामध्ये सुगंध परस्परामध्ये एकरूपच झाले आहेत; त्याचप्रमाणे शरीर व जीवांच्या बाबतीत (ते एकरूप झाले आहेत). २. ज्याप्रमाणे स्निग्ध (म्ह. तेलकट) शरीरावर धूळ लागली म्हणजे ती दिसतच नाही; त्याचप्रमाणे रागद्वेषाने स्निग्ध बनलेल्या जीवामध्ये (बद्ध झालेले) कर्म (दिसून येत नाही). ३. ज्याप्रमाणे जीव जात असताना जेथे तो जातो (तिकडे) शरी रही जाते; त्याप्रमाणे जीवाच्या आश्रयाने मूर्त कर्मही जात असते. ज्याप्रमाणे मोर उडताना पिसारा घेऊन जातो; त्याप्रमाणे खरे म्हणजे कर्मसमूहासमवेत जीवही जातो. ५. ज्याप्रमाणे कोणी सामान्य मनुष्य स्वतः स्वयंपाक करून ते, ( अन्न ) जेवतो; त्याप्रमाणे जीवही स्वतःच केलेले कर्म स्वतः भोगतो. ज्याप्रमाणे विस्तीर्ण सरोवरात मंद वाऱ्याच्या झुळकीने हढ ( रोपटे ) फिरते, त्याप्रमाणे कर्माने आहत झालेला जीव संसारसागरात भटकतो. ७. ज्याप्रमाणे एखादा मनुष्य पडक्या घरातून बाहेर पडून नवीन For Private And Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घरामध्ये जातो; त्याप्रमाणे जीव जुने शरीर टाकून (दुसऱ्या नव्या) शरीररात जातो. ८. ज्याप्रमाणे मेणा (च्या लेपा) ने झाकलेले रत्न आत तेजाने झळाळत असते; तसाच काहीसा कर्माच्या ढिगात झाकलेला जीवही खरोखर (आत तेजाने चमकत अललेला) जाणावा. ९,१०. ज्याप्रमाणे दिवा अत्यंत विशाल उंच व भव्य वाड्या लाही प्रकाशित करतो आणि (छोटया) वेष्टनाच्या पात्रात ठेवला असताना केवळ तेवढेच (पात्र) प्रकाशित करतो; त्याचप्रमाणे जीव लक्षावधी श्वासोच्छ्वास (एकदमः) करणाऱ्या विशाल शरीरालाही सजीव करतो (आणि)पुनः (क्षुद्र असलेल्या) कुंथूच्या शरीरात गेला असताना तेवढ्या नेच संतूष्ट होतो (म्ह. तेवढ्या आकाराचाच राहतो). ११. ज्याप्रमाणे आकाशातून वाहत असताना वारा लोकांना दिसत नाही; त्याप्रमाणे, जीवही संसारात भटकत असताना गेळ्यांना दिसत नाही. १२. ज्याप्रमाणे घरामध्ये घुसत असताना दार (झाकल्या) मुळे खरोखर वारा आडवता येतो; त्याप्रमाणे, हे जीव, (देह) घरातील इंद्रियदार (झाकून) ( म्ह. इंद्रियनिग्रह करून) पापाला आडव. ज्याप्रमाणे ज्वालासमूहाने भडकलेल्या अग्नीने तृणकाष्ठ जाळता येते; त्याप्रमाणे ध्यानयोगाने जीवाचे कर्ममलही जाळता येते. १४. ज्याप्रमाणे बीज व अंकुराची कार्यकारणे जाणता येत नाहीत. १३. ज्याला For Private And Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्याप्रमाणे जीव व कर्मांची अंतकाळातील एकरूपता (जाणता येत नाही). १५,१६. ज्याप्रमाणे धातू व कीट एकत्र निर्माण झाले असताना अग्नीच्या योगाने कीटमल जाळून आता सुवर्ण निर्मळ करता येते; त्याचप्रमाणे अनादिकालापासून ( एकत्र ) असलेल्या जीव-कर्माच्या बाबतीत ध्यानयोगाने कर्मकीट नष्ट करून आता जीव विशुद्ध करता येतो. ज्याप्रमाणे चंद्रकिरणांच्या योगाने निर्मळ चंद्र ( कांत )मणी पाणी पाझरतो; त्याप्रमाणे जीव सम्यक्त्व प्राप्त करून कर्ममल सोडून देतो. १८. ज्याप्रमाणे सूर्याने तप्त झाला असताना सूर्य (कांत) मणी अग्नी सोडतो; त्याप्रमाणे खरोखर स्वतः तपाने तप्त ( श. शोषित ) झालेला जीवही अनंतज्ञान प्रकट करतो (श. ज्ञान मिळवितो). ज्याप्रमाणे चिखलाचा लेप ( धुवून ) गेलेला भोपळा लगेच पाण्यावर (तरंगत) राहतो; त्याप्रमाणे सर्व कर्मापासून सुटलेला जीवही लोकानाच्या ( सिद्धशिले ) वर (अनंत चतुष्टयांच्या तेजाने झळाळत) विराजमान होतो For Private And Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६. कर्पूरमंजरीचा शृंगार राजा--आता अंतःपुरात नेऊन राणीने तिला काय केले ? विचक्षणा-महाराज, तिला स्नान घातले. 'कुंकुम ) तिलक लावला, (वस्त्रालंकरांनी) नटविले आणि खूष वे ले. राजा-कसे बरे ? विचक्षणा-१. केशराच्या रसाची दाट उटी लावून तिचे शरीर पिवळे जर्द केले राजा-म्हणजे सुवर्ण मूर्तीचे रूप घासून स्वच्छ उजळले. विचक्षणा-२. मैत्रिणींनी तिच्या पावलावर मरकतरत्नांनी जडव. लेली पैजणाची जोडी घातली. राजा-म्हणजे खाली तोंड करून ठेवलेल्या दोन लाल कमळांभोवती भ्रमरांची रांग (गुंजारव करीत) फिरू लागली. विचक्षणा-३. पोपटराजाच्या शेपटीसारखी ( हिरवट ) मिळी रेशमी वस्त्रांची जोडी ( म्ह. शालू व शाल ) तिला नेसवली. राजा-म्हणजे बान्याच्या झुळूकेमुळे कोळीच्या झाडाची कोवळी For Private And Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाने (श. पानांची टोके) फडफडू लागली. विचक्षणा-४. तिच्या विस्तीर्ण ( डौलदार ) नितंबावर पसराय रत्नांनी जडवलेला मासपट्टा घातला. राजा-म्हणजे सुवर्णपर्वताच्या कडयावर मोराला नाचायला लावले. विचक्षणा- ५. तिच्या हस्तकमलातील देठाप्रमाणे असलेल्या मनगटावर काकणे घातली. राजा-मग कामदेवाच्या (बाणांचा) भाता उलटा शोभतो आहे असे का म्हणत नाहीस? विचक्षणा-६. तिच्या गळ्यात सहा मासे (वजनाच्या) मोत्यांचा सुंदर हार घातला. राजा-म्हणजे तारकांचा मेळावा ओळीने तिच्या मुखचंद्राची सेवा करीत आहे. विचक्षणा- ७. तिच्या दोनही कानांमध्ये रत्नजडित फुलांची जोडी घातली. राजा-म्हणजे तिच्या चेहऱ्याच्या रूपाने कामदेवाचा रथ दोनही .... चाकावर चालवला जात आहे. विचक्षणा-८.तिचे डोळे उत्कृष्ट काजळ घालून सुशोभित केले. राजा-म्हणजे पाच बाण धारण केलेल्या (कामदेवा)स निळया For Private And Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कमळाच्या रूपाने नवा तीर (1) अर्पण केला. विचक्षणा-९.तिच्या कुरळया केसांच्या बटा भाल प्रदेशाच्या टोका. जवळ गुंफल्या. राजा-म्हणजे चंद्रबिंबावर मध्यभागी हरिण ( उभा ) आहे. विचक्षणा-१०. कापराप्रमाणे चमकदार डोळे असलेल्या तिच्या केशसंभारात फुलांचा गजरा घातला. राजा-म्हणजे त्या हरिणाक्षीने चंद्रमा व राहुदैत्य या ( दोषा ) मल्लामधील झुंजच दानवली. वित्रक्षणा-११. अशा त-हेने राणीने आपल्या मनाप्रमाणे (मोदयं) प्रसाधनांनी त्या युवतीला सजविले. राजा-म्हणजे क्रीडोद्यानाची भूमी वासंतिक वैभवाने सुशोभित्र केली. ००० For Private And Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७. प्रवचनसार १. जागृत राहा. (अज्ञान निद्रेतून) का जागे होत नाही ? मृत्यू नंतर, खरे म्हणजे, आत्मजागृती होणे कठिण आहे. (गेलेले) दिवस (श. रात्री) परत येत नाहीत. (मानवी) ‘जीवन पुनः मिळणे (तितके) सहज नाही. २. जन्म मरणासमवेत, तारुण्य म्हातारपणाबरोबर आणि वैभव विनाशासह प्राप्त होते. असे सर्व क्षणभंगुर जाणा. . ३. संसाररूपी अरण्यात ज्या जीवरूपी हरिणाला त्या मृत्यू. रूपी सिंहाने (झडप घालून) पकडले आहे; त्यास सोडवण्यास स्वजन, देव आणि इंद्रही समर्थ नाहीत. ४. ज्याची मृत्यूशी मैत्री आहे, जो ( त्याच्यापासून ) पळून (स्वतःला वाचवू म्हणतो) आणि 'मी मरणार नाही' असे जाणतो, त्यानेच खरोखर (धर्माचरण) उद्या करावे अशी इच्छा बाळगावी. (साधकाने) जगण्याची अभिलाषा बाळगू नये. मरणाचीही प्रार्थना करू नये. जीवन आणि तसेच मरण या दोषांमध्ये त्याने आसक्ती दाखवू नये. For Private And Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यदाकदाचित कोणी विषाचा रस न दिसेल असा गंपचिप पिऊन टाकतो. तो त्यापासून मरणार नाही का? ( तसेच जरी कोणी गुप्तरीत्या कोणाला नकळत पापाचरण केले, तर तो त्यापासून दूषित होणार नाही का ? ) ७. धैर्यवानालाही भरावे लागते, भ्याड पुरुषालाही निश्चित मरावे लागते. खरोखर दोघांनाही मरावे लागते. खरे म्हणजे ( शांतपणे ) धैर्याने मरणे चांगले. ८. पुत्रस्त्रीकरिता पापबुद्धीने धन मिळवून दया-दान सोडून देणारा तो मनुष्य ( श. जीव ) संसारामध्ये ( सतत ) भटकत राहतो. ९. जो दुसऱ्याची निंदा करून स्वतःला ( गुणवान ) प्रस्थापित करू इच्छितो, तो दुसऱ्याने कडू औषध पिले असताना (स्वतः) निरोगी होण्याची इच्छा करतो. १०. ( धनधान्याने परिपूर्ण असलेली ) ही पृथ्वी संपूर्णपणे एखाद्याला दिली, तरी त्यानेही तो संतुष्ट होणार नाही. अशारीतीने जीवाच्या (इच्छा) पुन्या होणे अत्यंत कठिण आहे. बाहेर पेटलेला अग्नी पाण्याने विझवता येणे शक्य आहे. सर्व सागरातील पाण्यानेही मोहल्पी, अग्नीचे निवारण . करणे महा कठिण आहे. १२. आडमार्गाने जाणाऱ्या मनरूपी हत्तीला ज्ञानरूपी For Private And Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंकुशाने रोखा. आडमार्ग स्वीकारून त्याने शीलरूपी उपवन उध्वस्त करू नये. १३. जसा काळा कोळसा दुधाने धुतल्याने पांढरा होत नाही, तसे पापकर्मांनी मलिन झालेली (माणसे) (गंगेच्या) पाण्याने शुद्ध होत नाहीत. १४. जो प्राणीवध करीत नाही, खोटे बोलत नाही, चोरी करीत नाही आणि परस्त्रीकडेही जात नाही, त्याच्या घरीच गंगाकुंड असते. एष ज्याने केव्हाही शील भ्रष्ट होऊ दिले नाही, त्याला (च) पंडित म्हणतात. तो (च) शूर वीर योद्धा होय की ज्याने इंद्रियरूपी शत्रूना जिंकले आहे. १६. जो स्थळ व समय (ओळखून) प्रियवचन बोलायला जाणतो, तो सर्वांनाच पूजनीय असून सर्वांच्याच हृदयाचा आसरा होतो. १७. तो (माणूस) हातात दिवा असताना जर (डोळयाचा उपयोग न केल्यामुळे ) विहिरीत पडला, तर तो दिवा त्याला काय करणार? जर (श्रुतज्ञानाचे) शिक्षण घेऊन (त्याप्रमाणे आचरण न करता) चारित्र्य भंग केले तर त्याला शिक्षणाचे काय फळ ? ( ते ज्ञान चारित्र्याभावी त्यास कधीही सद्गतीस नेणार नाही.) For Private And Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८ काचेच्या मण्यात गुंफलेले वैडुर्यरत्न तेथे दीर्घकाल राहूनही आपल्या श्रेष्ठ गुणामुळे काचेचे रूप धारण करीत नाही. (सदाचारी उत्तम पुरुषाचे जीवन असेच आहे.) १९. ज्याप्रमाणे चंदनाचा भार वाहणारे गाढव भाराचा भागी दार असते,खरोखर चंदनाच्या (सुवासाचा)नव्हे; त्याप्रमाणे खरोखर चारित्र्यहीन असलेला ज्ञानी ज्ञानाचा भागीदार माहे, सद्गतीचा नव्हे. २०. (सम्यक् ) शान, दर्शन, चारित्र्य आणि तसेच तप या मार्गाचे अनुसरण करणारे जीव उत्तम (मोक्ष) गतीला जातात. दूध पाण्यामध्ये मिसळले असता, हंस जिभेच्या आम्लपणा. मुळे पाणी सोडून दूध पितो; त्याप्रमाणे सशिष्य (दुर्गुण सोडून सद्गुण ग्रहण करतो). २२. जे उद्याला करावयाचे ते त्वरित आजच करा, (प्रत्येक) क्षण अनेक संकटांनी (भरलेला) आहे; (तेव्हा) दुपारची वाट पाहू नका. २३. (येथे) चांगलाच (माल)मिळतो', अशी सर्व (दुकानदार) आपल्या मालाची घोषणा करतात. खरेदी करणाऱ्या नेही चांगली परीक्षा करून उत्तम (माल) घ्यावा. २४. जो जीव ( स्वशुद्धात्मतत्त्वाच्या लब्धिस्वरूप) विद्यारथात For Private And Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५८) चहुन मनरूपी रथ जाण्याच्या मार्गामध्ये विहार करतो; तो जिनेश्वरांच्या ज्ञानाची प्रभावना करणारा ज्ञानी सम्यग्दृष्टी जाणावा. २५. ज्याला शत्रू व बांधवजन सारखे आहेत, जो सुख व दुःख समान मानतो, जो प्रशंसा व निंदेविषयी समता धारण करतो, ज्याला (मातीचे) ढेकूळ व सोने सारखे आहे आणि जो जीवन व मरणाला समान मानून (प्रसन्न मनाने तोंड देतो), तो (च खरा) श्रमण होय. ६. ज्याप्रमाणे दिवा (आपल्या स्पर्शाने) शेकडो दिव्यांना प्रक शित करतो; (आणि, तो (ही) दिवा प्रकाशित असतो; (त्याप्रमागे) दिव्या समान असलेले आचार्य (ज्ञानज्योतीने) स्वतःला व दुसन्यांना प्रकाशित करतात. २७. . ज्याप्रमाणे रात्र संपल्यावर (म्ह. सकाळी) सूर्य अखिल भारताला प्रकाशित करतो; त्याप्रमाणे आचार्य शृतज्ञान, चारित्र्य व बुद्धिमत्तेने देवांमध्ये तसा इंद्र जसा (शिष्य. मंडळामध्ये ) चमकतो. २८. ज्याप्रमाणे सुई ससूत्र (म्ह. दोरा ओवलेली) असल्यार के ( विस्मृतीच्या वगैरे ) प्रमाददोषाने हरवत नाही; त्याप्रमाणे ससूत्र ( म्ह. श्रुतज्ञानाने युक्त ) असलेला (साधु) पुरुष प्रमाददोषाने ( संसारगतीत पडून) नाश पावत नाही. ( कारण तो तपाचरण करण्यास समर्थ नसूनही सरळ For Private And Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५९) भावनेने निरंतर स्वाध्याय करीत असल्यामुळे कर्मक्षय करतो.) सदासर्वकाळ उद्यत असलेले राग, द्वेष, मोह व इंद्रियचोर सत्पुरुष (साधकाने सुरक्षिलेले ( तपो) नगर विध्वंस करू शकत नाहीत. ३०. धर्म उत्कृष्ट मंगल असून अहिंसा, संयम ब तपाने युक्त आहे. ज्याचे मन सदासर्वकाळ धर्मात लीन असते त्यास देवही वंदन करतात. ३१. तीर्थकरांनी सर्व विश्वाला हितकर असा धर्म हितोपदेशिला आहे. तो स्वीकारणारी ( व त्याप्रमाणे आचरण करणारी) विशुद्ध मनाची माणसे या जगात धन्य होत. For Private And Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पान १ २ * ५ १२ १३ १४ १५ १६ . पंक्ति २ १० ११ १३ ४ ८ ११ १३ १४ २२ १५ १६ ३ ४ १४ १७ १८ १३ १८ १९ ५. २२ x ४ २२ www.kobatirth.org शुद्धीपत्रक अशुद्ध या (नेमि० किंवा ( नेमि० वैशिट्य काविलिय खुडलए सावि दत्तफुल्लागं व आयति इमेण बि कोडिं पज्जत बोपरक लिखी है । तोलनिक संग्रहाचे मधे सेठिया पत्ता साहिय पत्नींचा पच्जुवा सिउं परिच्चय धम्मा कालाहला बीइय सीए स प्राचीन Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जमलगब्भ माणे For Private And Personal Use Only शुद्ध ( या नेमि० ( किंवा नेमि० वैशिष्ठ्य काविलियं खड्डलए वि पत्तफुल्लाणं वृद्धावेही आमं' ति इमेण वि ' कोडि 4 पज्जत्तं बोधपर लिखी हैं । तौलनिक संग्रहाचे मध्ये ते ठिया पत्ता । साहिय पत्नीचा पज्जुवासिडं ' परिच्चय धम्मो कोलाहलो. सीइयं मे इस प्राचीन ' जमलगब्भ मा ते Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पान पंक्ति शुद्ध १८ mr nvr... সহ্ पुत्तभंडेहिं । पुत्तभंडेहिं ।' गणि वायगविरइयाबसु० गणिवायगविरइया वसु० नामकधर्म कथा नामक धर्भकथा ५५८ ८५८ ससुच्छलिय० समुच्छलिय. रक्खिओ। रक्खिओ, असल्या मुळे असल्यामुळे करच्या तीर्थंकरांच्या जइयव्वं 'जइयव्वं भो लिखी भी लिवी धर्भप्रवुत्त धर्मप्रवृत्त संपुन्न संपुण्ण 'एसा निवो 'एसो निवो मणमाणंदइ त्ति मणमाणंदइ' त्ति अग्गआ उपयनराजा उदयनराजा कालद्रष्टयाचा कालदृष्टीने अग्रपुजेचा अग्रपूजेचा पुराण्यांचा पुराव्यांचा अधिकं अधिगं सव्वजणमणो- सव्वजणमणावासवदत्ता अय्ये वासवदत्ता-अय्ये, सव सर्वे पाहुन पाहून उच्चकैः उच्चकैः) किओ किओ। पाहावेण प्पहावेण पाहाओ पहावो अग्गओ 9 my or ur rur own on varm For Private And Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पान पंक्ति marn2-29 ~ अशुद्ध वृद्धनमस्कार परमभतीए सोदार मनष्य इंदेणलोगपालते परिव्वसइ उबरंभाए पेमसंबधा दृढसीलजुत्तणं जंदेसि सुपार्थनाथ असि भणिआ तहेण बृहनमस्कार परमभत्तीए सोयार मनुष्य इंदेण लीगपालते परिवसई उवरंभाए पेमसंबंधा दढसीलजुत्तेणं जं देसि सुपार्श्वनाथ आसि भणिओ तहेव गेहँसु गेहेसु जम्म गिराण वंधेयं जम्मग्गिराण बंधउं जपए जंपए पइसम० भणिउंइ ब्बरखंभो मणोइरं rm or rm-2 - or वालो वहुजण स्वभमि यायाकर० राजशेखर या कर्पूरमंजरी णवकुलअ० पहसम भणिउं वरखंभो मणोहरं दटुं बालो बहुजण खंभम्मि यायावर राजशेखर हा कर्पूरमंजरी णवकुवलअ० For Private And Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पान पंक्ति शुद्ध पंचबाणस्स यवनिकान्तरम् ठवेदुमिच्छेज्ज हीणो सन्मान अशुद्ध पंचवाणस्स जवनिकान्तरम् ठवेद मिच्छेज्ज हीणी सामान्य अपरि ग्रही पज्जत टाकण (सेवा करना आशी विष उय्वय फिराणा पज्जत टाकणे --- आशीविष उव्वय परिभ्रमण करना यज जय उपटणे, केशलोच -arr" -y » » ur mm हाथी जूह उदटणे, केशलोंच हाती जह सकना उपभोग दे (अभितः) करण मग या घणकगुल्येषु चंदणदज्जा उम्मण पाथिव पेयवमे रहपरास्त प्र+झापाय शकना उपभोग है (अभितः सब तरह करणे मगया चणकगल्मेष चंदणवज्जा मम्मण पार्थिव पेयवण रहपएस प्र+ज्ञापाय धुमसणे कुथु डरपोक y धुमसण or wom कुथु डरफोक For Private And Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राकृत को उपयुक्त पुस्तकें २-५० पाइयरयणावली (पढमो भागो) पाइयरयणावली (बीओ भागो) ०-६० प्राकृतरत्नावली दीपिका (प्रथमा और द्वितीया परीक्षा) १-२५ ४. पाययकुसुमावली 2कहाणयतिगं ३-०० ६. शृंगारमंजरी (सट्टक) विश्वेश्वरकृत ६-०० प्राकृतपुष्पावली २-०० प्राकृत रत्नहार उत्तराध्ययनसूत्र (१ ते २५ अध्याय । ५-०० उत्तराध्ययनसूत्रम् ०-९० ११. श्री दशबैकालिकसूत्रम् १२. सुबोध प्राकृत व्याकरण (भाग १ ला) सुबोध प्रावृत व्याकरण (भाग २ रा) १-७० १४. सुबोध प्राकृत व्याकरण (भाग ३ रा) ३-४० १५. प्राकृत-परिच्छेद-सुभाषित-संग्रह (प्रेस में) अंजणापबणजयवुत्ततु २-५० कुम्नापुनचरिय (प्रेस में) प्राकृत बराकरणम् ३-४० १९. जैनतत्त्वदीपिका श्री नन्दीसूत्रम् नवत सार्थ -६० १६. ०-७५ २०. - ५ ०-८० For Private And Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only