Book Title: Nirayavalika Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र (कल्पिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा) प्रकाशक श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर शाखा-नेहरू गेट बाहर, ब्यावर-३०५६०१ फोन नं० : (०१४६२) २५१२१६, २५७६६६ For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ साहित्य रत्न माला का ११२ वा रत्न निरयावलिका सूत्र कल्पिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा (शुद्ध मूल पाठ, कठिन शब्दार्थ, भावार्थ एवं विवेचन सहित) नेमीचन्द बांठिया पारसमल चण्डालिया। - -प्रकाशक श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर .. शाखा-नेहरू गेट बाहर, ब्यावर-३०५१०१ 3 : (०१४६२) २५१२१६, २५७६६६ For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य सहायक उदारमना श्रीमान् सेठ वल्लभचन्दजी सा. डागा, जोधपुर प्राप्ति स्थान १. श्री अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, सिटी पुलिस, जोधपुर 22626145 २. शाखा-अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, नेहरू गेट बाहर, ब्यावर 251216 ३. महाराष्ट्र शाखा-माणके कंपाउंड, दूसरी मंजिल आंबेडकर पुतले के बाजू में, मनमाड़ ४. श्री जशवन्तभाई शाह एदुन बिल्डिंग पहलीधोबी तलावलेन पो० बॉ० नं0 2217, बम्बई-2 ५. श्रीमान् हस्तीमल जी किशनलालजी जैन प्रीतम हाऊ० कॉ० सोसा० ब्लॉक नं० १० स्टेट बैंक के सामने, मालेगांव (नासिक)।। ६. श्री एच. आर. डोशी जी-३६ बस्ती नारनौल अजमेरी गेट, दिल्ली-६8 23233521 | ७. श्री अशोकजी एस. छाजेड़, १२१ महावीर क्लॉथ मार्केट, अहमदाबाद ८. श्री सुधर्म सेवा समिति भगवान् महावीर मार्ग, बुलडाणा | ६. श्री श्रुतज्ञान स्वाध्याय समिति सांगानेरी गेट, भीलवाड़ा १०. श्री सुधर्म जैन आराधना भवन २४ ग्रीन पार्क कॉलोनी साउथ तुकोगंज, इन्दौर ११. श्री विद्या प्रकाशन मन्दिर, ट्रांसपोर्ट नगर, मेरठ (उ. प्र.) १२. श्री अमरचन्दजी छाजेड़, १०३ वाल टेक्स रोड़, चैन्नई 2025357775 १३.श्री संतोषकुमार बोथरा वर्द्धमान स्वर्ण अलंकार ३६४, शांपिग सेन्टर, कोटा2-2360950 मूल्य : २०-०० द्वितीय आवृत्ति वीर संवत् २५३२ विक्रम संवत् २०६३ अप्रेल २००६ मुद्रक - स्वास्तिक प्रिन्टर्स प्रेम भवन हाथी भाटा, अजमेर 2 2423295 १००० For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन किसी भी धर्म स्वरूप को समझने का मुख्य आधार उस का श्रुत साहित्य है। उस के आधार से उस धर्म की प्राचीनता, आचार-विचार तात्त्विक विधि विधानों की जानकारी होती है। जैन दर्शन के आगम साहित्य के अलावा जैनेतर जितने भी दर्शन हैं उनके साहित्य के रचयिता छद्मस्थ व्यक्ति हैं, जबकि जैन आगम साहित्य के मूल उपदेष्टा अनन्तज्ञानी परम वीतरागी तीर्थंकर प्रभु हैं, जो चार घाति कर्मों के क्षय होने पर यानी पूर्णता प्राप्त होने पर वाणी की अर्थ रूप में वागरणा करते हैं, जिन्हें गणधरादि महापुरुष सूत्र रूप में गूंथन करते हैं, जो परम्परा से प्रवाहित होती हुई आचार्य श्री देवर्द्धि क्षमाश्रमण द्वारा पुस्तक बद्ध हुई तथा आज हम तक पहुंची। जैन आगम साहित्य का अनेक प्रकार से वर्गीकरण मिलता है। सबसे प्राचीन वर्गीकरण समवायांग सूत्र में प्राप्त है। वहाँ पूर्व और अंग के रूप में विभाग किया गया है। संख्या की दृष्टि से पूर्व चौदह और अंग बारह थे। नंदी सूत्र में जो आगमों का वर्गीकरण मिलता है, वहाँ सम्पूर्ण आगम साहित्य को अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य के रूप में विभक्त किया है। आगमों का तीसरा और सबसे अर्वाचीन वर्गीकरण अंग, उपांग, मूल, छेद और आवश्यक सूत्र के रूप में किया गया है। यह वर्गीकरण सभी में उत्तरवर्ती है, इसके अनुसार म्यारह अंग, बारह उपांग, चार मूल, चार छेद एवं आवश्यक सूत्र। इस वर्गीकरण के अनुसार वर्तमान में ३२ आगम उपलब्ध हैं, जो श्वेताम्बर परम्परा के सभी आम्नाय को मान्य हैं। यह निर्विवाद है कि अंगों के रचयिता गणधर भगवन्त हैं और उपांगों के रचयिता दस से यावत् चौदह पूर्वधारी विभिन्न स्थविर भगवन्त हैं। यद्यपि उपांगों के रचयिता पूर्वधर स्थविर भगवन्त हैं, पर उनकी प्रमाणिकता भी उतनी ही है, जितनी अंग साहित्य की, क्योंकि पूर्वधर स्थविर भगवन्तों ने इनका निर्वृहण चौदह पूर्वो में से ही किया है। अतएव इनकी विषय सामग्री की प्रामाणिकता में किसी तरह की संदिग्धता नहीं है। कई आचार्यों ने प्रत्येक अंग का एक उपांग माना है। किन्तु जब उनकी एक दूसरे की विषय सामग्री का अनुशीलन किया जाता है तो वह एक दूसरे के पूरक नहीं होकर भिन्न नजर आती है, यानी उनका एक दूसरे का कोई संबंध ही दृष्टिगोचर नहीं होता है। प्रत्येक अंग का एक उपांग मानने पर उपांग का विषय विश्लेषण, प्रस्तुतिकरण आदि की दृष्टि से अंग के साथ सम्बन्ध होना चाहिए पर उस प्रकार का सम्बन्ध यहां दृष्टिगोचर नहीं होता है। उदाहरण के रूप में For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [4] अन्तकृत दशा का उपांग निरयावलिका, अनुत्तरोपपातिक दशा का उपांग कल्पावंतसिका, इसी प्रकार प्रश्नव्याकरण, विपाक और दृष्टिवाद के उपांग क्रमशः पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा को प्रतिष्ठापित किया गया है, पर ये उपांग सम्बन्धित अंगों के पूरक नहीं हैं । आगम-मनीषियों ने किस आधार से इनकी प्रतिष्ठापना की है, यह चिंतन का विषय है। प्रस्तुत निरयावलिया (निरयावलिका) श्रुतस्कन्ध में पांच उपांग समाविष्ट हैं । १. निरयावलिका (कल्पिका) २. कल्पावतंसिका ३. पुष्पिका ४. पुष्पचूलिका और ५. वृष्णिदशा। पांचों ही उपांगों की विषय सामग्री पृथक्-पृथक् है । निरयावलिया के प्रथम वर्ग में दस अध्ययन हैं, इसमें श्रेणिक राजा के दस पुत्रों के नरक में जाने का वर्णन है । श्रेणिक की महारानी चेलना का अगंजात कणिक, उसके जीवन का एक महत्त्वपूर्ण प्रसंग इस आगम में संकलित है। कूणिक महत्त्वाकांक्षी राजकुमार था, उसने सोचा कि पिता के रहते उसे राज्य मिलने वाला नहीं है। अतएव उसने अपने लघुभ्राता कालकुमार, सुकालकुमार आदि के सहयोग से अपने पिता श्रेणिक को बंदी बना कर कारागृह में डाल कर स्वयं राजसिंहासन पर आरूढ़ हो गया तथा राज्य को ग्यारह हिस्सों में बांटकर राज्य करने लगा। राजसिंहासन पर आरूढ़ होने के पश्चात् वह खुश होकर अपनी माता चेलना के पास नमस्कार करने आया, किन्तु माता ने उसकी ओर देखा तक नहीं, वह चिन्तातुर थी । कूणिक ने कहा- 'माँ! तुम चिंतातुर क्यों हो? मैं ( आपका पुत्र) राजा बन गया हूँ फिर आपको चिन्ता करने की कहाँ आवश्यकता है? तब माता ने कहा- तुझे धिक्कार है, जो तूने अपने परम उपकारी पिता को कैद कर बंदीगृह में डाला है। तुम्हारे पिता का तुम पर कितना स्नेह था । उसने उसके गर्भ अवस्था में उत्पन्न दोहद जिसमें उसे पिता के उदर का मांस खाने की भावना जिसकी पूर्ति महाराज श्रेणिक ने राजकुमार अभयकुमार के सहयोग से किस प्रकार की, उस का ब्यौरा एवं उसके बाद जब तुम्हारा जन्म हुआ तो मैंने सोचा कि जिस जीव के गर्भ से पिता के मांस खाने की भावना जागृत हुई वह जीव भविष्य में पिता के लिए कितना अनिष्टकर होगा। अतएव तेरे जन्म लेने पर मैंने तुझे रोड़ी पर फिकवा दिया। जब इस बात की जानकारी राजा श्रेणिक को हुई तो वे मेरे पर बहुत कुपित हुए, उन्होंने तुरन्त रोड़ी पर से तुझे मंगवाया। कुछ समय रोड़ी पर पड़े रहने पर कुक्कुट ने अपनी चौंच से तुम्हारी अंगुली जख्मी कर दी थी. जिस कारण उसमें मवाद पड़ गई। उस मवाद कारण तुझे अपार कष्ट होता था। तेरी उस वेदना को For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [5] शान्त करने के लिए तेरे पिताजी अंगुली को मुंह में रखकर चूसते, जिससे तेरी वेदना कम होती। ऐसे परम उपकारी पिताजी को बंदी बनाकर कारागृह में डालते तूझे विचार नहीं हुआ। माता के मुख से उक्त बात सुनने पर कोणिक के हृदय में पिता के प्रति प्रेम उमड़ा, वह अपने हाथ में कुल्हाड़ा लेकर पिताजी की बेड़ियाँ काटने के लिए कारागृह की ओर चल पड़ा। राजा श्रेणिक ने दूर से कूणिक के हाथ में कुल्हाडा लेकर आते देखा, तो सोचा कि क्या पता कोणिक मुझे किस बुरी मौत से मारेगा? अतएव पुत्र के हाथ से मरने की वनिस्पत स्वयं ने तालकूट विष खाकर अपने प्राणों का अन्त कर दिया। पिता की इस प्रकार कि मृत्यु देखकर वह मूर्च्छित हो गया। पिता की मृत्यु के बाद उसने अपनी राजधानी राजगृह नगर से बदल कर चम्पानगरी कर दी। कूणिक का सहोदर लघुभ्राता वेहल्लकुमार था। महाराज श्रेणिक ने अपने पुत्र वेहल्लकुमार को . सेचनक हाथी और अट्ठारहसरा हार दे रखा था। जिसका मूल्य श्रेणिक के पूरे राज्य के बराबर था। वेहल्लकुमार सेचनक हस्ती पर आरूढ़ होकर अपने अन्तःपुर के साथ गंगानदी के तट पर जलक्रीड़ा के लिए जाता था। उसकी जलक्रीड़ा को देख कर कूणिक की पत्नी पद्मावती के मन में हार और हाथी को प्राप्त करने की भावना जागृत हुई। वह पुनः पुनः कूणिक को हार और हाथी भाई से हथियाने के लिए प्रेरित करती रहती। एक दिन कूणिक ने वेहल्लकुमार को बुलाकर हार और हाथी देने का कहा, तो वेहल्लकुमार ने कहा इन्हें मुझे पिताजी ने दिए है। अतएव मैं नहीं दे सकता। वेहल्लकुमार को भय था कि कूणिक मेरे से कहीं हार और हाथी छीन न ले इसलिए समय देख कर वह हार और हाथी लेकर अपने नाना राजा चेटक के पास वैशाली पहुँच गया। जब इस बात का पता कूणिक को लगा तो उसने राजा चेटक के पास दूत भेजा और हार और हाथी को सुपुर्द करने का कहलवाया। राजा चेटक ने शरणागत की रक्षा करना अपना कर्त्तव्य समझा, उसने कूणिक को कहलवाया कि यदि तुम हार और हाथी के बदले वेहल्लकुमार को आधा राज्य देते हो तो तुम्हें हार और हाथी दिया जा सकता है। जिसके लिए कूणिक तैयार नहीं हुआ। परिणाम स्वरूप कूणिक अपने दसों भाईयों के साथ सेना लेकर वैशाली पहुंचा। . राजा चेटक ने नौ मल्लवी और नौ लिच्छवी इन अट्ठारह काशी और कौशल राजाओं को बुलाकर परामर्श किया। सभी ने कहा कि शरणागत की रक्षा करना हम क्षत्रियों का कर्तव्य है। साथ ही वेहल्लकुमार का पक्ष सत्य एवं न्याय युक्त है, जबकि कूणिक का पक्ष अन्याय युक्त है। अतएव सत्य For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [6] और शरणागत की रक्षा अवश्य होनी चाहिए। दोनों ओर से युद्ध चालू हुआ। राजा चेटक भगवान् महावीर का परम उपासक था, उन्होंने श्रावक के बारहव्रत अंगीकार कर रखे थे। उनके नियम था कि एक दिन में एक ही बाण चलाऊंगा। उनका बाण कभी खाली नहीं जाता था। प्रथम दिन कूणिक की ओर से कालकुमार सेनापति बन कर युद्ध के लिए गया। भयंकर युद्ध हुआ। राजा चेटक ने अमोघ बाण का प्रयोग किया जो कालकुमार को लगा और वह काल धर्म को प्राप्त हुआ। इस तरह एक-एक कर दस भाई सेनापति बनकर गए और सभी राजा चेटक के अचूक बाण से मरकर नरक में गए। ___ उस समय श्रमण भगवान् महावीर प्रभु चम्पानगरी में विराजमान थे। कालकुमार आदि की माताओं ने अपने पुत्रों के बारे में भगवान् से पूछा कि-हमारे पुत्र जो युद्ध में गए हैं वे वापिस जीवित लौटेंगे अथवा काल धर्म को प्राप्त होंगे। भगवान् से उनके काल धर्म की बात सुनी, परिणाम स्वरूप उन दसों की माताओं को संसार से विरक्ति हो गई और उन्होंने भगवान् के पास दीक्षा अंगीकार की। भगवती सूत्र में उसके पश्चात् रथमूसल संग्राम और महाशिलाकंटक संग्राम का विस्तार से उल्लेख है। इन दोनों संग्रामों में एक करोड़ अस्सी लाख मानवों का संहार हुआ। इस प्रकार निरयावलिका सूत्र में : दस राजकुमारों के नरक गमन का वर्णन है। कप्पवंडसिया - निरयावलिया सूत्र का दूसरा उपांग कप्पवडंसिया है। प्रथम उपांग निरयावलिया में श्रेणिक राजा के कालकुमार आदि दस पुत्रों का युद्ध में कषाय की उग्रता के कारण नरक में जाने का वर्णन, वहीं इस कप्पवंडसिया उपांग में उन्हीं के दस पुत्रों - १. पद्म २. महापद्म ३. भद्र ४. सुभद्र ५. पद्मभद्र ६. पद्मसेन ७. पद्मगुल्म ८. नलिनगुल्म ६. आनंद और १०. नंदन का स्वर्ग गमन का वर्णन है। कालकुमार, सुकालकुमार आदि दस पुत्रों ने भगवान् महावीर के उपदेश को सुनकर दीक्षा अंगीकार की और ग्यारह अंगों का अध्ययन कर अन्तिम समय संलेखना संथारा करके स्वर्ग में पधारें। पहले देवलोक से बारहवें देवलोक तक के देव इन्द्रों के आधीन कल्पयुक्त होते हैं और चूंकि दसों राजकुमार इन देवलोक में पधारे इसलिए इस सूत्र का नाम कप्पवंडसिया प्रयुक्त हुआ है। पुफिया (पुष्फिका) - तीसरा उपांग पुप्फिया है। इसके भी दस अध्ययन हैं। चन्द्र, सूर्य, शुक्र, बहुपुत्रिक, पूर्णभद्र, मणिभद्र, दत्त, शिव, बल और अन्तवृत। इन दस अध्ययनों में प्रथम के चार अध्ययन में चन्द्र, सूर्य, शुक्र और बहुपुत्रिक देव भगवान् के दर्शनार्थ आए और विविध प्रकार के 'नाटक दिखा कर पुनः अपने-अपने स्थान लौट गए। गणधर प्रभु गौतम के द्वारा उन देवों की दिव्य देव For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [7] रिद्धि, द्युति आदि प्राप्त करने का कारण पूछने पर भगवान् ने उनके पूर्व भव का कथन किया। इन चार अध्ययनों में प्रथम, द्वितीय एवं चतुर्थ अध्ययन में वर्णित देवों की संयमव्रत की आराधना एवं तृतीय अध्ययन में वर्णित देव ने देशविरति श्रावकव्रत की आराधना की, किन्तु कालान्तर में उनका सम्यक् प्रकार से पालन नहीं करने, उसकी विराधना करने तथा अपने दोषों की आलोचना नहीं करने के कारण इन ज्योतिषी विमानों में देव रूप में उत्पन्न हुए। शेष छह अध्ययनों में वर्णित देव भी भगवान् के दर्शनार्थ पधारे उन्होंने बत्तीस प्रकार की नाट्य विधियों का प्रदर्शन किया, गणधर प्रभु गौतम के पूछने पर भगवान् ने उनके पूर्व भव का कथन किया। सभी छहों देवों ने पूर्व भव में संयम की आराधना की और अन्तिम समय संलेखना संथारा करके प्रथम देवलोक में उत्कृष्ट दो सागर की स्थिति में उत्पन्न हुए। यहाँ की स्थिति पूर्ण होने पर ये सभी महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होंगे तथा संयम तप की आराधना करके मोक्ष को प्राप्त करेंगे। पुष्पचूलिका - चतुर्थ उपांग पुष्पचूलिका है। इसके भी दस अध्ययन हैं - १. श्री देवी २. ह्री देवी ३. धृतिदेवी ४. कीर्तिदेवी ५. बुद्धि देवी ६. लक्ष्मी देवी ७. इला देवी ८. सुरादेवी ६. रस देवी १०. गंध देवी। इन दसों अध्ययन में वर्णित देवियाँ सौधर्मकल्प में अपने नाम के अनुरूप वाले विमान में उत्पन्न हुई। सभी ने राजगृह में समवसृत भगवान् महावीर को देखा, भक्ति वश वे वहाँ आईं यावत् नृत्य विधि को प्रदर्शित कर वापिस लौट गईं। गणधर प्रभु गौतम के पूछने पर भगवान् ने उनेक पूर्व भव का कथन किया। सभी दसों देवियों ने भगवान् पार्श्वनाथ प्रभु के शासन में पुष्पचूलिका आर्या के पास दीक्षा अंगीकार की। कालान्तर में सभी शरीर बकुशिका हो गई। महासती पुष्पचूलिका आर्या के समझाने पर भी वे नहीं मानी बल्कि उपाश्रय से निकल कर निरंकुश बिना रोकटोक के स्वच्छन्दमति होकर बारबार हाथ-पैर धोने, शरीर की विभूषा करने लगी। अपने दोषों की आलोचना न करने के कारण संयम विराधक बन कर प्रथम देवलोक में देवी रूप में उत्पन्न हुई, वहाँ एक पल्योपम की आयुष्य पूर्ण करके महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगी। संयम तप की शुद्ध आराधना करके सिद्धि गति को प्राप्त करेगी। . ५. वहिदसाओ - पांचवां उपांग वण्हिदसाओ है। इसके बारह अध्ययन हैं - १. निषधकुमार २. मातली कुमार ३. वहकुमार ४. वहेकुमार ५. प्रगतिकुमार ६. ज्योतिकुमार ७. दशरथकुमार ८. दृढरथकुमार ६. महाधनुकुमार १०. सप्तलधुकुमार ११. दशधनुकुमार १२. शतधनुकुमार। For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [8] **** प्रथम अध्ययन में निषधकुमार का वर्णन है । निषध कुमार राजा बलदेव की रानी रेवती का अंगजात था। एक समय भगवान् अरिष्टनेमि प्रभु का द्वारिका नगरी में पधारना हुआ । कृष्ण वासुदेव सहित सभी नागरिक भगवान् को वंदन करने के लिए गए। निषधकुमार भी भगवान् को वंदन करने पहुँचे। निषधकुमार के दिव्य रूप को देखकर भगवान् अरिष्टनेमि के प्रधान शिष्य वरदत्तमुनि ने उनके दिव्य रूप आदि के बारे में पूछा। भगवान् ने उनके पूर्व भव में निरतिचार संयम पालन के फल स्वरूप पांचवें देव लोक में उत्पन्न होने और वहाँ से देवायु पूर्ण करके बलदेव राजा के यहाँ उत्पन्न होना एवं दिव्य रूप एवं मानुषी ऋद्धि प्राप्त होने का कारण फरमाया । कालान्तर में निषधकुमार ने भगवान् अरिष्टनेमि प्रभु के पास दीक्षा अंगीकार की, ग्यारह अंगों का अध्ययन कर काल के समय काल करके सर्वार्थ सिद्ध विमान में देव रूप में उत्पन्न हुए। वहाँ का आयुष्य पूर्ण होने पर महाविदेह क्षेत्र के उलाकनगर में उत्पन्न होंगे एवं तथारूप स्थविरों से केवल बोधि सम्यग्ज्ञान को प्राप्त कर अगारधर्म धारण करेंगे तथा उत्कृष्ट तप संयम की साधना करके सिद्ध, बुद्ध यावत् सभी दुःखों का अन्त करेंगे। इस उपांग में मात्र निषेधकुमार का वर्णन किया है। शेष ग्यारह अध्ययनों का समान अधिकार होने से इसी की भलावण दी गई है। इस प्रकार निरयावलिका नामक श्रुतस्कन्ध का वर्णन इस उपांग के साथ पूर्ण हुआ । ********* निरयावलिया पंचक का प्रकाशन संघ की ओर से प्रथम बार फरवरी, २००३ में हुआ जिसका अनुवाद श्रीमान् पारसमल जी सा. चण्डालिया ने किया। जिसका आधार प्राचीन टीकाओं का रहा, मूल पाठ के लिए संघ द्वारा प्रकाशित सुत्तागमे की प्रमुखता रही। इसके बाद इस अनुवाद को हमारे अनुनय विनय पूर्वक निवेदन पर ध्यान देकर पूज्य गुरुदेव श्री श्रुतधर जी म. सा. ने पूज्य पण्डित रत्न श्री लक्ष्मीमुनि जी म. सा. को सुनने की आज्ञा फरमाई, तदनुसार तत्त्वज्ञ सुश्रावक श्रीमान् बस्तीमल जी सा. सालेचा बालोतरा निवासी ने परम पूज्य लक्ष्मीमुनि जी म. सा. को सुनाया । पूज्य म. सा. ने धारणा सम्बन्धी जहाँ भो आवश्यक समझा संशोधन का संकेत किया। प्रेस कापी तैयार होने से पूर्व अवलोकित प्रति का पुनः मेरे द्वारा अवलोकन किया गया। इस प्रकार इस श्रुतस्कन्ध के प्रकाशन से पूर्व पूर्ण सर्तकता एवं सावधानी बरती गई है, फिर भी हमारी अल्पज्ञता के कारण इसके प्रकाशन में किसी भी प्रकार की कोई त्रुटि किसी भी तत्त्वज्ञ श्रावक को ध्यान में आवे तो हमें सूचित करने की कृपा करावें । ताकि अगले संस्करण में उसे संशोधित करने का ध्यान रखा जा सके। वस्तुतः वही सत्य एवं प्रामाणिक है जो सर्वज्ञ कथित एवं उसके आशय को उद्घाटित करता हो। इस श्रुतरत्न के अनुवाद की शैली भी संघ द्वारा प्रकाशित भगवती सूत्र वाली ही रखी गई है। यानी मूल पाठ, कठिन शब्दार्थ, भावार्थ, विवेचन For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि । संघ गुरु भगवन्तों के इस उपकार के लिए हृदय से आभारी है। श्रीमान् बस्तीमल जी सा. सालेचा ने पूज्य गुरुदेव को सुनाने की कृपा की। अतएव उनका भी संघ आभारी है। [9] - इस द्वितीय आवृत्ति के आर्थिक सहयोगी स्वर्गीय दानवीर श्री वल्लभचन्दजी सा. डागा, जोधपुर के पाँचों पुत्र रत्न सर्वश्री हुकमचन्दजी सा., इन्द्रचन्दजी सा., प्रसन्नचन्दजी सा., विमलचन्दजी सा., ऋषभचन्दजी सा. डागा है। सभी पुत्र रत्न धार्मिक संस्कारों से संस्कारित और अपने पूज्य पिताश्री के पद चिह्नों पर चलने वाले हैं। सभी की भावना है कि सेठ सा. द्वारा जो शुभ प्रवृत्तियाँ चालू थी वे सभी निरन्तर चालू रखी जाय । तदनुसार आगम प्रकाशन के आर्थिक सहयोग में भी आप सदैव तैयार रहते हैं। मेरे निवेदन पर आप सभी ने इस प्रकाशन के आर्थिक सहयोग के लिए स्वीकृति प्रदान कर उदारता का परिचय दिया। इसके लिए समाज आपका आभारी है। आपकी उदारता एवं धर्म भावना का संघ आदर करता है। आपने प्रस्तुत आगम पाठकों को अर्द्ध मूल्य में उपलब्ध कराया। उसके लिए संघ एवं पाठक वर्ग आपका आभारी है। : यद्यपि संघ के संरक्षक श्रावक शिरोमणि तत्त्वज्ञ सुश्रावक श्री जशवन्तलाल भाई शाह, मुम्बई का आदेश है सम्पूर्ण " आगम बत्तीसी” उनके ही सहयोग से अर्द्ध मूल्य में प्रकाशित हो, पर डागा परिवार का अत्यधिक आग्रह होने से इस प्रकाशन में आपका सहयोग लिया गया। आपकी उदारता एवं धर्म भावना का संघ आदर करता है। आपने प्रस्तुत आगम पाठकों को अर्द्ध मूल्य में उपलब्ध कराया। उसके लिए संघ एवं पाठक वर्ग आपके आभारी हैं। आप चिरायु हो तथा शासन प्रभावना में. सहयोग प्रदान करते रहें, इसी शुभ भावना के साथ । प्रथम आवृत्ति अप्राप्य होने पर यह द्वितीय आवृत्ति प्रकाशित की जा रही है । यद्यपि कागज और मुद्रण सामग्री के मूल्यों में निरन्तरवृद्धि हो रही है एवं इस पुस्तक के प्रकाशन में जो कागज काम में लिया गया है वह श्रेष्ठ उच्च क्वालिटी का मेपलिथो, बाईंडिंग पक्की तथा सेक्शन बावजूद इसके डागा परिवार के आर्थिक सहयोग के कारण इसका अर्द्ध मूल्य मात्र बीस रुपया ही रखा गया है। जो अन्यत्र स्थान से प्रकाशित आगमों से अति अल्प है। सुज्ञ पाठक बंधु इस द्वितीय आवृत्ति का अधिक से अधिक लाभ उठावें । इसी शुभ भावना के साथ ! ब्यावर (राज.) दिनांकः ४-४-२००६ For Personal & Private Use Only संघ सेवक नेमीचन्द बांठिया अ. भा. सु. जैन सं. र. संघ, जोधपुर Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... अस्वाध्याय निम्नलिखित बत्तीस कारण टालकर स्वाध्याय करना चाहिये। आकाश सम्बन्धी १० अस्वाध्याय काल मर्यादा १. बड़ा तारा टूटे तो एक प्रहर २. दिशा-दाह * . जब तक रहे ३. अकाल में मेघ गर्जना हो तो दो प्रहर ४. अकाल में बिजली चमके तो एक प्रहर ५. बिजली कड़के तो आठ प्रहर ६. शुक्ल पक्ष की १, २, ३ की रात प्रहर रात्रि तक ७. आकाश में यक्ष का चिह्न हो जब तक दिखाई दे ८-६. काली और सफेद बूंअर जब तक रहे १०. आकाश मंडल धूलि से आच्छादित हो जब तक रहे औदारिक सम्बन्धी १० अस्वाध्याय ११-१३. हड्डी, रक्त और मांस, ये तिर्यंच के ६० हाथ के भीतर हो। मनुष्य के हो, तो १०० हाथ के भीतर हो। मनुष्य की हड्डी यदि जली या धुली न हो, तो १२ वर्ष तक। १४. अशुचि की दुर्गंध आवे या दिखाई दे तब तक १५. श्मशान भूमि सौ हाथ से कम दूर हो, तो। * आकाश में किसी दिशा में नगर जलने या अग्नि की लपटें उठने जैसा दिखाई दे और प्रकाश हो तथा नीचे अंधकार हो, वह दिशा-दाह है। For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [11] १६. चन्द्र ग्रहण खंड ग्रहण में ८ प्रहर, पूर्ण हो तो १२ प्रहर (चन्द्र ग्रहण जिस रात्रि में लगा हो उस रात्रि के प्रारम्भ से ही अस्वाध्याय गिनना चाहिये।) १७. सूर्य ग्रहण खंड ग्रहण में १२ प्रहर, पूर्ण हो तो १६ प्रहर (सूर्य ग्रहण जिस दिन में कभी भी लगे उस दिन के प्रारंभ से ही उसका अस्वाध्याय गिनना चाहिये।) १८. राजा का अवसान होने पर, जब तक नया राजा घोषित न हो १६. युद्ध स्थान के निकट जब तक युद्ध चले २०. उपाश्रय में पंचेन्द्रिय का शव पड़ा हो, जब तक पड़ा रहे (सीमा तिर्यंच पंचेन्द्रिय के लिए ६० हाथ, मनुष्य के लिए १०० हाथ। उपाश्रय बड़ा होने पर इतनी सीमा के बाद उपाश्रय में भी अस्वाध्याय नहीं होता। उपाश्रय की सीमा के बाहर हो तो याद दुर्गन्ध न आवे या दिखाई न देवे तो अस्वाध्याय नहीं होता।) २१-२४. आषाढ़, आश्विन, कार्तिक और चैत्र की पूर्णिमा दिन रात . . २५-२८. इन पूर्णिमाओं के बाद की प्रतिपदा- दिन रात २६-३२. प्रातः, मध्याह्न, संध्या और अर्द्ध रात्रि- इन चार सन्धिकालों में १-१ मुहूर्त उपरोक्त अस्वाध्याय को टालकर स्वाध्याय करना चाहिए। खुले मुंह नहीं बोलना तथा सामायिक, पौषध में दीपक के उजाले में नहीं वांचना चाहिए। . ...नोट - नक्षत्र २८ होते हैं उनमें से आर्द्रा नक्षत्र से स्वाति नक्षत्र तक नौ नक्षत्र वर्षा के गिने गये हैं। इनमें होने वाली मेघ की गर्जना और बिजली का चमकना स्वाभाविक है। अतः इसका अस्वाध्याय नहीं गिना गया है। For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका प्रथम वर्ग - कल्पिका (निरयावलिका) विषय विषय पृष्ठ संख्या श्रेणिक द्वारा निर्भर्त्सना २६ १. प्रथम अध्ययन प्रस्तावना २. राजगृह नगर आदि का वर्णन पुत्र का रुदन श्रेणिक का अंगुली चूसना ३० ३. सुधर्मा स्वामी का पदार्पण पुत्र का 'कोणिक' नामकरण ३१. ३२ ३२ ३३ कोणिक का माता के पादवंदनार्थ जाना ३३ कोणिक - चेलना संवाद ३४ ४. जंबू स्वामी की जिज्ञासा व समाधान ५. कालकुमार का परिचय ६. कालकुमार और रथमूसलसंग्राम ७. काली देवी की चिन्ता ८. भगवान् का पदार्पण ६. काली का भगवान् के समीप गमन १०. भगवान् की देशना ११. काली की जिज्ञासा का समाधान १२. पुत्र शोक से अभिभूत काली देवी १३. गौतम स्वामी की जिज्ञासा व प्रभु का समाधान १४. चेलना का स्वप्न-दर्शन १५. चेलना का दोहद १६. श्रेणिक द्वारा कारण- पृच्छा १७. श्रेणिक का आश्वासन १८. अभयकुमार का आगमन १६. अभयकुमार द्वारा पिता को सांत्वना २०. दोहद पूर्ति का उपाय २१. चेलना देवी का संकल्प २२. पुत्र जन्म - उकरड़ी पर फिंकवाना [12] पृष्ठ संख्या क्रं. १ २३. ३२४. ४ २५. ५ २६. २७. २८. २६. ३०. ३१. ३२. ८ १० १० ११ १२ १३ १३ १५ ३३. ३४. ३५. ३६. १६ ३७. १८ ३८. १६ ३६. २० ४०. २२ ४१. २३ ४२. २४ ४३. २५ ४४. २७ ४५, २८ ४६. कोणिक का विचार कालादि कुमारों को बुलाना कोणिक राजा बना श्रेणिक की मृत्यु कोणिक का शोक और चंपागमन वेहल्लकुमार की क्रीड़ा पद्मावती का विचार हार - हाथी की मांग. चेटक की शरण में कणिक का दूत भेजना चेटक राजा का उत्तर कणिक का दुबारा दूत भेजना कोणिक का तिबारा दूत भेजना युद्ध की चेतावनी काल आदि दस कुमारों को बुलाया युद्ध की तैयारी कोणिक का निर्देश ३५ ३६ ३८ ३६ ४१ For Personal & Private Use Only ४१ ४३ ४४ ४५ ४७ ४८ ४६ ४६ ५० ५१. कोणिक का युद्ध के लिए प्रस्थान चेटक का अठारह गणराजाओं से परामर्श ५१ । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [13] क्रं. विषय पृष्ठ संख्या क्रं. विषय पृष्ठ संख्या ४७. चेटक राजा का युद्ध के लिए प्रयाण ५३ ७१. तृतीय अध्ययन-शुक्र महाग्रह ४८. भयंकर युद्ध विषयक पृच्छा ४६. कालकुमार की मृत्यु ५६ ७२. सोमिल ब्राह्मण श्रावक बना ५०. चौथी नरक में उत्पत्ति ५६ ७३. सोमिल मिथ्यात्वी बना . ५१. उपसंहार ५६ ७४. सोमिल का संकल्प ५२. दूसरा अध्ययन-सुकालकुमार का ७५. सोमिल द्वारा तापस प्रव्रज्याग्रहण वर्णन ५८ ७६. सोमिल की साधना ५३. तृतीय से दशम अध्ययन-महाकाल ७७. सोमिल का महाप्रस्थान आदि शेष आठ कुमारों का वर्णन ५६ ७८. देव द्वारा प्रतिबोध द्वितीय वर्ग-कल्पावतंसिका ७९. सोमिल पुनः श्रावक बना . ८०. सोमिल का शुक्र महाग्रह में उपपात ५४. प्रथम अध्ययन प्रस्तावना । ८१. उपसंहार ५५. पद्मकुमार का जन्म और दीक्षा ८२. चौथा अध्ययन ५६. : पद्म अनगार की साधना ८३. बहुपुत्रिका देवी भगवान् की सेवा में . ५७. देवलोक में उत्पत्ति ८४. गौतम स्वामी की जिज्ञासा ५८. उपसंहार ८५. सुभद्रा की चिंता ५६. द्वितीय अध्ययन ८६. सुव्रता आर्या का पदार्पण १०१ ६०. महापद्मकुमार का वर्णन . ८७. सुभद्रा की जिज्ञासा १०१ ६१. तृतीय से दशम अध्ययन ८८. आर्याओं का समाधान १०२ ६२. भद्र आदि शेष आठ कुमारों का वर्णन १७ ८९. सुभद्रा श्रमणोपासिका बनी १०३ .. तृतीय वर्ग-पुष्पिका ६०. सुभद्रा द्वारा दीक्षा का संकल्प ६३. प्रथम अध्ययन - प्रस्तावना ६१. भद्र द्वारा दीक्षा की आज्ञा १०४ ६४. चन्द्रदेव भगवान् के समवसरण में ६२. सुभद्रा का महाभिनिष्क्रमण १०६ ६५. गौतम स्वामी की जिज्ञासा ६३. सुभद्रा द्वारा दीक्षा ग्रहण १०७ ६६. . पार्श्व प्रभु का पर्दापण सुभद्रा आर्या की बच्चों में आसक्ति १०८ ६७. अंगति अनगार बना ६५. सुव्रता का सुभद्रा को समझना ६८. अंगति अनगार का उपपात ६६. सुभद्रा का स्वतंत्राचरण - १११ ६९. उपसंहार ६७. बहुपुत्रिका देवी रूप उपपात ११२ ७०. द्वितीय अध्ययन-सूर्यदेव का वर्णन ७५ १८. गौतम स्वामी की जिज्ञासा ११३ ६६ १०४ ६४. ११० For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रं. ६६. सोमा नामकरण विषय १००. सोमा का विवाह १०१. सोमा द्वारा संतानोत्पत्ति १०२. सोमा का चिन्तन १०३. आर्याओं का धर्मोपदेश १०४. सोमा का धार्मिक चिंतन १०५. सोमा श्रमणोपासिका बनेगी १०६. सोमा की दीक्षा १०७. सोमदेव के रूप में उपपात १०८. उपसंहार १०६. पांचवाँ अध्ययन ११०. पूर्णभद्र देव के पूर्वभव विषयक पृच्छा १११. पूर्णभद्र अनगार की साधना ११२. उपसंहार ११३. छठा अध्ययन ११४. मणिभद्र देव का पूर्व भव ११५. सात से दस अध्ययन ११६. दत्त आदि देवों का वर्णन चतुर्थ वर्ग-पुष्पचूलिका -११७. प्रथम अध्ययन प्रस्तावना ११८. श्रीदेवी का पूर्व भव ११६. पार्श्वप्रभु का पदार्पण १२०. भूता द्वारा प्रभु की पर्युपासना १२१. भूता दारिका का अभिनिष्क्रमण १२२. भूता द्वारा प्रव्रज्या ग्रहण १२३. भूता शरीर बकुशिका बनी १२४. पुष्पचूलिका आर्या द्वारा समझाना १२५. भूता आर्या का देवलोकगमन १२६. दो से दस तक नौ अध्ययन पृष्ठ संख्या क्रं. ११४ ११४ ११५ ११७ ११८ ११६ [14] १२० १२१ १२२ १२३ विषय पंचम वर्ग- वृष्णिदशा १२७. प्रथम अध्ययन प्रस्तावना १२८. द्वारिका का वर्णन १२६. रैवतक पर्वत का पर्वन १३०. नंदनवन उद्यान, सुरप्रिय यक्षायतन | १३१. कृष्ण वासुदेव का शासन १३२. निषधकुमार का जन्म पृष्ठ संख्या वनखण्ड और पृथ्वीशिलापट्टक का वर्णन १४२ १४३ १४४ १४४ १४५. १३३. भगवान् अरिष्टनेमि का पदार्पण | १३४. सामुदानिक भेरी बजाने का आदेश १२३ १२४ १३५. कृष्ण वासुदेव द्वारा भगवान् की १२५ पर्युपासना १२६ १३६. निषधकुमार द्वारा श्रावकव्रत ग्रहण १२७ १३७. वरदत्त अनगार की जिज्ञासा और १२७ १२६ १३८. सिद्धार्थ नामक आर्या का पदार्पण १२६ १३६. वीरांगद द्वारा प्रव्रज्या ग्रहण समाधान १४०. वीरांगद अनगार का देवरूप उपपात १३० १४१. वीरांगद देव का निषध रूप में जन्म १३१ | १४२. भगवान् अरिष्टनेमि का विहार १३२ १४३. निषधकुमार का चिंतन १३२ १४४. निषधकुमार द्वारा प्रव्रज्या ग्रहण १३४ १४५. निषध अनगार की मृत्यु १३५ १४६. भविष्य विषयक पृच्छा १३६ १४७. निषेध देव रूप में उपपात १३६ १४८. भविष्य कथन - उपसंहार १३८ १४६. शेष अध्ययन १३६ | १५०. उपसंहार For Personal & Private Use Only १४० १४०. १४१ १४५ १४६: १४७ १४८ १४६ १४६ १५० १५० १५१ १५२ १५२ १५३ १५३ १५४ १५६ १५६ www.jalnelibrary.org Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० ० ० ० । ० । ० श्री अ० भा० सुधर्म जैन सं० रक्षक संघ, जोधपुर आगम बत्तीसी प्रकाशन योजना के अन्तर्गत प्रकाशित आगम अंग सूत्र क्रं. नाम आगम मूल्य १. आचारांग सूत्र भाग-१-२ ५५-०० २. सूयगडांग सूत्र भाग-१,२ ६०-०० '३. स्थानांग सूत्र भाग-१, २ ६०-०० ४. समवायांग सूत्र २५-०० ५. भगवती सूत्र भाग १-७ ३००-०० ६. ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र भाग-१, २ ८०-०० ७. उपासकदशांग सूत्र २०-०० ८. अन्तकृतदशा सूत्र २५-०० ६. अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र १५-०० १०. प्रश्नव्याकरण सूत्र ३५-०० ११. विपाक सूत्र ३०-०० ० । ० ० । ० ० । ० । ० । ० । ० । ० २५-०० २५-००. ८०-०० १६०-०० ५०-०० २०-०० उपांग सूत्र .१.. उववाइय सुत्त २. राजप्रश्नीय सूत्र ३. जीवाजीवाभिगम सूत्र भाग-१,२ ४. प्रज्ञापना सूत्र भाग-१,२,३,४ ५. जम्बूदीप प्रज्ञप्ति ६-१०. निरयावलिका (कल्पिका, कल्पवतंसिका, . : पुष्पिका पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा) ___ मूल सूत्र .. १. दशवकालिक सूत्र २. उत्तराध्ययन सूत्र भाग-१, २ । ३. नंदी सूत्र ४. अनुयोगद्वार सूत्र छेद सूत्र १-३. त्रीणिछेदसुत्ताणि सूत्र (क्शा तस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार) ४. निशीथ सूत्र शीघ्र प्रकाशित होने वाला आगम आवश्यक सूत्र ३०-०० ८०.०० २५-०० ५०.०० ५०-०० ५०.०० For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल्य १०-०० १५-०० १०-०० ५-०० ७-०० १-०० .२-०० २-०० ६-०० . . ! ir UrOX ३-०० ५-०० २-०० १.०० २-०० ५-०० १-०० ३-०० ..३-०० ! ! ! ! - - - ४-०० संघ के अन्य प्रकाशन नाम मूल्य क्रं. नाम १. अंगपविट्ठसुत्ताणि भाग १ १४-०० ५१. लोकाशाह मत समर्थन २. अंगपविट्ठसुत्ताणि भाग २ ४०-०० ५२. जिनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ३. अंगपविट्ठसुत्ताणि भाग ३ ३०-०० ५३. बड़ी साधु वंदना ४. अंगपविट्ठसुत्ताणि संयुक्त ८०-०० ५४. तीर्थंकर पद प्राप्ति के उपाय ५. अनंगपविट्ठसुत्ताणि भाग १ ३५-०० ५५. स्वाध्याय सुधा ६. अनंगपविट्ठसुत्ताणि भाग २ ४०-०० ५६. आनुपूर्वी ७. अनंगपविट्ठसुत्ताणि संयुक्त । ८०-०० ५७. सुखविपाक सूत्र ८. अनुत्तरोववाइय सूत्र ५८. भक्तामर स्तोत्र . ६. आयारो ८-०० ५६. जैन स्तुति १०. सूयगडो ६-०० ६०. सिद्ध स्तुति ११. उत्तरज्झयणाणि (गुटका) १०-०० ६१. संसार तरणिका १२. दसवेयालिय सुत्तं (गुटका) ६२. आलोचना पंचक १३. णंदी सुत्तं (गुटका) अप्राप्य ६३. विनयचन्द चौबीसी १४. चउछेयसुत्ताई १५-०० ६४. भवनाशिनी भावना १५. आचारांग सूत्र भाग १ २५-०० ६५. स्तवन तरंगिणी १६. अंतगडदसा सूत्र ६६. सामायिक सूत्र १७-१६. उत्तराध्ययनसूत्र भाग १,२,३ ६७. सार्थ सामायिक सूत्र । २०. आवश्यक सूत्र (सार्थ) ६८. प्रतिक्रमण सूत्र २१. दशवैकालिक सूत्र ६६.जैन सिद्धांत परिचय २२. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग १ ७०. जैन सिद्धांत प्रवेशिका २३. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग २ ७१. जैन सिद्धांत प्रथमा २४. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग ३ ७२. जैन सिद्धांत कोविद २५. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग ४ ७३. जैन सिद्धांत प्रवीण २६. जैन सिद्धांत थोक संग्रह संयुक्त ७४. तीर्थंकरों का लेखा २७. पन्नवणा सूत्र के थोकड़े भाग १ ७५. जीव-धड़ा २८. पन्नवण्णा सूत्र के थोकड़े भाग २ ७६.१०२ बोल का बासठिया २६. पन्नवणा सूत्र के थोकड़े भाग ३ ७७. लघुदण्डक ३०-३२. तीर्थकर चरित्र भाग १,२,३ १४०-०० ७८. महादण्डक ३३. मोक्ष मार्ग ग्रन्य भाग १ ३५-०० ७९. तेतीस बोल ३४. मोक्ष मार्ग ग्रन्थ भाग २ ३०-०० ८०.गुणस्थान स्वरूप ३५-३७. समर्थ समाधान भाग १,२,३ ५७-०० ८१. गति-आगति . ३८. सम्यक्त्व विमर्श १५-०० ८२. कर्म-प्रकृति ३६. आत्म साधना संग्रह २०-०० ८३. समिति-गुप्ति २०.०० ४०. आत्म शुद्धि का मूल तत्वत्रयी ८४. समकित के ६७ बोल ४१. नवतत्वों का स्वरूप १३-०० ८५. पच्चीस बोल . ४२. अगार-धर्म ८६. नव-तत्त्व ४३. Saarth Saamaayik Sootra १०.०० ८७. सामायिक संस्कार बोध १०-०० ४४. तस्व-पृच्छा ८८. मुखवत्रिका सिद्धि ४५-०० ४५. तेतली-पुत्र ४६. शिविर व्याख्यान १२-०० ८९. विद्युत् सचित्त तेऊकाय है ४७. जैन स्वाध्याय माला १८-०० १०. धर्म का प्राण यतना ४८. सुधर्म स्तवन संग्रह भाग १ २२-०० ६१. सामग्ण सहिधम्मो ४६. सुधर्म स्तवन संग्रह भाग २ १५-०० ६२. मंगल प्रभातिका ५०. सुधर्म चरित्र संग्रह १०-००६३. कुगुरु गुर्वाभास स्वरूप ! ! ! ३-०० ४-०० १-०० २-०० ! ! १-०० २-०० ३-०० १-०० १-०० २-०० २-०० १० ४-०० ३-०० ३-०० २-०० अप्राप्य १.२५ For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स। णिरयावलियाओ (कप्पिया) निरयावलिका (कल्पिका) (मूल पाठ, कठिन शब्दार्थ, भावार्थ और विवेचन सहित) पढमस्स वग्गस्स पढमं अज्झयणं प्रथम वर्ग का प्रथम अध्ययन प्रस्तावना अनादिकाल से कालचक्र चलता आ रहा है। उसका एक चक्र का समय बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है। उसके दो विभाग होते हैं - उत्सर्पिणीकाल और अवसर्पिणी काल। उत्सर्पिणीकाल दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है इसी तरह अवसर्पिणी काल भी दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है। प्रत्येक उत्सर्पिणी काल और अवसर्पिणी काल में तरेसट-तरेसट (६३-६३) श्लाघ्य (शलाका) पुरुष होते हैं। यथा - चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नौ वासुदेव और नौ प्रतिवासुदेव। ___ तीर्थंकर राजपाट आदि ऋद्धि सम्पदा को छोड़कर दीक्षित होते हैं। दीक्षा लेकर तप संयम के द्वारा घाती कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त करते हैं। केवलज्ञान प्राप्ति के बाद साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध श्रमण संघ की स्थापना करते हैं। जिस तीर्थंकर के जितने गणधर होने होते हैं उतने गणधर प्रथम देशना में हो जाते हैं फिर तीर्थंकर भगवान् अर्थ रूप से द्वादशांग की प्ररूपणा करते हैं और गणधर उस अर्थ को सूत्र रूप से गूंथन करते हैं। यथा - For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र अत्थं भासइ अरहा, सत्तं गंथंति गणहरा णिउणं। सासणस्स हियट्ठयाए, तेण तित्थं पवत्तइ॥ अर्थ - तीर्थंकर भगवान् अर्थ फरमाते हैं और गणधर भगवान् शासन के हित के लिये सूत्र रूप से उसे गून्थन करते हैं। जिससे तीर्थंकर का शासन चलता है। जिस प्रकार पञ्चास्तिकाय (धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय) भूतकाल में थी, वर्तमान काल में है और भविष्यत्काल में भी रहेगी। अतएव यह ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है। द्वादशांग का अर्थ है बारह अंग सूत्र। उनके नाम इस प्रकार है - आचाराङ्ग, सूयगडाङ्ग, ठाणाङ्ग, समवायाङ्ग, भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति), ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशाङ्ग, अन्तगडदशाङ्ग, अनुत्तरोववाई, प्रश्नव्याकरण, विपाक सूत्र और दृष्टिवाद।। इस पांचवें आरे में सम्पूर्ण दृष्टिवाद का विच्छेद हो चुका है। अब तो ग्यारह अंग सूत्र ही उपलब्ध होते हैं। : अङ्गों की तरह उपाङ्गों की संख्या भी बारह है। उनके नाम इस प्रकार हैं - उववाई, रायपसेणी, जीवाजीवाभिगम, पण्णवणा, जम्बूदीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, निरयावलिया, कप्पवडंसिया, पुप्फिया, पुष्पचूलिया और वण्हिदसा। ___ प्रस्तुत निरयावलिका सूत्र उपांग वर्ग का आगम है। यह जैन आगम,के बारह उपांगों में से अंतिम पांच उपांगों का संग्रह है अर्थात् निरयावलिया (निरयावलिका) अपर नाम कप्पिया (कल्पिका) में पांच उपांग समाविष्ट हैं जो इस प्रकार हैं - १. निरयावलिका या कल्पिका २. कल्पावतंसिका ३. पुष्पिका ४. पुष्पचूलिका और ५. वृष्णिदशा। ये पांचों उपांग छोटे छोटे होने के कारण एक ही आगम में पांच वर्ग के रूप में सन्नद्ध किये गये हैं। इन पांचों का पारस्परिक संबंध है। प्रथम सूत्र निरयावलिका होने से ये निरयावलिका के नाम से ही जाने जाते हैं किंतु पृथक्-पृथक् हैं। आगमों में चार प्रकार के अनुयोगों का निरूपण किया गया है - १. द्रव्यानुयोग २. गणितानुयोग ३. चरणकरणानुयोग और ४. धर्मकथानुयोग। निरयावलिका में मुख्य रूप से धर्मकथानुयोग का वर्णन है। जिस आगम में नरक में जाने वाले जीवों का पंक्तिबद्ध वर्णन हो वह निरयावलिया है। इस आगम में एक श्रुतस्कंध है, बावन अध्ययन हैं, पांच वर्ग हैं और ग्यारह सौ श्लोक प्रमाण मूल पाठ है। निरयावलिका के प्रथम वर्ग के दस अध्ययन हैं। प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन का प्रथम सूत्र इस प्रकार है - For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग १ अध्ययन १ राजगृह नगर आदि का वर्णन mr राजगृह नगर आदि का वर्णन तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णामं णयरे होत्था, रिद्धिस्थिमियसमद्धे०।.........गुणसिलए णामं चेइए........वण्णओ। असोगवरपायवे । पुढविसिलापट्टए वण्णओ॥१॥ कठिन शब्दार्थ - रिद्धिस्थिमियसमद्धे - ऋद्धि समृद्धि से संपन्न, वण्णओ- वर्णक-वर्णन जान लेना चाहिये, पुढविसिलापट्टए- पृथ्वीशिलापट्टक। ___ भावार्थ - उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था। वह धन्य धान्यादि से समृद्ध था। उसके उत्तर-पूर्व (ईशानकोण) में गुणशीलक नामक चैत्य था। उसका वर्णन (औपपातिक सूत्र के अनुसार) समझ लेना चाहिये। वहाँ उत्तम अशोक वृक्ष था। उसके नीचे एक पृथ्वीशिलापट्टक था। उसका वर्णन (औपपातिक सूत्र के अनुसार) समझ लेना चाहिये। विवेचन - तेणं कालेणं - उस काल अर्थात् चौथे आरे में, तेणं समएणं - उस समय में अर्थात् भगवान् महावीर स्वामी जब इस धरा पर विचरण कर रहे थे, राजगृह नामक नगर था जो धन धान्य वैभव आदि ऋद्धि समृद्धि से सम्पन्न था। रिद्धिस्थिमियसमद्धे०......से औपपातिक सूत्र का निम्न पाठ ग्रहण किया गया है - "रिद्धस्थिमिय समद्धा, पमुइय-जण-जाणवया, आइण्ण-जणमणूसा हलसयसहस्स-संकिट्ठ-विकिट्ठलट्ठ-पण्णत्त-सेउसीमा कुक्कुडसंडेयगामपउरा उच्छुजव-सालिकलिया गोमहिस-गवेलगप्पभूया आयारवंतचेइय-जुवइ-विविहसण्णिविट्ठबहुला उक्कोडिय गाय-गंठिभेयग-भडतक्कर-खंडरक्खरहिया खेमा णिरुवद्दवा सुभिक्खा वीसत्य सुहावासा अणेग कोडीकुटुंबिया इण्ण णिव्वुयसुहा, णड-णमृगजल्ल-मल्लमुट्ठिय वेलंबग कहग पवग लासग आइक्खग-लंख-मंखतूणइल्ल-तुंबवीणिय अणेगतालायराणुचरिया, आरामुजाण अगड-तलाग-दीहियवप्पिण गुणोववेया गंदणवण सण्णिप्पगासा-उव्विद्ध-विउल-गंभीर खायफलिहा चक्कगय-मुसुंढि ओरोह-सयग्धि-जमलगवाड घणदुप्पवेसा धणकुडिलवंकपागार परिक्खित्ता कविसीसगवट्टरइयसंठिय विरायमाणा अट्टालय चरियदार गोपुर तोरणउण्णयसुविभत्त-रायमग्गा छेयायरिय रइयदढफलिहइंदकीला विवणिवणिछित्त For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र ........................................................... सिप्पियाइण्ण-णिव्वुयसुहा सिंघाडग-तिग-चउक्कचच्चर-पणियावण विविहवत्थुपरिमंडिया सुरम्मा णरवइपविइण्णमहिवइपहा अणेग-वरतुरग-मत्तकुंजररहपहकरसीय-संदमाणी आइण्णजाणजुग्गा विमउल-णव-णलिणिसोभियजला पंडुरवरभवण सण्णिमहिया उत्ताण-णयण-पेच्छणिज्जा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा।" ‘वण्णओं' पद वर्णक का बोधक है। वर्णक पद की व्याख्या करते हुए टीकाकार लिखते हैं - 'वर्ण्यते, प्रकाश्यते अर्थो येनस वर्णः, वर्ण एव र्णकः वर्णन प्रकरणम्। वर्णयतीति वर्णकः' अर्थात् जिसके द्वारा अर्थ प्रकट होता है, उस पर प्रकाश पड़ता है, उस स्थल को वर्णन कहते हैं। वर्णन करने वाला प्रकरण भी वर्णक शब्द से व्यवहृत होता है। प्रस्तुत में वर्णक पद सूत्रकार ने . "गुणसीलए चेइए" के आगे दिया है। औपपातिक सूत्र में वर्णित पूर्णभद्र चैत्य की तरह गुणशीलक चैत्य का वर्णन समझ लेना चाहिये। उस गुणशीलक चैत्य के चारों ओर एक वनखण्ड था। उस वनखण्ड के बीचोबीच एक विशाल एवं रमणीय अशोक वृक्ष था। वह उत्तम मूल, कंद, स्कंध, शाखाओं, प्रशाखाओं, प्रवालों, पत्तों, पुष्पों और फलों से सम्पन्न था। उस अशोक वृक्ष के नीचे स्कंध से सटा हुआ एक पृथ्वीशिलापट्टक था यावत् वह मनोरम, दर्शनीय, मोहक और मनोहर था। राजगृह नगर, गुणशीलक चैत्य, पृथ्वीशिलापट्टक के विस्तृत वर्णन के लिये जिज्ञासुओं को संघ द्वारा प्रकाशित औपपातिक सूत्र (सूत्र क्रमांक पृष्ठ १ से १८ तथा २७ से २९) देखना चाहिये। .. सुधर्मा स्वामी का पदार्पण तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अजसुहम्मे णामं अणगारे जाइसंपण्णे जहा केसी जाव पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडे पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे....जेणेव रायगिहे णयरे जाव अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं जाव विहरइ। परिसा णिग्गया। धम्मो कहिओ। परिसा पडिगया॥२॥ भावार्थ - उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के शिष्य जाति कुल आदि से संपन्न आर्य सुधर्मा नामक अनगार केशी स्वामी की तरह यावत् पांच सौ अनगारों के साथ पूर्वानुपूर्वी क्रम से चलते हुए जहां राजगृह नगर था, वहां पधारे यावत् यथोचित अवग्रह को ग्रहण करके तप संयम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। उस नगर से परिषद् निकली। आर्य सुधर्मा स्वामी ने धर्म का उपदेश दिया। उपदेश सुन कर परिषद् लौट गई। For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग १ अध्ययन १ जंबू स्वामी की जिज्ञासा व समाधान ........................................................... . विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के अंतेवासी (शिष्य) आर्य सुधर्मा स्वामी के राजगृह नगर में पदार्पण, जनसमूह के आगमन, धर्मदेशना और परिषद् के लौटने का वर्णन है। - सुधर्मा स्वामी भगवान् महावीर के पांचवें गणधर और जम्बू स्वामी के गुरु थे। सुधर्मा स्वामी के लिये 'अज्ज' - आर्य विशेषण दिया गया है जिसकी व्याख्या इस प्रकार है - . "अर्यते भविभिगम्यते कल्याणप्राप्तये यः स आर्य। अथवा हेयधर्मात् आरात् यायतेदूरेण स्थीयते येन स आर्यः अथवा कर्मरूप काष्ठच्छेदेकत्वाद्रत्नत्रयरूपमारम्, तदयाति-प्राप्नोति यः स आर्यः।" ___अर्थात् - भव्य प्राणी अपने कल्याण के लिये जिनकी सेवा करते हैं अथवा हेय त्याज्य पदार्थों से जो दूर रहते हैं। अथवा कर्मरूप काष्ठ का छेदन करने के लिये रत्नत्रय रूप आरा जिन्होंने प्राप्त कर लिया है उनको आर्य कहते हैं। प्राकृत में 'आर्य' शब्द की इस प्रकार व्याख्या मिलती है - अजइ भविहिं आरा, जाइज्जइ हेयधम्मओ जो वा। रयणत्तय एवं वा, आरं जाइत्ति अज्ज इय वुत्तो॥ इस प्रकार आर्य शब्द का प्रयोग सर्व गुण सम्पन्नता का द्योतक है। सूत्रकार सुधर्मा स्वामी में आर्य विशेषण लगा कर उनमें अहिंसा सत्य, क्षमा, निर्लोभता आदि सभी सद्गुणों का अस्तित्व प्रकट करना चाहते हैं। - आर्य सुधर्मा जाति = मातृपक्ष, कुल = पितृपक्ष, बल, रूप, विनय, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, लज्जा, लाघव सम्पन्न तथा ऋद्धि, रस और साता गारव से रहित थे। आर्य सुधर्मा स्वामी का परिचय देने के लिये केशीकुमार श्रमण का उल्लेख किया गया है। केशी कुमार श्रमण का विस्तृत वर्णन राजप्रश्नीय सूत्र में किया गया है। वह समस्त वर्णन आर्य सुधर्मा स्वामी के लिए भी समझना चाहिये। . जंबू स्वामी की जिज्ञासा व समाधान ... तेणं कालेणं तेणं समएणं अजसुहम्मस्स अणगारस्स अंतेवासी जंबूणामं अणगारे समचउरंससंठाणसंठिए जाव संखित्तविउलतेउलेस्से अनसुहम्मस्स अणगारस्स अदूरसामंते उहुंजाणू जाव विहरइ। तए णं से जंबू जायसले जाव पजुवासमाणे एवं For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र वयासी-उवंगाणं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं एवं उवंगाणं पंच वग्गा पण्णत्ता, तंजहा - णिरयावलियाओ, कप्पवडिंसियाओ, पुष्फियाओ, पुप्फचूलियाओ, वहिदसाओ ॥ ३ ॥ कठिन शब्दार्थ - समचउरंससंठाणसंठिए - समचतुरस्र संस्थान संस्थित, संखित्त विउलतेउलेस्से - संक्षिप्त और विपुल तेजोलेश्या वाले । भावार्थ - उस काल और उस समय में आर्य सुधर्मा स्वामी के अंतेवासी (शिष्य) जम्बू नामक अनगार समचतुरस्र संस्थान वाले यावत् तेजोलेश्या विशिष्ट तपोजन्य लब्धि विशेष को संक्षिप्त किये हुए थे। ऐसे जंबू अनगार आर्य सुधर्मा स्वामी के न अति निकट, न अति दूर अर्थात् उचित स्थान पर ऊपर घुटने किये हुए यावत् विचर रहे थे। ६ उस समय जम्बू अनगार को श्रद्धा - संकल्प - विचार उत्पन्न हुआ यावत् पर्युपासना करते हुए इस प्रकार निवेदन किया-हे भगवन्! श्रमण यावत् मुक्ति प्राप्त भगवान् महावीर स्वामी ने उपांगों का अर्थ प्रतिपादित किया है ? सुधर्मा स्वामी ने फरमाया जम्बू ! श्रमण यावत् मुक्ति प्राप्त भगवान् महावीर स्वामी ने उपांगों के पांच वर्ग कहे हैं वे इस प्रकार हैं - १. निरयावलिका २. कल्पावतंसिका ३. पुष्पिका ४. पुष्पचूलिका और ५. वृष्णिदशा । जइ णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं उवंगाणं पंच वग्गा पण्णत्ता, तंजहाणिरयावलियाओ जाव वहिदसाओ, पढमस्स णं भंते! वग्गस्स उवंगाणं णिरयावलियाणं समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं कइ अज्झयणा पण्णत्ता ? एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं उवंगाणं पढमस्स वग्गस्स णिरयावलियाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा - काले सुकाले महाकाले कण्हे सुकण्हे तहा महाकण्हे । वीरकण्डेय बोद्धव्वे रामकण्हे तहेव य ॥ १॥ पिउसेणकण्हे णवमे दसमे महासेणकण्हे उ । भावार्थ - हे भगवन्! यदि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने निरयावलिका यावत् वृष्णिदशा तक उपांगों के पांच वर्ग कहे हैं तो हे भगवन्! निरयावलिका नामक प्रथम उपांग के कितने अध्ययन प्रतिपादित किये हैं? सुधर्मा स्वामी ने जम्बू स्वामी के प्रश्न के उत्तर में कहा - हे जम्बू ! उन श्रमण For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग १ अध्ययन १ जबू स्वामी की जिज्ञासा व समाधान यावत् मुक्ति प्राप्त भगवान् महावीर स्वामी ने प्रथम उपांग निरयावलिका के दस अध्ययन प्रतिपादित किये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं - १. कालकुमार २. सुकालकुमार ३. महाकालकुमार ४. कृष्णकुमार ५. सुकृष्णकुमार ६. महाकृष्णकुमार ७. वीरकृष्णकुमार ८. रामकृष्णकुमार ६. पितृसेनकुमार और १०. महासेन कृष्णकुमार। विवेचन - आर्य जम्बूस्वामी ने वीर संवत् १ में सोलह वर्ष की उम्र में आर्य सुधर्मा स्वामी के पास निग्रंथ प्रव्रज्या ग्रहण की। बारह वर्ष तक सुधर्मा स्वामी के सान्निध्य में आगम वाचना ग्रहण की। वीर संवत् १३ में सुधर्मा स्वामी के केवली होने के बाद आचार्य बने। आठ वर्ष तक युग प्रधान पद पर रहे। वीर संवत् २० में केवलज्ञान पाया और ४४ वर्ष केवली अवस्था में धर्मप्रचार करते रहे। वीर संवत् ६४ में ८० वर्ष की उम्र में मथुरा नगरी में निर्वाण प्राप्त किया। __ आगमों में जंबू स्वामी के गुणों का वर्णन इस प्रकार मिलता है-आर्य जम्बू काश्यप गोत्र वाले . थे। उनका शरीर सात हाथ प्रमाण था। ये समचउरस्रसंस्थान-पालथी मार कर बैठने पर शरीर की ऊंचाई और चौड़ाई बराबर हो ऐसे संस्थान-वाले थे। इनका वज्रऋषभनाराच संहनन था। सोने की रेखा के समान और पद्मराग के समान वर्ण वाले थे। उग्र तपस्वी थे। दीप्त तपस्वी-कर्म रूपी गहन वन को भस्म करने में समर्थ तप वाले थे। तप्त तपस्वी-कर्म संताप का विनाशक तप करने वाले थे। महान् तपस्वी थे। उदार-प्रधान थे-आत्म शत्रुओं को विनष्ट करने में निर्भीक थे। दूसरों के द्वारा दुष्प्राप्य गुणों को धारण करने वाले थे। घोर तपस्वी थे। कठिन ब्रह्मचर्य व्रत के पालक थे। शरीर पर भी ममत्व नहीं था। तेजो लेश्या-विशिष्ट तपोजन्य लब्धि विशेष को संक्षिप्त किए हुए थे। चौदह पूर्वो के ज्ञाता थे। चार ज्ञान के धारक थे। इनको समस्त अक्षर संयोग का ज्ञान था। ये उत्कुटुक आसन लगाकर नीचा मुख करके धर्म तथा शुक्लध्यान रूप कोष्टक में प्रवेश किये हुए थे अर्थात् धर्मध्यान में लीन थे। ऐसे आर्य जम्बू अनगार आर्य सुधर्मा स्वामी के पास तप संयम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचर रहे थे। ____ 'जायसहें' के बाद आये हुए ‘जाव' शब्द से निम्न पाठ का ग्रहण हुआ है - जायसढे जायसंसए जायकोउहल्ले, संजायसले संजायसंसए संजायकोउहल्ले, उप्पण्णसङ्के उप्पण्णसंसए उप्पण्णकोउहल्ले, समुप्पण्णसढे समुप्पण्णसंसए समुप्पण्णकोउहल्ले, उट्ठाए उढेइ जेणामेव असुहम्मे थेरे तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ करित्ता वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता अञ्जसुहम्मस्स थेरस्स णञ्चासणे णाइदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे पंजलिउडे विणएणं '.पञ्जुवासमाणे..... For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र ........................................................... अर्थात् - आर्य जम्बू अनगार को तत्त्व के विषय में श्रद्धा (जिज्ञासा) हुई, संशय हुआ, कुतूहल हुआ, विशेष रूप से श्रद्धा हुई, विशेष रूप से संशय हुआ, विशेष रूप से कुतूहल हुआ, श्रद्धा उत्पन्न हुई, संशय उत्पन्न हुआ, कुतूहल उत्पन्न हुआ, विशेष रूप से श्रद्धा उत्पन्न हुई, विशेष रूप से संशय उत्पन्न हुआ, विशेष रूप से कुतूहल उत्पन्न हुआ, तब वह उत्थान करके उठ खड़े हुए और उठ करके जहाँ आर्य सुधर्मा स्थविर थे वहाँ आये। आकर आर्य सुधर्मा स्वामी की तीन बार प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा करके वाणी से स्तुति की और काया से नमस्कार किया। स्तुति और नमस्कार करके आर्य सुधर्मा स्थविर से न बहुत दूर और न बहुत नजदीक अर्थात् उचित स्थान पर स्थित होकर सुनने की इच्छा करते हुए और नमस्कार करते हुए सन्मुख दोनों हाथ जोड़ कर । विनयपूर्वक पर्युपासना करते हुए ...। सुधर्मा स्वामी ने जम्बू स्वामी की शंका का समाधान करते हुए फरमाया कि उपांगों के पांच वर्ग कहे हैं। उसमें से प्रथम वर्ग निरयावलिका के दस अध्ययनों में इन दस कुमारों का वर्णन है१. कालकुमार २. सुकालकुमार ३. महाकाल कुमार ४. कृष्णकुमार ५. सुकृष्णकुमार ६. महाकृष्णकुमार ७. वीरकृष्णकुमार ८. रामकृष्णकुमार ६. पितृसेनकुमार और १०. महासेनकुमार। निरयावलिका आदि पांच उपांग कालिक श्रुत है। इनमें निरयावलिका अंतकृतद्दशांग सूत्र का उपांग है, कल्पावतंसिका अनुत्तरौपपातिक अंग का उपांग है, पुष्पिका प्रश्नव्याकरण सूत्र का, पुष्पचूलिका विपाक सूत्र का और वृष्णिदशा दृष्टिवाद का उपांग है। इन पांचों में से प्रथम निरयावलिका सूत्र में नरकावासों तथा उनमें उत्पन्न होने वाले मनुष्यों का वर्णन हैं। उपांगों के प्रथम वर्ग निरयावलिका के दस अध्ययन कहे हैं, उसमें से प्रथम अध्ययन का वर्णन इस प्रकार हैकालकुमार नामक प्रथम अध्ययन कालकुमार का परिचय . जइ णं भंते! समणेणं जाव संपतेणं उवंगाणं पढमस्स वग्गस्स णिरयावलियाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते! अज्झयणस्स णिरयावलियाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अढे पण्णते? एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग १ अध्ययन १ कालकुमार का परिचय जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे चंपा णामं णयरी होत्या, रिद्ध० । पुण्णभद्दे चेइए। तत्थ णं चंपाए णयरीए सेणियस्स रण्णो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए कूणिए णामं राया होत्था, महया० । तस्स णं कूणियस्स रण्णो पउमावई णामं देवी होत्या, सोमालपाणिपाया जाव विहरइ ॥ ४ ॥ कठिन शब्दार्थ - अत्तए - अंगजात - आत्मज, सोमालपाणिपाया सुकोमल हाथ पैर वाली। भावार्थ - हे भगवन्! यदि श्रमण यावत् मोक्ष प्राप्त भगवान् महावीर स्वामी ने उपांगों के प्रथम वर्ग निरयावलिका के दस अध्ययन कहे हैं तो हे भगवन्! निरयावलिका के प्रथम अध्ययन में प्रभु ने क्या भाव फरमाये हैं? इस प्रकार निश्चय ही हे जम्बू ! उस काल में और उस समय में जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भारत वर्ष में चम्पा नामक नगरी थी जो ऋद्धि आदि से संपन्न थी । उसके उत्तर-पूर्व दिशा भाग (ईशान कोण) में पूर्णभद्र नामक चैत्य - व्यंतरायतन था । उस चम्पा नगरी में श्रेणिक राजा का पुत्र एवं देवी का अंगजात कोणिक नाम का राजा था जो महामहिमाशाली था । उस कोणिक राजा के पद्मावती नाम की रानी थी जो सुकोमल अंग प्रत्यंगों वाली यावत् मानवीय कामभोगों का उपभोग करती हुई विचरण करती थी । तत्थ णं चंपाए णयरीए सेणियस्स रण्णो भज्जा कूणियस्स रण्णो चुल्लमाउंया काली णामं देवी होत्या, सोमालपाणिपाया जाव सुरूवा । तीसे णं कालीए देवीए पुत्ते काले णामं कुमारे होत्था, सोमालपाणिपाया जाव सुरूवे ॥ ५ ॥ भावार्थ - उस चंपा नगरी में श्रेणिक राजा की रानी और कोणिक राजा की छोटी माता काली नामक देवी थी जो सुकुमाल यावत् सुरूपा थी । उस काली देवी का पुत्र काल नामक कुमार था जो सुकुमाल यावत् सुरूप था । विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में वर्णित चम्पा नगरी का वर्णन राजगृह नगर के अनुसार एवं पूर्णभद्र चैत्य का वर्णन गुणशील चैत्य के अनुसार समझना चाहिये । 'सोमालपाणिपाया जाव सुरूवे' में प्रयुक्त शब्द से निम्न पाठ का ग्रहण हुआ है - "अहीण पडिपुण्ण पंचिंदिय सरीरे, लक्खण वंजण गुणोंववेए माणुम्माणप्पमाण पडिपुण्ण सुजाय सुव्वंगसुंदरंगे ससिसोमागारे कंते पियदंसणे" अर्थ - उसकी पांचों इन्द्रियाँ पूर्ण एवं निर्दोष थीं। उसका शरीर विद्या, धन और प्रभुत्व आदि For Personal & Private Use Only ह - Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० निरयावलिका सूत्र के सूचक सामुद्रिक लक्षणों और मस्सा, तिल आदि व्यंजनों और विनय, सुशीलता आदि गुणों से युक्त था तथा मान, उन्मान और प्रमाण से मनोहर और प्रियदर्शन था। कालकुमार और स्थमूसल संग्राम तए णं से काले कुमारे अण्णणा कयाइ तिहिं दंतिसहस्सेहिं तिहिं रहसहस्सेहिं तिहिं आससहस्सेहिं तिहिं मणुयकोडीहिं गरुलवूहे एक्कारसमेणं खण्डेणं कूणिएणं रण्णा सद्धिं रहमुसलं संगामं ओयाए॥६॥ कठिन शब्दार्थ - दंतिसहस्सेहिं - हजार हाथियों, मणुयकोडीहिं - कोटि मनुष्यों, गरुलवूहे - गरुड व्यूह में, रहमूसलं संगामं - रथमूसल संग्राम में, ओयाए - प्रवृत्त हुआ (उतरा)। भावार्थ - तदनन्तर (इसके बाद) किसी समय कालकुमार तीन हजार हाथियों, तीन हजार रथों, तीन हजार घोड़ों और तीन कोटि (तीन करोड़) मनुष्यों को लेकर गरुड व्यूह में ग्यारहवें खण्डअंश के भागीदार कोणिक राजा के साथ रथमूसल संग्राम में प्रवृत्त हुआ। , - विवेचन - हार और हाथी के लिये हुए कोणिक-चेड़ा संग्राम में काल आदि कुमारों का महाराजा चेड़ा के साथ जो युद्ध हुआ उसका वर्णन सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र में किया। रथमूसल संग्राम का विस्तृत वर्णन भगवती सूत्र शतक ७ उद्देशक ह में किया गया है जिज्ञासुओं को वहां से देख लेना चाहिये। कालकुमार युद्ध में गरुड़ व्यूह की रचना करता है। - काली देवी की चिन्ता . तए णं तीसे कालीए देवीए अण्णया कयाइ कुडुम्बजागरियं जागरमाणीए अयमेयारवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु ममं पुत्ते कालकुमारे तिहिं दंतिसहस्सेहिं जाव ओयाए, से मण्णे किं जइस्सइ? णो जइस्सइ? जीविस्सइ? णो जीविस्सइ? पराजिणिस्सइ? णो पराजिणिस्सइ? काले णं कुमारे अहं जीवमाणं पासिज्जा? ओहयमण जाव झियाइ॥७॥ कठिन शब्दार्थ - कुडुम्बजागरियं - कुटुम्ब जागरणा, जइस्सइ - जीतेगा-विजय प्राप्त करेगा, जीविस्सइ - जीवित रहेगा, पराजिणिस्सइ - पराजित करेगा। भावार्थ - तब कुटुम्ब जागरणा करते हुए कालीदेवी के मन में इस प्रकार का संकल्प उत्पन्न For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग १ अध्ययन १ भगवान् का पदार्पण ११ हुआ - मेरा पुत्र कालकुमार तीन हजार हाथियों आदि को लेकर यावत् रथमूसल संग्राम में प्रवृत्त हुआ है तो क्या वह विजय प्राप्त करेगा या विजय प्राप्त नहीं करेगा? वह जीवित रहेगा अथवा जीवित नहीं रहेगा? शत्रु को पराजित करेगा या पराजित नहीं करेगा? क्या मैं कालकुमार को जीवित देख सकूँगी। इत्यादि विचारों से वह उदास हो गई यावत् आर्तध्यान में लीन हो गई। विवेचन - जागरणा तीन प्रकार की कही गई है - १. कुटुम्ब जागरणा - कुटुम्ब के विषय में विचार करना कि मेरे कुटुम्ब में कौन सुखी या कौन दुःखी है ? उनके दुःख को दूर करने का उपाय करना आदि विचारणा कुटुम्ब जागरणा है २. अर्थ जागरणा - व्यापार विषयक लाभालाभ का विचार करना अर्थ जागरणा है ३. धर्म जागरणा - आध्यात्मिक विचार करना धर्म जागरणा है। ____ काली महारानी कुटुम्ब जागरणा करते समय अपने पुत्र के विषय में सोचने लगी कि मेरा पुत्र चेड़ा राजा के साथ युद्ध कर रहा है। चेड़ा राजा तो महाशक्तिशाली है। उसके साथ युद्ध करना लोहे के चने चबाने जैसा है। ऐसी अवस्था में मैं अपने पुत्र को जीवित देखूगी या नहीं? वह युद्धभूमि में जीतेगा या पराजित होगा? इसी का विचार करती हुई वह अत्यंत शोक मग्ना हो गई। मातृ हृदय पुत्र विरह को सह नहीं सकता इसलिये काली माता को जागरणा करते समय अपने पुत्र कालकुमार का विचार आता है। भगवान् का पदार्पण - तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरिए। परिसा णिग्गया। तए णं तीसे कालीए देवीए इमीसे कहाए लद्धट्ठाए समाणीए अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था-एवं खलु समणे भगवं० पुव्वाणुपुव्विं जाव विहरइ, तं महाफलं खलु तहारूवाणं जाव विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए, तं गच्छामि णं समणं जाव पज्जुवासामि, इमं च णं एयाख्वं वागरणं पुच्छिस्सामि त्तिकट्ट एवं संपेहेइ संपेहित्ता कोडुम्बियपुरिसे सद्दावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव उवट्ठवेह उवट्ठवित्ता जाव पञ्चप्पिणंति॥८॥ भावार्थ - उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का चम्पा नगरी में पदार्पण हुआ। प्रभु को वन्दना नमस्कार करने एवं धर्मोपदेश सुनने के लिये परिषद् निकली। तब वह काली देवी भी इस समाचार को जान कर हर्षित हुई और उसे इस प्रकार का मनोगत भाव (संकल्प For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र *** विचार) उत्पन्न हुआ कि निश्चय ही श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पूर्वानुपूर्वी क्रम से विहार करते हुए यहां पधारे हैं यावत् विचरण कर रहे हैं। तथारूप के श्रमण भगवंतों का नाम श्रवण ही महान् फलदायी है तो उनके समीप पहुंच कर वंदन नमस्कार करने यावत् उनके पास से विपुल अर्थ ग्रहण के फल का तो कहना ही क्या है? अतः मैं श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास जाऊँ यावत् उनकी पर्युपासना करूँ और मेरे मन में रहे हुए प्रश्न को पूछूं। ऐसा विचार करके उसने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुला कर उन्हें आज्ञा दी कि 'हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही धार्मिक कार्यों में प्रयोग किये जाने वाले श्रेष्ठ रथ को जोत कर लाओ ।' कौटुम्बिक पुरुषों ने जुते हुए रथ को उपस्थित किया. यावत् आज्ञानुसार कार्य किये जाने की सूचना दी। काली का भगवान् के समीप गमन १२ तणं सा काली देवी व्हाया कयबलिकम्मा जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा बहूहिं खुज्जाहिं जाव महत्तरगविंदपरिक्खित्ता अंतेउराओ णिग्गच्छइ णिग्गच्छित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता धम्मियं जाणप्पवरं दुरूहइ दुरूहित्ता णियगपरियालसंपरिवुडा चंपं णयरिं मज्झमज्झेणं णिग्गच्छइ णिग्गच्छित्ता जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता छत्ताईए जाव धम्मियं जाणप्पवरं ठवेइ ठवित्ता धम्मियाओ जाणप्पवराओ पचोरुहइ पचोरुहित्ता बहूहिं खुज्जाहिं जाव महत्तरगविंदपरिक्खित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदइ वंदित्ता ठिया चेव सपरिवारा सुस्सूसमाणी णमंसमाणी अभिमुहा विणणं पंजलिउडा पज्जुवासइ ॥ ६॥ कठिन शब्दार्थ - कयबलिकम्मा - कृतबलिकर्मा, अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा - अल्प (अल्पभार वाले) किन्तु बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को विभूषित किया, खुज्जाहिं कुब्जादासियों, महत्तरगविंदपरिक्खित्ता - महत्तरक वृन्द (अंतःपुर रक्षिकाओं) से घिरी हुई, णियगपरियाल - संपरिवुडा- अपने परिजनों से परिवेष्टित, सुस्सूसमाणा - उत्सुक होकर, पंजलिउडा - अञ्जलि करके । भावार्थ - तब उस काली देवी ने स्नान किया, बलिकर्म कर यावत् अल्प किन्तु महामूल्यवान् For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग १ अध्ययन १ काली की जिज्ञासा का समाधान आभूषणों से विभूषित हो अनेक कुब्जा दासियों यावत् महत्तरक वृन्द से घिरी हुई अन्तःपुर से निकली। निकल कर जहाँ बाहरी उपस्थानशाला थी जहाँ श्रेष्ठ धार्मिक यान था वहाँ आयी, आकर श्रेष्ठ धार्मिक यान पर सवार होकर अपने परिजनों के साथ चंपा नगरी के बीचोंबीच होकर निकली, निकल कर जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था वहाँ आयी, आकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के छत्रादि अतिशयों को देखते ही यावत् श्रेष्ठ धार्मिक रथ को रोका। रथ रोक कर उस धार्मिक यान से नीचे उतरी, उतर कर कुब्जा आदि दासियों यावत् महत्तरकवृन्द से घिरी हुई जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी थे वहां आयी, आकर उन्हें तीन बार वंदना की, वंदना करके वहीं स्थित होकर सपरिवार धर्मोपदेश सुनने की इच्छा करती हुई नमस्कार करती हुई विनयपूर्वक दोनों हाथों को जोड़ कर पर्युपासना करने लगी। भगवान् की देशना तए णं समणे भगवं जाव कालीए देवीए तीसे य महइमहालियाए धम्मकहा भाणियव्वा जाव समणोवासए वा समणोवासिया वा विहरमाणे आणाए आराहए भवइ ॥१०॥ भावार्य - तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने काली देवी और उस महती (विशाल) परिषद् को धर्मकथा कही। धर्मकथा का वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार कह देना चाहिए यावत् श्रमणोपासक और श्रमणोपासिका आज्ञा के आराधक होते हैं। - काली की जिज्ञासा का समाधान तए णं सा काली देवी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म सोच्चा णिसम्म हट्ठ जाव हियया समणं भगवं तिक्खुत्तो जाव एवं वयासी-एवं खलु भंते! मम पुत्ते काले कुमारे तिहिं दंतिसहस्सेहिं जाव रहमुसलं संगामं ओयाए, से णं भंते! किं जइस्सइ? णो जइस्स जाव काले णं कुमारे अहं जीवमाणं पासिज्जा? . __ कालीइ समणे भगवं महावीरे कालिं देविं एवं वयासी-एवं खलु काली! तव पुत्ते काले कुमारे तिहिं दंतिसहस्सेहिं जाव कूणिएणं रण्णा सद्धिं रहमुसलं संगामं संगामेमाणे हयमहियपवरवीरघाइयणिवडियचिंधज्झयपडागे णिरालोयाओ दिसाओ करेमाणे चेडगस्स रण्णो सपक्खं सपडिदिसि रहेणं पडिरहं हव्वमागए, तए णं से For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र चेड राया कालं कुमारं एजमाणं पासइ पासित्ता आसुरुते जाव मिसिमिसेमाणे धणुं परामुसइ परामुसित्ता उसुं परामुसइ परामुसित्ता वइसाहं ठाणं ठाइ ठाइत्ता आययकण्णाययं उसुं करेइ करेत्ता कालं कुमारं एगाहचं कूडाहचं जीवियाओ ववरोवेइ, तं कालगए णं काली! काले कुमारे, णो चेव णं तुमं कालं कुमारं जीवमाणं पासिहिसि ॥ ११ ॥ १४ कठिन शब्दार्थ - हयमहियपवरवीरघाइयणिवडिय - चिंधज्झयपडागे - वीरवरों को आहत, मर्दित, घातित करते हुए उनकी चिह्न रूप ध्वजा पताकाओं को छिन्न-भिन्न करते हुए गिराते हुए, मिसिमिसेमाणे - मिसमिसाते हुए । भावार्थ - इसके बाद उस काली देवी ने श्रमण भगवान् महावीर के पास से धर्म श्रमण कर उसे हृदय में धारण कर हर्षित, संतुष्ट यावत् विकसित हृदय होकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को तीन बार वंदन नमस्कार कर इस प्रकार कहा - "हे भगवन् ! मेरा पुत्र कालकुमार तीन हजार हाथियों के साथ यावत् रथमूसल संग्राम में प्रवृत्त हुआ है तो हे भगवन् ! वह विजयी होगा या विजयी नहीं होगा यावत् क्या मैं कालकुमार को जीवित देखूंगी ?" 'हे काली!' इस प्रकार संबोधित करते हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने काली देवी से. कहा- 'हे काली! तुम्हारा पुत्र कालकुमार जो तीन हजार हाथियों यावत् कोणिक राजा के साथ रथमूसल संग्राम में युद्ध करता हुआ वीरवरों को आहत, मर्दित, घातित करते हुए उनकी संकेत सूचक ध्वजा पताकाओं को भूमिसात् करते हुए गिराते हुए दिशाओं को निस्तेज करता हुआ रथ से रथ को अडाते हुए चेटक राजा के सामने आया । तदनन्तर चेटक राजा ने कालकुमार को आते हुए देखा, कालकुमार को देख कर क्रोधाधिभूत हो यावत् मिसमिसाते हुए धनुष उठाया। धनुष उठाकर बाण हाथ में लिया, लेकर धनुष पर बाण चढाया, चढा कर उसे कान तक खींचा और खींच कर एक ही बार में आहत करके उसे जीवन से अलग कर देता है अर्थात् मार डालता है। अतः हे काली! वह कुमार मरण को प्राप्त हो गया है अतः अब तुम कालकुमार को जीवित नहीं देख सकोगी।' विवेचन - क्रोध रूप अग्नि जीवन रस को जला देती है । यही बात चेटक राजा के साथ हुई। कालकुमार को सामने देखते ही वे क्रोधित हो गये । क्रोधावेश से उन्होंने रौद्र रूप धारण किया, ललाट पर आवेश से तीन सल चढा कर अपने अमोघ बाण को कान तक खींच कर उसे बड़ी शक्ति से कालकुमार पर छोड़ा। महाराजा चेटक के अप्रतिहत बाण के प्रहार से कालकुमार धराशायी हो गये, For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग १ अध्ययन १ पुत्र शोक से अभिभूत काली देवी १५ ........................................................... उनके प्राण पखेरु उड़ गये। अतः हे कालीदेवी! तुम्हारे प्रश्न का उत्तर यही है कि कालकुमार जीवित नहीं है अतः अब तुम उसे जीवित नहीं देख सकोगी। ____ पुत्र वियोग ही काली रानी के वैराग्य का कारण जान कर प्रभु ने इस प्रकार की भाषा का प्रयोग किया है। पुत्र शोक से अभिभूत काली देवी ___तए णं सा काली देवी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमदं सोचा णिसम्म महया पुत्तसोएणं अप्फुण्णा समाणी परसुणियत्ता विव चम्पगलया धसत्ति धरणीयलंसि सव्वंगेहिं संणिवडिया। ___तए णं सा काली देवी मुहुत्तंतरेणं आसत्था समाणी उठाए उठेइ उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-एवमेयं भंते! तहमेयं भंते! अवितहमेयं भंते! असंदिद्धमेयं भंते! सच्चे णं भंते! एसमढे जहेयं तुब्भे वयह तिक समणं भगवं० वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता तमेव धम्मियं जाणप्पवरं दुरूहइ दुरूहित्ता जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया॥ १२॥ कठिन शब्दार्थ - पुत्तसोएणं - पुत्र शोक से, अप्फुण्णा - अभिभूत होकर, परसुणियत्ता - परशु (कुल्हाड़ी) से काटी हुई, धसत्ति - धड़ाम से, धरणियलंसि - पृथ्वीतल पर, संणिवडिया - | गिर पड़ी, अवितहमेयं - यह अवितथ-असत्य नहीं है, असंद्धिद्धमेयं - यह असंदिग्ध है। भावार्थ - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के इस कथन को सुन कर हृदय में धारण करके काली देवी पुत्र शोक से उद्विग्न होकर परशु (कुल्हाड़ी) से काटी गई चंपक लता के समान धड़ाम सेसर्वांगों से पृथ्वीतल पर गिर पड़ी। ___ कुछ समय पश्चात् काली देवी स्वस्थ होने पर उठ खड़ी हुई और श्रमण भगवान् को वंदन नमस्कार करती है। वंदन नमस्कार करके वह इस प्रकार बोली- 'हे भगवन्! ऐसा ही है जैसा आपने फरमाया है। आपका कथन सत्य है, यथार्थ है, तथ्य है, असंदिग्ध है। इस प्रकार कह कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को पुनः वंदन नमस्कार करती है। वंदन नमस्कार करके वह उसी श्रेष्ठ धार्मिक रथ पर आरूढ होकर जिस दिशा से आई थी पुनः उसी दिशा में लौट गई। For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र ........................................................... विवेचन - काली रानी ने जब प्रभु के मुखारविन्द से अपने पुत्र कालकुमार की मृत्यु का समाचार सुना तो पुत्र वियोग की दारुण वेदना से मूर्छित हो वह जमीन पर गिर पड़ी और शोक सागर में डूब गई। शीतलोपचार से जब रानी की मूर्छा दूर हुई तो प्रभु को वंदन नमस्कार कर विनयपूर्वक भगवान् के वचन का आदर करती हुई स्वस्थान लौट गयी। गौतम स्वामी की जिज्ञासा व प्रभु का समाधान भंते! त्ति भगवं गोयमे जाव वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-काले णं भंते! कुमारे तिहिं दंतिसहस्सेहिं जाव रहमुसलं संगाम संगामेमाणे चेडएणं रण्णा एगाहच्चं कूडाहच्चं जीवियाओ ववरोविए समाणे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए कहिं उववण्णे? गोयमाइ समणे भगवं० गोयमं एवं वयासी-एवं खलु गोयमा! काले कुमारे तिहिं दंतिसहस्सेहिं जाव जीवियाओ ववरोविए समाणे कालमासे कालं किच्चा चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए हेमाभे णरगे दससागरोवमट्टिइएसु णेरइएसु णेरइयत्ताए उववण्णे॥ १३॥ भावार्थ - हे भगवन्! ऐसा सम्बोधन कर गौतम स्वामी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वंदन नमस्कार करते हैं। वंदन नमस्कार करके इस प्रकार निवेदन किया-'हे भगवन्! काल कुमार तीन हजार हाथियों से यावत् रथमूसल संग्राम में युद्ध करता हुआ चेटक राजा के एक ही प्रहार से जीवन रहित होकर काल के समय काल करके कहाँ गया है? कहाँ उत्पन्न हुआ है?' "हे गौतम!" इस प्रकार संबोधित कर भगवान् ने कहा-हे गौतम! तीन हजार हाथियों के साथ यावत् युद्ध करता हुआ वह कालकुमार कालमास में काल करके चौथी पंकप्रभा नामक पृथ्वी के हेमाभ नामक नरक में दस सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में नैरयिक रूप में उत्पन्न हुआ है। काले णं भंते! कुमारे केरिसएहिं आरंभेहिं केरिसएहिं समारंभेहिं केरिसएहिं आरंभसमारंभेहिं केरिसएहिं भोगेहिं केरिसएहिं संभोगेहिं केरिसएहिं भोगसंभोगेहिं केरिसेण वा असुभकडकम्मपन्भारेणं कालमासे कालं किच्चा चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए जाव णेरइयत्ताए उववण्णे? For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग १ अध्ययन १ गौतम स्वामी की जिज्ञासा व प्रभु का समाधान एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णामं णयरे होत्या, रिद्धत्थिमियसमिद्धे० । तत्थ णं रायगिहे णयरे सेणिए णामं राया होत्या, महया० । तस्स णं सेणियस्स रण्णो णंदा देवी होत्या, सोमाल० जाव विहरइ । तस्स णं सेणियस्स रण्णो पुत्ते णंदाए देवीए अत्तए अभए णामं कुमारे होत्या, सोमाल० जाव सुरूवे, सामदाणभेयदण्डकुसले जहा चित्तो जाव रज्जधुराए चिंतए यावि होत्था । तस्स णं सेणियस्स रण्णो चेल्लणा णामं देवी होत्था, सोमाल० जाव विहरइ ॥ १४ ॥ कठिन शब्दार्थ - असुभकङकम्मपब्भारेणं - अशुभकर्म के प्राग्भार से, रज्जधुराए राज्य की धुरा को, सामदाणभेयदण्डकुसले - साम, दाम, भेद, दण्ड की नीति में कुशल C भावार्थ - हे भगवन्! कालकुमार किस आरम्भ से, किस समारंभ से, किस आरम्भ समारम्भ से, किस भोग से, किस संभोग से, किस भोग संभोग से, किस अशुभ कर्म के प्राग्भार से कालमास में काल करके चौथी पंक प्रभा पृथ्वी में यावत् नैरयिक रूप से उत्पन्न हुआ ? इस प्रकार हे गौतम! उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था । वह ऋद्धि समृद्धि से सम्पन्न था। उस राजगृह नगर में श्रेणिक नामक राजा था। वह महान् था। उस श्रेणिक राजा की नन्दा देवी नामक रानी थी। वह सुकुमार यावत् विचरण करती थी । उस श्रेणिक राजा का पुत्र और नन्दा रानी का आत्मज अभय नामक राजकुमार था। वह सुकुमार यावत् सुरूप था । चित्तराजा की तरह अभयकुमार भी साम, दाम, दण्ड आदि नीतियों में कुशल यावत् राज्य की धुरा को धारण करने ' वाला था ।.. उस श्रेणिक राजा की चेलना नाम की रानी थी जो सुकुमाल यावत् सुख पूर्वक विचरण करती थी। विवचेन - हिंसा, झूठ आदि सावद्य अनुष्ठान को 'आरम्भ' कहा जाता है। तलवार आदि शस्त्रों द्वारा प्राणियों का उपमर्दन करना 'समारम्भ' है। शब्द आदि विषयों को भोगना 'भोग' कहलाता है और इन्हीं को तीव्र अभिलाषा के साथ भोगना 'सम्भोग' है । · १७ 'सामवाणभेयवण्डकुलले जहा चित्तो जाव रखधुराए'. '.....इस वाक्य से सूत्रकार ने अभयकुमार की कार्यकुशलता को चित्त सारथी के समान सूचित किया है । चित्त सारथी का वर्णन राजप्रश्नीय' सूत्र में है। 'जाव' शब्द से निम्न पाठ का ग्रहण हुआ है For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ "सामदंड भेय उवप्पयाण - णीतिसुप्पउत्तणय- विहण्णू ईहापोह मग्गणगवेसण अत्यसत्यमई, विसारए, उप्पत्तियाए, वेणइयाए, कम्मइयाए, पारिणामियाए चउव्विहाए बुद्धीए उववेए सेणियस्स रण्णो बहुसु कंजेसु य कुडुंबेसु य मंतेसु य गुज्झेसु य रहस्सेसु य णिच्छएसु य आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्ज़े मेढी पमाणं, आहारे, आलंबणभूए, पमाणभूए आहारभूए चक्खुभूए, सव्वकजेसु य सव्वभूमियासु य लद्धपच्चए विइण्णवियारे रज्जधुरए चिंतए यावि होत्या ।। " अर्थात् - वह साम, दंड, भेद एवं उपप्रदान नीति तथा व्यापार नीति की विधि का ज्ञाता था । ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा तथा अर्थ शास्त्र में कुशल था । औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी तथा पारिणामिकी इन चार बुद्धियों से युक्त था। वह श्रेणिक राजा के लिए बहुत से कार्यों में, कौटुम्बिक कार्यों में, मंत्रणा में, गुह्य कार्यों में, रहस्यमय मामलों में निश्चय करने में एक बार और बार-बार पूछने योग्य था । वह सब के लिए मेढीभूत था, प्रमाण था, आधार था, आलंबन रूप तथा प्रमाणभूतं था, आधारभूत था, चक्षुभूत था । सब कार्यों और सब स्थानों में प्रतिष्ठा प्राप्त करने वाला था । सब को विचार देने वाला था तथा राज्य की धुरा को धारण करने वाला था । अर्थात् वह स्वयं ही राज्य, राष्ट्र, कोश, कोठार, बल और वाहन तथा पुर और अन्त: पुर की देखभाल करता था । चेलना का स्वप्न - दर्शन रियालिका तणं सा चेल्लणा देवी अण्णया कयाइ तंसि तारिसयंसि वासघरंसि जाव सहं सुमि पारित्ताणं पडिबुद्धा, जहा पभावई जाव सुमिणपाढगा पडिविसज्जिया जाव चेल्लणा से वयणं पडिच्छित्ता जेणेव सए भवणे तेणेव अणुपविट्ठा ।। १५॥ कठिन शब्दार्थ - वासघरंसि वासघर (भवन) में, सुमिणपाढगा - स्वप्न पाठकों । भावार्थ - किसी समय वह चेलना देवी शयनगृह में सुख शय्या पर सोते हुए प्रभावती देवी के समान सिंह का स्वप्न देख कर जागृत हुई यावत् स्वप्न पाठकों को विदा किया यावत् चेलना देवी ने उनके वचनों को स्वीकार किया और जहाँ अपना वासगृह था, वहाँ प्रवेश किया। विवेचन - "पासित्ताणं पडिबुद्धा जहा पभावई जाव सुमिणपाढगा" इन पदों से सूत्रकार ने महारानी चेलना के तथारूप वासगृह में स्वप्न का देखना, राजा से स्वप्न कहना, राजा द्वारा स्वप्न पाठकों को बुलाना आदि वृत्तान्त भगवती सूत्र शतक ११ उद्देशक ११ में वर्णित महारानी प्रभावती के वर्णन के अनुसार बताया है। - For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग १ अध्ययन १ चेलना का दोहद १६ चेलना का दोहद तए णं तीसे चेल्लणाए देवीए अण्णया कयाई तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अयमेयारूवे दोहले पाउन्भूए धण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव जस्मजीवियफले जाओ णं सेणियस्स रण्णो उयरवलीमसेहिं सोल्लेहि य तलिएहि य भज्जिएहि य सुरं च जाव पसण्णं च आसाएमाणीओ जाव परिभाएमाणीओ दोहलं पविणेति। ___तए णं सा चेल्लणा देवी तंसि दोहलंसि अविणिजमाणंसि सुक्का भुक्खा णिम्मंसा ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा णित्तेया दीणविमणवयणा पण्डुइयमुही ओमंथियणयण-वयणकमला जहोचियं पुप्फवत्थगंधमल्लालंकारं अपरि जमाणी करयलमलियव्व कमलमाला ओहयमणसंकप्पा जाव झियाइ॥१६॥ कठिन शब्दार्थ - दोहले - दोहद-गर्भवती माता का विशेष मनोरथ, उयरवलीमंसेहिं सोल्लेहि- उदरावली के शूल पर सेके हुए, तलिएहि - तले हुए, भज्जिएहि - भूने हुए, आसाएमाणीओ - आस्वादन करती हुई, परिभाएमाणीओ - आपस में बांटती हुई, पविणेंति - पूर्ण करती है, अविणिजमाणंसि - पूर्ण नहीं होने से, सुक्का - शुष्का-रुधिर आदि के क्षय होने से जिसका शरीर सूख गया, भुक्खा - बुभुक्षा-भोजन न करने से बल हीन होकर बुभुक्षिता-सी, भूख से पीड़ित, णिम्मंसा - निर्मांस-मांस-रहित, ओलुग्गा - अवरुण्णा-जीर्ण, णित्तेया - निस्तेज, दीणविमणवयणा - दीन-विमनोवदना, पण्डुइयमुही - पाण्डुरमुखी-विवर्णमुखी, ओमंथिय-णयणवयणकमला - अवमथित नयन वदन कमला-नेत्र और मुख कमल झुके हुए, करयलमलियव्य - हथेलियों से मसली हुई, ओहयमणसंकप्पा- आहत मनोरथा-कर्तव्य अकर्तव्य के विवेक से रहित। भावार्थ - तत्पश्चात् उस चेलना देवी को किसी समय तीन मास पूरे होने पर इस प्रकार का दोहद उत्पन्न हुआ कि - "वे माताएं धन्य हैं, उनका जन्म जीवन सफल है जो श्रेणिक राजा (अपने पति के) के कलेजे के मांस को शूल पर चढा कर, तेल में तल कर, अग्नि में सेक कर मदिरा के साथ प्रसन्न होती हुई आस्वादन करती हुई यावत् आपस में बांटती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती है।" तब वह चेलना देवी उस दोहद के पूर्ण न होने के कारण शुष्क सूखी-सी हो गई, भूख से पीड़ित-सी हो गई, मांस रहित हो गई, जीर्ण और जीर्ण शरीर वाली हो गई, निस्तेज दीन विमनस्क For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० निरयावलिका सूत्र ................................ ........................ जैसी हो गई, मुख फीका पड़ गया, उसके नेत्र नीचे झुक गये और मुख कमल मुझ गया। यशोचित पुष्प, वस्त्र, गंध माला-फूलों की गूंथी हुई माला और अलंकारों का उपभोग नहीं करती हुई हथेलियों से मसली हुई कमल की माला की तरह आहत मनोरथा, कर्त्तव्य और अकर्तव्य के विवेक से रहित यावत् आर्तध्यान में डूब गई। विवेचन - जीव जिन शुभ अशुभ कर्मों को लेकर माता के गर्भ में आता है उसकी प्रतीति माता को दिखाई देने वाले स्वप्नों से तथा माता को उत्पन्न होने वाले दोहदों से भली भांति हो जाती है। शुभ दोहद जीव के सौभाग्य का और अशुभ दोहद जीव के दुर्भाग्य का परिचायक होता है। .. ___महारानी चेलना को गर्भस्थ बालक के प्रभाव से यह इच्छा हुई कि "मैं अपने पति के कलेजे के मांस को तल कर, भून कर, पका कर मदिरा के साथ खाऊँ और अपने जीवन को धन्य बनाऊँ।" . चेलना महारानी इस प्रकार के कुत्सित घृणित दोहद के पूर्ण न होने के कारण खिन्नचित्त रहने । लगी। आर्तध्यान करने लगी। तए णं तीसे चेल्लणाए देवीए अंगपडियारियाओ चेल्लणं देविं सुक्कं भुक्खं जाव झियायमाणिं पासंति पासित्ता जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट सेणियं रायं एवं वयासी-एवं खलु सामी! चेल्लणा देवी ण याणामो केणइ कारमेणं सुक्का भुक्खा जाव झियाइ॥ १७॥ कठिन शब्दार्थ - अंगपडियारियाओ - अंगपरिचारिकाओं (आभ्यंतर दासियों)। भावार्थ - उसके बाद उस चेलना देवी की अंगपरिचारिकाओं ने चेलना देवी को शुष्क, भूख से ग्रस्त-सी यावत् चिन्तित देखा। देख कर जहाँ श्रेणिक राजा था वहाँ आती है। दोनों हाथों को जोड़ कर आवर्त पूर्वक मस्तक पर अंजलि करके श्रेणिक राजा से इस प्रकार निवेदन किया-"स्वामिन्! चेलना देवी न मालूम किस कारण से शुष्क, भूख से व्याप्त होकर यावत् आर्तध्यान से युक्त होकर चिंतित रहती है।" श्रेणिक द्वारा कारण-पृच्छा तए णं से सेणिए राया तासिं अंगपडियारियाणं अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म तहेव संभंते समाणे जेणेव चेल्लणा देवी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता चेल्लणं For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग १ अध्ययन १ श्रेणिक द्वारा कारण-पृच्छा २१ देविं सुक्कं भुक्खं जाव झियायमाणि पासइ पासित्ता एवं वयासी-किं णं तुमं देवाणुप्पिए! सुक्का भुक्खा जाव झियासि?॥१८॥ ___ भावार्थ - तत्पश्चात् वह श्रेणिक राजा उन अंगपरिचारिकाओं से यह अर्थ सुन कर, मन में धारण करके, उसी प्रकार व्याकुल होता हुआ जहाँ चेलना देवी थी वहाँ आता है, आकर चेलना देवी को शुष्क, भूख से व्याप्त यावत् आर्तध्यान से युक्त चिंता करती देखता है, देख कर इस प्रकार कहता है - "हे देवानुप्रिये! तुम शुष्क, भूख से व्याप्त शरीर वाली यावत् आर्तध्यान से युक्त होकर क्यों चिंता कर रही हो?" तए णं सा चेल्लणा देवी सेणियस्स रण्णो एयमढें णो आढाइ णो परिजाणाइ, तुसिणीया संचिट्ठइ। तए णं से सेणिए राया चेल्लणं देविं दोच्चंपि तचंपि एवं वयासी-किं णं अहं देवाणुप्पिए! एयमट्ठस्स णो अरिहे सवणयाए जंणं तुमं एयमटुं रहस्सीकरेसि?॥१६॥ - भावार्थ - चेलना देवी ने श्रेणिक राजा के इस अर्थ का आदर नहीं किया, जाना भी नहीं किन्तु मौनस्थ हो रहने लगी। __ तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने चेलना देवी को दूसरी और तीसरी बार इस प्रकार कहा"हे देवानुप्रिये! क्या मैं तुम्हारे मन की बात सुनने के लिए अयोग्य हूँ? जिससे तुम इस रहस्य को छिपाती हो?" . तएणं सा चेल्लणा देवी सेणिएणं रण्णा दोचंपि तच्चंपि एवं वुत्ता समाणी सेणियं रायं एवं वयासी-णत्थि णं सामी! से केइ अढे जस्स णं तुन्भे अणरिहा सवणयाए, णो चेव णं इमस्स अट्ठस्स सवणयाए, एवं खलु सामी! ममं तस्स ओरालस्स जाव महासुमिणस्स तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अयमेयारूवे दोहले पाउन्भूए - धण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ जाओ णं तुम्भं उयरवलिमसेहिं सोल्लएहि य जाव दोहलं विणेंति, तए णं अहं सामी! तंसि दोहलंसि अविणिजमाणंसि सुक्का भुक्खा जाव झियामि॥२०॥ भावार्थ - तत्पश्चात् चेलना देवी श्रेणिक राजा के द्वारा दूसरी बार और तीसरी बार इस 'प्रकार कहे जाने पर श्रेणिक राजा से इस प्रकार बोली-"स्वामिन्! ऐसी तो कोई बात नहीं है, जो For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ निरयावलिका सूत्र ........................................................... आप से छुपाई जाय और जिसे आप सुनने के योग्य न हों अर्थात् आप उसे सर्वथा सुन सकते हो। निश्चित ही हे स्वामी! उस उदार स्वप्न के फलस्वरूप गर्भ के तीसरे माह के अन्त में मुझे इस प्रकार का दोहद उत्पन्न हुआ है कि वे माताएं धन्य हैं जो अपने पति के उदरवलिका मांस पका करके, तल करके और अग्नि में सेक भून कर मदिरा के साथ हर्ष पूर्वक आस्वादन करती हुई, दूसरों को बांटती हुई अपना दोहद पूर्ण करती है। मुझे भी ऐसा ही दोहद उत्पन्न हुआ है लेकिन हे स्वामिन्! वह दोहद पूर्ण नहीं होने से मैं शुष्क शरीरी, भूखी-सी यावत् चिंता ग्रस्त हो रही हूँ।" श्लेणिक का आश्वासन तए णं से सेणिए राया चेल्लणं देविं एव वयासी-मा णं तुमं देवाणुप्पिए! ओहय० जाव झियाहि, अहं णं तहा जत्तिहामि जहा णं तव दोहलस्स संपत्ती भविस्सइ तिकट्ट चेल्लणं देविं ताहिं इट्टाहिं कंताहिं पियाहिं मणुण्णाहिं मणामाहिं ओरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं धण्णाहिं मंगल्लाहिं मियमहुरसस्सिरीयाहिं वग्गूहिं समासासेइ २ ता चेल्लणाए देवीए अंतियाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहे णिसीयइ णिसीयित्ता तस्स दोहलस्स संपत्तिणिमित्तं बहूहिं आएहिं उवाएहि य उप्पत्तियाए य वेणइयाए य कम्मियाए य पारिणामियाए य परिणामेमाणे परिणामेमाणे तस्स दोहलस्स आयं वा उवायं वा (बियक्कं) ठिई वा अविंदमाणे ओहयमणसंकप्पे जाव झियाइ॥२१॥ कठिन शब्दार्थ - संपत्ती - संपूर्ति, इटाहिं - इष्ट (अभिलषित), कंताहिं - कान्त (इच्छित), पियाहिं - प्रिय, मणुग्णाहिं - मनोज्ञ, मणामाहिं - मनाम-मन को प्रिय, ओरालाहिं - प्रभावक, कल्लाणाहिं - कल्याणप्रद, सिवाहिं - शिव, धण्णाहिं - धन्य, मंगल्लाहिं - मंगल रूप, मियमहुरसस्सिरीयाहिं - मित मधुर और सुन्दर, वग्गूहि - वचनों से, समासासेइ - आश्वस्त करता है, आएहिं - आयों (लाभों) से, उवाएहि - उपायों से। भावार्थ - तत्पश्चात् श्रेणिक राजा चेलना देवी से इस प्रकार बोला-“हे देवानुप्रिये! तुम भग्न . मनोरथ होकर चिंता मत करो। मैं वैसा ही यत्न करूँगा जिससे तुम्हारे दोहद की पूर्ति हो जायगी। इस प्रकार कह कर चेलना देवी को इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मनाम, उदार, कल्याण, शिव, For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग १ अध्ययन १ अभयकुमार का आगमन धन्य, मंगल, मित, मधुर और सुन्दर वाणी से आश्वासन देता है। आश्वासन देकर चलना देवी के पास से निकल कर जहाँ बाहर की उपस्थानशाला थी, वहाँ आता है। आकर श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्व दिशा की ओर मुंह करके बैठता है और उस दोहद की पूर्ति करने के लिए बहुत से आयों (लाभों) से, उपायों से, औत्पत्तिकी बुद्धि से, वैनयिकी बुद्धि से, कार्मिक बुद्धि से, पारिणामिकी बुद्धि से इस तरह चारों प्रकार की बुद्धि से बार-बार विचार करता है । विचार करने पर भी उस दोहद के आय, उपाय, स्थिति और उत्पत्ति को समझ नहीं पाता अर्थात् दोहद की पूर्ति का कोई उपाय उसे नहीं सूझता अतएव श्रेणिक राजा उत्साहहीन यावत् चिन्ताग्रस्त हो जाता है। विवेचन - महारानी चेलना जो अपने दोहद के कारण व्यथित थी उसे श्रेणिक राजा मधुर प्रिय वचनों से संतुष्ट करने का प्रयत्न करते हैं क्योंकि वाणी में ही मधुरता है तो वाणी में ही विष है। राजा श्रेणिक चारों प्रकार की बुद्धि के अलावा दोहद की पूर्ति का उपाय सोचता है। जब उसे कुछ भी समझ में नहीं आता है तो वह भी विचार सागर में गोते खाने लगता है। अभयकुमार का आगमन इमं च ण अभए कुमारे पहाए जाव सरीरे सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइपडिणिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छत्ता सेणियं रायं ओहय० जाव झियायमाणं पासइ पासित्ता एवं वयासीअण्णया णं ताओ! तुब्भे ममं पासित्ता हट्ठ जाव हियया भवह किं णं ताओ! अज्ज तुभे अह० जाव झियाह? तं जइ णं अहं ताओ! एयमट्ठस्स अरिहे सवणयाए तो णं तुभे मम एयमहं जहाभूयमवितहं असंदिद्धं परिकहेह, जा णं अहं तस्स अस अंतगमणं करेमि ॥ २२॥ २३ भावार्थ - इधर अभयकुमार स्नान करके यावत् समस्त अलंकारों से विभूषित हो कर अपने घर से निकलता है और निकल कर जहाँ बाहर उपस्थानशाला थी और जहाँ श्रेणिक राजा थे वहाँ आता है आकर श्रेणिक राजा को मन के संकल्प से आहत यावत् आर्त्तध्यान करते हुए देखता है । देख कर इस प्रकार बोला-हे तात! पहले जब कभी आप मुझे आता हुआ देखते तो हर्षित यावत् संतुष्ट हृदय होते थे किन्तु आज किस कारण से आप उदास यावत् चिंता में डूबे हुए हैं ? अतः यदि हे तात! मैं इस अर्थ को सुनने के योग्य हूँ तो आप इस कारण को छिपाये बिना जैसा का तैसा सत्य एवं संदेह रहित कहिए, जिससे मैं उस कारण को पार पाने का प्रयत्न करूँ अर्थात् हल करने का उपाय करूँ। For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ निरयावलिका सूत्र तए णं से सेणिए राया अभयं कुमारं एवं वयासी-पत्थि णं पुत्ता! से केइ अढे जस्स णं तुमं अणरिहे सवणयाए, एवं खलु पुत्ता! तव चुल्लमाउयाए चेल्लणाए देवीए तस्स ओरालस्स जाव महासुमिणस्स तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव जाओ णं मम उयरवलीमंसेहिं सोल्लेहि य जाव दोहलं विणेति, तए णं सा चेल्लणा देवी तंसि दोहलंसि अविणिजमाणंसि सुक्का जाव झियाइ, तए णं अहं पुत्ता! तस्स दोहलस्स संपत्तिणिमित्तं बहूहिं आएहि य जाव ठिई वा अविंदमाणे ओहय० जाव झियामि॥२३॥ कठिन शब्दार्थ - सवणयाए - सुनने योग्य, चुल्लमाउयाए - छोटी माता। __ भावार्थ - तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने अभयकुमार से कहा- "हे पुत्र! ऐसी तो कोई बात नहीं है जिसे तुम सुनने योग्य नहीं हो। हे पुत्र! तुम्हारी छोटी माता चेलना देवी को उस उदार यावत् महास्वप्न को देखे तीन माह व्यतीत होने पर यावत् ऐसा दोहद उत्पन्न हुआ है कि जो माताएं मेरी उदरावलि के शूलित आदि मांस से अपने दोहद को पूर्ण करती है वे धन्य हैं आदि। लेकिन चेलना देवी उस दोहद के पूर्ण नहीं हो सकने के कारण शुष्क यावत् चिंतित है। इसलिए हे पुत्र! मैं उस दोहद की संपूर्ति के उपायों यावत् स्थिति को नहीं समझ सकने के कारण भग्न मनोरथ, आर्तध्यान करता हुआ यावत् चिंतित हो रहा हूँ।" अभयकुमार द्वारा पिता को सान्त्वना तए णं से अभए कुमारे सेणियं रायं एवं वयासी-मा णं ताओ! तुब्भे ओहय० जाव झियाह, अहं णं तहा जत्तिहामि जहा णं मम चुल्लमाउयाए चेल्लणाए देवीए तस्स दोहलस्स संपत्ती भविस्सइत्तिकट्ट सेणियं रायं ताहिं इट्ठाहिं जाव वग्गूहिं समासासेइ समासासित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता अभिंतरए रहस्सियए ठाणिज्जे पुरिसे सद्दावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! सूणाओ अल्लं मंसं रुहिरं बत्थिपुडगं च गिण्हह॥२४॥ कठिन शब्दार्थ - अम्भिंतरए - आभ्यंतर (गुप्त), रहस्सियए - रहस्यों के, सूणाओ - सूनागार (वधस्थान), अल्लं - आर्द्र (गीला), बत्थिपुडगं - वस्तिपुटक-पेट का भीतरी भाग, आंतें। For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . वर्ग १ अध्ययन १ दोहद पूर्ति का उपाय भावार्थ - श्रेणिक राजा के भावों को सुन कर अभयकुमार बोले- 'हे तात! आप भग्न मनोरथ यावत् चिंतित न हों। मैं ऐसा कोई उपाय करूंगा कि जिससे मेरी छोटी माता चेलना देवी के दोहद की पूर्ति हो जाय ।' इस प्रकार अभयकुमार ने श्रेणिक राजा को इष्ट यावत् मधुर वचनों से सांत्वना | श्रेणिक राजा को आश्वस्त करके अभयकुमार अपने भवन में आया । आकर गुप्त रहस्यों के जानकार अपने विश्वस्त पुरुषों को बुलाया और बुलाकर उनसे कहा- 'हे देवानुप्रियो ! तुम जाओ और वधस्थान में जाकर वस्तिपुटक (पेट के भीतरी भाग ) के साथ गीला मांस लाओ।' · दोहद पूर्ति का उपाय तए णं ते ठाणिज्जा पुरिसा अभएणं कुमारेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठ० जाव पडणेत्ता, अभय कुमारस्स अंतियाओ पडिणिक्खमंति पडिणिक्खमित्ता जेणेव सूणा तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता अल्लं मंसं रुहिरं वत्थिपुडगं च गिव्हंति गिव्हित्ता जेणेव अभए कुमारे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता करयल० तं अल्लं ii हिरं बत्थिysi च उवणेंति ।। २५ ।। भावार्थ - वे गुप्त पुरुष अभयकुमार के इस प्रकार कहे जाने पर हर्षित एवं संतुष्ट हुए यावत् विनय से उनके वचन को स्वीकार कर वहाँ से निकले और निकल कर जहाँ वधस्थान था वहाँ पहुँचे और वहां से गीला मांस, रक्त एवं वस्तिपुटक को ग्रहण किया। ग्रहण करके जहाँ अभ वहाँ आये। आकर दोनों हाथों को जोड़ कर यावत् उस वस्तिपुटक को देते हैं। अभ कुमतं अल्लं मंसं रुहिरं कप्पणी (अप्प) कप्पियं करेइ करेत्ता जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सेणियं रायं रहस्तिगयं सयणिज्जुंसि उत्ताणयं णिवज्जावेइ णिवज्जावेत्ता सेणियस्स उयरवलीसु तं अल्लं मंसं हिरं विरds विरवेत्ता बत्थिपुडएणं वेढेइ वेढेत्ता सवंतीकरणेणं करेइ करेत्ता चेल्लणं देविं उप्पिं पासाए अवलोयणवरगयं ठवावेइ ठवावेत्ता चेल्लणाए देवीए अहे सपक्खं सडिदिसिं सेणियं रायं सयणिज्जंसि उत्ताणगं णिवज्जावेइ, सेणियस्स रण्णो उयरवलिमसाई कप्प (णि) णीकप्पियाई करेइ करेत्ता से य भायणंसि पक्खिवइ । २५ For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' निरयावलिका सूत्र तए णं से सेणिए राया अलियमुच्छियं करेइ करेत्ता मुहत्तंतरेणं अण्णमण्णेण सद्धिं संलवमाणे चिट्ठइ। तए णं से अभयकुमारे सेणियस्स रण्णो उयरवलिमसाई गिण्हेइ गिण्हेत्ता जेणेव चेल्लणा देवी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता चेल्लणाए देवीए उवणेइ। तए णं सा चेल्लणा देवी सेणियस्स रण्णो तेहिं उयरवलिमसेहिं सोल्लेहिं जाव : दोहलं विणेइ। तए णं सा चेल्लणा देवी संपुण्णदोहला एवं संमाणियदोहला विच्छिण्णदोहला तं गब्भं सुहंसुहेणं परिवहइ॥ २६॥ कठिन शब्दार्थ - कप्पणीकप्पियं - कैंची (छुरी) से काटना, उत्ताणयं - चित-ऊपर की ओर मुख करके, णिवजावेइ - लिटाया-सुलाया, संपुग्णदोहला - संपन्न दोहद, संमाणियदोहला - सम्मानित दोहद, विच्छिण्णदोहला - निवृत्त दोहद, परिवहइ - वहन करती है। भावार्थ - तत्पश्चात् अभयकुमार ने उस रक्त और मांस में से थोड़ा भाग कैंची से काटा और काट कर जहाँ श्रेणिक राजा था वहाँ आया। श्रेणिक राजा को एकान्त में शय्या पर ऊपर की ओर मुख करके लिटा दिया। लिटा कर श्रेणिक राजा की उदरावली पर उसी गीले रक्त मांस को फैला दिया और वस्तिपुटक को लपेट दिया। फिर महारानी चेलना को महल के ऊपर भाग में ऐसे स्थान पर बिठाया जहाँ से वह इस दृश्य को देख सके। चेलना देवी को बिठा कर ठीक नीचे सामने की ओर श्रेणिक राजा को शय्या पर चित लिटा दिया और लिटा कर कैंची से श्रेणिक राजा की उदरावली का मांस काट काट कर एक पात्रं (बर्तन) में रखा। तब श्रेणिक राजा कुछ देर तक बनावटी (झूठमूठ) मूविस्था में पड़ा रहा और उसके कुछ समय बाद अपने साथियों से बातचीत करने लगा। ___ तत्पश्चात् अभयकुमार ने श्रेणिक राजा के उस उदरावली के मांस को लिया, लेकर जहाँ चेलना देवी थी वहाँ आया और आकर चेलना देवी को दे दिया। तब चेलना देवी ने श्रेणिक राजा के उस उदरमांस को पका कर यावत् अपने दोहद को पूर्ण किया। ___ तत्पश्चात् वह चेलना देवी अपने दोहद के संपूर्ण होने, सम्मानित होने, संपन्न (निवृत्त) होने पर उस गर्भ का सुख-पूर्वक वहन करने लगी। - विवचन-- अभयकुमार बड़े विनीत और मातृपितृ भक्त थे। अभयकुमार ने अपने बुद्धिबल से चेलना महारानी का दोहद पूर्ण किया। दोहद की यथेच्छ पूर्ति हो जाने पर चेलना देवी अपने गर्भ का यथाविधि बड़े आनंद और उल्लास के साथ पालन पोषण करने लगी। For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग १ अध्ययन १ चेलना देवी का संकल्प चेलना देवी का संकल्प तं णं तीसे चेल्लणाए देवीए अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था - जइ ताव इमेणं दारएणं गब्भगएणं चेव पिउणो उयरवलिमंसाणि खाइयाणि, तं सेयं खलु मए एयं गब्भं साडित्तए वा पाडित्तए वा गालित्तए वा विद्धंसित्तए वा, एवं संपेहेइ संपेहित्ता तं गन्धं बहूहिं गब्भसाडणेहि य गब्भपाडणेहि य गब्भगालणेहि य गन्भविद्धंसणेहि य इच्छइ तं गब्भं साडित्तए वा पात्तिए वा गात्तिए वा विद्धंसित्तए वा, णो चेव णं से गब्भे सडइ वा पडइ वा गलइ वा विद्धंसइ वा। तए णं सा चेल्लणा देवी तं गब्भं जाहे णो संचाएइ बहूहिं गब्भसडणेहि य जाव गन्भविद्धंसणेहि य साडित्तए वा जाव विद्धंसित्तए वा ताहे संता तंता परितंता णिव्विण्णा समाणी अकामिया अवसवसा अट्टवसट्टदुहट्टा तं गब्भं परिवहइ ॥२७॥ कंठिन शब्दार्थ - साडित्तए - सातना - खण्ड-खण्ड करके नष्ट कर देना, पाडित्तए - पातनाअखण्ड रूप से गिरा देना, गालित्तए - गला देना, विद्धंसित्तए - विध्वस्त कर देना, संता - श्रान्त, तंता - क्लांत, परितंता - खिन्न, णिव्विण्णा - उदास, अकामिया - अनिच्छा से, अवसवसा - विवशता से, अट्टवसट्टदुहट्टा - दुस्सह आर्त्तध्यान से ग्रस्त होकर । - भावार्थ - तदनन्तर किसी काल में मध्यरात्रि के समय चेलना देवी के हृदय में यह संकल्पविचार उत्पन्न हुआ कि - ‘इस बालक ने गर्भ में आते ही अपने पिता के कलेजे का मांस खाया है, अतः इस गर्भ को नष्ट कर देना, गिरा देना, गला देना एवं विध्वस्त कर देना ही मेरे लिए श्रेयकर होगा ।' ऐसा निश्चय करके चेलनादेवी ने बहुत सी गर्भ गिराने की चेष्टा करने वाली, गिराने वाली, गलाने वाली और विध्वस्त करने वाली औषधियों से उस गर्भ को नष्ट करना, गिराना, गलाना और विध्वस्त करना चाहा किन्तु वह गर्भ नष्ट नहीं हुआ, गिरा नहीं, गला नहीं और विध्वस्त नहीं हुआ । जब चेलना देवी उस गर्भ को पूर्वोक्त उपायों से नष्ट करने में समर्थ न हो सकी तो शरीर से श्रान्त, क्लान्त-मन से दुःखित तथा शरीर और मन से खिन्न होती हुई अनिच्छा से विवशता के कारण दुस्सह आर्त्तध्यान से ग्रस्त हो उस गर्भ का धारण करने लगी। २७ For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र विवेचन - महारानी चेलना को मध्य रात्रि के समय कुटुम्ब जागरणा करते समय विचार 1 आया कि जो पुत्र गर्भ में रह कर ही पिता के कलेजे का मांस खाने की चाह करता है, वह जन्म और बड़ा होने पर न जाने यह पिता का या कुल का क्या अनिष्ट करेगा ? इसी विचार से प्रेरित होकर उसने गर्भ को गिराने के अनेक प्रयत्न किये परन्तु वह इसमें सफल न हो पायी। पुत्र जन्म, उकरड़ी पर फिंकवाना २८ तए णं सा चेल्लणा देवी णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव सोमालं सुरूवं दारगं पयाया । तणं ती चेल्ला देवीए इमे एयारूवे जाव समुप्पज्जित्था - जइ ताव इमेणं दारएणं गब्भगएणं चेव पिउणो उयरवलिमंसाई खाइयाई, तं ण णज्जइ णं एस दारए संवमाणे अम्हं कुलस्स अंतकरे भविस्सइ, तं सेयं खलु अम्हं एयं दारगं एगंते उक्कुरुडियाए उज्झावित्तए, एवं संपेहेइ संपेहित्ता दासचेडिं सद्दावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी - गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिए ! एवं दारगं एगंते उक्कुरुडियाए उज्झाहि ॥ २८ ॥ कठिन शब्दार्थ - उक्कुरुडियाए - उकरड़ी - कूड़े कचरे का ढेर, उज्झाहि - फेंक दो । भावार्थ - तदनन्तर उस चेलना देवी ने मास पूर्ण होने पर यावत् एक सुकुमार सुंदर बालक को जन्म दिया। तत्पश्चात् चेलना देवी के मन में इस प्रकार संकल्प उत्पन्न हुआ कि - इस बालक ने गर्भ में आते ही पिता के उदर का मांस खाया है तो हो सकता है कि यह बालक संवर्द्धित-सवयस्क- समर्थ होने पर हमारे कुल का भी अंत करने वाला हो जाय ? अतएव इस बालक को किसी एकान्त उकरडीकूडे कचरे के ढेर में फैंक देना ही श्रेयस्कर होगा । ऐसा विचार कर उसने अपनी दासी को बुलाया और बुला कर कहा-“हे देवानुप्रिये! तुम जाओ और इस बालक को ले जाकर एकान्त में किसी कूड़े कचरे के ढेर पर फैंक आओ।" विवेचन - पति के स्नेह वश महारानी चेलना अपने मातृहृदय को भूल कर एवं भविष्य की घटनाओं से आतंकित होकर अपने बालक को भी कूड़े कचरे में फिंकवा देने का विचार करती है। तए णं सा दासचेडी चेल्लणाए देवीए एवं वृत्ता समाणी करयल० जाव कट्टु चेल्लणाए देवीए एयमट्टं विणएणं पडिसुणेइ पडिसुणेत्ता तं दारगं करयलपुडेणं गिण्ह For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग १ अध्ययन १ श्रेणिक द्वारा निर्भर्त्सना । २६ गिण्हेत्ता जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता तं दारगं एगंते उक्कुरुडियाए उज्झाइ। तए णं तेणं दारगेणं एगंते उक्कुरुडियाए उज्झिएणं समाणेणं सा असोगवणिया उज्जोविया यावि होत्या॥ २६॥ ____ भावार्थ - तत्पश्चात् उस दासी ने चेलना देवी की इस आज्ञा को सुन कर दोनों हाथ जोड़ कर यावत् चेलना देवी की इस आज्ञा को विनयपूर्वक स्वीकार किया। स्वीकार करके उस बालक को हथेलियों में लिया। लेकर वह अशोकवन में आती है और बालक को एकान्त में कूड़े कर्कट पर फैंक दिया। - उस बालक को एकान्त कूड़े करकट (उकरडी) पर फैंके जाने पर वह अशोकवन (वाटिका) प्रकाश युक्त हो गया। श्रेणिक द्वारा निर्भर्त्सना तए णं से सेणिए रायां इमीसे कहाए लद्धढे समाणे जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता तं दारगं एगते उक्कुरुडियाए उज्झियं पासेइ पासित्ता आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे तं दारगं करयलपुडेणं गिण्हइ गिण्हित्ता जेणेव चेल्लणा देवी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता चेल्लणं देविं उच्चावयाहिं आओसणाहिं आओसइ आओसित्ता उच्चावयाहिं णिन्भच्छणाहिं णिन्भच्छेइ एवं ऊद्धंसणाहिं उद्धंसेइ उद्धंसित्ता एवं वयासी-किस्स णं तुम मम पुत्तं एगते उक्कुरुडियाए उज्शावेसि? तिकट्ट चेल्लणं देविं उच्चावयसवहसावियं करेइ करेत्ता एवं वयासी-तुमं णं देवाणुप्पिए! एवं दारगं अणुपुवेणं सारक्खमाणी संगोवेमाणी संवट्लेहि ॥ ३०॥ कठिन शब्वार्थ - उच्चावयाहिं - ऊंचे नीचे शब्दों से, आओसणाहिं - आक्रोश पूर्वक, णिम्भच्छणाहिं - निर्भर्त्सना, उद्धंसणाहि - उद्धर्षणा। भावार्थ - तत्पश्चात् जब श्रेणिक राजा को इस बात का पता लगा तो वह अशोक वन में आया। आकर उस बालक को एकान्त में उकरडी पर पड़ा हुआ देख कर क्रोध के मारे लाल पीला होकर दांत पीसता हुआ उस बालक को अपनी हथेलियों में लिया, लेकर जहाँ चेलना देवी थी वहां आता है। आकर चेलना देवी को ऊँचे नीचे आक्रोश भरे शब्दों से निर्भर्त्सना की। आक्रोश से For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ... .. . निरयावलिका सूत्र ............................................... निर्भर्त्सना से और उर्द्धषणा से उसका अपमान करके इस प्रकार बोला-'तुमने मेरे इस पुत्र को एकान्त में उकरड़ी-कूडे करकट पर क्यों फिंकवा दिया?' इस प्रकार कह कर उसने ऊँचे-नीचे शब्दों से भला बुरा कहा और शपथ दिलवाते हुए बोला-'हे देवानुप्रिये! तुम इस बालक का अनुक्रम से संरक्षण करते हुए पालन पोषण करो।' तए णं सा चेल्लणा देवी सेणिएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणी लजिया विलिया, विड्डा करयलपरिग्गहियं० सेणियस्स रण्णो विणएणं एयमढे पडिसुणेइ पडिसुणेत्ता तं दारगं अणुपुव्वेणं सारक्खमाणी संगोवेमाणी संवड्डे ॥३१॥ भावार्थ - श्रेणिक राजा के इस प्रकार कहने से चेलना देवी ने लज्जित, प्रताड़ित और अपराधिनी-सी होकर दोनों हाथ जोड़ कर विनयपूर्वक श्रेणिक राजा के इस आदेश को स्वीकार किया और अनुक्रम से उस बालक की देखरेख, लालन पालन और संवर्धन करने लगी। पुत्र का रुदन, श्वेणिक का अंगुली चूसना तए णं तस्स दारगस्स एगंते उक्कुरुडियाए उझिजमाणस्स अग्गंगुलिया कुक्कुडपिच्छएणं दूमिया यावि होत्था, अभिक्खणं अभिक्खणं पूयं च सोणियं च अभिणिस्सवइ। तए णं से दारए वेयणाभिभूए समाणे महया महया सद्देणं आरसइ। तए णं सेणिए राया तस्स दारगस्स आरसियसई सोच्चा णिसम्म जेणेव से दारए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता तं दारगं करयलपुडेणं गिण्हइ गिण्हित्ता तं अग्गंगुलियं आसयंसि पक्खिवइ पक्खिवित्ता पूयं च सोणियं च आसएणं आमुसइ। तए णं से दारए णिव्वुए णिव्वेयणे तुसिणीए संचिट्ठइ। जाहे वि य णं से दारए वेयणाए अभिभूए समाणे महया महया सद्देणं आरसइ ताहे वि य णं सेणिए राया जेणेव से दारए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता तं दारगं करयलपुडेणं गिण्हइ तं चेव जाव णिव्वेयणे तुसिणीए संचिट्ठइ॥ ३२॥ कठिन शब्दार्थ - अग्गंगुलिया - अंगुली का अग्रभाग, कुक्कुडपिच्छएणं - मुर्गे की चोंच से, वेयणाभिभूए - वेदना से अभिभूत, आरसियसदं - रोने के शब्द (आवाज) को, आमूसइ - चूसता है। भावार्थ - तदनन्तर उस बालक को एकान्त उकरडे (कूडे करकट के ढेर) पर फैंकने के कारण उसकी अंगुली का अग्रभाग मुर्गे की चोंच से क्षतिग्रस्त हो गया (छिल गया) जिसके कारण उसकी For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग १ अध्ययन १ पुत्र का कोणिक' नामकरण ३१ अंगुली पक गयी और उसमें से बारबार पीव और खून बहता रहता था फलस्वरूप वह बालक वेदना से अभिभूत हो रोता चिल्लाता था। उस बालक के रोने की आवाज सुन कर श्रेणिक राजा बालक के पास आता है, उसे हथेलियों में ग्रहण करता है और उसकी अंगुली को मुख में लेकर उस पीव और खून को मुख से चूस कर थूक देता है। ऐसा करने से उस बालक को शांति का अनुभव होता है और वह रोते हुए चुप-शांत हो जाता है। इस प्रकार जब जब भी वह बालक वेदना के कारण रोता चिल्लाता, तब तब राजा श्रेणिक उस बालक के पास आता, उसे गोदी में लेता और उसी प्रकार उसके पीप और खून को मुंह से चूस कर थूक देता यावत् वेदना शांत हो जाने से वह चुप हो जाता था। पुत्र का 'कोणिक' नामकरण तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो तइए दिवसे चंदसूरदरिसणियं करेंति जाव संपत्ते बारसाहे दिवसे अयमेयारूवं गुणणिप्फणं णामधेनं करेंति-जम्हा णं अम्हं इमस्स दारगस्स एगंते उक्कुरुडियाए उझिजमाणस्स अंगुलिया कुक्कुडपिच्छएणं दूमिया तं होउ णं अम्हं इमस्स दारगस्स णामधेनं कूणिए-कूणिए। तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो णामधेनं करेंति 'कूणिय' ति। तए णं तस्स कुणियस्स आणुपुव्वेणं ठिइवडियं च जहा मेहस्स जाव उपिं पासायवरगए विहरइ, अट्ठओ दाओ॥३३॥ ___ कठिन शब्दार्थ - चंदसूरदरिसणियं - चन्द्रसूर्य दर्शन, गुणणिप्फणं - गुण निष्पन्न, अट्ठओ - आठ-आठ, दाओ - प्रीति दान। भावार्थ - तत्पश्चात् माता-पिता ने तीसरे दिन बालक को चन्द्र सूर्य का दर्शन कराया यावत् बारहवें दिन इस प्रकार गुण निष्पन्न नामकरण किया-इस बालक को एकान्त उकरडे पर फैंके जाने से इसकी अंगुली का अग्रभाग कुक्कुट (मुर्गे) की चोंच से क्षतिग्रस्त हो गया (छिल गया) था। इस कारण इस बालक का नाम 'कोणिक' (कूणिक) हो। इस प्रकार कह कर उस बालक के माता-पिता ने उसका नाम 'कोणिक' (कूणिक) रखा। तदनन्तर उस बालक का जन्मोत्सव आदि मनाया गया यावत् बड़ा होकर वह मेघकुमार के समान सुख पूर्वक समय व्यतीत करने लगा। आठ कन्याओं के साथ पाणिग्रहण हुआ यावत् आठ-आठ वस्तुएं प्रीतिदान (दहेज) में मिली। विचेचन - प्रस्तुत सूत्र में वर्णित राजकुमार कोणिक का जन्म महोत्सव, पांच धात्रियों द्वारा For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . निरयावलिका सूत्र ........................................................... उसका पालन पोषण, उसके द्वारा ७२ कलाओं का सीखना, युवावस्था की प्राप्ति, राजकुमारियों के साथ विवाह, प्रासादों का निर्माण और कामभोगों का उपभोग आदि सारा वर्णन ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र के प्रथम मेघकुमार अध्ययन के समान समझ लेना चाहिए। कोणिक का विचार तए णं तस्स कूणियस्स कुमारस्स अण्णया० पुव्वरत्ता० जाव समुप्पजित्था एवं खलु अहं सेणियस्स रण्णो वाघाएणं णो संचाएमि सयमेव रज्जसिरिं करेमाणे पालेमाणे विहरित्तए, तं सेयं खलु मम सेणियं रायं णियलबंधणं करेत्ता अप्पाणं महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचावित्तएत्तिकट्ट एवं संपेहेइ संपेहेत्ता सेणियस्स रणो अंतराणि य छिडाणि य विरहाणि य पडिजागरमाणे पडिजागरमाणे विहरइ॥३४॥ ___कठिन शब्दार्थ - वाघाएणं - व्याघात से, रज्जसिरिं - राज्यश्री को, णियलबंधणं- बेडी (कैद खाने) में डालना, अंतराणि- अन्तर-अवसर (मौका), छिड्डाणि - छिद्र, विरहाणि - विरह (एकान्त)। ___भावार्थ - तत्पश्चात् उस कोणिक कुमार को किसी समय मध्यरात्रि में यावत् ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि मैं श्रेणिक राजा के व्याघात (विघ्न) के कारण स्वयं राज्यश्री का उपभोग नहीं कर सकता हूँ अतएव श्रेणिक राजा को कैदखाने में डाल कर (बेडी में डालकर) अपना महान् राज्याभिषेक कर लेना ही मेरे लिए श्रेयस्कर होगा। उसने ऐसा संकल्प किया और संकल्प करके श्रेणिक राजा को कैद करने के अन्तर-अवसर, छिद्र (दोष) और विरह (एकान्त) की गवेषणा करता हुआ समययापन करने लगा। कालादि कुमारों को बुलावा । तए णं से कूणिए कुमारे सेणियस्स रण्णो अंतरं वा जाव मम्मं वा अलभमाणे अण्णया कयाइ कालाईए वस कुमारे णियघरे सद्दावेइ सद्दावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हे सेणियस्स रण्णो वाघाएणं णो संचाएमो सयमेव रजसिरिं करेमाणा पालेमाणा विहरित्तए, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं सेणियं रायं णियलबंधणं करेत्ता रवं च रटुं च बलं च वाहणं च कोसं च कोट्ठागारं च जणवयं For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग १ अध्ययन १ कोणिक का माता के पादवंदनार्थ जाना ३३ च एक्कारसभाए विरिचित्ता सयमेव रज्जसिरिं करेमाणाणं पालेमाणाणं जाव विहरित्तए॥३५॥ भावार्थ - तदनन्तर कोणिककुमार श्रेणिक राजा के अंतर यावत् मर्म को नहीं जान सकने के कारण किसी समय काल आदि दस राजकुमारों को अपने घर बुलाता है, बुला कर इस प्रकार कहता है - हे देवानुप्रियो! श्रेणिक राजा के व्याघात के कारण हम स्वयं राज्यश्री का उपभोग नहीं कर सकते हैं अतः हे देवानुप्रियो! हमारे लिए यही श्रेयस्कर है कि हम श्रेणिक राजा को बंधनों (बेड़ी-कैद खाने) में डाल कर राज्य, राष्ट्र, सैन्य (बल) वाहन, कोष, कोठार (धान्य भण्डार) और जनपद (देश) को ग्यारह भागों में बांट कर हम स्वयं राज्यश्री का उपभोग करें और राज्य का पालन करें। . कोणिक राजा बना तए णं ते कालाईया दस कुमारा कूणियस्स कुमारस्स एयमढे विणएणं 'पडिसुणंति। तए णं से कूणिए कुमारे अण्णया कयाइ सेणियस्स रण्णो अंतरं जाणइ जाणेत्ता सेणियं रायं णियलबंधणं करेइ करेत्ता अप्पाणं महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचावेइ। तए णं से कूणिए कुमारे राया जाए महया०॥३६॥ ... भावार्थ - उन काल कुमार आदि दसों भाइयों ने कोणिक के इस कथन को सुन कर विनय पूर्वक स्वीकार किया। तत्पश्चात् कोणिककुमार किसी समय श्रेणिक राजा के अन्तर (अंदरुनी रहस्य) को जानता है जान कर श्रेणिक राजा को बेड़ी से बांधता है बांधकर बड़े समारोह के साथ . अपना राज्याभिषेक करवाता है जिससे कोणिक स्वयं राजा बन गया। . विवेचन - "लोहो सब्ब विणासणो" लोभ सभी सद्गुणों का नाशक है, इसलिए लोभ पाप का बाप कहा जाता है। राज्य शासन का प्रलोभी कोणिक अपने उपकारी पिता श्रेणिक महाराजा को कैद में डाल कर स्वयं राजा बन जाता है। काल आदि कुमार कोणिक की बातों में आ गये और वे भी कोणिक के षड्यंत्र में सम्मिलित हो गए। कोणिक का माता के पादवंदनार्थ जाना तए णं से कूणिए राया अण्णया कयाइ हाए जाव सव्वालंकारविभूसिए चेल्लणाए वेवीए पायवंदए हव्वमागच्छइ। तए णं से कूणिए राया चेल्लणं देविं ओहय० जाव मियायमाणिं पासइ पासित्ता चेल्लणाए देवीए पायग्गहणं करेइ For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र ................................................... करेत्ता चेल्लणं देविं एवं वयासी-किं णं अम्मो! तुम्हं ण तुट्ठी वा ण ऊसए वा ण हरिसे वा ण आणंदे वा, जं णं अहं सयमेव रजसिरिं जाव विहरामि? ॥३७॥ ___ भावार्थ - तत्पश्चात् कोणिक राजा अन्यदा-किसी समय स्नान करके यावत् सभी अलंकारों से विभूषित होकर चेलना देवी के चरणों में वंदना करने के लिए पहुंचता है। तब वह चेलना देवी को मन के संकल्प से आहत यावत् आर्तध्यान करती हुई देखता है। देखकर चेलना देवी के चरणों में वंदना करता है। वंदना करके चेलना देवी को इस प्रकार कहता है - हे माता! ऐसा क्या कारण है कि तुम्हारे चित्त में संतोष, उत्साह, हर्ष और आनंद नहीं है जब कि मैं स्वयं राज्य श्री का उपभोग करते हुए यावत् समय व्यतीत कर रहा हूँ। अर्थात् मेरा राजा होना क्या आपको अच्छा नहीं लग रहा है? कोणिक-चेलना संवाद तए णं सा चेल्लणा देवी कूणियं रायं एवं वयासी-कहं णं पुत्ता! ममं तुट्ठी वा ऊसए वा हरिसे वा आणंदे वा भविस्सइ जंणं तुमं सेणियं रायं पियं देवयं गुरुजणगं अञ्चतंणेहाणुरागरत्तं णियलबंधणं करित्ता अप्पाणं महया-महया रायाभिसेएणं अभिसिंचावेसि?॥३८॥ भावार्थ - तब चेलना देवी ने कोणिक राजा से इस प्रकार कहा - हे पुत्र! मेरे चिंत्त में संतोष, उत्साह, हर्ष अथवा आनंद कैसे हो सकता है? जबकि तुमने अपने देव रूप, गुरु तुल्य अत्यंत स्नेहानुराग युक्त पिता श्रेणिक राजा को बंधन में डाल कर अपना महान् राज्याभिषेक से अभिषेक कराया है। __तए णं से कूणिए राया चेल्लणं देविं एवं वयासी-घाएउकामे णं अम्मो! मम सेणिए राया, एवं मारेउ० बंधिउ० णिच्छुभिउकामे णं अम्मो! ममं सेणिए राया, तं कहं णं अम्मो! ममं सेणिए राया अञ्चतंणेहाणुरागरत्ते? ॥३६॥ ___ भावार्थ - यह सुनकर राजा कोणिक चेलना देवी से इस प्रकार कहने लगा-हे माता! यह श्रेणिक राजा तो मेरी घात चाहने वाला है एवं मेरा मरण और बंधन चाहने वाला है तथा मेरे को दुःख देने वाला है वह मुझ पर अत्यन्त स्नेह और अनुराग से अनुरक्त कैसे हो सकता है? __तए णं सा चेल्लणा देवी कूणियं कुमारं एवं वयासी-एवं खलु पुत्ता! तुमंसि ममं गब्भे आभूए समाणे तिहं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं ममं अयमेयारूवे दोहले For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____ वर्ग १ अध्ययन १ श्रेणिक की मृत्यु '........................................................... पाउन्भूए-धण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव अंगपडिचारियाओ णिरवसेसं भाणियव्वं जाव जाहे वि य णं तुमं वेयणाए अभिभूए महया जाव तुसिणीए संचिट्ठसि, एवं खलु तव पुत्ता! सेणिए राया अचंतणेहाणुरागरत्ते॥ ४०॥ __ भावार्थ - तदनन्तर चेलना देवी ने कोणिक से इस प्रकार कहा-हे पुत्र! जब तू मेरे गर्भ में आया था और तीन महीने पूरे हुए थे तब मुझे इस प्रकार का दोहद उत्पन्न हुआ कि - वे माताएं धन्य हैं यावत् दासियों से मैंने तुम्हें उकरड़े पर फिकवा दिया आदि यावत् जब भी तुम वेदना से पीड़ित होते और रोते चिल्लाते तब श्रेणिक राजा तुम्हारी अंगुली मुख में लेते और पीव रक्त चूसते तब तुम्हारा रोना बंद होता, तुम चुप-शांत हो जाते। इस कारण मैंने कहा कि हे पुत्र! श्रेणिक राजा तुम्हारे प्रति अत्यंत स्नेहानुराग से युक्त हैं। ____तएणं से कूणिए राया चेल्लणाए देवीए अंतिए अयमटं सोचा णिसम्म चेल्लणं देविं एवं वयासी-दुट्ठ णं अम्मो! मए कयं सेणियं रायं पियं देवयं गुरुजणगं अञ्चंतणेहाणुरागरत्तं णियलबंधणं करतेणं, तंगच्छामिणं सेणियस्सरण्णो सयमेव णियलाणि छिंदामि त्तिकद्र परसुहत्थगए जेणेव चारगसाला तेणेव पहारेत्य गमणाए॥४१॥ - कठिन शब्दार्थ - दुट्ठ - दुष्ट (बुरा), परसुहत्थगए - परशु (कुल्हाड़ी) हाथ में ले, चारगसालाकैदखाना। भावार्थ - कोणिक राजा चेलना देवी के मुख से सारा वृत्तान्त सुन कर हृदय में धारण कर चेलना देवी से इस प्रकार बोला- 'हे माता! देव समान, गुरुजन समान और अत्यंत अनुराग रखने वाले ऐसे पिता श्रेणिक राजा को कैदखाने में डाल कर मैंने अत्यंत दुष्ट कार्य किया है। अतः मैं अभी जाता हूँ और स्वयं अपने हाथों से राजा श्रेणिक की बेड़ी को काटता हूँ। इस प्रकार कह कर अपने हाथ में परशु (कुठार-कुल्हाड़ी) लिया और शीघ्रता से कैदखाने की ओर चला। श्वेणिक की मृत्यु · तए णं सेणिए राया कूणियं कुमारं परसुहत्थगयं एजमाणं पासइ पासित्ता एवं वयासी-एस णं कूणिए कुमारे अपत्थियपत्थिए जाव हिरिसिरिपरिवजिए परसुहत्थगए इह हव्वमागच्छइ, तं ण णज्जइ णं ममं केणइ कुमारेणं मारिस्सइ तिकट्ट भीए जाव संजायभए तालपुडगं विसं आसगंसि पक्खिवइ। For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ । निरयावलिका सूत्र .......................................................... तए णं से सेणिए राया तालपुडगविसंसि आसगंसि पक्खित्ते समाणे मुहुत्तंतरेणं परिणममाणंसि णिप्पाणे णिच्चे? जीवविप्पजढे ओइण्णे॥४२॥ कठिन शब्दार्थ - अपत्थिय पत्थिए - अप्रार्थित पार्थिक, हिरिसिरिपरिवजिए - लज्जा, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी से परिवर्जित, तालपुडगं विसं - ताल पुटक नामक विष को, आसगंसि - मुख में, णिप्पाणे - निष्प्राण, णिच्चिद्वे - निष्चेष्ट-चेष्टा रहित, जीवविप्पजढे - जीव रहित। भावार्थ - राजा श्रेणिक ने हाथ में परशु (कुल्हाड़ी) लिये कोणिककुमार को अपनी ओर आते देखा तो मन ही मन में विचार किया-यह कोणिककुमार अप्रार्थित-मौत की प्रार्थना (इच्छा) करने वाला यावत् लज्जा, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी से परिवर्जित हाथ में कुल्हाड़ी लेकर मेरी ओर शीघ्रता . ' से आ रहा है। न जाने यह मुझे किस मौत से मारे? इस विचार से भयभीत हो राजा श्रेणिक ने तालपुट नामक विष अपने मुख में डाल दिया। तदनन्तर श्रेणिक राजा के तालपुट विष को मुंह में डालते ही एक मुहूर्त में वह विष सारे शरीर में व्याप्त हो गया। परिणाम स्वरूप राजा निष्प्राण - प्राण रहित, निष्चेष्ट-चेष्टा रहित और निर्जीव जीव रहित हो गिर पड़ा। कोणिक का शोक और चंपागमन , तए णं से कूणिए कुमारे जेणेव चारगसाला तेणेव उवागए, सेणियं रायं णिप्पाणं णिच्चेद्वं जीवविष्पजढं ओइण्णं पासइ पासित्ता महया पिइसोएणं अप्फुण्णे समाणे परसुणियत्ते विव चम्पगवरपायवे धसत्ति धरणीयलंसि सव्वंगेहिं संणिवडिए। तए णं से कूणिए कुमारे मुहत्तंतरेणं आसत्ये समाणे रोयमाणे कंदमाणे सोयमाणे विलवमाणे एवं वयासी-अहो णं मए अधण्णेणं अपुण्णेणं अकयपुण्णेणं दुट्ठकयं सेणियं रायं पियं देवयं अचंतणेहाणुरागरत्तं णियलबंधणं करतेणं, मममूलार्ग चेव णं सेणिए राया कालगएत्तिकट्ट राईसरतलवर जाव संधिवालसद्धिं संपरिवुडे रोयमाणे कंदमाणे सोयमाणे विलवमाणे महया इडीसक्कारसमुदएणं सेणियस्स रण्णो णीहरणं करेइ करेत्ता बहूई लोइयाई मयकिच्चाई करेइ। ___तए णं से कूणिए कुमारे एएणं महया मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूए समाणे अण्णया कयाइ अंतेउरपरियालसंपरिवुडे सभण्डमत्तोवगरणमायाए रायगिहाओ For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग १ अध्ययन १ कोणिक का शोक और चंपागमन ३७ .......................................................... पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता जेणेव चंपाणयरी तेणेव उवागच्छइ, तत्थवि णं विउलभोगसमिइसमण्णागए कालेणं अप्पसोए जाए यावि होत्या॥४३॥ ___कठिन शब्दार्थ - पिइसाएणं - पितृ शोक से, आसत्थे - आश्वस्त-मूर्छा रहित, रोयमाणे - रोते हुए, कंदमाणे - आक्रंदन करते हुए, सोयमाणे - शोक करते हुए, विलवमाणे - विलाप करते हुए, अधण्णेणं - अधन्य, अपुण्णेणं - अपुण्य, अकयपुण्णे - अकृतपुण्य, इड्डीसक्कारसमुदएणं - ऋद्धि, सत्कार एवं अभ्युदय से, णीहरणं - नीहरण-दाह संस्कार, मयकिच्चाई - मृत क्रियाएं। भावार्थ - तत्पश्चात् कोणिकराजा जहाँ कैदखाना (कारावास) था वहाँ आता है आकर श्रेणिक राजा को निष्प्राण, निश्चेष्ट और निर्जीव देखता है देख कर पिता के मरणजन्य असहनीय कष्ट से आक्रान्त हो तीक्ष्ण कुठार से काटे हुए चम्पक वृक्ष की तरह धडाम से भूमि पर गिर पड़ता है। . कुछ समय पश्चात् कोणिककुमार आश्वस्त-मूर्छा रहित होने के बाद रोता हुआ, करुणाजनक शब्द से आर्तनाद करता हुआ शोक करता हुआ, विलाप करता हुआ इस प्रकार बोला- "मैं अधन्य हूँ, पुण्यहीन हूँ, पापी हूँ, मैंने बुरा कार्य किया है जो देवगुरुजन के समान परम उपकारी और स्नेह अनुराग से अनुरक्त अपने पिता राजा श्रेणिक को बंधन में डाला। मेरे कारण ही इनकी मृत्यु हुई है।" ऐसा कह कर ऐश्वर्यशाली पुरुषों तलवर यावत् संधिपालों के साथ रुदन, आक्रन्दन, शोक और विलाप करते हुए महान् ऋद्धि, सत्कार और अभ्युदय के साथ श्रेणिक राजा का नीहरण-दाहसंस्कार करता है और अनेक लौकिक मृत क्रियाएं करता है। तत्पश्चात् कोणिककुमार इस महान् मानसिक दुःखों से दुःखी होने के कारण किसी समय अन्तःपुर परिवार भण्डोपकरण वस्त्र पात्रादि के साथ राजगृह से निकला। निकल कर जहाँ चंपा नगरी थी वहाँ आया। वहाँ विपुल भोगों को भोगते हुए कुछ समय बाद शोक से रहित हो गया। - विवेचन - पूर्व भव कृत निदान के फलस्वरूप कोणिक के मन में अपने देव गुरु के समान पूजनीय पिता के प्रति कुत्सित भावना उत्पन्न हुई। जब माता के मुख से पिता के स्नेहभाव व उपकार को सुना तो कोणिक को अपने किये हुए कृत्य का बड़ा पश्चात्ताप हुआ। वह कुल्हाड़ा लेकर अपने पिता की बेड़ियाँ तोड़ने चला। श्रेणिक ने कोणिक को कुल्हाड़ा लेकर आते हुए देखा तो समझा कि इस दुष्ट ने अब तक मुझे नाना प्रकार से कष्ट दिये हैं, अब न जाने क्या कष्ट देने यह आ रहा है ? इस विचार से श्रेणिक ने तालपुट विष खा कर आत्महत्या कर ली। जब कोणिक पिता के पास पहुँचा तो उसे पिता का निर्जीव For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र ......................................................... शरीर मिला। इससे कोणिक बहुत दुःखी हुआ। पिता के निधन पर कोणिक सपरिवार चंपानगरी में चला गया। चंपा को अपनी राजधानी बना कर कोणिक राज्य का संचालन करने लगा। ___तए णं से कूणिए राया अण्णया कयाइ कालाईए दस कुमारे सद्दावेइ सद्दावित्ता रज्जं च जाव जणवयं च एक्कारसभाए विरिंचइ विरिचित्ता सयमेव रज्जसिरिं करेमाणे पालेमाणे विहरइ॥४४॥ भावार्थ - तत्पश्चात् कोणिक राजा किसी समय काल आदि दसों कुमारों को बुलाता है बुला कर राज्य यावत् जनपद के ग्यारह विभाग किये और उनको कालादिकुमारों में बांट दिये तथा कोणिक स्वयं अपने हिस्से में आए हुए राज्य पर सुख पूर्वक प्रजा पालन करते हुए राज्य करने लगा। वेहल्लकुमार की क्रीड़ा तत्थ णं चंपाए णयरीए सेणियस्स रण्णो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए कूणियस्स रण्णो सहोयरे कणीयसे भाया वेहल्ले णामं कुमारे होत्था, सोमाले जाव सुरूवे। तए णं तस्स वेहल्लस्स कुमारस्स सेणिएणं रण्णा जीवंतएणं चेव सेयणए गंधहत्थी अट्ठारसवंके य हारे पुव्वदिण्णे। तए णं से वेहल्ले कुमारे सेयणएणं गंधहत्थिणा अंतेउरपरियालसंपरिवुडे चंपं णयरिं मझमज्झेणं णिग्गच्छइ णिग्गच्छित्ता अभिक्खणं अभिक्खणं गंगं महाणई मज्जणयं ओयरइ। तए.णं सेयणए गंधहत्थी देवीओ सोण्डाए गिण्हइ गिण्हित्ता अप्पेगइयाओ पुढे ठवेइ, अप्पेगइयाओ खंधे ठवेइ, एवं कुंभे ठवेइ, सीसे ठवेइ, दंतमुसले ठवेइ, अप्पेगइयाओ सोंडाए गहाय उठं वेहासं उव्विहइ, अप्पेगइयाओ सोण्डागयाओ अंदोलावेइ, अप्पेगइयाओ दंतंतरेसु णीणेइ, अप्पेगइयाओ सीभरेणं ण्हाणेइ, अप्पेगइयाओ अणेगेहिं कीलावणेहिं कीलावेइ। तए णं चंपाए णयरी सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-महापहपहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ जाव परूवेइ-एवं खलु देवाणुप्पिया! वेहल्ले कुमारे सेयणएणं गंधहत्थिणा अंतेउर० तं चेव जाव अणेगेहिं कीलावणएहिं कीलावेइ, तं एस णं वेहल्ले कुमारे रज्जसिरिफलं पञ्चणुभवमाणे विहरइ, णो कूणिए राया॥४५॥ For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग १ अध्ययन १ पद्मावती का विचार कठिन शब्दार्थ - सहोयरे - सहोदर, कणियसे कनिष्ठ, जीवंतएणं - जीवित रहते, अट्ठारसवंके - अठारह लड़ी का, अंतेउरपरियालसंपरिवुडे - अन्तःपुर परिवार के साथ, सोण्डाए - सूंड में, पुट्ठे - पीठ पर, खंधे - कंधे पर, कुंभे - कुम्भ-गंडस्थल पर, अंदोलावेइ - झुलाता है, सिंघाडग - श्रृंगाटक- सिंघाड़े की आकृति के मार्ग, तिग- त्रिक- जहाँ तीन रास्ते मिलें, चउक्क चतुष्क (चौक), चच्चर - चत्वर, चबूतरा, महापहपहेसु - ( राजमार्ग पर ) महापथों, पथों पर, कीलावणएहिं - क्रीड़ाओं से, पच्चणुब्भवमाणे- अनुभव करता हुआ । भावार्थ - उस चम्पानगरी में श्रेणिक राजा का पुत्र, चेलना देवी का आत्मज कोणिक राजा का सहोदर छोटाभाई वेहल्ल (वैहल्य) नामक कुमार था। वह सुकुमार यावत् सुरूप था । उस वेहल्लकुमार को राजा श्रेणिक ने अपनी जीवितावस्था में ही सेचनक नामक गंधहस्ती और अठारह लड़ी वाला हार दिया था । वह वेहल्लकुमार से सेचनक गंधहस्ती पर आरूढ होकर अपने अंतःपुर परिवार के साथ चंपानगरी के बीचोंबीच (मध्य से) होकर निकलता और निकल कर गंगा नदी में बारबार स्नान करने के लिए उतरता था। तत्पश्चात् वह सेचनक गंधहस्ती वेहल्लकुमार की रानियों को अपनी सूंड से पकड़ता पकड़ किसी को पीठ पर बिठलाता, किसी को कंधे पर बिठाता, किसी को कुंभस्थल पर रखता, किसी को मस्तक पर बैठाता, किसी को दंत मूसलों पर रखता, किसी को सूंड़ में लेकर झुलाता, किसी को दांतों के बीच लेता, किसी को सूंड में पानी भर कर उनकी फुहारों से स्नान कराता तो किसी को अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं से क्रीड़ित करता संतुष्ट करता था । तब चंपानगरी के श्रृंगाटकों, त्रिकों, चतुष्को, चत्वरों, महापथों और पथों में बहुत से लोग आपस में इस प्रकार कहते, बोलते यावत् प्ररूपित करते कि - हे देवानुप्रियो ! वेहल्लकुमार सेचनक गंधहस्ती के द्वारा अपने अन्तःपुर परिवार के साथ अनेक प्रकार की क्रीडा करता है। वास्तव में वेहल्लकुमार ही राज्य श्री का प्रत्यक्ष सुंदर फल अनुभव कर रहा है न कि राजा कोणिक। पद्मावती का विचार ३६ तणं तीसे पउमावईए देवीए इमीसे कहाए लद्धट्ठाए समाणीए अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था एवं खलु वेहल्ले कुमारे सेयणएणं गंधहत्थिणा जाव अणेगेहिं कीलावणएहिं कीलावेइ, तं एस णं वेहल्ले कुमारे रज्जसिरि फलं पञ्चणुभवमाणे For Personal & Private Use Only - Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० निरयावलिका सूत्र ........................................................... विहरइ, णो कूणिए राया, तं किं णं अम्हं रज्जेण वा जाव जणवएण वा जइ णं अम्हं सेयणगे गंधहत्थी पत्थि? तं सेयं खलु ममं कूणियं रायं एयमढें विण्णवित्तएत्तिकट्ट एवं संपेहेइ संपेहित्ता जेणेव कूणिए राया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता करयल० जाव एवं वयासी-एवं खलु सामी! वेहल्ले कुमारे सेयणएणं गंधहत्थिणा जाव अणेगेहिं कीलावणएहिं कीलावेइ, तं किं णं सामी! अम्हं रज्जेण वा जाव जणवएण वा जइ णं अम्हं सेयणए गंधहत्थी णत्थि।। ४६॥ __ भावार्थ - तदनन्तर पद्मावती देवी को इस प्रकार का वृत्तान्त सुन कर मन में ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि निश्चय ही वेहल्लकुमार सेचनक गंधहस्ती के द्वारा यावत् अनेक प्रकार की क्रीड़ाएं करता है इसलिए वही वास्तव में राज्यश्री का फलभोग रहा है, कोणिक राजा नहीं। अतः हमारे लिए यह राज्य यावत् जनपद किस काम का, यदि हमारे पास सेचनक गंधहस्ती न हो? अतः मेरे लिये यही श्रेयस्कर है कि मैं कोणिक राजा को इस विषय में निवेदन करूँ। ऐसा विचार कर जहाँ कोणिक राजा था वहाँ आती है आकर दोनों हाथ जोड़ कर यावत् इस प्रकार निवेदन किया"स्वामिन्! निश्चय ही वेहल्लकुमार सेचनक गंधहस्ती के साथ यावत् अनेक प्रकार की क्रीड़ाएं करता है। अतः हे स्वामिन्!यदि हमारे पास सेचनक गंधहस्ती नहीं है तो यह राज्य यावत् जनपद किस काम का?" . . विवेचन - वेहल्लकुमार का अपने अन्तःपुर के साथ राज्य के सर्वश्रेष्ठ रत्न सेचनक हाथी पर बैठ कर जलक्रीड़ा करने का वृत्तान्त जब रानी पद्मावती ने सुना तो उसका हृदय ईर्ष्याग्नि से दहव उठा। वह अपनी देवरानी के वैभव को, राजसी-ठाठ को सह नहीं सकी। उसने सोचा-“मैं मगध की साम्राज्ञी हूँ। मेरे पति कोणिक मगध के सम्राट है। राज्य की उत्तम से उत्तम वस्तु के उपभोग क अधिकार केवल राजा और रानी को ही है। साधारण राजकुमार को नहीं। सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ा हार राज्य की सबसे कीमती वस्तु है। यह वस्तु मेरे पास ही होनी चाहिए न वि वेहल्लकुमार के पास।" यह सोचकर महारानी पद्मावती अन्तःपुर से निकली और महाराजा कोणिव के पास जाकर विनयपूर्वक प्रार्थना की कि-"स्वामिन्! सेचनक गंधहस्ती और अठारह सरा हार राज्य की सबसे बहुमूल्य वस्तु है। ये दोनों रत्न राजा के पास ही होने चाहिये न कि एक सामान्य राजकुमार के पास। यदि आपके अधिकार में ये रत्न नहीं हैं तो आपका समस्त साम्राज्य उसके सामने तुच्छ है, निरर्थक है।" For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 9 अध्ययन १ चेटक की शरण में हर हाथी की मांग तए णं से कूणिए राया पउमावईए० एयमहं णो आढाइ णो परिजाणाइ, तुसिणीए संचिट्ठ । तए णं सा पउमावई देवी अभिक्खणं अभिक्खणं कूणियं रायं एयमहं विष्णवेइ। तए णं से कूणिए राया पउमावईए देवीए अभिक्खणं अभिक्खणं एयमट्टं विण्णविजमाणे अण्णया कयाइ वेहल्लं कुमारं सद्दावेइ सद्दावित्ता सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसवंकं च हारं जायइ ॥ ४७ ॥ भावार्थ- कोणिक राजा ने पद्मावती के इस कथन का आदर नहीं किया, उसे सुना नहींअनसुना कर दिया और मौन रहा । तत्पश्चात् पद्मावती ने बार-बार कोणिक राजा से यही विनती की। पद्मावती द्वारा बार-बार इसी बात को दुहराने पर कोणिक राजा ने किसी समय वेहल्लकुमार को बुलाया और बुला कर उससे सेचनक गंधहस्ती और अठारहलड़ी वाला हार मांगा। तणं से वेहल्ले कुमारे कूणियं रायं एवं वयासी एवं खलु सामी ! सेणिएणं रण्णा जीवंतेषं चैव सेयणए गंधहत्थी अट्ठारसवंके य हारे दिण्णे, तं जइ णं सामी ! तुम्भे ममं रजस्स य जाव जणवयस्स य अद्धं दलयह तो णं अहं तुब्भं सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसवंकं च हारं दलयामि । तए णं से कूणिए राया वेहल्लस्स कुमारस्स एयम णो आढाइ णो परिजाणाइ, अभिक्खणं अभिक्खणं सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसवंकं च हारं जाय ॥ ४८ ॥ भावार्थ - तब वेहल्लकुमार ने कोणिक राजा से इस प्रकार कहा - " हे स्वामिन्! श्रेणिक राजा ने अपने जीवनकाल में ही मुझे यह सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ी का हार दिया था । अतः हे स्वामिन्! यदि आप राज्य यावत् जनपद का आधा भाग मुझे दे दें तो मैं सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ी का हार दे दूँगा । " कोणिक राजा ने वेहल्लकुमार के इस कथन को स्वीकार नहीं किया, उस पर ध्यान नहीं दिया . और बारबार सेचनक गंधहस्ती एवं अठारह लड़ी हार की याचना की। चेटक की शरण में तए णं तस्स वेहल्लस्स कुमारस्स कूणिएणं रण्णा अभिक्खणं अभिक्खणं सेयणगं 0400 For Personal & Private Use Only ४१ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलका सूत्र गंधहत्थिं अट्ठारसवंकं च हारं.... एवं खलु अक्खिविउकामे णं गिहिउकामे णं उद्दाले कामे णं ममं कूणिए राया सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसवंकं च हारं, तं जाव ममं कूणि राया ताव सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसवंकं च हारं गहाय अंतेउरपरियालसंपरिवुडस्स सभण्डमत्तोवगरणमायाए चंपाओ णयरीओ पडिणिक्खमित्ता वेसालीए णयरीए अज्जगं चेडयं रायं उवसंपजित्ताणं विहरितए, एवं संपेहेइ संपेहित्ता कूणियस्स रण्णो अंतराणि जाव पडिजागरमाणे पडिजागरमाणे विहर। तसे वेहल्ले कुमारे अण्णया कयाइ कूणियस्स रण्णो अंतरं जाणइ जाणित्ता सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसवंकं च हारं गहाय अंतेउरपरियाल संपरिवुडे सभण्डमत्तोवगरणमायाए चंपाओ णयरीओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता जेणेव वेसाली णयरी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता वेसालीए णयरीए अज्जगं चेडयं रायं उवसंपजित्ताणं विहरइ ॥ ४६ ॥ कठिन शब्दार्थ - अक्खिविउकामे - छीन लेने की इच्छा करता है, गिहिउकामे - ग्रहण करने की इच्छा करता है, उद्दालेउकामे - झपटना चाहता है। भावार्थ - तत्पश्चात् वेहल्लकुमार के मन में यह विचार आया कि कोणिक राजा मुझ से बारबार सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ी हार की मांग कर रहा है अतः वह मुझ से उनको छीन लेने की इच्छा करता है, ग्रहण करने की इच्छा करता है, झपटना चाहता है अतः मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि जब तक कोणिक राजा मुझ से सेचनक गंधहस्ती और अठारह लडी वाला हार छीन न ले, ग्रहण न कर ले, मुझ से झपट न ले, उसके पहले ही गंधहस्ती एवं हार अंतःपुर परिवार के साथ सभी भण्डोपकरणों को ले कर चम्पानगरी से निकल कर, वैशाली नगरी के राजा नाना चेटक के पास जाकर रहूँ। ऐसा विचार करके वह कोणिक राजा के अंतर को यावत् उनकी अनुपस्थिति को देखता हुआ रहने लगा। ४२ तदनन्तर किसी दिन वेहल्लकुमार ने कोणिक राजा की अनुपस्थिति को जाना और सेचनक गंधहस्ती, अठारह लडी वाला हार तथा अंतःपुर परिवार सहित गृहोपयोगी साधनों को लेकर चंपानगरी से निकला, निकल कर जहाँ वैशाली नगरी थी वहाँ आया, आकर अपने नाना चेटक राजा का आश्रय लेकर वहाँ रहने लगा । For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग १ अध्ययन १ कोणिक का दूत भेजना ..................................................... विवेचन - रानी पद्मावती की हठ के कारण राजा कोणिक ने वेहल्लकुमार से हार और हाथी की मांग की। वेहल्लकुमार का कहना था कि जब आपने मेरे अन्य भाइयों को राज्य का संविभाग दिया है तो मुझे भी मिलना चाहिये। यदि आप मुझे राज्य का हिस्सा नहीं देना चाहते हो तो मैं ये दोनों रत्न आपको कैसे दे सकता हूँ? क्योंकि पिताजी ने जीवित अवस्था में ही मुझे ये दो रत्न दिये थे। उन पर आपका अधिकार कैसे हो सकता है? यदि आपको ये दोनों रत्न चाहिए तो मुझे भी सहोदर भाई के नाते राज्य का हिस्सा मिलना चाहिए। ___कोणिक ने वेहल्लकुमार की न्यायोचित मांग पर तनिक भी ध्यान नहीं दिया और अपनी मांग पर अड़ा रहा फलस्वरूप दोनों में अविश्वास बढ़ता गया। इसी अविश्वास के कारण वेहल्लकुमार ने सोचा कि कहीं कूणिक राजा उससे हार और हाथी छीन न ले अतः किसी भी प्रकार से उसे अपने नाना चेटक के यहाँ पहुंच जाना चाहिए। इस प्रकार मौका देख कर वेहल्लकुमार हार, हाथी अपनी रानियों तथा गृहोपयोगी अन्य भण्डोपकरण लेकर चेटक राजा की शरण में चला गया और चेटक राजा ने भी अपने दोहते को शरण दे दी। कोणिक का दूत भेजना तए णं से कूणिए राया इमीसे कहाए लद्धढे समाणे एवं खलु वेहल्ले कुमारे ममं असंविदिएणं सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसवंकं च हारं गहाय अंतेउरपरियालसंपरिवुडे जाव अच्चगं चेडयं रायं उवसंपञ्जित्ताणं विहरइ, तं सेयं खलु ममं सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसर्वकं च हारं आणेउं दूयं पेसित्तए, एवं संपेहेइ संपेहित्ता दूयं सद्दावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया! वेसालिं णयरिं, तत्थ णं तुमं ममं अजं चेडगं रायं करयल० वद्धावेत्ता एवं वयाहि-एवं खलु सामी! कूणिए राया विण्णवेइएस णं वेहल्ले कुमारे कूणियस्स रण्णो असंविदिएणं सेयणगं० अट्ठारसवंकं च हारं गहाय इह हव्वमागए, तए णं तुब्भे सामी! कूणियं रायं अणुगिण्हमाणा सेयणगं० अट्ठारसवंकं च हारं कूणियस्स रण्णो पञ्चप्पिणह वेहल्लं कुमारं च पेसेह॥५०॥ - कठिन शब्दार्थ - असंविदिएणं - बिना बताए-कहे सुने, पेसेह - भेजें। भावार्थ - तत्पश्चात् कोणिक राजा को यह समाचार ज्ञात होने पर कि मुझे बताए बिना ही वेहल्लकुमार सेचनक गंध हस्ती अहारह लड़ी वाला हार तथा अन्तःपुर परिवार सहित गृहस्थी के For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ निरयावलिका सूत्र भण्डोपकरणों को लेकर यावत् आर्य चेटक के पास जाकर रह रहा है, इस कारण मेरे लिए उचित है कि मैं दूत भेज कर सेचनक गंध हस्ती और अठारह लड़ियों वाला हार मंगवा लूँ, ऐसा सोचकर वह दूत को बुलाता है बुलाकर इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिय! तुम वैशाली नगरी में जाओ वहाँ आर्य चेटक राजा को दोनों हाथ जोड़ कर यावत् जयविजय शब्दों से बधा कर इस प्रकार निवेदन करना''स्वामिन्! कूणिक राजा विनति करते हैं कि वेहल्लकुमार राजा कोणिक को बिना बताए ही सेचनक गंध हस्ती और अठारह लड़ी हार को लेकर यहाँ आ गये हैं अतः आप कोणिक राजा पर अनुग्रह करके सेचनक गंध हस्ती और अठारह लड़ी हार कोणिक राजा को वापिस लौटा दें और वेहल्लकुमार को भी भेज दें।' ___तए णं से दूए कूणिएणं० करयल० जाव पडिसुणित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता जहा चित्तो जाव वद्धावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु सामी! कूणिए राया विण्णवेइ-एस णं वेहल्ले कुमारे तहेव भाणियव्वं जाव वेहल्लं कुमार च पेसेह॥५१॥ ____ भावार्थ - इसके बाद वह दूत राजा कोणिक के द्वारा कहे हुए वचनों को स्वीकार कर अपने घर पर आया और आकर चित्त सारथि के समान यावत् वैशाली पहुंचा और आर्य चेटक को हाथ जोड़ कर जय विजय के साथ बधा कर इस प्रकार निवेदन किया-'हे स्वामिन्! राजा कोणिक आपसे निवेदन करते हैं कि 'वेहल्लकुमार उन्हें बिना कुछ बताए सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ी हार लेकर आपके पास चला आया है अतः आप हार और हाथी के साथ वेहल्लकुमार को वापस भेज दें।' चेटक राजा का उत्तर तए णं से चेडए राया तं दूयं एवं वयासी-जह चेव णं देवाणुप्पिया! कूणिए राया सेणियस्स रण्णो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए ममं णत्तुए तहेव णं वेहल्लेवि कुमारे सेणियस्स रण्णो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए मम णतुए, सेणिएणं रण्णा जीवंतेणं चेव वेहल्लस्स कुमारस्स सेयणगे गंधहत्थी अट्ठारसवंके य हारे पुवदिण्णे, तं जइ णं कूणिए राया वेहल्लस्स रजस्स य रट्ठस्स य जणवयस्स य अद्धं दलयइ तो णं अहं सेयणगं० अट्ठारसवंकं च हारं कूणियस्स रण्णो पञ्चप्पिणामि वेहल्लं च कुमारं पेसेमि। तं दूयं सक्कारेइ संमाणेइ पडिविसजेइ॥५२॥ For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग १ अध्ययन १ कोणिक का दुबारा दूत भेजना भावार्थ - यह सुनकर चेटक राजा ने उस दूत को इस प्रकार कहा - 'हे देवानुप्रिय! जिस प्रकार राजा कोणिक श्रेणिक राजा का पुत्र, चेलना रानी का आत्मज और मेरा दौहित्र है उसी प्रकार वेहल्लकुमार भी श्रेणिक राजा का पुत्र, रानी चेलना का आत्मज और मेरा दौहित्र है। श्रेणिक राजा ने अपनी जीवितावस्था में ही वेहल्लकुमार को सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ी वाला हार दिया था इसलिए यदि कोणिक राजा वेहल्लकुमार को राज्य, राष्ट्र और जनपद का आधा भाग दे दे तो मैं हार हाथी के साथ वेहल्लकुमार को भेज दूंगा।' इस प्रकार कह कर चेटक राजा ने उस दूत को आदर सत्कार के साथ विदा कर दिया। तए णं से दूए चेडएणं रण्णा पडिविसजिए समाणे जेणेव चाउग्घण्टे आसरहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता चाउग्घण्टे आसरहं दुरूहइ दुरूहित्ता वेसालिं णयरिं मझ मज्झेणं णिग्गच्छइ णिग्गच्छित्ता सुभेहिं वसहीहिं पायरासेहिं जाव वद्धावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु सामी! चेडए राया आणवेइ-जह चेव णं कूणिए राया सेणियस्स रण्णो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए मम णत्तुए, तं चेव भाणियव्वं जाव वेहल्लं च कुमार पेसेमि, तं ण देइ णं सामी! चेडए राया सेयणगं० अट्ठारसर्वकं च हारं वेहल्लं च णो पेसेइ॥५३॥ ___ भावार्थ - चेटक राजा से विदा होकर वह दूत जहाँ पर चार घंटे वाला रथ था वहाँ आया, आकर उस रथ पर चढ़ा और वैशाली नगरी के मध्य से निकल कर अच्छी (साताकारी) बस्तियों में विश्राम करता हुआ प्रातःकालीन कलेवा (भोजन) करता हुआ चम्पा नगरी में पहुँचा। चंपानगरी में पहुंच कर राजा कोणिक के पास उपस्थित हुआ और उन्हें जयविजय से बधा कर इस प्रकार निवेदन किया- "हे स्वामिन्! चेटक राजा ने इस प्रकार फरमाया है कि जिस प्रकार कोणिक राजा श्रेणिक का पुत्र, चेलना का आत्मज और मेरा दौहित्र है उसी प्रकार वेहल्लकुमार भी श्रेणिक का पुत्र चेलना का आत्मज और मेरा दौहित्र है। इत्यादि सारा कथन कह देना चाहिए। अतः हे स्वामिन्! चेटक राजा ने सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ी वाला हार नहीं दिया है और न ही वेहल्लकुमार को भेजा है।" कोणिक का दुबारा दूत भेजना तए णं से कूणिए राया दोचंपि दूयं सद्दावेत्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया! वेसालिं णयरिं, तत्थ णं तुमं मम अजगं चेडगं रायं जाव एवं वयाहि For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र ........................................... एवं खलु सामी! कूणिए राया विण्णवेइ-जाणि काणि रयणाणि समुप्पजंति सव्वाणि ताणि रायकुलगामिणि, सेणियस्स रण्णो रजसिरिं करेमाणस्स पालेमाणस्स दुवे रयणा समुप्पण्णा, तंजहा-सेयणए गंधहत्थी अट्ठारसवंके हारे, तं गं तुब्भे सामी! रायकुलपरंपरागयं ठिइयं अलोवेमाणा सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसवंकं च हारं कूणियस्स रण्णो पञ्चप्पिणह, वेहल्लं कुमारं पेसेह॥५४॥ ____कठिन शब्दार्थ - रायकुलगामिणी - राज्यकुल गामिनी, रायकुलपरंपरागयं - राज्य कुल परम्परा गत, अलोवेमाणा - नाश (भंग) किये बिना। भावार्थ - तदनन्तर कोणिक राजा ने दूसरी बार भी दूत को बुला कर इस प्रकार कहा - 'हे देवानुप्रिय! तुम वैशाली नगरी में जाओ, वहाँ जा कर मेरे नाना चेटक राजा से यावत् इस प्रकार कहो- 'हे स्वामिन्! राजा कोणिक इस प्रकार प्रार्थना करता है कि जो कुछ भी रत्न प्राप्त होते हैं वे सब राजकुलानुगामी-राजा के अधिकार में होते हैं। राजा श्रेणिक ने राज्य-शासन करते हुए प्रजा का पालन करते हुए, सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ी वाला हार-ये दो रत्न प्राप्त किये थे। इसलिए हे . स्वामिन्! आप राज्यकुल परम्परागत मर्यादा को भंग नहीं करते हुए सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ी हार कोणिक राजा को लौटा दें और वेहल्ल कुमार को भी भेज दें।' तए णं से दूए कूणियस्स रण्णो तहेव जाव वद्धावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु सामी! कूणिए राया विण्णवेइ-जाणि काणि जाव वेहल्लं कुमारं पेसेह। ___तए णं से चेडए राया तं दूयं एवं वयासी-जह चेव णं देवाणुप्पिया! कूणिए राया सेणियस्स रण्णो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए जहा पढमं जाव वेहल्लं च कुमार पेसेमि। तं दूयं सक्कारइ संमाणेइ पडिविसज्जेइ॥ ५५॥ भावार्थ - तब उस दूत ने कोणिक राजा की आज्ञा को सुना। वैशाली पहुँच कर राजा चेटक को जयविजय से बधा कर इस प्रकार निवेदन किया-'हे स्वामिन्! कोणिक राजा ने प्रार्थना की है कि जो कुछ भी रत्न होते हैं वे राजकुलानुगामी होते हैं यावत् आप सेचनक गंधहस्ती, हार और वेहल्लकुमार को भेज दें।' तत्पश्चात् चेटक राजा उस दूत से इस प्रकार बोले - 'हे देवानुप्रिय! जैसे कोणिक राजा श्रेणिक का पुत्र, चेलना देवी का अंगज है इस प्रकार जैसा पूर्व में कहा है वैसा कह देना चाहिए। यावत् वेहल्लकुमार को भेज दूंगा।' ऐसा कह कर उस दूत को सत्कार सम्मान के साथ विदा कर दिया। For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • वर्ग १ अध्ययन १ कोणिक का तिबारा दूत भेजना ........................................................... ___तएणं से दूर जाव कूणियस्स रण्णो वद्धावेत्ता एवं वयासी-चेडए राया आणवेइजह चेव णं देवाणुप्पिया! कूणिए राया सेणियस्स रण्णो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए जाव वेहल्लं कुमारं पेसेमि, तं ण देइ णं सामी! चेडए राया सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसवंकं च हारं, वेहल्लं कुमारं णो पेसेइ॥५६॥ भावार्थ - तत्पश्चात् उस दूत ने यावत् कोणिक राजा को जय विजय से बधा कर इस प्रकार निवेदन किया - 'चेटक राजा ने फरमाया है कि - हे देवानुप्रिय! जैसे कोणिक राजा श्रेणिक राजा का पुत्र, चेलना देवी का अंगज है उसी प्रकार वेहल्लकुमार भी है यावत् राज्यादि का आधा भाग देने पर ही कुमार वेहल्ल को भेजूंगा। अतः हे स्वामिन्! चेटक राजा ने सेचनक गंध हस्ती एवं अठारह लड़ी वाला हार नहीं दिया है और न ही वेहल्लकुमार को भेजा है।' . कोणिक का तिबारा दूत भेजना तए णं से कूणिए राया तस्स दूयस्स अंतिए एयमदं सोचा णिसम्म आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे तच्चं दूयं सहावेइ सहावेत्ता एवं वयासी-च्छह णं तुम देवाणुप्पिया! वेसालीए णयरीए. चेडगस्स रग्णो वामेणं पाएणं पाय(वी)पीढं अक्कमाहि अक्कमित्ता कुंतग्गेणं लेहं पणावेहि. पणावेत्ता आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे तिवलियं भिउडिं पिडाले साहट्ट चेडगं रायं एवं क्याहि-हं भो चेडगराया! अपत्थियपत्थिया! दुरंत० जाव० परिवजिया, एस णं कूणिए राया आणवेइ पञ्चप्पिणाहि णं कूणियस्स रण्णो सेयणगं० अट्ठारसवंकं च हारं वेहल्लं च कुमारं पेसेहि अहवा जुद्धसज्जो चिट्ठाहि, एस णं कूणिए राया सबले सवाहणे सखंधावारे णं जुद्धसज्जे इह हव्वमागच्छइ॥५७॥ - कठिन शब्दार्थ - वामेणं पाएणं - बायें पैर से, पायपीढं - पादपीठ को, अवक्कमाहि - ठोकर मारना, कुंतग्गेणं - भाले की नोंक से, तिवलियं - त्रिवली, भिउडि - भृकुटि, जुद्धसज्जो - युद्ध सज्जित। ___ भावार्थ - तब कोणिक राजा ने उस दूत द्वारा चेटक राजा के उत्तर को सुन क्रोधाभिभूत हो यावत् दांतों को मिसमिसाते हुए पुनः तीसरी बार दूत को बुलाया और बुला कर कहा - हे For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ निरयावलिका सूत्र. ++++........... देवानुप्रिय! तुम वैशाली नगरी में जाओ और बायें पैर से चेटक राजा के पादपीठ को ठोकर मार कर भाले की नोक से यह पत्र देना। पत्र देकर क्रोधित यावत् दांतों को मिसमिसाते हुए भृकुटि तान कर ललाट में त्रिवली- तीन सल डाल कर चेटक राजा से इस प्रकार कहना-'अरे अप्रार्थित पार्थिकअकाल मृत्यु को चाहने वाले, बुरे परिणाम वाले निर्लज्ज राजा चेटक! तुझे कोणिक राजा आज्ञा देता है कि सेचनकगंधहस्ती और अठारह लड़ी वाला हार मुझे लौटा दे और वेहल्लकुमार को मेरे पास भेज दे अन्यथा युद्ध के लिए तैयार हो जा। राजा कोणिक बल, वाहन और सेना के साथ युद्ध सज्जित हो शीघ्र आ रहा है।' युद्ध की चेतावनी तए णं से दूए करयल० तहेव जाव जेणेव चेडए० तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता करयल० जाव वद्धावेत्ता एवं वयासी-एस णं सामी! ममं विणयपडिवत्ती, इयाणिं कूणियस्स रण्णो आणत्ति चेडगस्स रण्णो वामेणं पाएणं पायपीढं अक्कमइ अक्कमित्ता आसुरुत्ते कुंतग्गेण लेहं पणावेइ तं चेव सबलखंधावारे णं इह हव्वमागच्छइ॥५८॥ भावार्थ - तब उस दूत ने हाथ जोड़ कर राजा कूणिक की आज्ञा को शिरोधार्य किया यावत् चेटक राजा के पास आकर उन्हें जयविजय से बधा कर इस प्रकार कहा - 'हे स्वामिन्! यह तो मेरी विनय प्रतिपत्ति है किन्तु कोणिक राजा की आज्ञा यह है कि बायें पैर से चेटक राजा के पादपीठ को ठोकर मार कर क्रोधित हो भाले की नोंक से यह पत्र दों इत्यादि सेना आदि सहित वे शीघ्र ही यहाँ आ रहे हैं। तए णं से चेडए राया तस्स दूयस्स अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म आसुरत्ते जाव साहट्ट एवं वयासी-ण अप्पिणामि णं कूणियस्स रण्णो सेयणगं अट्ठारसवंकं हारं वेहल्लं च कुमारं णो पेसेमि, एस णं जुद्धसज्जे चिट्ठामि। तं दूयं असक्कारियं असंमाणियं अवदारेणं णिच्छुहावेइ॥५६॥ कठिन शब्दार्थ - असक्कारियं - असत्कार कर, असम्माणियं - असन्मान कर, अवदारेणं - अपमान कर, णिच्छुहावेइ - बाहर निकाल दिया। . ____ भावार्थ - वह चेटक राजा उस दूत के मुंह से इस प्रकार सुनकर क्रोधाभिभूत हो यावत् भृकुटि चढ़ा कर इस प्रकार बोला- 'मैं कोणिक राजा को सेचनक गंधहस्ती, अठारह लड़ी वाला हार नहीं For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग १ अध्ययन १ युद्ध की तैयारी लौटाऊँगा और न ही वेहल्लकुमार को भेजूंगा किन्तु युद्ध के लिए तैयार हूँ।' ऐसा कह कर उस दूत को असत्कार करं, असम्मान कर और अपमान कर पिछले द्वार से निकाल दिया। काल आदि दस कुमारों को बुलाया तसे कूणि या तस्स दूयस्स अंतिए ए ( अ ) यमहं सोचा णिसम्म आसुरुते कालाईए दस कुमारे सहावे सहावेत्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया! वेहल्ले कुमारे ममं असंविदिएणं सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसवंकं हारं अंतेउरं सभण्डं च गहाय चम्पाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता वेसालिं अज्जगं जाव उवसंपजित्ताणं विहरइ, तए णं मए सेयणगस्स गंधहत्थिस्स अट्ठारसवंकस्स० अट्ठाए दूया पेसिया, ते. य चेडएण रण्णा इमेणं कारणेणं पडिसेहिया, अदुत्तरं च णं ममं तच्चे दूए असक्कारिए असंमाणिए अवद्दारेणं णिच्छुहावेइ, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं चेडगस्स रण्णो जुत्तं गिहित्तए । तए णं कालाईया दस कुमारा कूणियस्स रण्णो एयमहं विणएणं सुर्णेति ॥ ६० ॥ भावार्थ - तत्पश्चात् कोणिक राजा ने दूत का कथन सुन कर क्रोधित हो काल आदि द कुमारों को बुलाया और बुला कर इस प्रकार कहा - हे देवानुप्रियो ! मुझे बताये बिना ही वेहल्लकुमार सेचनक गंधहस्ती, अठारहलड़ी वाला हार और अंतःपुर परिवार सहित गृहस्थोचित भण्डोपकरणों को लेकर चम्पानगरी से निकला और निकल कर वैशाली में चेटक राजा के पास जाकर रहने लगा है। मैंने सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ी का हार लाने के लिए दूत भेजा। चेटक राजा ने हार, हाथी • और हल्लकुमार को भेजने से इंकार कर दिया और मेरे तीसरे दूत को असत्कारिक, असम्मानित और अपमानित कर पिछले द्वार से बाहर निकाल दिया । इसलिए हे देवानुप्रियो ! हमें चाहिये कि हम राजा चेटक का निग्रह करें। यह सुन कर उन काल आदि दस कुमारों ने राजा कूणिक की इस बात विनयपूर्वक स्वीकार किया । ४६ युद्ध की तैयारी तए णं से कूणिए राया कालाईए दस कुमारे एवं वयासी- गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! सएसु सएस रज्जेसु पत्तेयं पत्तेयं व्हाया जाव पायच्छित्ता For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० निरयावलिका सूत्र ........................................................... हत्थिखंधवरगया पत्तेयं पत्तेयं तिहिं दंतिसहस्सेहिं एवं तिहिं रहसहस्सेहिं तिहिं आससहस्सेहि तिहिं मणुस्सकोडीहिं सद्धिं संपरिवुडा जाव रवेणं सएहितो सएहितो णयरेहिंतो पडिणिक्खमह पडिणिक्खमित्ता ममं अंतियं पाउन्भवह॥६१॥ भावार्थ - तदनन्तर कोणिक राजा काल आदि दस कुमारों को इस प्रकार कहता है - 'हे देवानुप्रियो! तुम लोग अपने-अपने राज्य में जाओ। वहाँ स्नान यावत् मांगलिक कृत्य कर हाथी पर चढ़ कर प्रत्येक अलग-अलग तीन हजार हाथियों, तीन हजार रथों, तीन हजार घोड़ों और तीन करोड़ मनुष्यों (सैनिकों) के साथ सभी प्रकार की ऋद्धि वैभव यावत् सजधज कर दुंदुभि घोष के साथ अपने-अपने नगरों से निकलो और मेरे पास आओ। तए णं ते कालाईया दस कुमारा कूणियस्स रण्णो एयमढे सोच्चा सएसु सएसु रज्जेस पत्तेयं पत्तेयं व्हाया जाव तिहिं मणुस्सकोडीहिं सद्धिं संपरिवुडा सव्विड्डीए जाव रवेणं सएहिंतो सएहिंतो णयरेहिंतो पडिणिक्खमंति पडिणिक्खमित्ता जेणेव अंगा जणवए जेणेव चंपा णयरी जेणेव कूणिए राया तेणेव उवागया करयल० जाव वद्धावेंति॥२॥ भावार्थ - तब वे काल आदि दस कुमार कोणिक राजा के इस कथन को सुन कर अपने-अपने राज्यों में गये। प्रत्येक ने स्नान किया यावत् तीन करोड़ मनुष्यों-सैनिकों के साथ समस्त ऋद्धि यावत् वाद्य घोष के साथ अपने-अपने नगरों से निकले और निकल कर जहाँ अंग जनपद था, जहाँ चम्पानगरी थी जहाँ कूणिक राजा था वहाँ आए और दोनों हाथों को जोड़ कर यावत् राजा को बधाया। कोणिक का निर्देश तए णं ते कूणिए राया कोडुम्बियपुरिसे सद्दावेइ सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेह, हयगयरहजोहचाउरंगिणिं सेणं संणाहेह, ममं एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह जाव पञ्चप्पिणंति। तए णं से कूणिए राया जेणेव मजणघरे तेणेव उवागच्छइ जाव पडिणिग्गच्छित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जाव णरवई दुरुढे॥६३॥ For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग १ अध्ययन १ चेटक का अठारह गणराजाओं से परामर्श भावार्थ - काल आदि दस कुमारों के आने के बाद कोणिक राजा अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाता है और बुला कर इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो! शीघ्रातिशीघ्र आभिषेक्य हस्ती रत्न को सुसज्जकर घोड़े, हाथी, रथ और चतुरंगिणी सेना को सन्नद्ध-युद्ध के लिए तैयार करो। मेरी आज्ञानुसार तैयारी कर मुझे सूचित करो। यावत् राजाज्ञानुसार सभी कार्य कर राजा को सूचित किया। तत्पश्चात् कोणिक राजा जहाँ स्नानघर था वहाँ आया और स्नान आदि कार्यों से निवृत्त हो यावत् वहाँ से निकल कर जहाँ बाहरी उपस्थानशाला (सभा मण्डप) थी वहाँ आया यावत् हस्ती रत्न पर आरूढ़ हुआ। कोणिक का युद्ध के लिए प्रस्थान तए णं से कूणिए राया तिहिं दंतिसहस्सेहिं जाव रवेणं चंपं णयरिं मज्झं मज्झेणं णिग्गच्छइ णिग्गच्छित्ता जेणेव कालाईया दस कुमारा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता कालाइएहिं दसहिं कुमारेहिं सद्धिं एगओ मेलायंति। तए णं से कूणिए राया तेत्तीसाए दंतिसहस्सेहिं तेत्तीसाए आससहस्सेहिं तेत्तीसाए रहसहस्सेहिं तेत्तीसाए मणुस्सकोडीहिं सद्धिं संपरिवुडे सव्विड्डीए जाव रवेणं सुभेहिं वसहीहिं सुभेहिं पायरासेहिं णाइविगिद्धेहिं अंतरावासेहिं वसमाणे वसमाणे अंगजणवयस्स मज्झं • मज्झेणं जेणेव विदेहे जणवए जेणेव वेसाली णयरी तेणेव पहारेत्य गमणाए ॥६४॥ ___ भावार्थ - तत्पश्चात् कोणिक राजा तीन हजार हाथियों यावत् वाद्य घोष पूर्वक चंपा नगरी के मध्य में से निकला, निकल कर जहाँ काल आदि दस कुमार थे वहाँ आया और काल आदि दस कुमारों से मिला। उसके बाद वह कोणिक राजा तेतीस हजार हाथियों, तेतीस हजार घोड़ों, तेतीस हजार रथों और तेतीस करोड़ पैदल सैनिकों से घिरा हुआ सर्व ऋद्धि यावत् घोष पूर्वक शुभ स्थानों में । (सुविधाजनक) पड़ाव डालता हुआ, खान-पान करता हुआ थोड़ी-थोड़ी दूर पर डेरा डाल कर विश्राम करता हुआ अंग जनपद के मध्य में से होते हुए जहाँ विदेह जनपद था जहाँ वैशाली नगरी थी वहीं पर जाने का निश्चय किया। चेटक का अठारह गणराजाओं से परामर्श तए णं से चेडए राया इमीसे कहाए लढे समाणे णव मलई णव लेच्छई कासीकोसलगा अट्ठारसवि गणरायाणो सद्दावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी - एवं खलु For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलका सूत्र देवाप्पिया ! वेहल्ले कुमारे कूणियस्स रण्णो असंविदिएणं सेयणगं० अट्ठारसवंकं च हारं गहाय इहं हव्वमागए, तए णं कूणिएणं सेयणगस्स अट्ठारसवंकस्स य अट्ठाए तओ दूया पेसिया, ते य मए इमेणं कारणेणं पडिसेहिया, तए णं से कूणिए ममं एयम अपडिसुणमाणे चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडे जुज्झसज्जे इहं हव्वमागच्छइ, तं किं णं देवाणुपिया ! सेयणगं अट्ठारसवंकं (च) कूणियस्स रण्णो पञ्चप्पिणामो? वेहल्लं कुमारं पेसेमो ? उदाहु जुज्झित्था ॥ ६५ ॥ भावार्थ - तदनन्तर चेटक राजा ने कोणिक की चढ़ाई के समाचार सुनकर काशी और कोशल, देश के नौ मल्लवी नौ लिच्छवी इन अठारह गणराजाओं को परामर्श करने हेतु आमंत्रित किया और उन्हें इस प्रकार कहा- 'हे देवानुप्रियो ! कोणिक राजा को बिना बताए वेहल्लकुमार सेचनक गंध हस्ती और अठारह लड़ी वाला हार लेकर यहाँ आ गया। कोणिक ने सेचनकहस्ती और हार को वापिस लेने के लिए तीन दूत भेजें किन्तु मैंने इस कारण से उन दूतों को मना कर दिया कि स्वयं राजा श्रेणिक ने जीवितावस्था में ये दोनों रत्न दिये हैं अतः हार और हाथी चाहते हो तो उसे आधा राज्य दे दो । कोणिक मेरी इस बात को न मान कर चतुरंगिणी सेना के साथ सज्जित हो युद्ध के लिए यहाँ आ रहा है तो क्या हे देवानुप्रियो ! सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ी वाला हार राजा कोणिक को लौटा दें, वेहल्लकुमार को उसके पास भेज दें अथवा उससे युद्ध करें ? " ५२ तए णं णव मल्लई णव लेच्छई कासीकोसलगा अट्ठारसवि गणरायाणो चेडगं रायं एवं वयासी-ण एवं सामी! जुंत्तं वा पत्तं वा रायसरिसं वा जं णं सेयणगं अट्ठारसवंकं कूणियस्स रण्णो पञ्चप्पिणिज्जइ वेहल्ले य कुमारे सरणागए पेसिज्जइ, तं जणं कूणिए राया चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडे जुज्झसज्जे इहं हव्वमागच्छइ, तणं अम्हे कूणिणं रण्णा सद्धिं जुज्झामो ॥ ६६ ॥ कठिन शब्दार्थ - सरणागए - शरणागत, जुत्तं युक्त, पत्तं - अवसरोचित, रायसरिसं - राजा के अनुरूप, पेसिज भेज दिया जाय, जुज्झामो - युद्ध करें। - भावार्थ तब नौ मल्लवी नौलिच्छवी इन अठारह गणराजाओं ने इस प्रकार कहा - 'हे - स्वामिन्! यह न तो युक्त उचित है न अवसरोचित है और न राजा के अनुरूप ही है कि सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ी वाला हार कोणिक राजा को लौटा दिया जाय और शरणागत For Personal & Private Use Only · Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग १ अध्ययन १ चेटक राजा का युद्ध के लिए प्रयाण वेहल्लकुमार को भेज दिया जाय । अतः जब कोणिक राजा चतुरंगिणी सेना के साथ युद्ध सज्जित होकर यहाँ आ रहा है तब हम कोणिक राजा के साथ युद्ध करें। तए णं से चेडए राया ते णव मल्लई णव लेच्छई कासीकोसलगा अट्ठारसवि गणरायाणो एवं वयासी - जइ णं देवाणुप्पिया! तुब्भे कूणिए रण्णा सद्धिं जुज्झह तं गच्छह णं देवाणुप्पिया! ससु ससु रजेसु ण्हाया जहा कालाईया जाव जएणं विजएणं वद्धावेंति । ५३ तए णं से चेडए राया कोडुम्बियपुरिसे सद्दावेइ सद्दावित्ता एवं वयासीआभिसेक्कं जहा कूणिए जाव दुरूढे ॥ ६७ ॥ भावार्थ - तत्पश्चात् चेटक राजा उन नौ मल्लवी नौ लिच्छवी काशी कोशल देश के अठारह गणराजाओं से इस प्रकार बोले- 'हे देवानुप्रियो ! यदि आप कोणिक राजा से युद्ध करने के लिए तैयार हैं तो अपने अपने राज्यों में जाइए और स्नान आदि कर काल आदि कुमारों के समान युद्ध के लिए • सुसज्जित होकर अपनी-अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ यहाँ आइए ।' यह सुन कर वे राजा अपनेअपने राज्यों में गए और युद्ध के लिए सुसज्जित हो कर आए, आकर उन्होंने चेटक राजा को जयविजय शब्दों से बधाया । तदनन्तर चेटक राजा कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाते हैं और बुला कर इस प्रकार क आभिषेक्य हस्तिरत्न को सजाओ यावत् कोणिक राजा की तरह चेटक राजा भी हस्तिरत्न पर आरूढ़ हुआ।' चेटक राजा का युद्ध के लिए प्रयाण तणं चेड या तिहिं दंतिसहस्सेहिं जहा कूणिए जाव वेसालिं णयरिं मज्झं मझेणं णिग्गच्छs णिग्गच्छित्ता जेणेव ते णव मल्लई णव लेच्छई कासीको लगा अट्ठारसवि गणरायाणो तेणेव उवागच्छइ । तए णं से चेडए राया सत्तावण्णाए दंतिसहस्सेहिं सत्तावण्णाए आससहस्सेहिं सत्तावण्णाए रहसहस्सेहिं सत्तावण्णाए मणुस्सकोडीहिं सद्धिं संपरिवुडे सव्विड्डीए जाव वेणं सुभेहिं वसहीहिं पायरासेहिं णाइविगिट्ठेहिं अंतरेहिं वसमाणे वसमाणे विदेहं जणवयं मज्झं मज्झेणं जेणेव देसपंते For Personal & Private Use Only - Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता खंधावारणिवेसणं करेइ करित्ता कूणियं रायं पडिवालेमाणे जुझसने चिट्ठइ॥६८॥ कठिन शब्दार्थ - खंधावार णिवेसणं - स्कन्धावार निवेश(पड़ाव डालना), पडिवालेमाणे - प्रतीक्षा करते हुए, देसपंते - देश का प्रांत सीमा भाग। भावार्थ - तत्पश्चात् चेटक राजा तीन हजार हाथियों आदि के साथ कोणिक राजा की तरह यावत् वैशाली नगरी के मध्य में से होकर निकला, निकल कर जहाँ नौ मल्लवी नौ लिच्छवी काशी कोशल के अठारह गणराजा थे, वहाँ आया। इसके बाद चेटक राजा सत्तावन हजार हाथियों, सत्तावन हजार घोड़ों, सत्तावन हजार रथों और सत्तावन करोड़ मनुष्यों-पैदल सैनिकों को साथ लेकर सर्व ऋद्धि यावत् वाद्य घोष पूर्वक शुभ (सुखद) स्थानों में प्रातःकालीन कलेवा (भोजन) करते हुए थोड़ी थोड़ी दूरी पर विश्राम करते हुए विदेह जनपद के मध्य में से होते हुए जहाँ सीमान्त प्रदेश था, वहाँ आया आकर स्कन्धावार निवेश किया तथा कोणिक राजा की प्रतीक्षा करते हुए युद्ध के लिए तत्पर होकर ठहर गया। तए णं से कणिए राया सव्विड्डीए जाव रवेणं जेणेव देसपंते तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता चेडयस्स रण्णो जोयणंतरियं खंधावारणिवेसं करेइ॥६६॥ __ भावार्थ - तदनन्तर कूणिक राजा सर्वऋद्धि यावत् वाद्यघोष पूर्वकं जहाँ सीमान्त प्रदेश था, वहाँ आया। आकर चेटक राजा से एक योजन की दूरी पर उसने भी स्कन्धावार निवेश किया-पड़ाव डाल दिया। भयंकर युद्ध तए णं ते दोण्णिवि रायाणो रणभूमिं सजावेंति सज्जावित्ता रणभूमिं जयंति। तए णं से कूणिए राया तेत्तीसाए दंतिसहस्सेहिं जाव मणुस्सकोडीहिं गरुलवूहं रएड़ रइत्ता गरुलवूहेणं रहमुसलं संगामं उवायाए। तए णं से चेडगे राया सत्तावण्णाए दंतिसहस्सेहिं जाव सत्तावण्णाए मणुस्सकोडीहिं सगडवूहं रएइ रइत्ता सगडवूहेणं रहमुसलं संगाम उवायाए। तए णं ते दोण्हवि राईणं अणीया संणद्ध० जाव गहियाउहपहरणा मंगइएहिं फलएहिं णिक्कट्ठाहिं असीहिं अंसागएहिं तोणेहिं सजीवेहिं धणूहिं समुक्खित्तेहिं For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग १ अध्ययन १ भयंकर युद्ध ........................................................ सरेहिं समुल्लालियाहिं डावाहिं ओसारियाहिं ऊरुघण्टाहिं छिप्पतूरेणं वजमाणेणं महया उक्किट्ठसीहणाय-बोलकलकलरवेणं समुद्दरवभूयं पिव करेमाणा सब्बिड्डीए जाव रवेणं हयगया हयगएहिं गयगया गयगएहिं रहगया रहगएहिं पायत्तिया पायत्तिएहि अण्णमण्णेहिं सद्धिं संपलग्गा यावि होत्था। तए णं ते दोण्हवि रायाणं अणीया णियगसामीसासंणाणुरत्ता महया जणक्खयं जणवहं जणप्पमदं जणसंवट्टकप्पं णचंतकबंधवारभीमं रुहिरकद्दमं करेमाणा अण्णमण्णेणं सद्धिं जुझंति॥७॥ . ____ कठिन शब्दार्थ - गरुलवूहं - गरुड व्यूह, सगडवूहं - शकट व्यूह, रहमुसलं संगाम - रथमूसल संग्राम, गहियाउहपहरणां - आयुधों एवं प्रहरणों को लेकर, मंगइएहिं फलएहिं - हाथों में थामी हुई ढालों से, णिक्किट्ठाहिं असीहिं - निकाली हुई (खींची हुई) तलवारों से, अंसागएहिं तोणेहिं - कंधों पर लटके तूणीरों से, सजीवेहिं धणूहिं - प्रत्यंचा युक्त (चढ़े हुए) धनुषों से, समुक्खित्तेहिं सरेहिं - छोड़े हुए बाणों से, समुल्लालियाहिं डावाहिं - फटकारते हुए डाबी (बांयी) भुजाओं से, ओसारियाहिं उरुघण्टाहिं - बजती हुई बंधी घंटिकाओं से। भावार्थ - तत्पश्चात् दोनों राजाओं ने रणभूमि को सज्जित किया और अपनी-अपनी विजय के लिए प्रार्थना की। तदनन्तर कोणिक राजा ने तेतीस हजार हाथियों यावत् लेतीस करोड़ पैदल सैनिकों से गरुड़ व्यूह की रचना की और रचना करके रथमूसल संग्राम करने के लिए आया। चेटक राजा ने भी सत्तावन हजार हाथियों यावत् सत्तावन करोड़ पैदल सैनिकों से शकट व्यूह की रचना की और रचना करके रथमूसल संग्राम करने के लिए आया। तब दोनों राजाओं की सेनाएं युद्ध के लिए तत्पर हो यावत् अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित हो, हाथों में थामी हुई ढालों से, म्यानों से खींची हुई तलवारों से, कंधों पर लटके तूणीरों से, चढ़े हुए धनुषों से, छोड़े हुए बाणों से, फटकारते हुए बायीं भुजाओं से, जोर-जोर से बजती घंटिकाओं से, शीघ्रता से बजाये जाते हुए भेरी आदि वाद्यों से भयंकर सिंहनाद के सदृश कोलाहल से भीषण गर्जना करते हुए सर्व ऋद्धि यावत् वाद्य घोषों से घुड़सवार घुड़सवारों से, हाथी वाले हाथियों से, रथ वाले रथिकों से पदाति (पैदल) पैदल सैनिकों से इस प्रकार परस्पर युद्ध करने के लिए संनद्ध हो गए। दोनों राजाओं की सेनाएं अपने अपने स्वामी के शासनानुराग से अनुरक्त थीं अतः महान् जनक्षय, जनवध, जनमर्दन, जनसंहार और नाचते हुए रुंड मुण्डों से भयंकर रक्त का कीचड़ करती हुई परस्पर युद्ध में लड़ने लगी। For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र कालकुमार की मृत्यु तणं से काले कुमारे तिहिं दंतिसहस्सेहिं जाव मणूसकोडीहिं गरुलवूहेणं एक्कारसमेणं खंधेणं कूणिएणं रण्णा सद्धिं रहमुसलं संगामं संगामेमाणे हयमहिय० जहा भगवया कालीए देवीए परिकहियं जाव जीवियाओ ववरोविए ॥ ७१ ॥ ५६ भावार्थ - उसके बाद वह कालकुमार तीन हजार हाथियों यावत् तीन करोड़ पैदल सैनिकों के साथ गरुड़ व्यूह के ग्यारहवें स्कन्ध (भाग) में कोणिक राजा के साथ रथमूसल संग्राम करता हुआ ह और मथित हो गया इत्यादि जिस प्रकार भगवान् ने काली देवी को कहा है तदनुसार यावत् वह' मारा गया। चौथी नरक में उत्पत्ति तं एवं खलु गोयमा ! काले कुमारे एरिसएहिं आरम्भेहिं जाव एरिसएणं असुभकडकम्मपब्भारेणं कालमासे कालं किच्चा चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए हेमाभे णरए णेरइयत्ताए उववण्णे ॥ ७२ ॥ भावार्थ - इस प्रकार निश्चय ही हे गौतम! वह कालकुमार ऐसे आरम्भों से तथा इस प्रकार के कृत अशुभकर्मों के कारण काल के समय काल करके चौथी पंकप्रभा पृथ्वी के हेमाभ नामक नरकावास में नैरयिक रूप से उत्पन्न हुआ है। उपसंहार काले णं भंते! कुमारे चउत्थीए पुढवीए... अनंतरं उब्वट्टित्ता कहिं गच्छहि कहिं उववज्जिहि ? गोयमा ! महाविदेहे वासे जाई कुलाई भवंति अड्ढाई जहा दढपइण्णो जाव सिज्झिहिइ बुज्झिहिइ जाव अंतं काहिइ ॥ ७३ ॥ भावार्थ - हे भगवन्! वह कालकुमार चौथी नरक पृथ्वी से निकल कर कहाँ जायेगा ? कहाँ उत्पन्न होगा? For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग १ अध्ययन १ उपसंहार ........................................................... हे गौतम! कालकुमार चौथी नरक पृथ्वी से निकल कर महाविदेह क्षेत्र में आढ्य कुल में जन्म लेगा और दृढ़प्रतिज्ञ के समान सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होगा यावत् सभी दुःखों का अंत करेगा। तं एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं णिरयावलियाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमट्टे पण्णत्ते-त्तिबेमि।।७४॥ पढमं अज्झयणं समत्तं॥१॥१॥ भावार्थ - सुधर्मा स्वामी ने कहा - हे जम्बू! इस प्रकार सिद्धिगति को प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने निरयावलिका के प्रथम अध्ययन का यह भाव फरमाया है। हे जम्बू! जैसा मैंने भगवान् के मुख से सुना है वैसा ही तुम्हें कहता हूँ। विवेचन - हार हाथी के लिए हुए चेडा-कोणिक के इस घनघोर महायुद्ध में हजारों प्राणियों को काल कवलित होते देख जब काल कुमार गर्जता हुआ आया तो चेडा राजा ने अपनी प्रतिज्ञानुसार अमोघ बाण मार कर कालकुमार को जीवन से रहित कर दिया। अशुभ कर्मोपार्जन के कारण वह मर कर चौथी नरक के हेमाभ नरकावास में चार सागरोपम की स्थिति वाला नैरयिक बना। जहाँ से निकल कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न हो कर अपने संपूर्ण कर्मों को क्षय करने के बाद सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होगा। इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने निरयावलिका सूत्र के प्रथम अध्ययन का भाव निरूपित किया। - नोट :- उपर्युक्त अध्ययन में चेटक राजा की पैदल सेना ५७ करोड़ तथा कोणिक राजा एवं दसों भाईयों की सम्मिलित पैदल सेना ३३ करोड़ जितनी बताई गई है। इस सम्बन्ध में पूज्य बहुश्रुत गुरुदेव का ऐसा फरमाना था कि - यहाँ मूल पाठ में लिपि प्रमाद से “कोडि" शब्द हो जाना संभव है जब कि पाठ का वर्णन देखते हुए ५७ लाख एवं ३३ लाख जितनी ही पैदल सेना होनी चाहिए। क्योंकि यहाँ मूल पाठ में हाथी घोड़े आदि की संख्या ५७ हजार, ३३ हजार ही बताई है। यदि सैनिकों की संख्या ५७ करोड़ या ३३ करोड़ होती तो हाथी घोड़ों की संख्या ५७ लाख, ३३ लाख होनी चाहिए, जैसे चक्रवर्ती राजा के होती है। ॥ निरयावलिका सूत्र का प्रथम अध्ययन समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीयं अज्झयणं दूसरा अध्ययन जइ णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं णिरयावलियाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, दोच्चस्स णं भंते! अज्झयणस्स णिरयावलियाणं समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते? . ___ एवं खलु जम्बू! तेणं कालेणं तेणं समएणं चम्पा णामं णयरी होत्था। पुण्णभद्दे चेइए। कूणिए राया। पउमावई देवी। तत्थ णं चम्पाए णयरीए सेणियस्स रण्णो भजा कूणियस्स रण्णो चुल्लमाउया सुकाली णामं देवी होत्था, सुकुमाल। तए णं से सुकाले कुमारे अण्णया कयाइ तिहिं दंतिसहस्सेहिं जहा कालो कुमारो णिरवसेसं तं चेव भाणियव्वं जाव महाविदेहे वासे............अंतं काहिइ। णिक्खेवो॥७॥ बीयं अज्झयणं समत्तं॥१॥२॥ भावार्थ - जम्बूस्वामी ने सुधर्मा स्वामी से पूछा-हे भगवन्! श्रमण भमवान् महावीर स्वामी ने निरयावलिका सूत्र के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ (भाव) प्रतिपादित किया है तो हे भगवन्! निरयावलिका सूत्र के द्वितीय अध्ययन में मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने क्या भाव फरमाये हैं? सुधर्म स्वामी ने कहा-हे जम्बू! उस काल उस समय में चम्पा नाम की नगरी थी। पूर्णभद्र नाम का चैत्य था। कोणिक नामक राजा वहाँ राज्य करता था जिसके पद्मावती नाम की महारानी थी। उस चम्पा नगरी में श्रेणिक राजा की भार्या (पत्नी) कोणिक राजा की छोटी माता सुकाली नाम की रानी थी। जो अत्यंत सुकुमार थी। उस सुकाली देवी का सुकाल नामक कुमार था जो सुकोमल यावत् सुरूप था। तदनन्तर वह सुकाल कुमार किसी समय तीन हजार हाथियों आदि के साथ जिस प्रकार कालकुमार के विषय में कहा है उसी प्रकार सारा वर्णन कह देना चाहिए। वह भी रथमूसल संग्राम में मारा गया। मर कर चौथी नरक में उत्पन्न हुआ। वहाँ से निकल कर महाविदेह में उत्पन्न होगा और सकल कर्मों का क्षय कर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होगा। सभी कर्मों का अन्त करेगा। For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग १ अध्ययन ३-१० ........................................................... विवेचन - अपने गुरु सुधर्मा स्वामी के मुखारविन्द से निरयावलिका सूत्र के प्रथम अध्ययन का भाव सुनने के बाद जम्बूस्वामी को द्वितीय अध्ययन का भाव जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। जम्बू स्वामी की जिज्ञासा को शांत करते हुए सुधर्मा स्वामी ने निरयावलिका का यह द्वितीय अध्ययन फरमाया है। द्वितीय अध्ययन का वर्णन भी प्रथम अध्ययन के समान है। कालकुमार के स्थान पर सुकालकुमार और काली देवी के स्थान पर सुकाली देवी है। सुकाल कुमार भी अपने अशुभ कर्मों के कारण चौथी नरक में उत्पन्न हुआ, जहाँ से निकल कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर और संपूर्ण कर्मों का क्षय कर मोक्ष प्राप्त करेगा। ॥ द्वितीय अध्ययन समाप्त॥ तृतीय से दशम अध्ययन एवं सेसावि अट्ठ अज्झयणा णेयव्वा पढमसरिसा, णवरं मायाओ सरिसणामाओ! णिक्खेवो सव्वेसिं भाणियव्वो तहा॥७६॥ १॥ १०॥ णिरयावलियाओ समत्ताओ॥ पढमो वग्गो समत्तो॥१॥ भावार्थ - इसी प्रकार प्रथम अध्ययन के समान ही शेष आठ अध्ययन भी समझ लेने चाहिए किन्तु इतनी विशेषता है कि उनकी माताओं के नाम के समान कुमारों के नाम हैं। सभी का निक्षेपउपसंहार प्रथम अध्ययन के समान समझना चाहिये। . विवेचन - काल, सुकाल कुमार के अध्ययन के समान ही शेष आठ कुमारों - ३. महाकाल ४. कृष्ण ५. सुकष्ण ६. महाकृष्ण ७. वीर कृष्ण ८. रामकृष्ण ६. पितृसेन कृष्ण और १०. महासेन-के गाठ अध्ययन समझने चाहिये। इस प्रकार दसों कुमार रथमूसल संग्राम में काल करके नरक में उत्पन्न हुए और दसों ही महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मोक्ष में जाएंगे। __णवरं मायाओ सरिणामाओं' - अर्थात् विशेषता यह है कि माताओं के नाम के समान उन कुमारों के नाम हैं। जैसे - महाकाली रानी का पुत्र महाकाल, कृष्णादेवी का पुत्र कृष्ण, सुकृष्णादेवी का पुत्र सुकृष्ण आदि। . इस प्रकार निरयावलिका नामक प्रथम वर्ग का वर्णन समाप्त हुआ। ॥ तृतीय अध्ययन से दशम अध्ययन समाप्त॥ | निरयावलिका समाप्त। । प्रथम वर्ग समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कप्पवडिंसियाओ-कल्पावतंसिका बीओ वग्गो - पढमं अज्झयणं द्वितीय वर्ग-प्रथम अध्ययन जइ णं भंते! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उवंगाणं पढमस्स वग्गस्स णिरयावलियाणं अयमढे पण्णत्ते, दोच्चस्स णं भंते! वग्गस्स कप्पवडिंसियाणं समणेणं जाव संपत्तेणं कइ अज्झयणा पण्णता? __ एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं कप्पवडिंसियाणं दस अज्झयणा पण्णता, तंजहा-पउमे १, महापउमे २, भद्दे ३, सुभद्दे ४, पउमभद्दे ५, पउमसेणं ६, पउमगुम्मे ७, णलिणिगुम्मे ८, आणंदे ६, गंदणे १०॥७७॥ भावार्थ - जम्बू स्वामी ने पूछा - हे भगवन्! यदि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उपांग के निरयावलिका नामक प्रथम वर्ग का यह अर्थ प्रतिपादित किया है तो हे भगवन्! दूसरे वर्ग कल्पावतंसिका का मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने क्या अर्थ फरमाया है? सुधर्मा स्वामी ने फरमाया - हे जम्बू! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने कल्पावतंसिका के दस अध्ययन कहे हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं - १. पद्म २. महापद्म ३. भद्र ४. सुभद्र ५. पद्मभद्र ६. पद्मसेन ७. पद्मगुल्म ८. नलिनीगुल्म ह. आनन्द और १०. नन्दन। विवेचन - आर्य सुधर्मा स्वामी से प्रथम वर्ग निरयावलिका सूत्र का भाव श्रवण कर जम्बूस्वामी को उपांग के द्वितीय वर्ग कल्पावतंसिका का वर्णन जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। अपनी जिज्ञासा . पूर्ति के लिये विनयभाव पूर्वक सुधर्मा स्वामी से प्रश्न किया - "हे भगवन्! प्रथम वर्ग निरयावलिका का अर्थ मैंने सुना अब द्वितीय वर्ग कल्पावतंसिका का मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने क्या भाव फरमाया है?" भगवान् सुधर्मा स्वामी ने फरमाया - "हे जम्बू! मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने कल्पावतंसिका के दस अध्ययन फरमाये हैं - पद्म यावत् नन्दन।" जइ णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं कप्पवडिंसियाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग २ अध्ययन १ पद्मकुमार का जन्म और दीक्षा .......................................................... पढमस्स णं भंते! अज्झयणस्स कप्पवडिंसियाणं समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं के अढे पण्णते? - ___ एवं खलु जम्बू! तेणं कालेणं तेणं समएणं चम्पा णामं णयरी होत्था। पुण्णभद्दे चेइए। कूणिए राया। पउमावई देवी। तत्थ णं चम्पाए णयरीए सेणियस्स रण्णो भज्जा कूणियस्स रण्णो चुल्लमाउया काली णामं देवी होत्या, सुउमाल०। तीसे गं कालीए देवीए पुत्ते काले णाम कुमारे होत्या, सुउमाल। तस्स णं कालस्स कुमारस्स पउमावई णामं देवी होत्था, सोमाल० जाव विहरइ॥ ७॥ भावार्थ - जम्बू स्वामी ने पूछा - 'हे भगवन्! मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी द्वारा कल्पावतंसिका के दस अध्ययन कहे गये हैं तो हे भगवन्! कल्पावतंसिका के प्रथम अध्ययन का श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने क्या भाव फरमाया है?' ___ सुधर्मा स्वामी ने फरमाया - 'हे जम्बू! उस काल और उस समय में चम्पा नामक नगरी थी। पूर्णभद्र नामक चैत्य था। वहां कोणिक नामक राजा था। उसके पद्मावती नाम की महारानी थी। उस चम्पा नगरी में श्रेणिक राजा की पत्नी, कोणिक राजा की छोटी माता काली नामक रानी थी, जो सुकुमार थी। उस काली रानी के कालकुमार नामक एक पुत्र था। उस कालकुमार की पद्मावती नामक पत्नी थी जो सुकुमार थी यावत् सर्व गुण संपन्न थी और सांसारिक सुखों का अनुभव करती हुई रह रही थी।' पद्मकुमार का जन्म और दीक्षा - तए णं सा पउमावई देवी अण्णया कयाइं तंसि तारिसगंसि वासघरंसि अभिंतरओ सचित्तकम्मे जाव सीहं सुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धा। एवं जम्मणं जहा महाबलस्स जाव णामधेनं-जम्हा णं अम्हं इमे दारए कालस्स कुमारस्स पुत्ते पउमावईए देवीए अत्तए तं होउ णं अम्हं इमस्स दारगस्स णामधेनं पउमे पउमे, सेसं जहा महाबलस्स, अट्ठओ दाओ जाव उप्पिं पासायवरगए विहरइ। सामी समोसरिए। परिसा णिग्गया। कूणिए णिग्गए। पउमेवि जहा महाबले णिग्गए तहेव अम्मापिइ आपुच्छणा जाव पव्वइए अणगारे जाए जाव गुत्तबंभयारी॥७६ ।। For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पावतंसिका सूत्र कठिन शब्दार्थ - तारिसगंसि - चित्रों से चित्रित, वासघरंसि - वासगृह में, पडिबुद्धा - प्रतिबुद्ध-जागृत हुई, अम्मापिइ आपुच्छणा - माता-पिता से पूछ कर, गुत्तबंभयारी - गुप्त ब्रह्मचारी। भावार्थ - तदनंतर वह पद्मावती देवी किसी समय अत्यंत मनोहर चित्रों से चित्रित वासगृह में अपनी शय्या पर सोई हुई थी। शयन करते हुए उसने सिंह का स्वप्न देखा। स्वप्न देख कर वह जागृत हुई। पुत्र का जन्म हुआ। महाबल की तरह उसका भी जन्म महोत्सव मनाया गया यावत् नामकरण किया-क्योंकि हमारा यह बालक कालकुमार का पुत्र और पद्मावती का आत्मज है अतः हमारे इस बालक का नाम 'पद्म' हो। शेष सारा वर्णन महाबल कुमार के समान समझना चाहिये। आठ कन्याओं के साथ उसका पाणिग्रहण हुआ, आठ आठ वस्तुएं प्रीतिदान में दी गई यावत् पद्मकुमार ऊपरी श्रेष्ठ प्रासाद (महलों) में रह कर भोग भोगते हुए विचरने लगा। भगवान् महावीर स्वामी का पदार्पण हुआ। परिषद् धर्मश्रवण करने के लिये निकली। कोणिक राजा भी धर्मोपदेश सुनने के लिये निकला। महाबल के समान पद्मकुमार भी भगवान् के समवसरण में पहुँचा। भगवान् के उपदेश से उसे वैराग्य हो गया। माता पिता से दीक्षा की अनुज्ञा प्राप्त कर प्रव्रजित हुआ यावत् गुप्त ब्रह्मचारी अनगार हो गया। पद्म अनगार की साधना तए णं से पउमे अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ अहिज्जित्ता बहूहिं चउत्थछट्ठम० जाव विहरइ॥८॥ भावार्थ - तत्पश्चात् पद्म अनगार ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के तथारूप स्थविरों के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया यावत् चतुर्थभक्त, षष्ठभक्त, अष्टमभक्त' आदि विविध प्रकार की तपस्याओं से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगा। देवलोक में उत्पत्ति तए णं से पउमे अणगारे तेणं ओरालेणं जहा मेहो तहेव धम्मजागरिया चिंता एवं जहेव मेहो तहेव समणं भगवं० आपुच्छित्ता विउले जाव पाओवगए समाणे तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारसअंगाई बहुपडिपुण्णाई पंच For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग २ अध्ययन १ उपसंहार वासाइं सामण्णपरियाए, मासियाए संलेहणाए सट्ठि भत्ताइं० आणुपुव्वी कालगए। थेरा ओइण्णा । भगवं गोयमे पुच्छर, सामी कहेइ जाब सट्ठि भत्ताइं अणसणाए छेइत्ता आलोइयपडिक्कंते उड्डुं चंदिम० सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववण्णे । दो सागराई॥८१॥ भावार्थ - तदनंतर पद्म अनगार उस उदार - प्रधान - कठिन तपस्या के आराधन से शुष्क ( रूक्ष) शरीर वाले हो गये। मेघकुमार के समान धर्मजागरणा करते हुए पद्म अनगार को चिंतन उत्पन्न हुआ। मेघकुमार के समान ही श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से पूछ कर विपुल पर्वत पर जाकर यावत् पादपोपगमन संथारा स्वीकार किया । तथारूप स्थविर भगवंतों से सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन (श्रवण) किया। पूरे पांच वर्ष की दीक्षा पर्याय पाली । एक मास की संलेखना से साठ भक़्त का छेदन कर अनुक्रम से काल (मृत्यु) को प्राप्त हुए । पद्म अनगार को कालगत जान कर स्थविर मुनि भगवान् के पास आये। स्थविर मुनियों के आने पर गौतम स्वामी ने पद्म अनगार के भविष्य के विषय में पूछा - हे भगवन्! ये पद्म अनगार काल करके कहां गये? ******** भगवान् ने फरमाया - हे गौतम! पद्म अनगार पूर्वोक्त प्रकार से एक माह का संलेखना संथारा कर यावत् अनशन से साठ भक्तों का छेदन कर आलोचना प्रतिक्रमण कर काल के समय काल करके चन्द्रमा आदि ज्योतिषी विमानों के ऊपर सौधर्म कल्प में दो सागरोपम की स्थिति वाला देव हुआ । उपसंहार से णं भंते! पउमे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं पुच्छा । गोयमा ! महाविदेहे वासे जहा दढपइण्णो जाव अंतं काहि । ६३ तं एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव संपत्तेणं कप्प - वडिंसियाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमट्टे पण्णत्ते - तिबेमि ॥ ८२ ॥ पढमं अज्झयणं समत्तं ॥ २ ॥ १॥ भावार्थ - हे भगवन्! वह पद्म देव, देव संबन्धी आयु (भव, स्थिति) के क्षय हो जाने पर देवलोक से च्यव कर कहां उत्पन्न होगा ? For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पावतंसिका सूत्र हे गौतम! पद्म देव देवलोक से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा यावत् दृढ़प्रतिज्ञ के समान सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होगा, सर्व दुःखों का अन्त करेगा। ___ इस प्रकार हे जम्बू! मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने कल्पावतंसिका सूत्र के प्रथम . अध्ययन का यह भाव फरमाया है। जैसा मैंने भगवान् से सुना है वैसा ही तुम्हें कहा है। विवेचन - प्रस्तुत अध्ययन में पद्मकुमार का वर्णन किया गया है। प्रभु के मुखारविंद से जिनवाणी का श्रवण कर पद्मकुमार ने सांसारिक सुखों का त्याग किया व भरयौवन में प्रव्रज्या अंगीकार की। दीक्षा लेकर सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। तप संयम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए अंत में विपुलगिरि पर पादपोपगमन संथारा किया और काल करके सौधर्म कल्प (देवलोक) में देव रूप से उत्पन्न हुए। जहां उनकी दो सागरोपम की स्थिति थी। पद्मदेव, देवलोक से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध बुद्ध मुक्त होंगे। ॥ प्रथम अध्ययन समाप्त। बीयं अज्झयणं द्वितीय अध्ययन जइ णं भंते! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं कप्पवडिंसियाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, दोच्चस्स णं भंते! अज्झयणस्स के अटे पण्णते? एवं खलु जम्बू! तेणं कालेणं तेणं समएणं चम्पा णाम णयरी होत्था। पुण्णभद्दे चेइए। कूणिए राया। पउमावई देवी। तत्थ णं चम्पाए णयरीए सेणियस्स रण्णो भज्जा कूणियस्स रण्णो चुल्लमाउया सुकाली णामं देवी होत्था०। तीसे णं सुकालीए पुत्ते सुकाले णाम कुमारे०। तस्स णं सुकालस्स कुमारस्स महापउमा णामं देवी होत्था, सुउमाल०॥३॥ ___ भावार्थ - जम्बू स्वामी ने पूछा - हे भगवन्! यदि मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने कल्पावतंसिका के प्रथम अध्ययन का पूर्वोक्त भाव फरमाया है तो हे भगवन्! प्रभु ने उसके द्वितीय अध्ययन का क्या भाव निरूपित किया है? . For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग २ अध्ययन २ सुधर्मा स्वामी ने फरमाया - हे जम्बू! उस काल उस समय में चंपा नामक नगरी थी। पूर्णभद्र नामक चैत्य था। कोणिक राजा राज्य करता था। उसके पद्मावती नामक पट्टरानी थी। उस चम्पानगरी के श्रेणिक राजा की पत्नी, कोणिक राजा की छोटी माता सुकाली नाम की रानी थी। उस सुकाली देवी का पुत्र सुकालकुमार था। उस सुकाल कुमार के महापद्मा नामक रानी थी जो सुकुमार यावत् विशिष्ट गुणों से युक्त थी। तए णं सा महापउमा देवी अण्णया कयाइं तंसि तारिसगंसि एवं तहेव महापउमे णामं दारए जाव सिमिहिइ, गवरं ईसाणे कप्पे उववाओ उक्कोसट्ठिइओ।णिक्खेवो॥४॥ ॥ बीयं अज्झयणं समत्तं॥ भावार्थ - उस महापद्मा रानी ने किसी समय सुखद शय्या पर सोते हुए सिंह का स्वप्न देखा, इत्यादि सारा वर्णन पूर्वानुसार कह देना चाहिये। बालक का जन्म हुआ जिसका नाम 'महापद्म' रखा गया। यावत् वह दीक्षा अंगीकार करके महाविदेह में उत्पन्न होकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होगा। इतनी विशेषता है कि महापद्म अनगार ईशान देवलोक में उत्कृष्ट स्थिति वाले देव हुए। निक्षेप - इस प्रकार हे जम्बू! मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने कल्पावतंसिका के द्वितीय अध्ययन का यह भाव फरमाया है। इस प्रकार जैसा मैंने भगवान् से सुना है वैसा ही तुम्हें कहता हूँ। विवेचन - कल्पावतंसिका के इस दूसरे अध्ययन में महापद्म कुमार का वर्णन है। महापद्म कुमार से जन्म से लेकर सिद्धि गमन तक का सारा वर्णन पद्मकुमार के समान ही समझना चाहिये। किंतु महापद्म देव की ईशान देवलोक में स्थिति कुछ अधिक दो सागरोपम की हुई। महापद्म देवलोक से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र से मोक्ष में जाएंगे। ॥ द्वितीय अध्ययन समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पावतंसिका सूत्र तृतीय से दशम अध्ययन एवं सेसावि अट्ठ णेयव्वा। मायाओ सरिसणामाओ। कालाईण दसण्हं पुत्ताणं अणुपुव्वीए दोण्हं च पंच चत्तारि तिण्हं तिण्हं च होंति तिण्णेव । दोण्हं च दोणि वासा सेणियणतण परियाओ॥१॥ - उववाओ आणुपुवीए-पढमो सोहम्मे, बीओ ईसाणे तइओ सणंकुमारे चउत्थो माहिदे पंचमो बंभलोए छट्ठो लंतए, सत्तमो महासुक्के, अट्ठमो सहस्सारे, णवमो पाणए, दसमो अचुए। सम्वत्थ उक्कोसट्ठिई भाणियग्वा। महाविदेहे सिज्झिहिंति॥५॥२॥ ॥ कप्पवडिसियाओ समत्ताओ॥ ॥ बीओ वग्गो समत्तो॥२॥ भावार्थ - इसी प्रकार शेष आठों ही अध्ययनों को समझना चाहिये। माताएं समान नाम वाली हैं अर्थात् पुत्रों के समान ही उनके नाम हैं। अनुक्रम से काल आदि दसों कुमारों के पुत्र थे। इनकी दीक्षा पर्याय क्रमशः इस प्रकार है - पद्म और महापद्म अनगार की पांच-पांच वर्ष की, भद्र सुभद्र और पद्मभद्र की चार चार वर्ष की, पद्मसेन, पद्मगुल्म और नलिनीगुल्म की तीन-तीन वर्ष की, आनंद और नंदन की दो-दो वर्ष की दीक्षा पर्याय थी। ये सभी राजा श्रेणिक के पौत्र थे। देवलोक में उत्पन्न होने का क्रम इस प्रकार है - १. पद्म का सौधर्म कल्प में, २. महापद्म का ईशान कल्प में, ३. भद्र का सनत्कुमार कल्प में, ४. सुभद्र का माहेन्द्र कल्प में, ५. पद्मभद्र का ब्रह्मलोक कल्प में, ६. पद्मसेन का लान्तक कल्प में, ७. पद्मगुल्म का महाशुक्र कल्प में, ८. नलिनीगुल्म का सहस्रार कल्प में, ६. आनंद का प्राणत कल्प में और १०. नंदन का अच्युत कल्प में उपपात (जन्म) हुआ। सभी की उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये और ये सभी महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होंगे। विवेचन - कल्पावतंसिका में वर्णित दस अध्ययनों में राजा श्रेणिक के दस पौत्रों का वर्णन है। For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माता काल वर्ग २ अध्ययन ३-१० ........................... ........................... इनके नाम, माता, पिता, देवलोक में जन्म एवं उनकी स्थिति संलग्न तालिकानुसार है। ये दसों देवलोकों से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र से मोक्ष जायेंगे - दस अध्ययनों पिता देवलोक में | देवलोक में के नाम उपपात | प्राप्त स्थिति १. पद्म पद्मावती सौधर्म । दो सागरोपम २. महापद्म महापद्मा सुकाल ईशान | दो सागर झाझेरी ३. भद्र भद्रा महाकाल सनत्कुमार सात सागरोपम ४. सुभद्र सुभद्रा . कृष्ण माहेन्द्र सात सागरोपम झाझेरी ५. पद्मभद्र, पद्मभद्रा सुकृष्ण ब्रह्मलोक | दस सागरोपम ६. पद्मसेन पद्मसेना महाकृष्ण लान्तक चौदह सागरोपम ७. पद्मगुल्म | पद्मगुल्मा वीरकृष्ण महाशुक्र सतरह सागरोपम ८. नलिनीगुल्म | | नलिनीगुल्मा रामकृष्ण सहस्रार उन्नीस सागरोपम ६. आनंद आनंदा । | पितृसेनकृष्ण | प्राणत बीस सागरोपम .१०. नंदन नंदना । महासेनकृष्ण | अच्युत ! बाईस सागरोपम ॥ तीन से दस अध्ययन समाप्त॥ ॥ कल्पावतंसिका नामक द्वितीय वर्ग समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुफियाओ (पुष्पिका) . . Pा तइओ वग्गो-पढमं अज्झयणं तृतीय वर्ग-प्रथम अध्ययन जइ णं भंते! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उवंगाणं दोच्चस्स वग्गस्स कप्पवडिंसियाणं अयमढे पण्णत्ते, तच्चस्स णं भंते! वग्गस्स उवंगाणं पुफियाणं के अढे पण्णते? एवं खलु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं उवंगाणं तच्चस्स वग्गस्स पुष्फियाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा चंदे सूरे सुक्के बहुपुत्तिय पुण्णं माणिभद्दे य। दत्ते सिवे बले या अणाढिए चेव बोद्धव्वे॥१॥ भावार्थ - जम्बू स्वामी ने आर्य सुधर्मा स्वामी से निवेदन किया - हे भगवन्! मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने यदि कल्पावतंसिका नामक द्वितीय उपांग का पूर्वोक्त भाव (आशय) फरमाया है तो हे भगवन्! तृतीय वर्ग रूप पुष्पिका नामक उपांग का क्या भाव फरमाया है? सुधर्मा स्वामी ने उत्तर दिया-हे जम्बू! मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने तीसरे वर्ग रूप पुष्पिका नामक उपांग के दस अध्ययन कहे हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं - १. चन्द्र २. सूर्य ३. शुक्र ४. बहुपुत्रिक ५. पूर्ण ६. मानभद्र ७. दत्त ८. शिव ६. बल और १० अनादृत। ये दस अध्ययन कहे गये हैं। विवेचन - तीसरे उपांग (वर्ग) का नाम पुफियाओ (पुष्पिका) है। इसमें दस अध्ययन हैं। इन दस अध्ययनों में धार्मिक कार्य करके देवलोक में उत्पन्न होने वाले दस जीवों का वर्णन है। जइ णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं पुफियाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते!....समणेणं जाव संपत्तेणं के अढे पण्णते? एवं खलु जम्बू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णाम जयरे। गुणसिलए चेइए। सेणिए राया। तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे। परिसा णिग्गया। For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ३ अध्ययन १ चन्द्रदेव भगवान् के समवसरण में भावार्थ - जम्बू स्वामी ने आर्य सुधर्मा स्वामी से पुनः पूछा- हे भगवन् ! यदि मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने पुष्पिका नामक तृतीय उपांग के दस अध्ययन फरमाये हैं तो हे भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने प्रथम अध्ययन का क्या भाव फरमाया है? सुधर्मा स्वामी ने प्रत्युत्तर में कहा हे जम्बू! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था । वहाँ गुणाशिलक नामक चैत्य था। वहाँ श्रेणिक राजा राज्य करता था । उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वहाँ पधारे। दर्शनार्थ परिषद् निकली । चन्द्रदेव भगवान् के समवसरण में तेणं कालेणं तेणं समएणं चंदे जोइसिंदे जोइसराया चंदवडिंसए विमाणे सभाए सुहम्माए चंदंसि सीहासणंसि चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं जाव विहरइ । इमं च णं केवलकप्पं जम्बुद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएणाणे आभोएमाणे पासइ पासित्ता समणं भगवं महावीरं जहा सूरिया आभिओगे देवे सहावेत्ता जाव - सुरिंदाभिगमणजोग्गं करेत्ता तमाणत्तियं पञ्चष्पिणंति । सूसरा घंटा जाव विउव्वणा, णवरं जाणविमाणं जोयणसहस्सवित्यिण्णं अद्धतेवद्विजोयणसमूलियं, महिंदज्झओ पणुवीसं जोयणमूसिओ, सेसं जहा सूरियाभस्स जाव आगओ, णट्टविही तहेव पडिओ ॥ ८६ ॥ कठिन शब्दार्थ - जोइसिंदे - ज्योतिषियों के इन्द्र, जोइसराया - ज्योतिषियों के राजाज्योतिष्कराज, चंदवर्डिसए - चन्द्रावतंसक, केवलकप्पं- केवल कल्प (संपूर्ण), विउलेणं विपुल, ओहिणा - अवधिज्ञान से, सुरिंदाभिगमणजोग्गं - सुरेन्द्रों के अभिगमन करने योग्य कार्य, सूसरा - सुस्वरा, णट्टविहि- नाट्यविधि, महिंबज्झओ - महेन्द्र ध्वज । भावार्थ - उस काल और उस समय में ज्योतिष्कराज - ज्योतिषियों के राजा, ज्योतिष्केन्द्रज्योतिषियों के इन्द्र चन्द्र चन्द्रावतंसक विमान की सुधर्मा सभा में चन्द्र नामक सिंहासन पर बैठ कर चार हजार सामानिक देवों यावत् सपरिवार भोगों को भोगता हुआ विचर रहा था । तब उसने अप विपुल अवधि ज्ञान से देखते हुए, इस सम्पूर्ण जंबूद्वीप को देखा, तभी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को भी देखा तथा भगवान् के दर्शनार्थ जाने का विचार कर सूर्याभदेव के समान अपने आभियोगिक ६६ For Personal & Private Use Only - Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० पुष्पिका सूत्र देवों को बुलाया यावत् उन्हें सुरेन्द्रों के अभिगमन करने योग्य कार्य करने की आज्ञा दी यावत् उन देवों ने सुरेन्द्रों के अभिगमन करने योग्य कार्य करके आज्ञा वापिस लौटाई अर्थात् सूचित किया। सुस्वरा घंटा को बजा कर यावत् सूर्याभदेव के समान नाट्यविधि आदि प्रदर्शित करने की विकुर्वणा की। किन्तु सूर्याभदेव के वर्णन से इतनी विशेषता है कि इसका यान विमान एक हजार योजन विस्तीर्ण (लंबा चौड़ा) व साढे बासठ योजन ऊंचा था। महेन्द्र ध्वज की ऊंचाई पच्चीस योजन की थी। इसके अलावा शेष सारा वर्णन सूर्याभ देव के समान समझना चाहिये यावत् जिस प्रकार सूर्याभदेव भगवान् की सेवा में आया, नाट्यविधि प्रदर्शित की और वापिस लौट गया। उसी प्रकार चन्द्रदेव के विषय में भी समझ लेना चाहिए। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में चन्द्रदेव के भगवान् के समवसरण में जाने का वर्णन है। ... किसी समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी राजगृही नगरी में पधारे। सामान्य मानवों के समान ही देवगण भी अपनी ऋद्धि समृद्धि के साथ प्रभु के दर्शनार्थ आये। जब ज्योतिष्कदेव चन्द्र अपने विमान में बैठ कर अवधिज्ञान के द्वारा संपूर्ण जंबूद्वीप को देख रहा था तभी उसने देखा कि परम पावन श्रमण शिरोमणि भगवान् महावीर स्वामी राजगृह में विराज रहे हैं। चन्द्रदेव को भी भगवान् के समवसरण में जाने की भावना हुई। उसने अपने आभियोगिक देवों को बुलाकर दर्शन के लिए जाने की सर्व तैयारी करने का आदेश दिया। जिस प्रकार राजप्रश्नीय सूत्र में सूर्याभ देव का भगवान् के दर्शनार्थ जाने, नाट्य विधि दिखाने आदि का वर्णन दिया गया है उसी प्रकार सम्पूर्ण वर्णन चन्द्र देव के विषय में भी समझ लेना चाहिए। जिस प्रकार सूर्याभदेव ३२ प्रकार के नाटक दिखा कर स्वस्थान जाता है ठीक उसी प्रकार चन्द्र देव भी नाटक दिखा कर लौट जाता है। विशेष जानकारी के लिए जिज्ञासुओं को राजप्रश्नीय सूत्र का सूर्याभ देव प्रकरण देख लेना चाहिए। - गौतम स्वामी की जिज्ञासा । भंते! ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरस्स पुच्छा। कूडागारसाला। सरीरं अणुपविट्ठा। पुवभवो। ____ एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी णामं णयरी होत्था। कोट्ठए चेइए। तत्थ णं सावत्थीए० अंगई णामं गाहावई होत्था, अढे जाव अपरिभूए। तए णं से अंगई गाहावई सावत्थीए णयरीए बहूणं णगरणिगम० जहा आणंदो॥८७॥ For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ वर्ग ३ अध्ययन १ गौतम स्वामी की जिज्ञासा ........................................................... भावार्थ - हे भगवन्! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज चन्द्र द्वारा वह विकुर्वित दिव्य देव ऋद्धि, दिव्य देव द्युति दिव्य देव प्रभाव कहां चले गये? कहां प्रविष्ट हो गये? भगवान् ने कूटाकार शाला का दृष्टान्त देते हुए फरमाया कि हे गौतम! चन्द्र द्वारा विकुर्वित वह सब दिव्य ऋद्धि आदि उसके शरीर में चली गयी, शरीर में प्रविष्ट हो गई। ___इस दिव्य देवर्द्धि का कारण जानने के लिए गौतम स्वामी ने उसके पूर्व भव को जानने की जिज्ञासा की तो प्रभु ने फरमाया-हे गौतम! उस काल और उस समय में श्रावस्ती नगरी में अंगति नामक एक गाथापति रहता था जो ऋद्धि संपन्न यावत् अपरिभूत था। आनंद श्रावक के समान वह अंगति गाथापति भी श्रावस्ती नगरी के बहुत से नगर निवासी व्यापारी श्रेष्ठी आदि के बहुत से कार्यों आदि में पूछने योग्य, परामर्श करने योग्य यावत् सभी कार्यों में अग्रसर था। ___विवेचन - चन्द्रदेव के नाटक दिखा कर लौटने के बाद गौतम स्वामी की जिज्ञासा का समाधान करते हुए भगवान् ने कूटाकार शाला का दृष्टान्त इस प्रकार दिया - .... हे गौतम! जैसे कोई एक भीतर-बाहर गोबर आदि से लिपी-पुती, बाहर चारों ओर एक परकोटे से घिरी हुई गुप्त द्वारों वाली और उनमें भी सघन किवाड़ लगे हुए हैं अतः जिसमें वायु का प्रवेश भी होना अशक्य है ऐसी गहरी विशाल कुटाकार-पर्वत-शिखर के आकार वाली शाला हो और उस कूटाकार शाला के समीप विशाल जनसमुदाय बैठा हुआ हो। अपनी ओर आते हुए बहुत बड़े मेघपटल को अथवा जल वर्षक बादल को अथवा प्रचंड आंधी को देख कर जैसे वह जन समूह उस कूटाकार शाला में समा जाता है उसी प्रकार हे आयुष्मन् गौतम! चन्द्रदेव की वह दिव्य देव ऋद्धि आदि उसी के शरीर में प्रविष्ट हो गई-समा गई। __ यह सुन कर गौतम स्वामी को पुनः जिज्ञासा हुई कि चन्द्र देव को यह दिव्य ऋद्धि यावत् दिव्य देवानुभाव कैसे प्राप्त हुआ? इसके समाधान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अंगति गाथापति का वर्णन किया है। उपासकदशांग सूत्र में वर्णित आनंद श्रावक के समान ही अंगति गाथापति का वर्णन समझ लेना चाहिए। जो इस प्रकार है___ अंगति गाथापति बहुत बड़ी ऋद्धि आदि से युक्त था, कीर्ति से उज्ज्वल था। उसके पास बहुत से घर, शय्या, आसन, गाड़ी, घोड़े आदि थे और वह बहुत से धन तथा बहुत से सोना चांदी आदि का लेनदेन करता था। उसके घर में खाने के बाद बहुत-सा अन्न पान आदि खाने पीने का सामान रहता था जो अनाथ-गरीब मनुष्यों को व पशु पक्षियों को दिया जाता था। उसके यहाँ बहुत-सी For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पिका सूत्र दास दासियाँ थीं और बहुत से गाय, भैंस आदि थे। वह अपरिभूत-प्रभावशाली था अर्थात् उसका कोई पराभव नहीं कर सकता। ____ वह अंगति गाथापति राजा ईश्वर यावत् सार्थवाहों के द्वारा बहुत से कार्यों में, कारणों में, मंत्रणाओं में, पारिवारिक समस्याओं में, गोपनीय बातों में, निर्णयों में, सामाजिक व्यवहारों में पूछने योग्य एवं परामर्श करने योग्य था। वह अपने कुटुम्ब का मेढिभूत, प्रमाणभूत, आधारभूत आलंबन भूत और चक्षुभूत था। अंगति गाथापति सभी कार्यों में अग्रसर-सभी कार्यों को संपादन करने वाला था। पार्श्व प्रभु का पदार्पण तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे णं अरहा पुरिसादाणीए आइगरे जहा महावीरो णवुस्सेहे सोलसेहिं समणसाहस्सीहिं अट्ठतीसाए अज्झियासहस्सेहिं जाव कोट्ठए समोसढे। परिसा णिग्गया॥८॥ कठिन शब्दार्थ - पुरिसादाणीए - पुरुषादानीय-पार्श्वप्रभु, आइगरे - आदिकर-धर्म की : आदि करने वाले, णवुस्सेहे - नौ हाथ की अवगाहना वाले। ____ भावार्य - उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समान ही धर्म की आदि करने वाले आदि विशेषणों से युक्त, नौ हाथ की अवगाहना वाले पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व प्रभु सोलह हजार साधुओं और अड़तीस हजार साध्वियों के साथ ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए यावत् कोष्ठक चैत्य में पधारे। परिषद् दर्शनार्थ निकली। अंगति अनगार बना तए णं से अंगई गाहावई इमीसे कहाए लद्धढे समाणे हढे जहा कत्तिओ सेट्ठी तहा णिग्गच्छइ जाव पञ्जवासइ, धम्मं सोचा णिसम्म० ज णवरं देवाणुप्पिया! जेट्टपुत्तं कुटुंबे ठावेमि, तए णं अहं देवाणुप्पियाणं जाव पव्वयामि, जहा गंगदत्ते तहा पव्वइए जाव गुत्तबंभयारी॥६॥ . ____ भावार्थ - तत्पश्चात् वह अंगति गाथापति भगवान् पार्श्वनाथ के पदार्पण का समाचार सुन कर हर्षित एवं संतुष्ट होता हुआ कार्तिक सेठ के समान अपने घर से निकला यावत् पर्युपासना की। For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ३ अध्ययन १ अंगति अनगार का उपपात ७३ ........................................................... प्रभु पार्श्वनाथ के द्वारा उपदिष्ट श्रुत चारित्र रूप धर्म को सुना और हृदय में धारण कर विनयपूर्वक प्रभु से निवेदन किया - "हे भगवन्! मैं अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंप कर आपके पास प्रव्रजित होना चाहता हूँ।" तदनन्तर गंगदत्त के समान प्रव्रजित हुआ यावत् गुप्त ब्रह्मचारी अनगार बन गया। विवेचन - कार्तिक सेठ और गंगदत्त के समान अंगति गाथापति प्रभु के दर्शनार्थ निकले और प्रव्रजित हुए। कार्तिक सेठ और गंगदत्त का विस्तृत वर्णन जानने के लिए जिज्ञासुओं को संघ द्वारा प्रकाशित भगवती सूत्र (१-७) का अवलोकन करना चाहिए। अंगति अनगार का उपपात तए णं से अंगई अणगारे पासस्स अरहओ तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ अहिज्जित्ता बहूहिं चउत्थ जाव भावेमाणे बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणइ पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए तीसं भत्ताई अणसणाए छेइत्ता विराहियसामण्णे कालमासे कालं किच्चा चंदवडिंसए विमाणे उववा(य)इयाए सभाए देवसयणिज्जंसि देवदूसंतरिए चंदे जोइसिंदत्ताए उववण्णे॥१०॥ ____ कठिन शब्दार्थ - विराहियसामण्णे - विराधित चारित्र-संयम विराधना के कारण, देवसयणिज्जसि- देव शय्या में, देवदूसंतरिए - देवदूष्य से आच्छादित, उववाइयाए सभाए - उपपात सभा में। ____भावार्य - तब अंगति अनगार ने अर्हत् पार्श्वप्रभु के तथारूप स्थविरों के समीप सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। अध्ययन करके बहुत से चतुर्थ भक्त यावत् अपनी आत्मा को भावित करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण पर्याय का पालन कर अर्द्ध मासिक संलेखना से अनशन द्वारा तीस भक्तों का छेदन कर काल के समय काल करके संयम विराधना के कारण चन्द्रावतंसक की उपपात सभा में देवदूष्य वस्त्रों से आच्छादित देवशय्या में ज्योतिष्केन्द्र-ज्योतिषियों के इन्द्र चन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ। विवेचन - संयम विराधना दो प्रकार की है - मूलगुण विराधना और उत्तरगुण विराधना। पांच नहाव्रतों में दोष लगाना मूल गुण विराधना है तथा पिण्ड-विशुद्धि आदि में दोष लगाना उत्तर For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ पुष्पिका सूत्र गुण विराधना है। अंगति अनगार ने उत्तरगुण विराधना करके आलोचना नहीं की इसलिए ज्योतिषी देव हुए। ___तए णं से चंदे जोइसिंदे जोइ(सि)सराया अहुणोववण्णे समाणे पंचविहाए पजत्तीए पजत्तीभावं गच्छइ, तंजहा-आहारपजत्तीए सरीरपजत्तीए इंदियपजत्तीए सासोसासपजत्तीए भासामणपज्जत्तीए॥१॥ भावार्थ - तब अद्युतोत्पन्न ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज चन्द्र पांच प्रकार की पर्याप्तियोंआहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति, श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति और भाषामन पर्याप्तिसे पर्याप्त भाव को प्राप्त हुआ। उपसंहार चंदस्स णं भंते! जोइसिंदस्स जोइसरण्णो केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा! पलिओवमं वाससयसहस्समभहियं। एवं खलु गोयमा! चंदस्स जाव . जोइसरण्णो सा दिव्वा देविड्डी०। चंदे णं भंते! जोइसिंदे जोइसराया ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं चइत्ता कहिं गच्छिहिइ, कहिं उववज्जिहिइ? गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ ५। णिक्खेवओ॥२॥ . पढमं अज्झयणं समत्तं॥३॥१॥ भावार्थ - गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से पूछा- "हे भगवन्! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज चन्द्र की स्थिति कितने काल की कही गई है?" ____ हे गौतम! ज्योतिषियों के इन्द्र, ज्योतिषियों के राजा चन्द्र की स्थिति एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की कही गई है। इस प्रकार हे गौतम! उस ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज ने वह दिव्य देव ऋद्धि प्राप्त की है। हे भगवन्! चन्द्रदेव अपनी आयु, भव तथा स्थिति के क्षय होने पर कहाँ जाएंगे? कहाँ उत्पन्न होंगे? हे गौतम! महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होंगे। हे आयुष्मन् जम्बू! इस प्रकार मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने पुष्पिका के प्रथम अध्ययन का यह भाव निरूपित किया है। ऐसा मैं कहता हूँ। For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ३ अध्ययन २ ७५ विवेचन - ज्योतिषियों के इन्द्र, ज्योतिषियों के राजा चन्द्र देव की दिव्य ऋद्धि आदि का कारण पूर्वभव-अंगति अनगार द्वारा तप संयम की विराधना की गई है। अंगति अनगार दीर्घ तपस्या के बाद पन्द्रह दिन की संलेखना संथारा कर चन्द्रावतंसक विमान में चन्द्ररूप से उत्पन्न हुए। चन्द्रदेव की स्थिति पूर्ण कर वह महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होंगे और वहाँ से सिद्ध, बुद्ध मुक्त हो सभी दुःखों का अन्त करेंगे। इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने पुष्पिका का प्रथम अध्ययन फरमाया है। ॥ प्रथम अध्ययन समाप्त॥ बिइयं अज्झयणं द्वितीय अध्ययन जइ णं भंते! समणेणं भगवया जाव पुफियाणं पढमस्स अज्मयणस्स अयमढे पण्णत्ते, दोच्चस्स णं भंते! अज्झयणस्स पुष्फियाणं समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते? ____ एवं खलु जम्बू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णामं णयरे। गुणसिलए चेइए। सेणिए राया। समोसरणं। जहा चंदो तहा सूरोवि आगओ जाव णट्टविहिं उवदंसित्ता पडिगओ। पुव्वभवपुच्छा। सावत्थी णयरी। सुपइटे णामं गाहावई होत्था, अड्डे जहेव अंगई जाव विहरइ। पासो समोसढो, जहा अंगई पव्वइए, तहेव विराहियसामण्णे जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाव अंतं करेहिइ। णिक्खेवओ॥३॥ बिइयं अज्झयणं समत्तं ॥३॥२॥ भावार्थ - जम्बूस्वामी ने सुधर्मा स्वामी से पूछा-हे भगवन्! यदि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने पुष्पिका के प्रथम अध्ययन का पूर्वोक्तानुसार निरूपण किया है तो हे भगवन्! पुष्पिका के द्वितीय अध्ययन में मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने क्या भाव फरमाये हैं? For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ पुष्पिका सूत्र ........................................................... सुधर्मा स्वामी ने फरमाया - हे जम्बू! उस काल उस समय में राजगृह नाम की नगरी थी। उस नगरी में गुणशिलक नामक चैत्य था। श्रेणिक नाम के राजा थे। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का राजगृह पदार्पण हुआ। जिस प्रकार चन्द्र इन्द्र भगवान् की पर्युपासना करने आया उसी प्रकार सूर्य इन्द्र भी आया यावत् नाट्य विधि दिखा कर लौट गया। ___तत्पश्चात् गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर स्वामी से पूछा-हे भगवन्! सूर्य, पूर्व भव में कौन था? प्रभु ने समाधान करते हुए फरमाया- हे गौतम! श्रावस्ती नाम की नगरी थी। उस नगरी में सुप्रतिष्ठ नामक गाथापति रहता था। वह भी अंगति के समान ही आढ्य ऋद्धि संपन्न, धनाढ्य यावत् अपरिभूत (प्रभावशाली) था। श्रावस्ती नगरी में भगवान् पार्श्व प्रभु समवसृत हुए-पधारे। जिस प्रकार अंगति दीक्षित हुआ उसी प्रकार सुप्रतिष्ठ भी प्रव्रजित हुए। उसी प्रकार संयम की विराधना करके काल के समय काल कर सूर्य विमान में देव रूप में उत्पन्न हुए। सूर्य देव वहाँ से आयु क्षय होने पर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा यावत् सर्व दुःखों का अंत करेगा। हे जम्बू! इस प्रकार मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने पुष्पिका का द्वितीय अध्ययन फरमाया है। ऐसा मैं कहता हूँ। _ विवेचन - प्रथम अध्ययन में चन्द्र देव का वर्णन करने के बाद पुष्पिका के इस दूसरे अध्ययन में सूर्य देव का वर्णन है। चन्द्र देव के समान सूर्य द्वारा भी नाटक दिखाने के बाद गौतम स्वामी ने अपनी जिज्ञासा की उपशांति के लिए प्रभु से प्रश्न किया-हे प्रभो! यह सूर्य पूर्व भव में कौन था? इसने क्या दान दिया, क्या भोग किया, क्या तप आदि किया जिससे इसे यह दिव्य देव ऋद्धि आदि प्राप्त भगवान् ने गौतम स्वामी की जिज्ञासा का समाधान करते हुए फरमाया-हे गौतम! उस काल उस समय में श्रावस्ती नामक नगरी थी। उस नगरी में सुप्रतिष्ठ नामक गाथापति निवास करता था। जो अंगति गाथापति के समान ही ऋद्धि समृद्धि से युक्त और प्रभावशाली था। किसी समय भगवान् पार्श्वप्रभु श्रावस्ती नगरी में पधारे। परिषद् दर्शनार्थ निकली। सुप्रतिष्ठ गाथापति भी प्रभु आगमन के शुभ समाचार सुन कर सेवा में पहुँचा। भगवान् पार्श्व के मुखारविंद से अमोघ जिनवाणी का रसास्वादन करके सुप्रतिष्ठ संसार से विरक्त हो गया और अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित कर प्रभु के पास प्रव्रज्या अंगीकार कर ली। दीक्षित होकर तथारूप स्थविरों के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया तथा तप संयम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए काल के समय For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ वर्ग ३ अध्ययन ३ शुक्र महाग्रह विषयक पृच्छा ....................................................... काल कर संयम विराधना के कारण सूर्यावतंसक विमान की उपपात सभा की देवदूष्य से आच्छादित देव शय्या में ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज सूर्य के रूप में उत्पन्न हुआ। सूर्य देव की आयु, भव, स्थिति क्षय होने पर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा और वहाँ से सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होगा। - सुधर्मा स्वामी, जम्बूस्वामी से फरमाते है कि हे जम्बू! मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने पुष्पिका के द्वितीय अध्ययन का यह भाव निरूपण किया है। जैसा मैंने भगवान् से सुना है वैसा ही तुम्हें कहता हूँ। ॥ द्वितीय अध्ययन समाप्त॥ तइयं अज्झयणं तृतीय अध्ययन शुक्र महाग्रह विषयक पृच्छा जइ णं भंते! जाव संपत्तेणं उक्खेवओ भाणियव्वो। रायगिहे णयरे। गुणसिलए चेइए। सेणिए राया। सामी समोसढे। परिसा णिग्गया। तेणं कालेणं तेणं समएणं सुक्के महग्गहे सुक्कवडिंसए विमाणे सुक्कंसि सीहासणंसि चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं जहेव चंदो तहेव आगओ, णट्टविहिं उवदंसित्ता पडिगओ। भंते! ति। कूडागारसाला। पुव्वभवपुच्छा, एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणारसी णामं णयरी होत्या। तत्थ णं वाणारसीए णयरीए सोमिले णामं माहणे परिवसइ, अले जाव अपरिभूए, रिउव्वेय जाव सुपरिणिट्ठिए। पासे समोसढे। परिसा पञ्जवासइ॥४॥ . भावार्थ - जम्बू स्वामी ने आर्य सुधर्मा स्वामी से पूछा- “हे भगवन्! यदि मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने पुष्पिका के द्वितीय अध्ययन का भाव पूर्वोक्तानुसार फरमाया है तो हे भगवन् भगवान् महावीर स्वामी ने पुष्पिका के तृतीय अध्ययन का क्या भाव फरमाया है?" For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ पुष्पिका सूत्र ........................................................... सुधर्मा स्वामी ने फरमाया-हे जम्बू! उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था। गुणशिलक चैत्य था। उस नगर में श्रेणिक नाम के राजा थे। वहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे। परिषद् दर्शनार्थ निकली। उस काल उस समय में शुक्र महाग्रह शुक्रावतंसक विमान में शुक्र सिंहासन पर चार हजार सामानिक देवों आदि के साथ बैठा हुआ था। चन्द्र के समान ही वह शुक्र भी भगवान् महावीर स्वामी के पास आया और नाट्य विधि आदि दिखा कर लौट गया। तत्पश्चात् 'हे भगवन्!' इस प्रकार संबोधन कर गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से उसकी दिव्य देव ऋद्धि आदि के विषय में पूछा। भगवान् ने कूटाकारशाला का दृष्टान्त देकर समाधान किया। तत्पश्चात् उसके पूर्वभव के विषय में पूछा। भगवान् ने फरमाया - हे गौतम! उस काल और उस समय में वाणारसी नाम की नगरी थी। उस वाणारसी नाम की नगरी में सोमिल नामक ब्राह्मण रहता था। वह ऋद्धि, धन धान्य से संपन्न यावत् अपरिभूत था। वह ऋग्वेद यावत् दर्शन शास्त्र आदि में परिनिष्ठित-निष्णात था। वहाँ भगवान् पार्श्वनाथ का पर्दापण हुआ। परिषद् निकली। सोमिल ब्राह्मण श्वावक बना तए णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स इमीसे कहाए लद्धहस्स. समाणस्स इमे एयारूवे अज्झथिए०-एवं खलु पासे अरहा पुरिसादाणीए पुवाणुपुब्विं जाव अम्बसालवणे विहरइ, तं गच्छामि णं पासस्स अरहओ अंतिए पाउन्भवामि, इमाई च णं एयाख्वाइं अट्ठाई हेऊई जहा पण्णत्तीए। सोमिलो णिग्गओ खण्डियविहूणो जाव एवं वयासी-जत्ता ते भंते! जवणिज्नं च ते? पुच्छा। सरिसवया मासा कुलत्था एगे भवं जाव संबुद्धे सावगधम्म पडिवजित्ता पडिगए॥६५॥ -----... ___कठिन शब्दार्थ - खण्डिय विहूणो - शिष्यों को साथ लिये बिना ही, जत्ता - यात्रा, जवणिलं - यापनीय, सरिसवया - सरिसव-सरसों, मासा - माष-उड़द, कुलत्था - कुलत्थकुलथी धान्य, संबुद्धे - सम्बुद्ध, सावगधम्म - श्रावक धर्म को, पडिवञ्जित्ता - अंगीकार कर। भावार्थ - भगवान् के पधारने का वृत्तान्त सुन कर उस सोमिल ब्राह्मण के हृदय में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ कि अर्हत् पार्श्व प्रभु अनुक्रम से ग्रामानुग्राम विचरते हुए यावत् आम्रशाल वन में पधारे हैं अतः मैं जाऊं और भगवान् पार्श्वनाथ के समीप उपस्थित होकर उनसे इस प्रकार अर्थ, For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ३ अध्ययन ३ सोमिल मिथ्यात्वी बना ७६ ........................................................... हेतु आदि पूछू ऐसा विचार कर शिष्यों को अपने साथ लिये बिना ही सोमिल अपने घर से निकला यावत् भगवान् की सेवा में पहुँच कर इस प्रकार बोला-'हे भगवन्! आप के यात्रा है? आपके यापनीय है? आपके लिये सरिसव, माष और कुलत्थ भक्ष्य है या अभक्ष्य? आप एक है या दो आदि' यावत् सोमिल संबुद्ध हुआ-बोध युक्त हो श्रावक धर्म को स्वीकार कर स्वस्थान लौट गया। विवेचन - चन्द्र और सूर्य की तरह शुक्रावतंसक विमान का स्वामी शुक्र भी भगवान् महावीर स्वामी के समवशरण में आया और ऋद्धि समृद्धि से युक्त नाटक प्रदर्शन कर चला गया। शुक्र के गमन के उपरान्त गौतम स्वामी ने जिज्ञासा वश भगवान् से उसके पूर्व भव का वृत्तांत पूछा। भगवान् ने फरमाया-वाराणसी नगरी में सोमिल नामका ब्राह्मण था। वह अपने समय का अद्वितीय कर्म काण्डी, वेद वेदांगों में पारंगत तथा यज्ञ क्रियाओं में निपुण था। एक बार वाराणसी नगरी में भगवान् पार्श्वनाथ का पदार्पण हुआ। सोमिल ब्राह्मण अपने अहं की तुष्टि तथा विद्वानों ने अपना एकाधिकार सिद्ध करने के लिए भगवान् को पराजित करने के उद्देश्य से उनके पास पहुँचा किन्तु भगवान् पार्श्वनाथ प्रभु ने सोमिल द्वारा पूछे गये प्रश्नों का स्याद्वादवाणी से युक्ति युक्त समाधान किया। भगवान् के उपदेश को सुन कर सोमिल ने श्रावक धर्म स्वीकार कर लिया। . सोमिल द्वारा प्रभु से पूछे गये प्रश्नोत्तरों का विस्तृत वर्णन भगवती सूत्र के अठारहवें शतक के दसवें उद्देशक में तथा ज्ञाताधर्म कथांग के शैलक नामक पांचवें अध्ययन में देख लेना चाहिए। सोमिल मिथ्यात्वी बना ... तए णं पासे णं अरहा अण्णया कयाइ वाणारसीओ णयरीओ अम्बसालवणाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। तए णं से सोमिले माहणे अण्णया कयाइ असाहुदंसणेण य अपञ्जवासणयाए य मिच्छत्तपज्जवेहिं परिवड्डमाणेहिं परिवडमाणेहिं सम्मत्तपञ्जवेहिं परिहायमाणेहिं परिहायमाणेहिं मिच्छत्तं च पडिवण्णे॥६६॥ ___ कठिन शब्दार्थ - असाहुदंसणेण - साधु का दर्शन नहीं करने से, अपञ्जवासणयाए - पर्युपासना नहीं करने से, मिच्छत्तपञ्जवेहिं - मिथ्यात्व पर्यायों के, परिवढमाणेहिं - प्रवर्द्धमान होने (बढ़ने)से, सम्मत्तपनवेहिं - सम्यक्त्व पर्यायों के, परिहायमाणेहिं - परिहीयमान होने (घटने) से। For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पक भावार्थ - तत्पश्चात् किसी समय भगवान् पार्श्व प्रभु वाराणसी नगरी के आम्रशालवन उद्यान से निकले और निकल कर जनपद में विहार करने लगे । उसके बाद वह सोमिल ब्राह्मण किसी समय असाधुओं के दर्शन से तथा सुसाधुओं की पर्युपासना नहीं करने से मिथ्यात्व पर्यायों के बढ़ने और सम्यक्त्व पर्यायों के घटने के कारण मिथ्यात्वी हो गया। विवेचन - वृक्ष उचित पानी को पाकर पल्लवित और पुष्पित होकर सुन्दर लगता है अन्यथा सूख जाता है। सोमिल की 'यही दशा हुई। भगवान् के उपदेश से वह बोधि को पाकर सम्यक्त्वी (श्रावक) बना किन्तु कालान्तर से सुसाधुओं के दर्शन और पर्युपासना नहीं होने के कारण पुनः मिथ्यात्व के रंग में रंग गया। सोमिल का संकल्प तए णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुम्बजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था एवं खलु अहं वाणारसीए णयरीए सोमिले णामं माहणे अचंतमाहणकुलप्पसूए, तए णं मए वयाइं चिण्णाई, वेया य अहिया, दारा आहूया, पुत्ता जणिया, इड्डीओ समाणीयाओ, पसुव (बन्) धाकया, जण्णा जेट्ठा, दक्खिणा दिण्णा, अतिही पूइया, अग्गी हूया, जूवा णिक्खित्ता, तं सेयं खलु मम इयाणि कल्लं जाव जलंते वाणारसीए Το 4444 यरीए बहिया बहवे अम्बारामा रोवावित्तए, एवं माउलिंगा बिल्ला कविट्ठा चिंचा पुप्फारामा रोवावित्तए, एवं संपेहेइ संपेहित्ता कल्लं जाव जलते वाणारसीए णयरीए बहिया अम्बारामे य जाव पुष्फारामे य रोवावेइ । तए णं बहवे अम्बारामा य जाव पुप्फारामा य अणुपुव्वेणं सारक्खिजमाणा संगोविजमाणा संविज्जमाणा आरामा जाया किण्हा किण्होभासा जाव रम्मा महामेहणिकुरम्बभूया पत्तिया पुफिया फलिया हरियगरेरिज्जमाणसिरीया अईव अईव उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिट्ठति ॥ ९७ ॥ कठिन शब्दार्थ - वयाइं - व्रतों को, चिण्णाई - ग्रहण किया, अहिया - अध्ययन किया, दारा पत्नी, आहूया लाया, जणिया जन्म दिया, समाणीयाओ संग्रह किया, पसुवधा - - - For Personal & Private Use Only - Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - वर्ग ३ अध्ययन ३ सोमिल द्वारा तापस प्रव्रज्या ग्रहण ............................................................ (पसुबंधा)कया- पशुओं-गाय, भैंसों का पालन किया, जण्णा - यज्ञ, दक्खिणा- दक्षिणा, दिण्णादी, अतिहि - अतिथि, पूइया - पूजा (सत्कार), हूया - हवन, जूवा - यूप, णिक्खित्ता - स्थापित किये, अम्बारामा- आम्र उद्यान, माउलिंगा - मातुलिंग (बिजौरा), बिल्ला - बिल्व-बेल, कविट्ठाकविट्ठ (कैथ), चिंचा - इमली, पुष्फारामा - पुष्प उद्यान (फूलों की वाटिका), सारक्खिज्जमाणासंस्क्षण किये जाने से, संगोविज्जमाणा - संगोपन किये जाने से, संवहिज्जमाणा - संवर्धन किये जाने से, किण्हा - कृष्ण-श्यामल वर्ण, किण्होभासा - श्यामल आभा वाले; महामेह णिकुरम्बभूयामहामेघों के समूह के समान, हरियगरेरिज्जमाणसिरीया - हरी भरी शोभा से। ___ भावार्थ - तदनन्तर किसी समय मध्य रात्रि में कुटुम्ब जागरणा करते हुए उस सोमिल ब्राह्मण को इस प्रकार विचार-मानसिक संकल्प उत्पन्न हुआ-मैं वाराणसी नगरी का रहने वाला उच्च ब्राह्मण कुन (अत्यंत शुद्ध ब्राह्मण कुल) में उत्पन्न हुआ हूँ। मैंने व्रतों को अंगीकार किया, वेदों का अध्ययन किया, विवाह किया, पुत्रादि को जन्म दिया, समृद्धियों को एकत्रित किया, गाय भैंसों का पालन किया, यज्ञं किये, दक्षिणा दी, अतिथि पूजा की, सत्कार किया, अग्नि में हवन किया, यूप-यज्ञीय स्तम्भ रोपा इत्यादि कार्यों को किया। अब मुझे यह उचित है कि मैं कल-रात बीत जाने यावत् प्रातःकाल होने पर वाराणसी नगरी के बाहर बहुत से आम के बगीचे लगवाऊँ, इसी प्रकार मातुलिंग-बिजोरा, बेल, कपित्थ (कविट्ठ), चिंचा-इमली और फूलों के बगीचे लगवाऊँ। इस प्रकार विचार किया और विचार करके रात बीतने पर सूर्योदय होते ही उसने वाराणसी नगरी के बाहर आम के बगीचे यावत् फूलों के बगीचे लगवाएं। तदनन्तर वे बहुत से आम के बगीचे यावत् फूलों के बगीचे अनुक्रम से संरक्षण, संगोपन-लालन पालन और संवर्द्धन किये जाने से दर्शनीय उद्यान बन गये। वे कृष्ण वर्ण-श्यामल, श्यामल आभा वाले यावत् रमणीय महामेघों के समूह समान पत्रित, पुष्पित, फलित होकर अपनी हरी भरी आभा से अत्यंत शोभायमान हो गये। सोमिल द्वारा तापस प्रवंज्या ग्रहण तए णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुम्बजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्झित्था-एवं खलु अहं वाणारसीए णयरीए सोमिले णामं माहणे अञ्चंतमाहणकुलप्पसूए, तए णं मए वयाई चिण्णाई जाव जूवा णिक्खित्ता, तए णं मए वाणारसीए णयरीए बहिया बहवे अम्बारामा जाव पुष्फारामा य रोवाविया, तं सेयं खलु ममं इयाणि कल्लं For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पिका सूत्र ......................................................... . जाव जलते सुबहुं लोहकडाहकडुच्छुयं तम्बियं तावसभंडं घडावेत्ता विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं....मित्तणाइ....आमंतेत्ता तं मित्तणाइणियग० विउलेणं असण. जाव संमाणेत्ता तस्सेव मित्त० जाव जेट्टपुत्तं कुडुम्बे ठवेत्ता तं मित्तणाइ जाव आपुच्छित्ता सुबहं लोहकडाहकडुच्छ्यं तम्बियं तावसभण्डगं गहाय जे इमे गंगाकुला वाणपत्था तावसा भवंति, तंजहा-होत्तिया पोत्तिया कोत्तिया जण्णई सड्डई थालई हुम्बउट्ठा दंतुक्खलिया उम्मजगा संमज्जगा णिमज्जगा संपक्खालगा दक्षिणकूला उत्तरकूला संखधमा कूलधमा मियलुद्धया हत्थितावसा उद्दण्डा दिसापोक्खिणो वक्कवासिणो बिलवासिणो जलवासिणो रुक्खमूलिया अम्बुभक्खिणो वाउभक्खिणो सेवालभक्खिणो मूलाहारा कंदाहारा तयाहारा पत्ताहारा पुष्फाहारा फलाहारा बीयाहारा परिसडिय-कंदमूलतयपत्तपुप्फफलाहारा जलाभिसेयकढिणगायभूया आयावणाहि पंचग्गितावेहिं इंगालसोल्लियं कंदुसोल्लियं पिव अप्पाणं करेमाणा विहरंति, तत्थ णं जे ते दिसापोक्खिया तावसा तेसिं अंतिए दिसापोक्खियत्ताए पव्वइत्तए, पव्वइए वि य णं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिहिस्सामिकप्पइ मे जावजीवाए छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं दिसाचक्कवालेणं तवोकम्मेणं उड्डे बाहाओ पगिज्झिय पगिज्झिय सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्स विहरित्तए तिकट्ट एवं संपेहेइ संपेहेत्ता कल्लं जाव जलंते सुबहुं लोह० जाव दिसापोक्खियतावसत्ताए पव्वइए। पव्वइए वि य णं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं जाव अभिगिण्हित्ता पढमं छटुक्खमणं उवसंपजित्ताणं विहरइ॥॥ ___ कठिन शब्दार्थ - लोहकडाहकडुच्छुयं - लोहे के कडाह कुड़छियाँ, तम्बियं - तांबे के, तावसभंडं - तापसों के पात्र, गंगाकुला - गंगातट वासी, वाणपत्था तावसा - वानप्रस्थ तापस, होत्तिया - होत्रिक-अग्निहोत्री, पोत्तिया - पोत्रिक-वस्त्रधारी, कोतिया - कोत्रिक-भूमिशायी, जण्णई- याज्ञिक-यज्ञ करने वाले, सड्डई - श्राद्धकी-श्राद्ध करने वाले, थालई - स्थालकी-पात्र धारण करने वाले, हुम्बउट्ठा - हुम्बउट्ठ-वानप्रस्थतापस विशेष, दंतुक्खलिया - दंतोखलिक-दांतों से धान्य को तुषहीन करके खाने वाले, उम्मज्जगा - उन्मज्जक-पानी में एक बार डूबकी लगाने वाले, संमज्जगा - संमज्जक-बार-बार हाथ पैर धोने वाले, णिम्मज्जगा - निमज्जक-पानी में डूब For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ३ अध्ययन ३ सोमिल द्वारा तापस प्रव्रज्या ग्रहण कर नहाने वाले, संपक्खालगा - संप्रक्षालक - मिट्टी आदि से शरीर को मल कर नहाने वाले, दक्खिणकूला - दक्षिणकूल- दक्षिणी तट पर रहने वाले, उत्तरकूला - उत्तरकूल - उत्तरी तट पर रहने वाले, संखधमा - शंखध्मा-शंख बजा कर भोजन करने वाले, कूलधमा कूलध्मा-तट पर खड़े होकर आवाज लगाने के पश्चात् भोजन करने वाले, मियलुद्धया- मृगलुब्धक- हिरणों का मांस खाने वाले, हत्थितावसा - हस्ती तापस- हाथी को मार कर उसका मांस खा कर जीवन व्यतीत करने वाले, उद्दण्डा - उद्दण्डक-डंडे को ऊंचा करके चलने वाले, दिसापोक्खिणो- दिशा प्रोक्षिक- जल सींच कर दिशाओं की पूजा करने वाले, वक्कवासिणो - वल्कवासी- वृक्ष की छाल पहनने वाले, बिलवासिणोभूमि नीचे की खोह में रहने वाले, जलवासिणो जलवासी - जल में रहने वाले, रुक्खमूलिया वृक्षमूलक-वृक्ष के मूल में रहने वाले, अम्बुभक्खिणो- जल भक्षी जल मात्र का आहार करने वाले, वाभक्खिणो - वायु मात्र से जीवित रहने वाले - वायु भक्षी, सेवालभक्खिणो - शैवालभक्षीशैवाल-काई को खाने वाले, तयाहारा - त्वगाहार - नीम आदि की त्वचा खाने वाले, पत्ताहारापत्राहार-बेल आदि के पत्ते का आहार करने वाले, पुप्फाहारा - पुष्पाहार-कुंद, सोहंजन, गुलाब आदि फूलों का आहार करने वाले, फलाहारा - केला आदि फल खाने वाले, बीयाहारा - कुम्हडा आदि का बीज खाने वाले, परिसडियकंदमूलतयपत्तपुप्फफलाहारा सड़े हुए कंद, मूल, त्वचा, पत्ते, फूल और फल खाने वाले, जलाभिसेयकढिणगायभूया - जल के अभिषेक से कठिन शरीर वाले, आयावणाहि - आतापना से, पंचग्गितावेहिं पंचाग्नि ताप से, इंगालसोल्लियं - अंगार . शौल्य - अंगारों में पकी हुई- अंगारे में शूल पर रख कर पकाये हुए मांस, कंदुसोल्लियं - कन्दुशौल्यकन्दू-चावल आदि भूनने के पात्र में घृत डाल कर शूल पर पकाये हुए मांस, अणिक्खित्तेणं - अन्तर रहित- निरन्तर, पगिज्झिय - उठा कर, दिसाचक्कवालेणं - दिशा चक्रवाल, सूराभिमुहस्स - सूर्य अभिमुख, आयाणभूमीए - आतापना भूमि में । भावार्थ - उसके बाद किसी दूसरे समय कुटुम्ब जागरणा करते हुए उस सोमिल ब्राह्मण को इस प्रकार का आंतरिक विचार उत्पन्न हुआ कि मैं वाराणसी नगरी का उच्च कुल में उत्पन्न ब्राह्मण हूँ। मैंने व्रतों का पालन किया यावत् यूप स्थापित किये। तत्पश्चात् मैंने वाराणसी नगरी के बाहर बहुत से आम के बगीचे यावत् फूलों के बगीचे लगवाए। लेकिन अब मुझे यह उचित है कि कल रात बीतने * के बाद प्रातःकाल होते ही बहुत से लोहे की कडाहियाँ, कुडछियाँ एवं तापसों के लिए ताम्बे के पात्रों-बर्त्तनों को बनवा कर, विपुल अशन-पान - खादिम - स्वादिम बनवा कर अपने मित्रों, ज्ञाति बन्धुओं आदि को आमंत्रित कर और उन्हें भोजन करवा कर सत्कार सम्मान करके उन्हीं मित्र · For Personal & Private Use Only - - ८३ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पिका सूत्र ज्ञाति-स्वजन बंधुओं के सामने अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंप कर और उनसे पूछ कर बहुत से लोहे की काहियों, कुडछियों और तांबे के बने हुए पात्रों को लेकर जो गंगातीरवासी वानप्रस्थ तापस हैं। यथा-अग्निहोत्री, वस्त्रधारी, भूमिशायी, यज्ञ करने वाले, श्राद्ध करने वाले, पात्र धारण करने वाले, हुम्बउट्ठ ( वानप्रस्थ तापस विशेष ) दंतोद्खलिक - दांतों से चबाको तुषहीन करके खाने वाले, उन्मज्जक, संमज्जक, निमज्जक, संप्रक्षालक दक्षिण कूल - दक्षिण तटवासी, उत्तरकूलवासी, शंखध्मा, कूलध्मा, मृगलुब्धक - मृग को मारकर उसी के मांस से जीवन यापन करने वाले, हस्तितापस, उद्दण्डक, दिशाप्रोक्षिक, वल्कवासी, बिलवासी, जलवासी, वृक्षमूलक, जलभक्षी, वायुभक्षी, शैवालभक्षी, मूलाहारी, कंदाहारी, त्वचाहारी, पत्राहारी, पुष्पाहारी, जाहारी, सड़े हुए कंद, मूल, त्वचा, पत्र, पुष्प फल को खाने वाले, जल के अभिषेक से कठिन शरीर वाले, सूर्य की आतापना और पंचाग्नि ताप से, अंगार शौल्य एवं कन्दुशौल्य शरीर को कष्ट देते हुए विचरते हैं। उनमें से जो दिशाप्रोक्षिक तापस हैं, उनके पास दिशाप्रोक्षिक रूप में मैं प्रव्रजित होऊँ और प्रव्रजित होकर इस प्रकार का अभिग्रह करूँगा कि - यावज्जीवन निरन्तर षष्ठ-षष्ठ भक्त (बेले बेले) रूप दिशा चक्रवाल तपस्या करता हुआ सूर्य के अभिमुख भुजाएं उठा कर आतापना भूमि में आतापना लूँगा । उसने इस प्रकार का संकल्प किया और संकल्प करके यावत् कल- सूर्योदय होने पर बहुत लोह कडाह आदि लेकर यावत् दिशा प्रोक्षिक तापस के रूप में प्रव्रजित हो गया। प्रव्रजित हो कर पूर्वोक्तानुसार अभिग्रह ग्रहण करके प्रथम षष्ठक्षपण तप को स्वीकार कर विचरने लगा । ८४ विवेचन प्रस्तुत सूत्र में दर्शाया गया है। मिथ्यात्व से युक्त हो कर जीव क्या-क्या क्रियाएं करता है। सोमिल के समय में भी अनेक मत तथा सम्प्रदाय प्रचलित थे जिनकी अलग-अलग मान्यताएं और धारणाएं थीं । सोमिल ब्राह्मण अपने समय में प्रचलित उन मतों में से दिशाप्रोक्षक मत स्वीकार कर दिशा- प्रोक्षक तापस बना । - मूल पाठ में “दिसाचक्कवालेणं तवोकम्मेणं" - दिक् (दिशा) चक्रवाल तप शब्द आया है जिसका अभिप्राय है - तपस्वी तपस्या के पारणे के लिये अपनी तपोभूमि की चारों दिशाओं में फलों को इकट्ठा करके रखे। बाद में तपस्या के पहले पारणे में पूर्व दिशा में स्थित फल से पारणा करे। दूसरा पारणा आने पर दक्षिण दिशा में स्थित फल से पारणा करे। इसी प्रकार अन्य पारणा आने पर क्रमशः पश्चिम और उत्तर दिशाओं में स्थित फल का आहार करे। इस प्रकार के पारणे वाली तपस्या को "दिक् (दिशा) चक्रवाल तप" कहते हैं। For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ३ अध्ययन ३ सोमिल की साधना ............................................... सोमिल की साधना तए णं से सोमिले माहणे रिसी पढमछट्ठक्खमणपारणंसि आयावणभूमीए पच्चोरुहइ पच्चोरुहित्ता वागलवत्थणियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता किढिणसंकाइयं गेण्हइ. गिण्हित्ता पुरत्थिमं दिसिं पुक्खेइ पुक्खेत्ता पुरथिमाए दिसाए सोमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सोमिलमाहणरिसिं, जाणि य तत्थ कंदाणि य मूलाणि य तयाणि य पत्ताणि य पुष्पाणि य फलाणि य बीयाणि य हरियाणि य ताणि अणुजाणउत्तिकट्ट पुरत्थिमं दिसं पसरइ पसरित्ता जाणि य तत्थ कंदाणि य जाव हरियाणि य ताइं गेण्हइ गिण्हित्ता किढिणसंकाइयगं भरेइ भरेत्ता दन्भे य कुसे य पत्तामोडं च समिहाकट्ठाणि य गेण्हइ गिण्हित्ता जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता किढिणसंकाइयगं ठवेइ ठवेत्ता वेई वड्लेइ वलेत्ता उवलेवणसंमजणं करेइ करेत्ता दब्भकलसहत्थगए जेणेव गंगा महाणई तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता गंगं मह्मणई ओगाहइ ओगाहेत्ता जलमजणं करेइ करेत्ता जलकिडं करेइ करेत्ता जलाभिसेयं करेइ करेत्ता आयंते चोक्खे परमसुइभूए देवपिउकयकब्जे दम्भकलसहत्थगए गंगाओ महाणईओ पञ्चुत्तरइ पञ्चुत्तरित्ता जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता दन्भेहि य कुसेहि य बालुयाए य वेइं रएइ रइत्ता सरयं करेइ करेत्ता अरणिं करेइ करेत्ता सरएणं अरणिं महेइ महित्ता अग्गिं पाडेइ पाडित्ता अग्गिं संधुक्खेइ संधुक्खित्ता समिहाकट्ठाइं पक्खिवइ पक्खिवित्ता अग्गिं उजालेइ उज्जालित्ता अग्गिस्स दाहिणे पासे सत्तंगाई समादहे। तंजहा सकत्थं वक्कलं ठाणं, सेन्जभण्डं कमण्डलु। दण्डदारं तहप्पाणं, अह ताई समादहे॥१॥ महुणा य घएण य तंदुलेहि य अग्गिं हुणइ, चरुं साहेइ साहित्ता बलिवइस्सदेवं करेइ करेत्ता अतिहिपूयं करेइ करेता तओ पच्छा अप्पणा आहारं आहारेइ॥६६॥ .' कठिन शब्दार्थ - वागलवत्थणियत्थे - वल्कल वस्त्र पहने, उडए - कुटिया, किढिणसंकाइयंकिढिणसंकायिक-कावड़, पुक्खेइ - प्रोक्षण (सिंचन-प्रक्षालन) करता है, पुरत्थिमं - पूर्व, पत्थाणे For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पिका सूत्र आज्ञा - प्रस्थान (साधना मार्ग) में, पत्थियं - प्रस्थित, अभिरक्खउ - रक्षा करो, अणुजाणउ दीजिये, दब्भे - दर्भ, कुसे - कुश, पत्तामोडं - पत्रामोट तोड़े हुए पत्ते, समिहाकट्ठाणि - संमिधा काष्ठ - हवन के लिये छोटी छोटी लकड़ियां, उवलेवणसंमज्जणं - उपलेपन - संमार्जन, आयंते आचमन करके, चोक्खे - स्वच्छ, परमसुइभूए परम शूचिभूत, देवपिउकयकज्जे - देव और पितरो संबंधी कृत्य- कार्य, दब्भकलसहत्थगए - दर्भ (डाभ) और कलश हाथ में लेकर, वेदिं - वेदी को, रएइ - रचना करता है, सरयं शरक-निर्मंथन काष्ठ, अरणिं - अरणि को, संधुक्खेड़ - सुलगाता है- धौंकता है, पक्खिवइ डालता है, उज्जालेइ - प्रज्वलित करता है, सत्तगाई - सात अंगों (वस्तुओं) को, समादहे - स्थापन करता है, सकत्थ - सकत्थ-तापसों का उपकरण विशेष, सिज्जभंड - शय्या भाण्ड, कमंडलुं - कमण्डल, दण्डदारुं - लकड़ी का डण्डा, महुणा - मधु से, घण - घी से, तंदुलेहि - तंदुल चांवलों से, हवइ - हवन करता है, चरुं चरु को, बलिवइस्सं देवं - बलि वैश्व देव - नित्य यज्ञ कर्म । ८६ 444 - - - भावार्थ - तत्पश्चात् वह सोमिल ब्राह्मण ऋषि पहले षष्ठ- क्षपण (बेले) पारणे के दिन आतापना भूमि से नीचे उतरा, उतर कर वल्कलं वस्त्र पहने और जहां अपनी कुटी (कुटिया ) थी वहां आया, आकर वहां से किढिण संकायिक- कावड़ ली और पूर्व दिशा को जल से प्रोक्षण करता है और कहता है - “हे पूर्व दिशा के अधिपति सोम महाराज ! साधना मार्ग में प्रस्थित मुझ सोमिल ब्राह्मण की रक्षा करें तथा यहां जो भी कंद, मूल, छाल, पत्र, पुष्प, फूल, बीज और • हरित वनस्पति है उन्हें लेने की आज्ञा दें । " ऐसा कह कर सोमिल ब्राह्मण पूर्व दिशा की ओर जाता है और वहां जो भी कंद, मूल यावत् हरित वनस्पति थी उनको ग्रहण करता है और कावड़ में भरता है। उसके बाद दर्भ, कुश, तोड़े हुए पत्ते और समिधा काष्ठ को लेकर जहां अपनी कुटी थी वहां आया और अपनी कावड़ को रखा। कावड़ रख कर वेदिका का स्थान निश्चित किया और उसे प्रमार्जन कर लीप कर शुद्ध किया । तदनन्तर दर्भ और कलश को हाथ में लेकर गंगा के तट पर आया और गंगा नदी में प्रवेश किया, जल से देह शुद्ध की, जल क्रीड़ा की, अपनी देह पर पानी सिंचा और आचमन आदि करके स्वच्छ और परम शूचिभूत होकर देव और पितरों का कृत्य करके दर्भ और कलश हाथ में लेकर गंगा महानदी से बाहर निकला और अपनी कुटी में आया। कुटी में आकर दर्भ, कुश और बालू से वेदी की रचना की, सर ( मंथन काष्ठ) और अरणि तैयार की। मंथन काष्ठ और अरणि को घिसा, अग्नि सुलगाई । अग्नि प्रज्वलित की, उसमें समिधा डालकर अधिक प्रज्वलित की और अग्नि की दाहिनी ओर ये सात वस्तुएं स्थापित की ( रखीं ) - १. सकत्थ ( तापस उपकरण विशेष ) २. वल्कल ३. स्थान For Personal & Private Use Only - Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग. ३ अध्ययन ३ सोमिल का महाप्रस्थान (आसन) ४. शय्याभाण्ड ५. कमण्डलु ६. लकड़ी का डंडा और अपना शरीर । तत्पश्चात् मधु, घी और चावलों से अग्नि में हवन किया और चरु तैयार किया (यानी घी से चुपड़ कर हवन के लिए पकाने योग्य चावल को सिझाया ) । बलि वैश्व देव - नित्य यज्ञ कर्म किया। अतिथि पूजा - अतिथि सत्कार किया और उसके बाद स्वयं ने आहार किया । तणं से सोमिले माहणरिसी दोच्चंसि छट्ठक्खमणपारणगंसि तं चैव सव्वं भाणियव्वं जाव आहारं आहारेइ, णवरं इमं णाणत्तं- दाहिणाए दिसाए जमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सोमिलं माहणरिसिं, जाणि य तत्थ कंदाणि य जाव अणुजाणउत्तिकट्टु दाहिणं दिसिं पसरइ । एवं पञ्चत्थिमेणं वरुणे महाराया जाव पञ्चत्थिमं दिसिं पसरइ । उत्तरेणं वेसमणे महाराया जाव उत्तरं दिसिं पसरइ । पुव्वदिसागमेणं चत्तारि विदिसाओ भाणियव्वाओ जाव आहारं आहारेइ ॥ १०० ॥ 'भावार्थ - उसके बाद उस सोमिल ब्राह्मण ऋषि ने द्वितीय षष्ठक्षपण (बेले) का पारणा आने पर पूर्वोक्तानुसार सभी कार्य किये यावत् स्वयं ने आहार ग्रहण किया । विशेषता यह है कि दक्षि दिशा में यम की प्रार्थना करते हुए कहा - 'हे दक्षिण दिशा के यम महाराज ! साधना मार्ग में प्रस्थित मुझ सोमिल ब्राह्मण की रक्षा करें और यहाँ जो कंदमूल यावत् हरित वनस्पति हैं उन्हें ग्रहण करने की आज्ञा दें। ऐसा कह कर दक्षिण दिशा में गया। इसी प्रकार पश्चिम दिशा में वरुण महाराज ! साधना मार्ग में प्रस्थित मुझ सोमिल ब्राह्मण की रक्षा करें यावत् पूर्वोक्तानुसार पश्चिम दिशा में गया । तदनन्तर उत्तर दिशा में जाने के लिए उसी प्रकार वेश्रमण की प्रार्थना की और उत्तर दिशा में गया । इस प्रकार उसने पूर्व आदि चारों दिशाओं के समान चारों विदिशाओं में भी पूर्वोक्त विधि के अनुसारआचरण किया और तत्पश्चात् आहार किया। विवेचन - सोमिल ब्राह्मण ऋषि प्रथम बेले के पारणे के दिन जिस तरह क्रिया कर्म करता है उसी प्रकार दूसरे बेले के पारणे के दिन दक्षिण दिशा में यम की, तीसरे बेले के पारणे के दिन पश्चिम दिशा में वरुण की और चौथे बेले के पारणे के दिन उत्तर दिशा में वेश्रमण देव की प्रार्थना करता है तदनन्तरपूर्वोक्त विधि से स्वयं आहार ग्रहण करता है। सोमिल का महाप्रस्थान ८७ $0. तए णं तस्स सोमिलमाहणरिसिस्स अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि अणिञ्चजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था एवं खलु For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पिका सूत्र अहं वाणारसीए णयरीए सोमिले णामं माहणरिसि अचंतमाहणकुलप्पसूए, तए णं मए वयाइं चिण्णाई जाव जूवा णिक्खित्ता, तए णं मए वाणारसीए जाव पुप्फारामा य जाव रोविया, तए णं मए सुबहु लोह० जाव घडावेत्ता जाव जेट्ठपुत्तं कुडुंबे ठवेत्ता जाव जेट्ठपुत्तं आपुच्छित्ता सुबहुं लोह० जाव गहाय मुण्डे जाव पव्वइए, पइए वि य णं समाणे छट्ठछट्टेणं जाव विहरामि तं सेयं खलु ममं इयाणिं कल्लं जाव जलते बहवे तावसे दिट्ठाभट्ठे य पुव्वसंगइए य परियायसंगइए य आपुच्छित्ता आसमसं सिर्याणि य बहूइं सत्तसयाई अणुमाणइत्ता वागलवत्थणियत्थस्स किढिणसंकाइयगहियसभण्डोवगरणस्स कट्ठमुद्दाए मुहं बंधित्ता उत्तरदिसाए उत्तराभिमुहस्स महपत्थाणं पत्थावेत्तए, एवं संपेहेइ संपेहेत्ता कल्लं जाव जलते बहवे तावसे य दिट्ठाभट्टे य पुव्वसंगइए य तं चेव जाव कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ बंधित्ता अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हs - जत्थेव णं अहं जलंसि वा एवं थलंसि वा दुग्गंसि वा णिण्णंसि वा पव्वयंसि वा विसमंसि वा गड्डाए वा दरीए वा पक्खलिज्ज वा पवडिज्ज वा, णो खलु मे कप्पड़ पचट्ठित्तएत्तिकट्टु अयमेयारूवं' अभिग्गहं अभिfroes अभिगिoिहत्ता उत्तराए दिसाए उत्तराभिमुहपत्थाणं पत्थिए से सोमिले माहणरिसी पुव्वावरण्हकालसमयंसि जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागए, असोगवरपायवस्स अहे किढिणसंकाइयं ठवेइ ठवेत्ता वेदं वड्डेइ वड्डेत्ता उवलेवणसंमज्जणं करेइ करेत्ता दब्भकलसहत्थगए जेणेव गंगा महाणई जहा सिवो जाव गंगाओ महाणईओ पचत्तर पञ्चत्तरित्ता जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता दब्भेहि य कुसेहि य वालुयाए य वेडं रएइ रइत्ता सरगं करेइ करेत्ता जाव बलिवइस्सदेवं करेइ करेत्ता कट्टमुद्दाए मुहं बंधइ बंधित्ता तुसिणीए संचिट्ठइ॥१०१॥ τε कठिन शब्दार्थ - अणिच्चजागरियं - अनित्यजागरण, दिट्ठाभट्ठे दृष्ट भासित- जो कभी देखे हुए यथार्थ भाव हैं उनसे भ्रष्ट - स्खलित, पुव्वसंगइए - पूर्व संगतिक - पूर्वकाल में जिनसे संगतिमित्रता हुई थी ऐसे, परियायसंगइए - पर्याय संगतिक - समान तापस पर्याय वाले, आसमसंसियाणि For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ३ अध्ययन ३ सोमिल का महाप्रस्थान ८६ आश्रम संश्रित-आश्रम में रहने वाले, कट्ठमुद्दाए - काष्ठमुद्रा से, मुहं बंधिता - मुंह बांध कर, दुग्गंसि- दुर्ग (विकट स्थान), दरीए - गुफा, पक्खलिज्ज - प्रस्खलित होऊ, पवडिन - गिर जाऊं, पच्चुट्टित्तए - उठना। ___भावार्थ - तत्पश्चात् किसी समय मध्य रात्रि में अनित्य जागरण करते हुए उस सोमिल ब्राह्मण के मन में इस प्रकार का आंतरिक विचार उत्पन्न हुआ कि - मैं वाराणसी नगरी का रहने वाल अत्यंत उच्च कुलोत्पन्न सोमिल नामक ब्राह्मण ऋषि हूँ। मैंने बहुत से व्रत ग्रहण किये यावत् यूप-यज्ञ स्तंभ स्थापित किये। तत्पश्चात् मैंने वाराणसी में यावत् फूलों के बगीचे लगाये। उसके बाद मैंने बहुत सी लोहे की कडाहियां कडुछियां और तापस योग्य बहुत से तांबे के पात्र बनवा कर और अपने सभी मित्र ज्ञातिजन बंधुओं को बुला कर उन्हें भोजन आदि के द्वारा सम्मानित कर, उन मित्र ज्ञातिजन बंधुओं के सामने अपने पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित कर यावत् उनकी स्वीकृति प्राप्त कर लोहे की कडाहियाँ आदि लेकर मुंडित होकर प्रव्रजित हुआ और निरन्तर बेले बेले दिक्चक्रवाल तप करता हुआ विचरण कर रहा हूँ। अब मुझे उचित है कि कल सूर्योदय होते ही बहुत से दृष्ट-भ्रष्ट, पूर्व संगतिक (पूर्वकाल के साथी) पर्याय संगतिक (तापस पर्याय के साथी) को पूछ कर और आश्रम में रहने वाले अनेक शत प्राणियों को वचन आदि से संतुष्ट कर वल्कल वस्त्र पहने हुए कावड़ में अपने भाण्डोपकरण को लेकर तथा काष्ठ मुद्रा से मुख को बांध कर उत्तराभिमुख होकर उत्तर दिशा में महाप्रस्थान (मरण के लिए गमन) करूँ। ____ सोमिल ब्राह्मण ने इस प्रकार विचार किया और विचार करके सूर्योदय होने पर अपने विचार के अनुसार सभी दृष्ट भ्रष्ट यावत् तापस पर्याय वालों आदि को पूछ कर तथा आश्रम में रहने वाले अनेक शत प्राणियों को वचन आदि से संतुष्ट कर अंत में काष्ठ मुद्रा से अपना मुख बांधता है और इस प्रकार अभिग्रह ग्रहण करता है कि - जहाँ कहीं भी चाहे वह जल हो या स्थल हो, दुर्ग हो अथवा नीचा प्रदेश हो, पर्वत हो या विषम भूमि हो, गड्डा हो या गुफा हो, इन सब में जहाँ कहीं भी प्रस्खलित होऊँ या गिर पडूं तो मुझे वहाँ से उठना नहीं कल्पता है -ऐसा विचार करके इस प्रकार का अभिग्रह लेता है। अभिग्रह लेकर उत्तर दिशा में उत्तराभिमुख हो महाप्रस्थान के लिए प्रस्थित होता है। फिर वह सोमिल ब्राह्मण अपरान्ह काल (दिन के तीसरे प्रहर) में जहाँ सुंदर अशोक वृक्ष था वहाँ आया और उस अशोक वृक्ष के नीचे अपना कावड़ रखा तदनन्तर वेदिका (बैठने की जगह) को साफ किया, लीप-पोत कर स्वच्छ किया फिर दर्भ सहित कलश को हाथ में लेकर जहाँ गंगा महानदी थी वहाँ आया और शिव राजर्षि के समान उस गंगा महानदी में स्नान आदि कृत्य कर वहाँ से बाहर For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० पुष्पिका सूत्र ........................................................... आया और जहाँ अशोक वृक्ष था वहाँ आकर दर्भ कुश और बालुका से वेदी की रचना की। वेदी की रचना करके शरक और अरणि से अग्नि को प्रज्वलित कर यावत् बलिवैश्व देव-नित्य यज्ञ करता है, काष्ठ मुद्रा से मुख बांधता है और मौन हो कर रहता है। देव द्वारा प्रतिबोध तए णं तस्स सोमिलमाहणरिसिस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि एगे देवे अंतियं पाउन्भूए। तए णं से देवे सोमिलमाहणं एवं वयासी-हं भो सोमिलमाहणा! पव्वइया! दुप्पव्वइयं ते। तए णं से सोमिले तस्स देवस्स दोच्चंपि तचंपि एयमद्वं णो आढाइ णो परिजाणइ जाव तुसिणीए संचिट्ठइ। तए णं से देवे सोमिलेणं माहणरिसिणा अणाढाइज्जमाणे जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए। तए णं से सोमिले कल्लं जाव जलंते वागलवत्थणियत्थे किढिणसंकाइयं गहाय. गहियभण्डोवगरणे कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ बंधित्ता उत्तराभिमुहे संपत्थिए।१०२॥ कठिन शब्दार्थ - पव्वइया - प्रव्रज्या, दुप्पव्वइयं - दुष्प्रव्रज्या, अणाढाइज्जमाणे - अनादृतउपेक्षा किया गया। भावार्थ - उसके बाद उस सोमिल ब्राह्मण ऋषि के समक्ष मध्यरात्रि के समय एक देव प्रकट हुआ। उस देव ने सोमिल ब्राह्मण से इस प्रकार कहा- 'हे प्रव्रजित सोमिल ब्राह्मण! तेरी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है।' इस प्रकार उस देव के द्वारा दो तीन बार कहे जाने पर भी वह सोमिल उस देव की बात का आदर नहीं करता है, न ही उस ओर ध्यान ही देता है किन्तु मौन हो कर रहता है। इसके बाद उस सोमिल ब्राह्मण से अनादृत वह देव जिस दिशा से आया था उसी दिशा में चला गया। 'तत्पश्चात् वल्कल वस्त्रधारी वह सोमिल ब्राह्मण सूर्योदय होने पर कावड़ को उठा कर अपना भाण्डोपकरण लेकर काष्ठ मुद्रा से मुंह को बांधता है। मुंह बांधकर उत्तराभिमुख हो उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान करता है। तए णं से सोमिले बिइय दिवसम्मि पच्छावरण्हकालसमयंसि जेणेव सत्तवण्णे तेणेव उवागए, सत्तवण्णस्स अहे किढिणसंकाइयं ठवेइ ठवेत्ता वेइं वड्डेइ जहा असोगवरपायवे जाव अग्गिं हुणइ, कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ, तुसिणीए संचिट्ठइ। तए णं तस्स सोमिलस्स पुव्वरतावरत्तकालसमयंसि एगे देवे अंतियं पाउब्भूए। For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ३ अध्ययन ३ देव द्वारा प्रतिबोध ◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆44 तणं से देवे अंतलिक्ख- पडिवण्णे जहा असोगवरपायवे जाव पडिगए । तए णं से सोमिले कल्लं जाव जलते वागलवत्थणियत्थे किढिणसंकाइयं गिण्हs गिव्हित्ता मुद्दा मुहं बंध बंधित्ता उत्तरदिसाए उत्तराभिमुहे संपत्थि ॥ १०३ ॥ भावार्थ - तदनन्तर वह सोमिल ब्राह्मण दूसरे दिन अपराह्न काल के अंतिम प्रहर में जहाँ सप्तपर्ण वृक्ष था वहाँ आता है। उस सप्तपर्ण वृक्ष के नीचे कावड़ को रखता है कावड़ रख कर वेदी बनाता है इत्यादि जिस प्रकार अशोक वृक्ष के नीचे कार्य किये उसी प्रकार सारे कार्य यहाँ भी ि यावत् हवन किया और काष्ठ मुद्रा से अपना मुंह बांध कर मौन होकर बैठ गया। तत्पश्चात् उस सोमिल ब्राह्मण के समक्ष मध्य रात्रि के समय एक देव प्रकट हुआ और आकाश में स्थित होकर अशोक वृक्ष के नीचे जिस प्रकार पहले कहा था कि तुम्हारी प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है उसी प्रकार पुनः कहा परन्तु सोमिल ब्राह्मण ने उस देव की बात पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। सुनी. अनसुनी करके वह मौन रह गया यावत् वह देव लौट गया । तदनन्तर वत्कल वस्त्रधारी वह सोमिल सूर्योदय होने पर कावड़ को उठा कर भाण्डोपकरण लेकर काष्ठ मुद्रा से अपना मुंह बांधता है और मुंह बांध कर उत्तर दिशा में उत्तराभिमुख हो प्रस्थित हुआ । तणं से सोमिले तइयदिवसम्मि पच्छावरण्हकालसमयंसि जेणेव असो गवरपायवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे किढिणसंकाइयं ठवेइ ठवेत्ता वेई वड्डेइ जाव गंगं महाणइं पचत्तर पञ्चत्तरित्ता जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे किढिणसंकाइयं ठवे ठवेत्ता वेडं रएइ रइत्ता कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ बंधित्ता तुसिणीए संचिट्ठइ। तए णं तस्स सोमिलस्स पुव्वरत्तावरत्तकाले एगे देवे अंतियं पाउब्भवित्था, तं चैव भइ जाव पडिगए । तए णं से सोमिले जाव जलते वागलवत्थणियत्ये किढिणसंकाइयं जाव कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ बंधित्ता उत्तराए दिसाए उत्तराभिमुहे संपत्थिए ॥१०४॥ भावार्थ - तत्पश्चात् वह सोमिल ब्राह्मण तीसरे दिन अपराह्न काल में जहाँ अशोक वृक्ष वहाँ आया। वहाँ आकर कावड़ रखता है और बैठने के लिए वेदी बनाता है यावत् गंगा महानदी में प्रवेश करता है आदि पूर्ववत् सभी कार्य करके जहाँ अशोक वृक्ष था वहाँ आता है। वेदी की रचना ६१ *** For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ पुष्पिका सूत्र करता है, रचना करके काष्ठ मुद्रा से मुंह बांधता है और मौन हो जाता है। तदनन्तर मध्य रात्रि में सोमिल के समक्ष एक देव प्रकट हुआ और उसने भी उसी प्रकार कहा यावत् वह देव वापिस लौट गया। तत्पश्चात् सूर्योदय होने पर वह वल्कल वस्त्रधारी सोमिल कावड़ और भाण्डोपकरण लेकर यावत् काष्ठमुद्रा से मुंह को बांध कर उत्तराभिमुख होकर उत्तर दिशा की ओर चल दिया। तए णं से सोमिले चउत्थदिवसे पच्छावरण्हकालसमयंसि जेणेव वडपायवे तेणेव उवागए, वडपायवस्स अहे किढिण० ठवेइ ठवेत्ता वेई वड्ढेइ, उवलेवणसंमजणं करेइ जाव कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ, तुसिणीए संचिट्ठइ। तए णं तस्स सोमिलास पुव्वरत्तावरत्तकाले एगे देवे अंतियं पाउन्भवित्था, तं चेव भणइ जाव पडिगए। तए णं से सोमिले जाव जलंते वागलवत्यणियत्थे किढिणसंकाइयं जाव कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ बंधित्ता उत्तराए० उत्तराभिमुहे संपत्थिए॥१०॥ ___ भावार्थ - उसके बाद वह सोमिल ब्राह्मण चौथे दिन अपराह्न काल में जहाँ बड़ (वट) का वृक्ष था वहाँ आया, आकर वट वृक्ष के नीचे कावड़ रखता है और बैठने के लिए वेदी बनाता है। वेदी को गोबर मिट्टी से लीप कर स्वच्छ बनाता है यावत् काष्ठ मुद्रा से मुंह बांधता है और मौन होकर बैठ जाता है। तत्पश्चात् मध्य रात्रि के समय उस सोमिल ब्राह्मण के समक्ष एक देव.प्रकट होता है और वह भी उसी प्रकार कह कर यावत् लौट जाता है। इसके बाद वल्कल वस्त्रधारी सोमिल ब्राह्मण सूर्योदय होने पर अपनी कावड़ आदि लेकर यावत् काष्ठ मुद्रा से अपने मुंह को बांधता है और उत्तराभिमुख हो उत्तर दिशा में प्रस्थान करता है। तए णं से सोमिले पंचमदिवसम्मि पच्छावरण्हकालसमयंसि जेणेव उम्बरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उम्बरपायवस्स अहे किढिणसंकाइयं ठवेइ, वेइं वइ जाव कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ जाव तुसिणीए संचिट्ठइ। तए णं तस्स सोमिलमाहणस्स पुव्वरत्तावरत्तकाले एगे देवे जाव एवं वयासी-हं भो सोमिला! पव्वइया! दुप्पव्वइयं ते, पढम भणइ, तहेव तुसिणीए संचिट्ठइ। देवो दोच्चंपि तच्चंपि वयइ सोमिला! पव्वइया! दुप्पव्वइयं ते। तए णं से सोमिले तेणं देवेणं दोच्चंपि तचंपि एवं वुत्ते समाणे तं देवं वयासी-कहं णं देवाणुप्पिया! मम दुष्पव्वइयं?। तए णं से देवे सोमिलं माहणं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! तुम पासस्स अरहओ For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ३ अध्ययन ३ देव द्वारा प्रतिबोध ६३ .................................................... पुरिसादाणीयस्स अंतियं पंचाणुव्वए सत्तसिक्खावए दुवालसविहे सावयधम्मे पडिवण्णे, तए णं तव अण्णया कयाइ असाहुदसणेण० पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुम्बजागरियं जाव पुव्वचिंतियं देवो उच्चारेइ जाव जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छसि उवागच्छित्ता किढिणसंकाइयं जाव तुसिणीए संचिट्ठसि, तए णं पुव्वरत्तावरत्तकाले तव अंतियं पाउन्भवामि, हं भो सोमिला! पव्वइया! दुष्पव्वइयं ते, तह चेव देवो णियवयणं भणइ जाव पंचमदिवसम्मि पच्छावरण्हकालसमयंसि जेणेव उम्बरपायवे तेणेव उवागए किढिणसंकाइयं ठवेसि, वेइं वड्ढेसि, उवलेवणं० करेसि करेत्ता कट्ठमुद्दाए मुहं बंधेसि बंधित्ता तुसिणीए संचिट्ठसि, तं एवं खलु देवाणुप्पिया! तव दुप्पव्वइयं ॥१०६॥ • कठिन शब्दार्थ - उम्बरपायवे - उदुम्बर (गूलर) वृक्ष। भावार्थ - तदनन्तर वह सोमिल ब्राह्मण पांचवें दिन के अपराह्न काल (चौथे प्रहर) में जहाँ इदुम्बर का वृक्ष था वहाँ आता है और उदुम्बर वृक्ष के नीचे कावड़ रखता है, वेदी बनाता है यावत् काष्ठ मुद्रा से मुख बांधता है। इसके बाद मध्य रात्रि में उस सोमिल ब्राह्मण के समक्ष एक देव प्रकट हुआ और यावत् इस प्रकार पहली बार उस देव के मुख से वाणी सुन कर वह सोमिल मौन रहता है तत्पश्चात् देव द्वारा दूसरी तीसरी बार भी इसी प्रकार कहे जाने पर सोमिल ने देव से कहा-'हे देवानुप्रिय! मेरी प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या क्यों है?' ___ तब देव ने सोमिल से इस प्रकार कहा - 'हे देवानुप्रिय! तुमने पुरुषादानीय पार्श्वप्रभु से पूर्व में पांच अणुव्रत और सात शिक्षा रूप बारह प्रकार का श्रावक धर्म स्वीकार किया था किन्तु इसके बाद असाधुओं के दर्शन से - सुसाधुओं के दर्शन नहीं होने से तुमने इस श्रावक धर्म को त्याग दिया। तदनन्तर किसी समय मध्य रात्रि में कुटुम्ब जागरणा करते हुए तुम्हारे मन में विचार उत्पन्न हुआ कि 'गंगा के किनारे तपस्या करने वाले विविध प्रकार के तापसों में जो दिशा-प्रोक्षक तापस हैं उनके पास लोहे की कडाहियां कुडछियां और ताम्बे के तापस योग्य पात्र बनवा कर उन्हें लेकर जाऊँ और दिशा-प्रोक्षक तापस बनूं।' इत्यादि सोमिल ब्राह्मण के द्वारा पूर्व चिंतित विचारों को देव ने दुहराया और कहा कि - बाद में तुमने दिशा प्रोक्षक प्रव्रज्या धारण की और अभिग्रह लिया यावत् जहाँ अशोक वृक्ष था, वहाँ आये और कावड़ रख कर यावत् मौन हो गए। बाद में मध्य रात्रि के समय मैं तुम्हारे पास आया और कहा-'हे प्रव्रजित सोमिल! तुम्हारी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या हैं।' इस प्रकार For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पिका सूत्र मेरे द्वारा प्रतिबोधित करने पर भी तुमने उस पर ध्यान नहीं दिया और मौन ही रहे। इस प्रकार मैंने चार दिन तक तुम्हें समझाया किन्तु तुमने ध्यान नहीं दिया। इसके बाद आज पांचवें दिन चौथे प्रहर में इस उदुम्बर वृक्ष के नीचे आकर तुमने अपना कावड़ रखा, बैठने की जगह को साफ किया, लीप पोत कर स्वच्छ किया और काष्ठ मुद्रा से अपना मुंख बांध कर तुम मौन होकर बैठ गए। इस प्रकार हे देवानुप्रिय! तुम्हारी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है। सोमिल पुनः श्वावक बना तए णं से सोमिले तं देवं एवं वयासी-कहं णं देवाणुप्पिया! मम सुपव्वइयं? तए णं से देवे सोमिलं एवं वयासी-जइ णं तुम देवाणुप्पिया! इयाणिं पुव्वपडिवण्णाई पंच अणुव्वयाई० सयमेव उवसंपज्जित्ताणं विहरसि तो णं तुज्झ इयाणिं सुपव्वइयं भवेजा। तए णं से देवे सोमिलं वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए। तए णं सोमिले माहणरिसी तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे पुव्वपडिवण्णाई पंच अणुव्वयाइं० सयमेव उवसंपज्जित्ताणं विहरइ॥१०७॥ भावार्थ - यह सुन कर सोमिल ने उस देव से कहा - 'हे देवानुप्रिय! अब आप ही बताइये कि मेरी प्रव्रज्या सुप्रव्रज्या कैसे हो?' तब देव ने सोमिल ब्राह्मण से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिय! यदि तुम पहले ग्रहण किये हुए पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप श्रावक धर्म को स्वयमेव स्वीकार कर विचरण करो तो तुम्हारी यह प्रव्रज्या सुप्रव्रज्या हो जायगी। तत्पश्चात् उस देव ने सोमिल ब्राह्मण को वंदन नमस्कार किया और जिस दिशा से आया था उसी दिशा में लौट गया। इसके बाद सोमिल ब्राह्मण देव के कथनानुसार पूर्व में स्वीकृत पांच अणुव्रतों और सात शिक्षा व्रतों रूप श्रावक धर्म को स्वीकार कर विचरता है। सोमिल का शुक्रमहाग्रह में उपपात तए णं से सोमिले बहूहिं चउत्थछट्टट्ठम जाव मासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोवहाणेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पाउणइ पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेइ झूसेत्ता तीसं भत्ताई अणसणाए For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ३ अध्ययन ३ उपसंहार ........................................................... छेएइ छेइत्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते विराहियसम्मत्ते कालमासे कालं किच्चा सुक्कवडिंसए विमाणे उववायसभाए देवसयणिज्जंसि जाव ओगाहणाए सुक्कमहग्गहत्ताए उववण्णे॥१०८॥ भावार्थ - तत्पश्चात् सोमिल ने बहुत से चतुर्थ भक्त, षष्ठ भक्त, अष्टम भक्त यावत् अर्द्ध मासखमण, मासखमण रूप विचित्र तप कर्म से अपनी आत्मा को भावित करते हुए बहुत वर्षों तक श्रावक पर्याय का पालन किया अंत में अर्द्ध मासिक संलेखना से आत्मा को भावित कर तीस भक्त (आहार) को अनशन से छेदित कर उस पूर्वकृत पाप की आलोचना और प्रतिक्रमण नहीं करता हुआ सम्यक्त्व की विराधना के कारण काल के समय काल करके शुक्रावतंसक विमान की उपपात सभा में देवशय्या पर यावत् जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की अवगाहना से शुक्र महाग्रह देव रूप में उत्पन्न हुआ। उपसंहार , तए णं से सुक्के महग्गहे अहुणोववण्णे समाणे जाव भासामणपज्जत्तीए....। एवं खलु गोयमा! सुक्केणं० सा दिव्वा जाव अभिसमण्णागया। एगं पलिओवमं ठिई। ___ सुक्के णं भंते! महग्गहे तओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं कहिं गच्छिहिइ कहिं उववज्जिहिइ? गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ ५। णिक्खेवओ॥१०॥ तइयं अज्झयणं समत्तं ॥३॥ ३॥ ____भावार्थ - तत्पश्चात् वह शुक्र महाग्रह देव तत्काल उत्पन्न होकर यावत् भाषा-मन पर्याप्ति आदि पांचों पर्याप्तियों से पर्याप्त भाव को प्राप्त हुआ। हे गौतम! इस प्रकार उस शुक्र महाग्रह ने दिव्य देव ऋद्धि यावत् दिव्य प्रभाव को प्राप्त किया है। उसकी वहाँ एक पल्योपम की स्थिति है। गौतम स्वामी ने पुनः पृच्छा की- हे भगवन्! शुक्र महाग्रह देव आयु, भव और स्थिति का क्षय कर कहाँ जायेगा? कहाँ उत्पन्न होगा? भगवान् ने फरमाया - हे गौतम! यह शुक्र महाग्रह देव महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर यावत् सिद्ध होगा। For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ पुष्पिका सूत्र सुधर्मा स्वामी ने जम्बू स्वामी से कहा - हे आयुष्मन् जम्बू! मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने पुष्पिका के तृतीय अध्ययन में इस भाव का निरूपण किया है। ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन - सोमिल ब्राह्मण को देव पांच दिन तक पांच स्थानों पर उद्बोधित कर उसे सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है जैसे बारबार प्रयास करने पर सुषुप्त मानव भी जग जाता है उसी प्रकार सोमिल भी प्रबुद्ध हो जाता है। इस प्रकार सन्मार्ग की ओर प्रेरित करने वाला देव उसे स्वपथ का पथिक बना कर चला जाता है। सोमिल ब्राह्मण द्वारा पूर्व में स्वकृत अन्य मत के नियमों की आलोचना प्रत्यालोचना नहीं करने के कारण वह शुक्रावतंसक विमान में शुक्रदेव के रूप में उत्पन्न हुआ और आगे महाविदेह में जन्म लेकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होगा यावत् सभी दुःखों का अंत करेगा। ॥ तृतीय अध्ययन समाप्त॥ . चउत्थं अज्झयणं चौथा अध्ययन जइ णं भंते! उक्लेवओ। एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णामं णयरे । गुणसिलए चेइए। सेणिए राया। सामी समोसढे । परिसा णिग्गया॥११०॥ भावार्थ - जम्बू स्वामी ने सुधर्मा स्वामी से पूछा-'हे भगवन्! मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने पुष्पिका के तृतीय अध्ययन का यह भाव निरूपण किया है तो हे भगवन्! पुष्पिका के चतुर्थ अध्ययन में प्रभु ने क्या भाव फरमाया है?' सुधर्मा स्वामी फरमाते हैं - 'हे जम्बू! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। गुणशिलक नामक चैत्य था। उस नगर का राजा श्रेणिक था। उस नगर में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का पर्दापण हुआ। परिषद् उनके दर्शन एवं धर्म श्रवण के लिए निकली। विवेचन - पुष्पिका के तृतीय अध्ययन में शुक्र की पृच्छा के पश्चात् चतुर्थ अध्ययन की पृच्छा का वर्णन है। चतुर्थ अध्ययन में बहुपत्रिका देवी का वर्णन है जो इस प्रकार हैं - For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ३ अध्ययन ४ बहुपुत्रिका देवी भगवान् की सेवा में १७ बहुपुत्रिका देवी भगवान् की सेवा में तेणं कालेणं तेणं समएणं बहुपुत्तिया देवी सोहम्मे कप्पे बहुपुत्तिए विमाणे सभाए सुहम्माए बहुपुत्तियंसि सीहासणंसि चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं चउहिं महत्तरियाहिं जहा सूरियाभे जाव भुंजमाणी विहरइ, इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणी आभोएमाणी पासइ पासित्ता समणं भगवं महावीरं जहा सूरियाभो जाव णमंसित्ता सीहासणवरंसि पुरत्याभिमुहा संणिसण्णा। आभिओगा जहा सूरियाभस्स, सूसरा घंटा, आभिओगियं देवं सद्दावेइ, जाणविमाणं जोयणसहस्सवित्थिण्णं, जाणविमाणवण्णओ जाव उत्तरिल्लेणं णिजाणमग्गेणं जोयणसाहस्सिएहिं विग्गहेहिं आगया जहा सूरियाभे। धम्मकहा समत्ता। तए णं सा बहुपुत्तिया देवी दाहिणं भुयं पसारेइ देवकुमाराणं अट्ठसयं, देवकुमारियाण य वामाओ भुयाओ अट्ठसयं, तयाणंतरं च णं बहवे दारगा य दारियाओ य डिम्भए य डिम्भियाओ य विउव्वइ, णट्टविहिं जहा सूरियाभो उवदंसित्ता पडिगया॥१११॥ ___कठिन शब्दार्थ - बहुपुत्तिया - बहुपुत्रिका, भुयं - भुजा को, पसारेइ - फैलाती है, अट्ठसयंएक सौ आठ, दारगा - दारक-बड़ी उम्र के बालक, दारियाओ - दारिकाओं-बड़ी उम्र की बालिकाएं, डिम्भए.- डिम्भक-छोटी उम्र के बालक, डिम्भियाओ - छोटी उम्र की बालिकाएं, विउव्वइ - विकुर्वणा करती है, णविहिं - नाट्य विधि को, उवदंसित्ता - दिखा कर, पडिगया - लौट गई। - भावार्थ - उस काल और उस समय में सौधर्म कल्प के बहुपुत्रिक विमान की सुधर्मा सभा में बहुपुत्रिका नामक देवी बहुपुत्रिका सिंहासन पर चार हजार सामानिक देवियों तथा चार महत्तरिकाओ के साथ सूर्याभदेव के समान नानाविध दिव्य भोगों को भोगती हुई विचर रही थी। उस समय उसने अपने विपुल अवधिज्ञान से इस सम्पूर्ण जंबूद्वीप को देखा और राजगृह नगर में समवसृत प्रभु महावीर स्वामी को देखा देख कर सूर्याभ देव के समान यावत् नमस्कार करके अपने श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्व दिशा की ओर मुंह करके बैठी। फिर सूर्याभ देव के समान उसने अपने आभियोगिक देवों को बुलाया और उन्हें सुस्वरा घंटा बजाने की आज्ञा दी। उन्होंने सुस्वरा घंटा बजा कर सभी देव देवियों को भगवान् के दर्शनार्थ चलने की सूचना दी। तदनन्तर पुनः आभियोगिक देवों को बुलाया और भगवान् For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ पुष्पिका सूत्र .............................. .......................... के दर्शनार्थ जाने योग्य विमान की विकुर्वणा करने की आज्ञा दी। उनके आदेशानुसार आभियोगिक देवों ने यान-विमान की विकुर्वणा की। वह यान-विमान एक हजार योजन विस्तीर्ण था। शेष सारा वर्णन सूर्याभ देव के यान-विमान के समान कह देना चाहिये। तब वह बहुपुत्रिका देवी सूर्याभ देव के समान अपनी समस्त ऋद्धि समृद्धि के साथ यावत् उत्तर दिशा के निर्याण मार्ग से निकल कर एक हजार योजन की वेग वाली गति से भगवान् के समवसरण में उपस्थित हुई। भगवान् ने धर्मदेशना फरमाई। धर्म देशना सुन कर उस बहुपुत्रिका देवी ने अपनी दाहिनी भुजा फैलाई और फैला कर एक सौ आठ देवकुमारों की विकुर्वणा की तथा बायीं भुजा फैला कर एक सौ आठ देव कुमारिकाओं की विकुर्वणा की। उसके बाद बहुत से दारक दारिकाओं (बड़ी उम्र के बालक बालिकाओं) तथा डिम्भक-डिम्भिकाओं (छोटी उम्र के बालक बालिकाओं) की विकुर्वणा की तथा सूर्याभ देव के समान नाट्य विधियां दिखा कर वापिस लौट गई। विवेचन - किन्हीं प्रतियों में जोयणसाहस्सिएहिं विग्गेहेहिं का अर्थ 'एक हजार योजन का वैक्रिय शरीर बना कर' किया है किन्तु यह वर्णन रायपसेणी सूत्र में देख लेना चाहिए वहाँ पर सूर्याभ के लिए एक लाख योजन प्रमाण वेग वाली यावत् उत्कृष्ट दिव्य देव गति से नीचे उतर कर गमन करते हुए पीछे असंख्यात द्वीप समुद्रों के बीचों बीच से होता हुआ नन्दीश्वर द्वीप और उसकी दक्षिण पूर्व दिशा में स्थित रतिकर पर्वत पर आया। ऐसा वर्णन है। अतः यहाँ पर भी ‘एक हजार योजन की वेग.वाली गति से आने का समझना चाहिए। मूल पाठ में “विग्गहेहिं" शब्द आया है जिसका अर्थ "वेग वाली गति के द्वारा" समझना चाहिए। वैक्रिय शरीर बनाकर ऐसा अर्थ नहीं करना चाहिए। गौतम स्वामी की जिज्ञासा । भंते! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ। कूडागारसाला। बहुपुत्तियाए णं भंते! देवीए सा दिव्वा देविड्डी पुच्छा जाव अभिसमण्णागया? एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणारसी णामं णयरी, अम्बसालवणे चेइए। तत्थ णं वाणारसीए णयरीए भद्दे णामं सत्यवाहे होत्या, अड्ढे जाव अपरिभूए। तस्स णं भद्दस्स सुभद्दा णामं भारिया सुउमाल० वंझा अवियाउरी जाणुकोप्परमाया यावि होत्था॥११२॥ कठिन शब्दार्थ - सत्यवाहे - सार्थवाह, वंझा - वंध्या, अवियाउरी - एक भी संतान को For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ३ अध्ययन ४ सुभद्रा की चिंता जन्म नहीं दिया, जाणुकोप्परमाया - जानु कूपरमाता-जिसके स्तनों को केवल घुटने और कोहनियां ही स्पर्श करती थी, संतान नहीं। अथवा-जानु कूपर मात्रा-जिसके गोदी और हाथ दूसरों के पुत्रों के लाड़ प्यार में ही समर्थ थे न कि अपने पुत्रों के लाड़ प्यार में। भावार्थ - बहुपुत्रिका के चले जाने के बाद गौतम स्वामी ने 'हे भदन्त!' इस प्रकार संबोधन कर भगवान् महावीर स्वामी को वंदन नमस्कार किया और पूछा-'हे भगवन्! इस बहुपुत्रिका देवी की दिव्य ऋद्धि, दिव्य द्युति और दिव्य देवानुभाव कहां गया? और किसमें समा गया?' भगवान् ने फरमाया-'हे गौतम! वह दिव्य देव ऋद्धि उसके शरीर से निकली थी और उसी के शरीर में समा गई।' ___ गौतम स्वामी ने पुनः पृच्छा की-'हे भगवन्! वह दिव्य देव ऋद्धि उसके शरीर में कैसे विलीन हो गयी?' भगवान् ने फरमाया-'हे गौतम! जिस प्रकार किसी उत्सव आदि के कारण फैला हुआ जन समुदाय वर्षा आदि के कारण कूटाकार शाला-पर्वत शिखर के समान ऊँचे और विशाल घर-में समा जाता है उसी प्रकार वह दिव्य देव ऋद्धि भी बहुपुत्रिका देवी के शरीर में विलीन हो गई-समा गई।' ___गौतम स्वामी ने पुनः प्रश्न किया - 'हे भगवन्! उस बहुपुत्रिका देवी को वह दिव्य देव ऋद्धि आदि कैसे मिली, कैसे प्राप्त हुई, कैसे उसके उपभोग में आई और उन ऋद्धियों को भोगने में वह कैसे समर्थ हुई ?' . .. इस प्रकार पूछने पर भगवान् ने कहा - 'हे गौतम! उस काल उस समय में वाराणसी नाम की नगरी थी। आम्रशाल वन नामक चैत्य था। उस वाराणसी नाम की नगरी में भद्र नामक सार्थवाह रहता था जो ऋद्धि समृद्धि से समृद्ध यावत् अपरिभूत था। उस भद्र सार्थवाह के सुभद्रा नामक पत्नी थी जो सुकुमाल थी किन्तु वंध्या होने के कारण उसने एक भी संतान को जन्म नहीं दिया। वह केवल जानु और कूपर की माता थी अर्थात् उसके स्तनों को केवल घुटने और कोहनियाँ ही स्पर्श करती थी, • संतान नहीं अथवा उसकी गोदी और हाथ दूसरों के पुत्रों के लाड़ प्यार में ही समर्थ थे न कि अपने पुत्रों के लाड़ प्यार में क्योंकि उसकी अपनी कोई संतान नहीं थी। सुभद्रा की चिंता तए णं तीसे सुभद्दाए सत्थवाहीए अण्णया कयाई पुव्वरत्तावरत्तकाले कुडुम्बजागरियं जागरमाणीए इमेयारूवे जाव संकप्पे समुप्पज्जित्था-एवं खलु अहं For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० पुष्पिका सूत्र .......................................................... भद्देणं सत्यवाहेणं सद्धिं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणी विहरामि, णो चेव णं अहं दारगं वा दारियं वा पयाया, तं धण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव सुलद्धे णं तासिं अम्मयाणं मणुयजम्मजीवियफले, जासिं मण्णे णियकुच्छिसंभूयगाई थणदुद्धलुद्धगाई महुरसमुल्लावगाणि मम्मण(मंजुल)प्पजम्पियाणि थणमूलकक्खदेसभागं अभिसरमाणगाणि पण्हयंति, पुणो य कोमलकमलोवमेहिं हत्थेहिं गिण्हिऊणं उच्छं गणिवेसियाणि देंति, समुल्लावए सुमहुरे पुणो पुणो मम्मणप्पभणिए, अहं णं अधण्णा अपुण्णा अकयपुण्णा एत्तो एगमवि ण पत्ता, . ओहय० जाव झियाइ॥११३॥ ___ कठिन शब्दार्थ- मणुयजम्मजीवियफले - मनुष्य जन्म और जीवन का फल, णियकुच्छिसंभूयगाई- निज की कुक्षि से उत्पन्न, थणदुद्धलुद्धगाई - स्तन के दूध की लोभी, महुरसमुल्लावगाणि - मन को लुभाने वाली वाणी का उच्चारण करने वाली, मम्मणप्पजम्पियाणिहृदयस्पर्शी तोतली बोली बोलने वाली, थणमूलकक्खदेसभागं - स्तन मूल और कांख के बीच भाग में, अभिसरमाणगाणि - अभिसरण करने वाली, पण्हयंति - दूध पिलाती है, कोमल कमलोवमेहिंकमल के समान कोमल, हत्येहिं - हाथों से, उच्छंगणिवेसियाणि - गोद में बिठलाती है। भावार्थ - तदनन्तर किसी समय मध्यरात्रि में कुटुम्ब जागरणा करते हुए उस सुभद्रा सार्थवाही को इस प्रकार आंतरिक, चिंतित, प्रार्थित और मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि - मैं भद्र सार्थवाह के साथ विपुल भोगों को भोगती हुई विचरण कर रही हूँ। किन्तु आज दिन तक मैंने एक भी बालक या बालिका को जन्म नहीं दिया है। वे माताएं धन्य हैं यावत् पुण्यशालिनी हैं उन्होंने पुण्योपार्जन किया है, उन माताओं ने अपने मनुष्य जन्म और जीवन का फल अच्छी तरह पाया है जो अपनी निज की कुक्षि से उत्पन्न, स्तन दूध की लोभी, मन को लुभाने वाली वाणी का उच्चारण करने वाली, हृदय स्पर्शी तोतली बोली बोलने वाली, स्तन मूल और कांख के बीच भाग में अभिसरण करने वाली संतान को दूध पिलाती है फिर कमल के समान कोमल हाथों से लेकर उसे गोद में बिठलाती है, कानों को प्रिय लगने वाले मधुर मधुर संलापों से अपना मनोरंजन करती है मन को प्रसन्न करती है किन्तु मैं भाग्यहीन हूँ, पुण्यहीन हूँ, मैंने पूर्वजन्म में पुण्योपार्जन नहीं किया इसलिए संतान संबंधी एक भी सुख मुझे प्राप्त नहीं है इस प्रकार के विचारों से निरुत्साह-भग्न मनोरथ होकर यावत् आर्तध्यान करने लगी। For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ३ अध्ययन ४ सुभद्रा की जिज्ञासा १०१ सुव्रता आर्या का पदार्पण तेणं कालेणं तेणं समएणं सुव्वयाओ णं अजाओ इरियासमियाओ भासासमियाओ एसणासमियाओ आयाणभण्डमत्तणिक्खेवणासमियाओ उच्चारपासवण-खेल-जल्ल-सिंघाण-पारिट्ठावणासमियाओ मणगुत्तीओ वयगुत्तीओ कायगुत्तीओ गुतिंदियाओ गुत्तबंभयारिणीओ बहुस्सुयाओ बहुपरिवाराओ पुव्वाणुपुव्विं चरमाणीओ गामाणुगामं दूइजमाणीओ जेणेव वाणारसी णयरी तेणेव उवागया उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा० विहरंति॥११४॥ ___ भावार्थ - उस काल उस समय में ईर्यासमिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान भाण्ड मात्र निक्षेपणा समिति, उच्चार प्रस्रवण खेल जल्ल सिंघाण परिष्ठापना समिति से समित, मनगुप्ति, वचन गुप्ति और कायगुप्ति से गुप्त, इन्द्रियों का दमन करने वाली, गुप्त ब्रह्मचारिणी, बहुश्रुताबहुत शास्त्रों को जानने वाली, शिष्याओं के बहुत परिवार से युक्त सुव्रता नाम की आर्या पूर्वानुपूर्वी क्रम से-तीर्थंकर परम्परा के अनुरूप-चलती हुई ग्रामानुग्राम विहार करती हुई जहाँ वाराणसी नगरी थी वहाँ आई। वहाँ आकर कल्पानुसार यथायोग्य अवग्रह आज्ञा लेकर तप संयम से अपनी आत्मा को भावित करती हुई विचरने लगी। सुभद्रा की जिज्ञासा तए णं तासिं सुव्वयाणं अजाणं एगे संघाडए वाणारसी णयरीए उच्चणीयमज्झिमाइं कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे भद्दस्स सत्थवाहस्स गिहं अणुपविटे। तए णं सुभद्दा सत्यवाही ताओ अजाओ एजमाणीओ पासइ पासित्ता हट्ट० खिप्पामेव आसणाओ अब्भुट्टेइ अब्भुट्टित्ता सत्तट्ठपयाई अणुगच्छइ अणुगच्छित्ता वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेत्ता एवं वयासी-एवं खलु अहं अजाओ! भद्देणं सत्थवाहेणं सद्धिं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणी विहरामि, णो चेव णं अहं दारगं वा दारियं वा पयायामि, तं धण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव एत्तो एगमवि ण पत्ता, तं तुन्भे अजाओ! For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ पुष्पिका सूत्र ........................................................... बहुणायाओ बहुपढियाओ बहूणि गामागरणगर जाव संणिवेसाई आहिण्डह, बहूणं. राईसरतलवर जाव सत्यवाहप्पभिईणं गिहाई अणुपविसह, अत्थि से केइ कहिंचि विजापओए वा मंतप्पओए वा वमणं वा विरेयणं वा वत्थिकम्मं वा ओसहे वा भेसज्जे वा उवलद्धे, जेणं अहं दारगं वा दारियं वा पयाएजा? ॥११५॥ _____ कठिन शब्दार्थ - उच्चणीयमज्झिमाई - उच्च, नीच और मध्यम, भिक्खायरियाए - भिक्षाचर्या के लिए, अडमाणए - भ्रमण करते हुए, सत्तट्ठपयाई - सात-आठ डग (कदम), बहुणायाओ - बहुत ज्ञानी, बहुपढियाओ - बहुत पढी लिखी, आहिण्डह - घूमती हो, विज्जापओए - विद्या प्रयोग, मंतप्पओए - मंत्र प्रयोग, वमणं - वमन, विरेयणं - विरेचन, वत्थिकम्मं - वस्तिकर्म, ओसहे - औषध, भेसज्जे - भेषज, उवलद्धे - प्राप्त हुआ है। भावार्थ - तत्पश्चात् सुव्रता आर्या का एक सिंघाडा वाराणसी नगरी के उच्च-नीच-मध्यम कुलों में गृह समुदानी-अनेक घरों से ली जाने वाली भिक्षाचर्या के लिए परिभ्रमण करता हुआ भद्र सार्थवाह के घर में आया। तब उस सुभद्रा सार्थवाही ने उन आर्याओं को आते हुए देखा, देख कर वह हर्षित और संतुष्ट होती हुई शीघ्र ही अपने आसन से उठी, उठ कर सात आठ कदम उनके सामने गई, सामने जा कर उनको वंदना नमस्कार किया। फिर विपुल अशन, पाम, खादिम, स्वादिम आहार से प्रतिलाभित कर इस प्रकार बोली - 'हे आर्याओ! मैं भद्र सार्थवाह के साथ विपुल भोगों को भोगती हुई विचर रही हूँ किन्तु मैंने आज तक एक भी बालक या बालिका को जन्म नहीं दिया है। वे माताएं धन्य हैं, पुण्यशालिनी हैं यावत् मैं अधन्या अपुण्या हूँ कि उनमें से एक भी सुख को प्राप्त नहीं कर सकी हूँ। __हे आर्याओ! आप बहुत ज्ञानी हैं, बहुत पढ़ी लिखी हैं और बहुत से ग्रामों यावत् सन्निवेशों में विचरती हैं बहुत से राजा, ईश्वर, तलवर यावत् सार्थवाह आदि के घरों में भिक्षार्थ आपका जाना होता है तो क्या कहीं कोई विद्या प्रयोग, मंत्र प्रयोग, वमन, विरेचन, वस्तिकर्म, औषध या भेषज आपको मिला है जिससे मेरे बालक या बालिका का जन्म हो सके। आर्याओं का समाधान तए णं ताओ अजाओ सुभदं तत्थवाहिं एवं वयासी-अम्हे णं देवाणुप्पिए! समणीओ णिग्गंथीओ इरियासमियाओ जाव गुत्तबम्भयारिणीओ, णो खलु कप्पइ For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ३ अध्ययन ४ सुभद्रा श्रमणोपासिका बनी . १०३ ........................................................ अम्हं एयमटुं कण्णेहिवि णिसामेत्तए किमंग पुण उहिसित्तए वा समायरित्तए वा, अम्हे णं देवाणुप्पिए! णवरं तव विचित्तं केवलिपण्णत्तं धम्म परिकहेमो॥११६॥ . भावार्थ - तब उन आर्याओं ने सुभद्रा सार्थवाही से इस प्रकार कहा - "हे देवानुप्रिय! हम ईर्या समिति आदि समितियों से तथा तीन गुप्तियों से युक्त इन्द्रियों को वश में करने वाली गुप्त ब्रह्मचारिणी निर्ग्रन्थ श्रमणियां हैं। हमको ऐसी बातों को सुनना भी नहीं कल्पता है तो फिर हम इनका उपदेश या आचरण कैसे कर सकती हैं? हे देवानुप्रिये! विशेषता यह है कि हम तुम्हें दान शील आदि नाना प्रकार के केवली प्ररूपित धर्म का कथन कर सकती हैं।" सुभद्रा श्वमणोपासिका बनी तए णं सा सुभद्दा सत्यवाही तासिं अज्जाणं अंतिए धम्मं सोच्चा णिसम्म हजुतुट्ठा. ताओ अज्जाओ तिक्खुत्तो वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासीसद्दहामि णं अज्जाओ! णिगंथं पावयणं, पत्तियामि णं रोएमि णं अजाओ! णिग्गंथं पावयणं, एवमेयं तहमेयं अवितहमेयं जाव सावगधम्म पडिवजए, अहासुहं देवाणुप्पिए! मा पडिबंधं करेह, तए णं सा सुभद्दा सत्थवाही तासिं अज्जाणं अंतिए जाव पडिवज्जइ पडिवज्जित्ता ताओ अज्जाओ वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता पडिविसज्जइ। तए णं सा सुभद्दा सत्थवाही समणोवासिया जाया जाव विहरइ॥११७॥ कठिन शब्दार्थ - सद्दहामि - श्रद्धा करती हूँ, पत्तियामि - प्रतीति करती हूँ, रोएमि - रुचि करती हूँ, एवमेयं - यह ऐसा ही है-सत्य है, तहमेयं - यह तथ्य है, अवितहमेयं - यह अवितथ है। भावार्थ - तत्पश्चात् वह सुभद्रा सार्थवाही उन आर्याओं से धर्म सुन कर उसे हृदय में धारण कर हृष्ट तुष्ट हुई और उन आर्याओं को तीन बार वंदन नमस्कार किया। वंदन नमस्कार करके वह इस प्रकार बोली - 'हे देवानुप्रियो! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ, विश्वास करती हूँ, रुचि करती हूँ। आपने जो उपदेश दिया वह सत्य है, तथ्य है और अवितथ है यावत् मैं श्रावक धर्म को अंगीकार करना चाहती हूँ।' आर्यिकाओं ने कहा - 'जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो किन्तु धर्म कार्य में प्रमाद मत करो।' तत्पश्चात् सुभद्रा सार्थवाही ने उन आर्याओं से श्रावक धर्म अंगीकार किया। श्रावक धर्म For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ पुष्पिका सूत्र अंगीकार कर उन आर्याओं को वंदन नमस्कार किया, वंदन नमस्कार करके उन्हें विदा किया। तदनन्तर वह सुभद्रा सार्थवाही श्रमणोपासिका होकर यावत् विचरण करने लगी। सुभद्रा द्वारा दीक्षा का संकल्प तए णं तीसे सुभद्दाए समणोवासियाए अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुम्बजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्थाएवं खलु अहं भद्देणं सत्यवाहेणं सद्धिं विउलाई भोगभोगाइं जाव विहरामि, णो चेव णं अहं दारगं वा...., तं सेयं खलु ममं कल्लं जाव जलंते भद्दस्स आपुच्छित्ता सुव्वयाणं अजाणं अंतिए अन्जा भवित्ता आगाराओ जाव पव्वइत्तए, एवं संपेहेइ संपेहिता कल्ले....जेणेव भद्दे सत्यवाहे तेणेव उवागया करयल जाव एवं वयासीएवं खलु अहं देवाणुप्पिया! तुब्भेहिं सद्धिं बहूई वासाई विउलाई भोगभोगाई जाव विहरामि, णो चेव णं दारगं वा दारियं वा पयायामि, तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाया समाणी सुव्वयाणं अज्जाणं जाव पव्वइत्तए॥११८॥ ____भावार्थ - तदनन्तर उस सुभद्रा श्रमणोपासिका को किसी दिन मध्य रात्रि में कुटुम्ब जागरणा करते हुए इस प्रकार का मनःसंकल्प-यावत् विचार उत्पन्न हुआ कि - मैं भद्र सार्थवाह के साथ विपुल भोगों को भोगती हुई विचर रही हूँ किंतु मैंने अभी तक एक भी बालक या बालिका को जन्म नहीं दिया है अतः मुझे यह उचित है कि मैं कल सूर्योदय होने पर भद्र सार्थवाह से आज्ञा लेकर सुव्रता आर्या के पास गृह त्याग कर यावत् प्रव्रजित हो जाऊँ। उसने इस प्रकार का विचार किया, विचार करके जहां भद्र सार्थवाह था वहां आई आकर दोनों हाथों को जोड़ कर यावत् इस प्रकार बोली - हे देवानुप्रिय! मैं आपके साथ बहुत वर्षों से विपुल भोगों को भोगती हुई समय व्यतीत कर रही हूँ किंतु मैंने एक भी बालक या बालिका को जन्म नहीं दिया है। अब मैं आप देवानुप्रिय की आज्ञा प्राप्त कर सुव्रता आर्या के पास यावत् दीक्षित होना चाहती हूँ। भद्र द्वारा दीक्षा की आज्ञा तए णं से भद्दे सत्यवाहे सुभदं सत्यवाहिं एवं वयासी-मा णं तुम देवाणुप्पिए! इयाणिं मुण्डा जाव पव्वयाहि, भुंजाहि ताव देवाणुप्पिए! मए सद्धिं विउलाई For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ३ अध्ययन ४ भद्र द्वारा दीक्षा की आज्ञा .......................................................... ......... भोगभोगाई, तओ पच्छा भुत्तभोई सुव्वयाणं अज्जाणं जाव पव्वयाहि। तए णं सुभद्दा सत्यवाही भद्दस्स० एयमढे णो० परियाणइ। दोच्चंपि तच्चंपि सुभद्दा सत्यवाही भई सत्थवाहं एवं वयासी-इच्छामि णं देवाणुप्पिया! तुम्भेहिं अब्भणुण्णाया समाणी जाव पव्वइत्तए। तए णं से भद्दे सत्थवाहे जाहे णो संचाएइ बहूहिं आघवणाहि य एवं पण्णवणाहि य सण्णवणाहि य विण्णवणाहि य आघवित्तए वा जाव विण्णवित्तए वा ताहे अकामए चेव सुभद्दाए णिक्खमणं अणुमण्णित्था॥११९॥ _____ कठिन शब्दार्थ - भुत्तभोई - भुक्त भोगी, आघवणाहि - आख्यापनाओं-युक्तियों-सामान्य कथनों से, पण्णवणाहि - प्रज्ञापनाओं-प्रज्ञप्तियों विशेष कथनों से, सण्णवणाहि - संज्ञापनाओसंज्ञप्तियों-समझाइशों से, विष्णवणाहि - विज्ञप्तियों-विनययुक्त निवेदनों से, णिक्खमणं - निष्क्रमण की-दीक्षा लेने की, अणुमण्णित्था - आज्ञा प्रदान की। ___भावार्थ - तब भद्र सार्थवाह ने सुभद्रा सार्थवाही से इस प्रकार कहा - हे देवानुप्रिये! तुम मुंडित होकर यावत् प्रव्रजित मत होओ, मेरे साथ विपुल भोगोपभोगों का भोग करो और भुक्तभोगीभोगों को भोगने के पश्चात् सुव्रता आर्या के पास मुण्डित होकर यावत् गृह त्याग कर प्रव्रज्या अंगीकार करना। भद्र सार्थवाह के इस प्रकार कहे जाने पर सुभद्रा सार्थवाही ने उनके वचनों का आदर नहीं किया, उन्हें स्वीकार नहीं किया। दूसरी बार और तीसरी बार भी सुभद्रा सार्थवाही ने भद्र सार्थवाह से यही कहा - 'हे देवानुप्रिय! आपकी आज्ञा प्राप्त कर मैं सुव्रता आर्या के पास प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहती हूं।' ____ जब भद्र सार्थवाह बहुत प्रकार की अनुकूल और प्रतिकूल युक्तियों, प्रज्ञप्तियों, संज्ञप्तियों और विज्ञप्तियों से सुभद्रा सार्थवाही को समझाने, बुझाने, संबोधित करने और मनाने में समर्थ नहीं हुआ तो अनिच्छा पूर्वक उसे दीक्षा लेने की आज्ञा प्रदान कर दी। - विवेचन - मूल पाठ में आये आघवणाहिं' आदि शब्दों के विशेष अर्थ इस प्रकार समझना चाहिये। . १. आख्यापना - 'घर में रहना ही श्रेयस्कर है'-इस प्रकार उसकी परीक्षा के लिए सामान्य कथन। २. प्रज्ञापना - 'तुम प्रव्रजित मत होओ, संयम का आचरण दुष्कर हैं' - इस प्रकार विशेष रूप से कथन। For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पिका सूत्र ३. संज्ञापना - ‘भोगों को भोग लेने के बाद ही संयम का आराधन सुकर (सरल) हैं' - इस प्रकार समझाना । ४. विज्ञापना ‘संयम ग्रहण में उसके अन्तःकरण की दृढ़ता की परीक्षा के लिए युक्ति प्रतिपादन रूप कथन से समझाना । ' जैन दर्शन में - अपने अधिकारी माता, पिता, पति आदि की आज्ञा प्राप्त किये बिना दीक्षा नहीं दी जा सकती है अतः सुभद्रा सार्थवाही ने भी अपने पति भद्र सार्थवाह से दीक्षा की आज्ञा मांगी। प्रथम तो भद्र सार्थवाह ने सुभद्रा सार्थवाही को दीक्षा लेने के लिए मना किया, किन्तु सुभद्रा सार्थवाही के दृढ़ निश्चय को देख कर अन्त में उसे दीक्षा लेने की अनुमति प्रदान कर दी। सुभद्रा का महाभिनिष्क्रमण १०६ - तणं से भद्दे सत्यवाहे विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावे ० मित्तणाइ जाव णिमंतइ.... तओ पच्छा भोंयणवेलाए जाव मित्तणाइ.... सक्कारेइ संमाणेइ, सुभद्दं सत्थवाहिं ण्हायं जाव पायच्छित्तं सव्वालंकारविभूसियं पुरिससहस्सवाहिणि सीयं दुरूहेइ । तओ सा सुभद्दा सत्थवाही मित्तणाइ जाव संबंधिसंपरिवुडा सव्विड्डीए जाव रखेणं वाणारसीणयरीए मज्झमज्झेणं जेणेव सुव्वयाणं अज्जाणं उवस्सए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं ठवेइ, सुभद्दं सत्यवाहिं सीयाओ पच्चोरुहेइ ॥ १२०॥ भावार्थ - तदनन्तर भद्र सार्थवाह ने विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम तैयार करवाया और अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन बंधुओं को आमंत्रित किया और आदर सत्कार के साथ उन्हें भोजन कराया। फिर स्नान की हुई यावत् मंगल प्रायश्चित्त आदि से युक्त सभी अलंकारों से विभूषित सुभद्रा सार्थवाही को हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने योग्य शिविका (पालकी) में बैठाया। तब वह सुभद्रा सार्थवाही मित्र, ज्ञाति, स्वजन बंधुओं और संबंधियों से युक्त सभी प्रकार की ऋद्धि समृद्धि यावत् भेरी आदि वाद्यों (बाजों) के घोष (स्वर) के साथ वाराणसी नगरी के बीचोंबीच होती हुई जहाँ सुव्रता आर्या का उपाश्रय था, वहाँ आई । आकर उस पुरुष सहस्रवाहिनी शिविका को ठहराया और वह शिविका से उतरी। तणं भद्दे सत्यवाहे सुभद्दं सत्यवाहिं पुरओ काउं जेणेव सुव्वया अज्जा For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ३ अध्ययन ४ सुभद्रा द्वारा दीक्षा ग्रहण १०७ तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सुव्वयाओ अज्जाओ वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! सुभद्दा सत्यवाही मम भारिया इट्ठा कंता जाव मा णं वाइया पित्तिया सिम्भिया संणिवाइया विविहा रोगायंका फुसंतु, एस णं देवाणुप्पिया! संसारभउविग्गा भीया जम्म(ण)मरणाणं देवाणुप्पियाणं अंतिए मुण्डा भवित्ता जाव पव्वयाइ, तं एवं अहं देवाणुप्पियाणं सीसिणीभिक्खं दलयामि,, पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया! सीसिणीभिक्खं। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह॥१२१॥ ___ कठिन शब्दार्थ-पुरओ काउं - आगे करके, इट्ठा - इष्ट, कंता - कांत, वाइया - वात, पित्तिया- पित्त, सिम्भिया - कफ, संणिवाइया - सन्निपात, रोगायंका - रोग-आतंक, फुसंतु - स्पर्श कर सकें, संसारभउन्विग्गा - संसार के भय से उद्विग्न, भीया - भीत-डरी हुई, जम्म(ण)मरणाणं - जन्म और मरण से, सीसिणीभिक्खं - शिष्या-भिक्षा को, दलयामि- देता हूँ। ____ भावार्थ - तत्पश्चात भद्रसार्थवाह सुभद्रा सार्थवाही को आगे करके जहाँ सुव्रता आर्या थी वहाँ आया और आकर सुव्रता आर्या को वंदन नमस्कार करके इस प्रकार निवेदन किया - "हे देवानुप्रिय! मेरी यह सुभद्रा भार्या मुझे अत्यंत इष्ट और कांत है यावत् इसको वात, पित्त, कफ और सन्निपात जन्य विविध रोग आतंक आदि स्पर्श न कर सकें इसके लिए मैं सर्वदा प्रयत्न करता रहा हूँ लेकिन हे देवानुप्रिये! अब यह संसार के भय से उद्विग्न होकर एवं जन्म मरण से भयभीत होकर आप देवानुप्रिया के पास मुण्डित होकर यावत् प्रव्रजित होने को तत्पर है, इसलिए हे देवानुप्रिये! मैं आपको यह शिष्या रूप भिक्षा दे रहा हूँ। आप इस शिष्या-भिक्षा को स्वीकार करें।" भद्र सार्थवाह के इस प्रकार निवेदन करने पर सुव्रता आर्या ने कहा-“हे देवानुप्रिय! जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो किन्तु धर्म कार्य में प्रमाद मत करो।" सुभद्रा द्वारा दीक्षा ग्रहण ___ तए णं सा सुभद्दा सत्यवाही सुव्वयाहिं अज्जाहिं एवं वुत्ता समाणी हट्ठ० सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओभुयइ ओमुइत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ करेत्ता जेणेव सुव्वयाओ अज्जाओ तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सुव्वयाओ अज्जाओ तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणेणं वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-आलित्ते For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ पुष्पिका सूत्र णं भंते.........जहा देवाणंदा तहा पव्वइया जाव अज्जा जाया जाव. गुत्तबम्भयारिणी॥१२२॥ भावार्थ - सुव्रता महासती द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर सुभद्रा सार्थवाही हर्षित एवं संतुष्ट हुई और उसने स्वयमेव अपने हाथों से माला और आभूषणों को उतारा। पंचमुष्टिक केश लोच किया फिर जहाँ सुव्रता आर्या थी वहाँ आई और आकर तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा करके वंदन नमस्कार किया। वंदन नमस्कार करके इस प्रकार बोली-'हे भगवन्! यह संसार आदीप्त-जन्म जरा और मरण रूप आग से जल रहा है, प्रदीप्त-अत्यंत जल रहा है इस प्रकार कहते हुए यावत् देवानंदा के समान प्रव्रजित हो गई तथा पांच समिति, तीन गुप्तियों से युक्त होकर इन्द्रियों का दमन करने वाली यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी आर्या हो गई। विवेचन - सुभद्रा सार्थवाही, भद्र सार्थवाह से दीक्षा की अनुमति प्राप्त कर सुव्रता आर्या के पास दीक्षित हो गई। सुभद्रा आर्या के दीक्षित होने का सम्पूर्ण वर्णन भगवती सूत्र शतक : उद्देशक ३३ में वर्णित देवानंदा के समान समझ लेना चाहिए। सुभद्रा आर्या की बच्चों में आसक्ति तए णं सा सुभद्दा अज्जा अण्णया कयाइ बहुजणस्स चेडरूवे समुच्छिया जाव अज्झोववण्णा अब्भंगणं च उव्वट्टणं च फासुयपाणं च अलत्तगं च कंकणाणि य अंजणं च वण्णगं च चुण्णगं च खेल्लणगाणि य खज्जल्लगाणि य खीरं च पुष्पाणि य गवेसइ गवेसित्ता बहुजणस्स दारए वा दारिया वा कुमारे य कुमारियाओ य डिम्भए य डिम्भियाओ य अप्पेगइयाओ अब्भंगेइ, अप्पेगइयाओ उव्वट्टेइ, एवं फासुयपाणएणं व्हावेइ, अप्पेगइयाणं पाए रयइ०; ओढे रयइ०, अच्छीणि अंजेइ०, उसुए करेइ०, तिलए करेइ, अप्पेगइयाओ दिगिदिलए करेइ, अप्पेगइयाणं पंतियाओ करेइ, अप्पेगइयाई छिज्जाइं करेइ, अप्पेगइयाइं खज्जु करेइ, अप्पेगइया वण्णएणं समालभइ०, चुण्णएणं समालभइ, अप्पेगइयाणं खेल्लणगाई दलयइ०, खज्जलगाई दलयइ, अप्पेगइयाओ खीरभोयणं भुंजावेइ, अप्पेगइयाणं पुप्फाइं ओमुयइ, अप्पेगइयाओ पाएसु ठवेइ, जंघासु करेइ, एवं ऊरूसु उच्छंगे कडीए पिढे उरसि खंधे सीसे य करयलपुडेणं गहाय हलउलेमाणी हलउलेमाणी आगायमाणी For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ३ अध्ययन ४ सुभद्रा आर्या की बच्चों में आसक्ति १०६ आगायमाणी परिगायमाणी परिगायमाणी पुत्तपिवासं च धूयपिवासं च णत्तुयपिवासं च णत्तिपिवासं च पच्चणुभवमाणी विहरइ॥१२३॥ ___ कठिन शब्दार्थ - संमुच्छिया - मूर्च्छित (आसक्त) हो गई, अज्झोववण्णा - आसक्त हो कर, अब्भङ्गणं - अभ्यंगन-तेल से मालिश करना, उन्वट्टणं - उबटन, फासुयपाणं - प्रासुकजल, अलत्तगं - मेहंदी आदि रंजक द्रव्य, कंकणाणि - कंकण-हाथों में पहनने के कड़े, अंजणं- अन्जनकाजल, वण्णगं- वर्णक-चंदन आदि, चुण्णगं - चूर्णक-सुगंधित द्रव्य, खेल्लणगाणि - खेलनकखेलने के लिए पुतली आदि खिलौने, खज्जल्लगाणि - खाने के लिए खाजे आदि, खीरं - दूध, पुष्पाणि - अचित्त फूलों की, गवेसइ - गवेषणा करती है, हलउलेमाणी- हुलराती हुई, आगायमाणीगाती हुई, परिगायमाणी - उच्च स्वर से गाती हुई, पुत्तं पिवासं - पुत्र की लालसा, धूयपिवासं - पुत्री की लालसा, णत्तुयपिवासं - पौत्र की लालसा, णत्तिपिवासं - पौत्री की लालसा। भावार्थ - तत्पश्चात् सुभद्रा आर्या किसी समय गृहस्थों के बालक बालिकाओं में मूर्छित हो गई, उन पर प्रेम करने लगी यावत् उन पर आसक्त हो कर उन बाल बच्चों के शरीर पर मालिश करने के लिए तेल, शरीर का मैल दूर करने के लिए उबटन, पीने के लिए प्रासुक जल, उनके हाथ पैर रंगने के लिए मेहंदी आदि रंजक द्रव्य, हाथों में पहनने के कड़े, काजल, चंदन आदि, सुगंधित द्रव्य, खेलने के लिए खिलौने, खाने के लिए खाजे आदि मिष्टान्न, पीने के लिए दूध और माला आदि के लिए अचित्त फूल आदि की गवेषणा करती। गवेषणा करके उन गृहस्थों के लड़के लड़कियों, कुमार कुमारिकाओं बच्चे बच्चियों में से किसी की तेल मालिश करती, किसी के उबटन लगाती, किसी को प्रासुक जल से स्नान कराती, किसी के पैरों को किसी के होठों को रंगती, किसी की आँखों में काजल डालती, ललाट पर तिलक लगाती, तिलक बिन्दी लगाती, किसी को हिंडोले में झुलाती, कुछ बच्चों को पंक्ति में खड़ा करती, फिर उन पंक्ति में खड़े बच्चों को अलग-अलग खड़ा करती, किसी के शरीर में चंदन लगाती, किसी के शरीर को सुगंधिक चूर्ण (पाउडर) से सुवासित करती। किसी को खिलौने देती, किसी को खाने के लिए खाजे आदि मिष्टान्न देती, किसी को दूध पिलाती, किसी के कंठ में पहनी हुई अचित्त पुष्पमाला को उतारती, किसी को पैरों पर बिठाती तो किसी को अपनी जंघा पर रखती। इस प्रकार किसी को टांगों पर, किसी को गोदी में, किसी को कमर पर, किसी को पीठ पर, किसी को छाती पर, किसी को कंधे पर, किसी को अपने शिर पर बैठाती और हाथों (हथेलियों) में लेकर हुलराती, लोरिया गाती, उच्च स्वर से गाती हुई पुत्र की लालसा, पुत्री की लालसा, पौत्र पौत्रियों की लालसा का अनुभव करती हुई विचर रही थीअपना समय व्यतीत कर रही थी। For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० पुष्पिका सूत्र ........................................................... सुव्रता का सुभद्रा को समझाना तए णं ताओ सुव्वयाओ अज्जाओ सुभदं अल्लं एवं वयासी-अम्हे णं देवाणुप्पिए! समणीओ णिगंथीओ इरियासमियाओ जाव गुत्तबंभयारिणीओ, णो खलु अम्हं कप्पइ जातककम्मं करेत्तए, तुमं च णं देवाणुप्पिए! बहुजणस्स चेडरूवेसु मुच्छिया जाव अज्झोववण्णा अब्भंगणं जाव णत्तिपिवासं वा पच्चणुभवमाणी विहरसि, तं णं तुमं देवाणुप्पिए! एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पायच्छित्तं पडिवजाहि॥१२४॥ ___ भावार्थ - उसके ऐसे आचरण को देख कर सुव्रता आर्या ने सुभद्रा आर्या से इस प्रकार कहा - हे देवानुप्रिये! हम सांसारिक विषयों से विरक्त, ईर्यासमिति आदि से युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी निर्ग्रन्थ श्रमणी हैं इसलिए हमें बालक्रीड़ा आदि करना नहीं कल्पता है। लेकिन हे देवानुप्रिये! तुम गृहस्थों के बालकों में मूर्च्छित (आसक्त) यावत् अनुरागिणी होकर उनका अभ्यंगन-तेल मालिश आदि अकल्पनीय कार्य कर रही हो यावत् पुत्र पौत्र आदि की इच्छा पूर्ति का अनुभव करती हुई विचर रही हो। अतएव हे देवानुप्रिये! तुम इस स्थान-अकल्पनीय कार्य की आलोचना करो यावत् प्रायश्चित्त लो। तए णं सा सुभद्दा अज्जा सुव्वयाणं अज्जाणं एयमटुं णो आढाइ णो परिजाणइ अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी विहरइ। ___तए णं ताओ समणीओ णिग्गंथीओ सुभदं अजं हीलेंति जिंदंति खिसंति गरहंति अभिक्खणं अभिक्खणं एयमढें णिवारेंति॥१२५॥ भावार्थ - सुव्रता आर्या द्वारा सुभद्रा आर्या को इस प्रकार अकल्पनीय कार्यों का निषेध किये जाने पर सुभद्रा आर्या ने सुव्रता आर्या के कथन का आदर नहीं किया, कथन पर ध्यान नहीं दिया किन्तु उपेक्षा पूर्वक अस्वीकार कर पूर्ववत् व्यवहार करती हुई विचरने लगी। तत्पश्चात् वे निर्ग्रन्थ श्रमणियाँ इस अकल्पनीय कार्य के लिये सुभद्रा आर्या की हीलना करती हैं, निंदा करती हैं, खिंसा करती हैं, गर्दा करती हैं और ऐसा करने के लिए उसे बार-बार रोकती हैं। विवेचन - पुत्रैषणा की उग्रभावना के वशीभूत हो सुभद्रा आर्या गृहस्थों की भांति बच्चों के लालन पालन आदि का अकल्पनीय कार्य-संयम विरुद्ध आचरण करने लगी तो सुव्रता आर्या ने उसे For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ३ अध्ययन ४ सुभद्रा का स्वतन्त्राचरण १११ ........................................................... समझाने की कोशिश की और अकल्पनीय कार्य की आलोचना-प्रायश्चित्त ग्रहण करने को कहा। सुव्रता आर्या के उपदेश का सुभद्रा आर्या पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वह पूर्ववत् बाल मनोरंजन करती रही तो साथी श्रमणियाँ उसकी हीलना, निंदा आदि करती है और उसे ऐसा अकृत्य करने के लिए बार-बार रोकती हैं। मूल पाठ में प्रयुक्त हीलेंति आदि का अर्थ इस प्रकार समझना चाहिये - हीलेंति - 'तुम उत्तम कुल में जन्म लेकर और उत्तम संयम अवस्था में आकर ऐसे तुच्छ कार्य करती हो'- इस प्रकार हीलना करती हैं। . जिंदंति - कुत्सित शब्द बोल कर उसका दोष प्रकट करती हुई 'निंदना' करती हैं। खिसंति - हाथ मुख आदि को विकृत करके अपमान करती हुई 'खिंसना' करती हैं। गरहंति - गुरुजनों के समीप उनके दोषों का उद्घाटन करती हुई तिरस्कार रूप 'गर्हणा' करती हैं। सुभद्रा का स्वतन्त्राचरण तए णं ती(ए)से सुभद्दाए अज्जाए समणीहिं णिग्गंथीहिं हीलिज्जमाणीए जाव अभिक्खणं अभिक्खणं एयमé णिवारिज्जमाणीए अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुष्पन्जित्था-जया णं अहं अगारवासं वसामि तया णं अहं अप्पवसा, जप्पभिई च णं अहं मुण्डा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइया तप्पभिई च णं अहं परवसा, पुग्विं च समणीओ णिग्गंथीओ आटेंति परिजाणेति इयाणिं णो आढाएंति णो परिजाणंति, तं सेयं खलु मे कल्लं जाव जलंते सुव्वयाणं अज्जाणं अंतियाओ पडिणिक्खमित्ता पाडिएक्कं उवस्सयं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, एवं संपेहेइ संपेहित्ता कल्लं जाव जलंते सुब्बयाणं अज्जाणं अंतियाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता पाडिएक्कं उवस्सयं उवसंपज्जित्ताणं विरहइ। तए णं सा सुभद्दा अज्जा अजाहिं अणोहट्टिया अणिवारिया सच्छंदमई बहुजणस्स चेडरूवेसु मुच्छिया जाव अब्भंगणं च जाव णत्तिपिवासं च पच्चणुभवमाणी विहरइ॥१२६॥ कठिन शब्दार्थ - अप्पवसा - स्वाधीन (स्वतंत्र), परवसा - पराधीन, पाडिएक्कं - छोड़ कर-अलग होकर, अणिवारिया - नहीं रोके जाने से, सच्छंदमई - स्वच्छंद मति। For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ पुष्पिका सूत्र ........................................................... भावार्थ - तदनन्तर उन निर्ग्रन्थ श्रमणी आर्याओं द्वारा हीलना आदि किये जाने और बारबार रोकने पर उस सुभद्रा आर्या को इस प्रकार आंतरिक विचार यावत् मानसिक संकल्प उत्पन्न हुआ कि जब मैं अपने घर में थी तब मैं स्वाधीन थी लेकिन जब से मैं घर छोड़ कर मुण्डित हो प्रव्रजित हुई हूँ तब से मैं पराधीन हो गई हूँ। पहले ये निर्ग्रन्थ श्रमणियाँ मेरा आदर करती थी, मेरे साथ प्रेम पूर्वक व्यवहार करती थी पर आज ये न तो मेरा आदर करती हैं और न प्रेम का बर्ताव करती हैं। अतः मेरे लिये यह उचित है कि कल प्रातःकाल होने पर मैं सुव्रता आर्या से अलग होकर पृथक् उपाश्रय में जाकर रहूँ। इस प्रकार विचार कर दूसरे दिन सूर्योदय होते ही वह सुभद्रा आर्या, सुव्रता आर्या को छोड़ कर निकल गयी और अलग उपाश्रय में जाकर अकेली ही रहने लगी। - तब वह सुभद्रा आर्या, आर्याओं द्वारा नहीं रोके जाने से, रुकावट नहीं होने के कारण निरंकुश और स्वच्छंद मति होकर गृहस्थों के बालकों में अनुरक्त-आसक्त होकर यावत् उनकी तेल मालिश आदि करती हुई यावत् पुत्र पौत्रादि की इच्छा करती हुई समय व्यतीत करने लगी। बहुपुत्रिका देवी रूप उपपात तए णं सा सुभद्दा अज्जा पासत्था पासत्थविहारिणी एवं ओसण्णा ओसण्णविहारिणी कुसीला कुसीलविहारिणी संसत्ता संसत्तविहारिणी अहाछंदा अहाछंदविहारिणी बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणइ पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता तीसं भत्ताई अणसणाए छेइत्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे बहुपुत्तियाविमाणे उववायसभाए देवसयणिज्जंसि देवदूसंतरिया अंगुलस्स असंखेज्जभागमेत्ताए ओगाहणाए बहुपुत्तियदेवित्ताए उववण्णा॥१२७॥ कठिन शब्दार्थ - पासत्था - पार्श्वस्था-साधु के गुणों से दूर, पासत्यविहारिणी - पार्श्वस्थ विहारीणी, ओसण्णा - अवसन्ना-समाचारी पालन में खिन्न, खंडित व्रत वाली, कुसीला - कुशीलासंज्वलन कषाय के उदय से उत्तर गुण में दोष लगाने वाली आचारभ्रष्ट; संसत्ता - संसक्ता-गृहस्थों से संपर्क रखने वाली, अहाछंवा - स्वच्छंद (निरंकुश), बहुपुत्तिय देवित्ताए - बहुपुत्रिका देवी के रूप. में, उववण्णा - उत्पन्न हुई। ..भावार्थ - इसके बाद वह सुभद्रा आर्या पासत्था-पार्श्वस्था, पार्श्वस्थविहारिणी, अवसन्ना, For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ३ अध्ययन ४ गौतम स्वामी की जिज्ञासा ११३ अवसन्नविहारिणी, कुशीला, कुशीलविहारिणी, संसक्ता, संसक्तविहारिणी और स्वच्छंद तथा स्वच्छंद-विहारिणी हो गई। बहुत वर्षों तक श्रमणी पर्याय का पालन किया और पालन करके अर्द्ध मासिक संलेखना द्वारा आत्मा को सेवित कर तीस भक्तों को अनशन द्वारा छेद कर अकरणीय पाप स्थान-सावद्य कार्यों की आलोचना प्रतिक्रमण किए बिना ही काल के समय काल करके सौधर्म कल्प के बहुपुत्रिका विमान की उपपात सभा में देवदूष्य से आच्छादित देव शय्या पर अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र अवगाहना वाली बहुपुत्रिका देवी के रूप में उत्पन्न हुई। तए णं सा बहुपुत्तिया देवी अहुणोववण्णमेत्ता समाणी पंचविहाए पन्नत्तीए जाव भासामणपज्जत्तीए, एवं खलु गोयमा! बहुपुत्तियाए देवीए सा दिव्वा देविड्डी जाव अभिसमण्णागया॥१२८॥ भावार्थ - तत्पश्चात् वह बहुपुत्रिका देवी भाषा-मनःपर्याप्ति आदि पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्त अवस्था को प्राप्त कर उत्कृष्ट सात हाथ की अवगाहना वाली देवी होकर देवी अवस्था में विचरने लगी। हे गौतम! इस प्रकार बहुपुत्रिका देवी ने वह दिव्य देव ऋद्धि एवं देव समृद्धि, देव द्युति प्राप्त की है यावत् उसके सम्मुख हुई है। गौतम स्वामी की जिज्ञासा ___ से केणगुणं भंते! एवं वुच्चइ-बहुपुत्तिया देवी बहुपुत्तिया देवी? . गोयमा! बहुपुत्तिया णं देवी जाहे जाहे सक्कस्स देविंदस्स देवरणो उवत्थाणियणं करेइ ताहे ताहे बहवे दारए य दारियाओ य डिम्भए य डिम्भियाओ य विउव्वइ विउव्वित्ता जेणेव सक्के देविंदे देवराया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो दिव्वं देविलि दिव्वं देवज्जुइं दिव्वं देवाणुभावं उवदंसेइ, से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-बहुपुत्तिया देवी बहुपुत्तिया देवी? . बहुपुत्तियाए णं भंते! देवीए केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा! चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। बहुपुत्तिया णं भंते! देवी लओ देवलोगाओ आउक्खएणं ठिइक्खएणं भवक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिइ कहिं उववज्जिहिइ? For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ पुष्पिका सूत्र गोयमा! इहेव जम्बुद्दीवे दीवे भारहे वासे विंझगिरिपायमूले विभेलसंणिवेसे माहणकुलंसि दारियत्ताए पच्चायाहि ।।१२६ ।। भावार्थ - गौतम स्वामी ने पुनः भगवान् से पृच्छा की - हे भगवन्! किस कारण से बहुपुत्रिका देवी को बहुपुत्रिका कहा है? हे गौतम! जब जब भी वह बहुपुत्रिका देवी देवेन्द्र देवराज शक्र के पास जाती तब-तब वह बहुत से दारक दारिकाओ, डिम्भक, डिम्भिकाओं की विकुर्वणा करती और विकुर्वणा करके जहाँ देवेन्द्र देवराज शक्र होता वहाँ जाती और वहाँ जाकर देवेन्द्र देवराज शक्र को अपनी दिव्य ऋद्धि, दिव्य देवद्युति और दिव्य देवानुभाव को प्रदर्शित करती-दिखलाती है इस कारण हे गौतम! वह बहुपुत्रिका देवी बहुपुत्रिका कहलाती है। हे भगवन्! बहुपुत्रिका देवी की स्थिति कितने काल की कही हैं? हे गौतम! बहुपुत्रिका देवी की स्थिति चार पल्योपम की कही गई है। हे भगवन्! आयु, भव और स्थिति क्षय होने के बाद वह बहुपुत्रिका देवी कहां जाएगी, कहां जाकर उत्पन्न होगी? __हे गौतम! आयु क्षय आदि के बाद वह बहुपुत्रिका देवी इस जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में विध्यपर्वत की तलहटी में विभेल सन्निवेश में ब्राह्मण कुल में बालिका के रूप में उत्पन्न होगी। , सोमा नामकरण तए णं तीसे दारियाए अम्मापियरो एक्कारसमे दिवसे वीइक्कंते जाव बारसेहिं दिवसेहिं वीइक्कतेहिं अयमेयारूवं णामधेज्जं करेंति-होउ णं अम्हं इमीसे दारियाए णामधेनं सोमा॥१३०॥ भावार्थ - तत्पश्चात् उस बालिका के माता-पिता ग्यारह दिन बीतने पर यावत् बारहवें दिन इस प्रकार का नामकरण करेंगे-हमारी इस बालिका का नाम 'सोमा' हो। . सोमा का विवाह तए णं सोमा उम्मुक्कबालभावा विग्णयपरिणयमेत्ता जोव्वणगमणुप्पत्ता रूवेण य जोवणेण य लावण्णेण य उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा जावं भविस्सइ। तए णं तं सोमं दारियं अम्मापियरो उम्मुक्कबालभावं विण्णयपरिणयमेत्तं जोव्वणगमणुप्पत्तं For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ३ अध्ययन ४ सोमा द्वारा संतानोत्पत्ति ११५ ........................................................... पडिकूविएणं सुक्केणं पडिरूवएणं णियगस्स भाइणेज्जस्स रटुकूडस्स भारियताए दलइस्सइ। सा णं तस्स भारिया भविस्सइ इट्ठा कंता जाव भण्डकरण्डगसमाणा तेल्लकेला इव सुसंगोविया चेलपे(ला)डा इव सुसंपरिग्गहिया रयणकरण्डगो विव सुसारक्खिया सुसंगोविया मा णं सीयं जाव विविहा रोगायंका फुसंतु॥१३१॥ कठिन शब्दार्थ - उम्मुक्कबालभावा - बालभाव से उन्मुक्त, विग्णयपरिणयमेत्ता - विषय सुख से भिज्ञ, जोव्वणगमणुप्पत्ता - यौवनावस्था में प्रवेश कर, स्वेण - रूप से, गौर आदि सुंदर वर्ण वाले आकार को रूप कहते हैं, जोव्वणेण - यौवन से, लावण्णेण - लावण्य से, उक्किट्ठा - उत्कृष्ट, उक्किट्ठसरीरा - उत्कृष्ट शरीर वाली, पडिकूविएणं - प्रतिकूपितेन-देने योग्य प्रचूर आभूषण आदि से, पडिरूवएणं - प्रति रूपेण-अनुकूल प्रिय वचनों से, रडकुडस्स - राष्ट्रकूट की, भारियस्स - भार्या के रूप में, भण्डकरण्डग-समाणा - भाण्डकरण्डक-आभूषणों की पेटी के समान, तेल्लकेलातेलपात्र, सुसंगोविया - यत्नपूर्वक सुरक्षा करेगा, सुसंपरिग्गहिया - भली भांति देखभाल करेगा, सुसारक्खिया - सुरक्षा का ध्यान रखेगा। भावार्थ - वह सोमा बालभाव से मुक्त होकर, विषय सुख के परिज्ञान के साथ यौवनावस्था में प्रवेश कर रूप-यौवन-लावण्य से उत्कृष्ट (उत्तम) और उत्कृष्ट शरीर वाली होगी। ___ तत्पश्चात् माता-पिता बाल्यावस्था पार कर यौवनावस्था में प्रविष्ट उस सोमा बालिका को विषय सुख से अभिज्ञ जानकर देने योग्य गृहस्थोपयोगी उपकरणों, धन आभूषणों और अनुकूल प्रिय वचनों के साथ अपने भानजे राष्ट्रकूट के साथ उसका विवाह कर देंगे। वह सोमा उस राष्ट्रकूट की इष्ट, कांत भार्या होगी यावत् वह उस सोमा की भाण्डकरण्डक (आभूषणों की पेटी) के समान, तेल के सुन्दरं पात्र के समान यत्नपूर्वक रक्षा करेगा, वस्त्रों की पेटी (पिटारे) के समान उसकी भलीभांति देखभाल करेगा, रत्नकरण्डक के समान उसकी सुरक्षा का ध्यान रखेगा और उसको शीत, उष्ण, वात, पित्त, कफ एवं सन्निपातजन्य रोग और आतंक स्पर्श नहीं कर सके, इस प्रकार से सर्वदा चेष्टा करता रहेगा। सोमा द्वारा संतानोत्पत्ति तए णं सा सोमा माहणी रटकूडेणं सद्धिं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणी संवच्छरे संवच्छरे जुयलगं पयायमाणी सोलसेहिं संवच्छरेहिं बत्तीसं दारगरूवे पयायइ। तए णं सा सोमा माहणी तेहिं बहूहिं दारगेहि य दारियाहि य कुमारेहि For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ पुष्पिका सूत्र ........................................................... य कुमारियाहि य डिम्भएहि य डिम्भियाहि य अप्पेगइएहिं उत्ताणसेज्जएहि य अप्पेगइएहिं थणियाएहि य अप्पेगइएहिं पीहगपाएहिं अप्पेगइएहिं परंगणएहिं अप्पेगइएहिं परक्कममाणेहिं अप्पेगइएहिं पक्खोलणएहिं अप्पेगइएहिं थणं मग्गमाणेहिं अप्पेगइएहिं खीरं मग्गमाणेहिं अप्पेगइएहिं खेल्लणयं मग्गमाणेहिं अप्पेगइएहिं खज्जगं मग्गमाणेहिं अप्पेगइएहिं कूरं मग्गमाणेहिं पाणियं मग्गमाणेहिं हसमाणेहिं रूसमाणे हिं अक्कोसमाणेहिं अक्कुस्समाणे हिं हणमाणे हिं विप्पलायमाणेहिं अणुगम्ममाणेहिं रोवमाणेहिं कंदमाणेहिं विलवमाणेहिं कूवमाणेहिं उक्कूवमाणेहिं णिद्दायमाणेहिं पलंबमाणेहिं दहमाणेहिं दंसमाणेहिं वममाणेहिं छेरमाणेहिं मुत्तमाणेहिं मुत्तपुरीसवमियसुलित्तोवलित्ता मइलवसणपुच्चडा जाव असुइबीभच्छा परमदुग्गंधा णो संचाएइ रटुकूडेणं सद्धिं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणी विहरित्तए॥ १३२॥ कठिन शब्दार्थ - संवच्छरे - संवत्सर (वर्ष) में, जुयलगं - युगल को, उत्ताणसेज्जएहि - उत्तानशयकैः-ऊर्ध्वमुख (उत्तान) सोता रहेगा, थणियाएहि - स्तनितैः-चित्कार शब्दों से, पीहगपाएहिं - स्पृहकपादैः-चलने की इच्छा करेगा, परंगणएहिं - दूसरों के आंगन में चला जायगा अथवा अच्छी तरह चलेगा, परक्कममाणेहिं - पराक्रममाणैः-उत्साह करेगा, पक्खोलणएहिं - प्रस्खलनकैः-गिरेगा, मग्गमाणेहि - मृग्यमाणैः-ढूंढेगा, खेल्लणयं - खेलनकं-खिलौना-खेलने का साधन, खज्जगं - खाद्यकं-खाजा आदि खाद्य वस्तु, कूरं - कूर (भक्त-ओदन-चावल) हसमाणएहिहसद्भिः-हंसता रहेगा, रूसमाणेहिं - रुष्यदिभः-रुष्ट होता रहेगा, अक्कोसमाणेहिं - क्रोध करता रहेगा, अक्कुस्समाणेहिं - आक्रुश्यद्भिः-अपनी वस्तु के लिए लड़ता रहेगा, हणमाणेहिं - मारता रहेगा, विप्पलायमाणेहिं - विप्रलपद्भिः-मार खाता रहेगा, अणुगम्ममाणेहिं - अनुगम्यमानैः, मुत्तपुरीसवमियसुलित्तोवलित्ता - मूत्र पुरीषवान्त सुलिप्तोपलिप्ताः-मल, मूत्र और वमन से भरी हुई, मइलवसणपुच्चडा - मल युक्त वस्त्रैः निश्शोभा-मैले कपड़ों से कांतिहीन। ____ भावार्थ - तत्पश्चात् सोमा ब्राह्मणी राष्ट्रकूट के साथ विपुल भोगों को भोगती हुई प्रत्येक वर्ष में एक-एक संतान युगल को जन्म देगी और सोलह वर्षों में बत्तीस बच्चों की माँ हो जायेगी। तब वह सोमा ब्राह्मणी उन बहुत से दारक, दारिकाओं, कुमार, कुमारिकाओं और बच्चे, बच्चियों में से किसी For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ३ अध्ययन ४ सोमा का चिंतन ११७ ........................................................... के उत्तान शयन करने से, किसी के चिल्लाने से, किसी को जन्म चूंटी आदि दवाई पिलाने से, किसी के घुटने-घुटने चलने से, किसी के पैरों पर खड़े होने में प्रवृत्त होने से, किसी के चलते-चलते गिर , जाने से, किसी के स्तन को ढूंढने से, किसी के दूध मांगने से, किसी के खिलौना मांगने से, किसी के खाजा आदि मांगने से, किसी के कूर (भात) मांगने से, किसी के पानी मांगने से, किसी के हंसने से, किसी के रुठने से, गुस्सा करने से, झगड़ने से, मारपीट करने से, मार कर भाग जाने से, पीछा करने से, किसी के रोने से, आक्रंदन करने से, विलाप करने से, छीना-झपटी करने से, कराहने से, ऊँघने से, प्रलाप करने से, किसी के पेशाब करने से, किसी के उलटी कर देने से, किसी के छेरने से, किसी के मूतने आदि से सदैव उन बच्चे बच्चियों के मल-मूत्र वमन से लिपटे शरीर वाली तथा मैले कुचले कपड़ों से कांतिहीन यावत् अशुचि से भरी हुई होने से देखने में बीभत्स और अत्यंत दुर्गन्धित होने के कारण राष्ट्रकूट के साथ विपुल कामभोगों को भोगने में समर्थ नहीं हो सकेगी। सोमा का चिंतन तए णं तीसे सोमाए माहणीए अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुम्बजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु अहं इमेहिं बहूहिं दारगेहि य जाव डिम्भियाहि य अप्पेगइएहिं उत्ताणसेज्जएहिं य जाव अप्पेगइएहिं मुत्तमाणेहिं दुज्जाएहिं दुज्जम्मएहिं हयविप्पहयभग्गेहिं एगप्पहारपडिएहिं जेणं मुत्तपुरीसवमियसुलित्तोवलित्ता जाव परमदुम्मिगंधा णो संचाएमि रडकूडेणं सद्धिं जाव भुंजमाणी विहरित्तए, तं धण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव जीवियफले जाओ णं वंझाओ अवियाउरीओ जाणुकोप्परमायाओ सुरभिसुगंधगंधियाओ विउलाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणीओ विहरंति, अहं णं अधण्णा अपुण्णा अकयपुण्णा णो संचाएमि रटकूडेणं सद्धिं विउलाई जाव विहरित्तए॥१३३॥ ___कठिन शब्दार्थ - दुजाएहिं - दुतैिः-दुष्टजातं-अभागे दुःखदायी, दुजम्मएहिं - दुर्जन्मभिःदुर्जन्मा-कुत्सित जन्म वाले, हयविप्पहयभग्गेहिं - हतविप्रहतभाग्यैः-सर्वथा भाग्यहीन, एगप्पहारपडिएहि-एकप्रहार पतितैः-अल्पकाल में उत्पन्न होने वाले-थोड़े-थोड़े दिनों के बाद उत्पन्न हुए। भावार्थ - तत्पश्चात् किसी समय रात्रि के पिछले प्रहर में कुटुम्ब जागरणा करती हुई उस For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ सोमा ब्राह्मणी के मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न होगा कि - मैं इन बहुत से अभागे दुःखदायी, एक साथ थोड़े-थोड़े दिनों के बाद उत्पन्न हुए छोटे बड़े और नवजात शिशुओं में से कोई उत्तानशयन करके यावत् पेशाब आदि करने से उनके मल मूत्र और वमन से सनी-लिपी पुत्ती अत्यंत दुर्गंधमयी होकर राष्ट्रकूट के साथ भोगों को भोग नहीं पा रही हूँ। वे माताएं धन्य हैं यावत् उन्होंने मनुष्य जन्म और जीवन का फल पाया है जो वन्ध्या हैं, प्रजननशीला नहीं होने से जानुकूपर माता हैं जो सुगंधित द्रव्यों से सुवासित हो कर मनुष्य संबंधी भोगों को भोगती हुई विचरती हैं- समय बिताती हैं लेकिन मैं अधन्या हूँ, अपुण्या हूँ, निर्भागी हूँ कि राष्ट्रकूट के साथ विपुल भोगों को भोग नहीं सकती हूँ। . आर्याओं का धर्मोपदेश तेणं कालेणं तेणं समएणं सुव्वयाओ णाम अज्जाओ इरियासमियाओ जाव बहुपरिवाराओ पुव्वाणुपुव्विं....जेणेव विभेले संणिवेसे....अहापडिरूवं उग्गहं जाव विहरंति। तए णं तासिं सुव्वयाणं अज्जाणं एगे संघाडए विभेले संणिवेसे उच्चणीय० जाव अडमाणे रटकूडस्स गिहं अणुपविटे। तए णं सा सोमा माहणी ताओ अज्जाओ एज्जमाणीओ पासइ पासित्ता हट्ट० खिप्पामेव आसणाओ अग्भुटेइ अब्भुट्टित्ता सत्तट्ठपयाइं अणुगच्छइ अणुगच्छित्ता वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता विउलेणं असण ४ पडिलाभेइ पडिलाभेत्ता एवं वयासी-एवं खलु अहं अज्जाओ! रटकूडेणं सद्धिं विउलाई जाव संवच्छरे संवच्छरे जुगलं पयामि, सोलसहिं संवच्छरेहिं बत्तीसं दारगरूवे पयाया, तए णं अहं तेहिं बहुहिं दारएहि य जाव डिम्भियाहि य अप्पेगइएहिं उत्ताणसेज्जएहिं जाव मुत्तमाणे हिं दुज्जाएहिं जाव णो संचाएमि....विहरित्तए, तं इच्छामि गं अहं अजाओ! तुम्हं अंतिए धम्म णिसामेत्तए। तए णं ताओ अज्जाओ सोमाए माहणीए विचित्तं जाव केवलिपण्णत्तं धम्म परिकहेंति॥१३४॥ ___ भावार्थ - उस काल और उस समय में ईर्या आदि समितियों से युक्त यावत् बहुत-सी आर्याओं के साथ सुव्रता आर्या पूर्वानुपूर्वी क्रम से विहार करती हुई उस विभेल संन्निवेश में आएगी और यथोचित्त अवग्रह लेकर वहाँ ठहरेगी। तब उस सुव्रता आर्याओं का एक संघाडा विभेल सन्निवेश के उच्च, नीच, मध्यम कुलों में घर सामुदानिकी भिक्षा के लिए परिभ्रमण करता हुआ राष्ट्रकूट के घर में For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ३ अध्ययन ४ सोमा का धार्मिक चिंतन ११६ प्रवेश करेगा। तब वह सोमा ब्राह्मणी उन साध्वियों को आते देख कर हृष्ट तुष्ट होगी और शीघ्र अपने आसन. से उठ कर सात आठ कदम उनके सामने जायेगी। तदनन्तर वंदन नमस्कार करेगी और विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम से प्रतिलाभित कर उनसे इस प्रकार कहेगी-'हे आर्याओ! राष्ट्रकूट के साथ विपुल भोगों को भोगती हुई मैंने प्रत्येक वर्ष में युगल बच्चों को जन्म देकर सोलह वर्षों में बत्तीस बच्चों को जन्म दिया है। मैं उन दुर्जन्मा बहुत से बालक बालिकाओं यावत् बच्चे बच्चियों में किसी के उत्तान शयन यावत् पेशाब करने से उन बच्चों के मलमूत्र और वमन आदि से सनी-लिपी पुती अत्यंत दुर्गन्धित शरीर वाली हो अपने पति राष्ट्रकूट के साथ विपुल भोगों को नहीं भोग पाती हूँ। हे आर्याओ! मैं आपके समीप धर्म सुनना चाहती हूँ। तब वे आर्याएं सोमा ब्राह्मणी को विचित्र-विविध प्रकार के यावत् केवली प्ररूपित धर्म का उपदेश देंगी। सोमा का धार्मिक चिंतन 'तए णं सा सोमा माहणी तासिं अज्जाणं अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हट्ठ जाव हियया ताओ अज्जाओ वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-सदहामि णं अज्जाओ! णिग्गंथं पावयणं जाव अब्भुढेमि णं अजाओ!णिग्गंथं पावयणं, एवमेयं अज्जाओ! जाव से जहेयं तुब्भे वयह, जं णवरं अजाओ! रटकूडं आपुच्छामि, तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए मुण्डा जाव पव्वयामि। अहासुहं देवाणुप्पिए! मा पडिबंधं....। तए णं सा सोमा माहणी ताओ अज्जाओ वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता पडिविसज्जेइ॥ १३५॥ - भावार्थ - उसके बाद वह सोमा ब्राह्मणी उन आर्याओं से धर्म सुन कर उसे हृदय में धारण कर हृष्ट तुष्ट हो यावत् हर्ष युक्त हृदय से उन आर्याओं को वंदन नमस्कार कर इस प्रकार कहेगी'हे आर्याओ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ यावत् उसे अंगीकार करने के लिए उद्यत हूँ। हे आर्याओ! निर्ग्रन्थ प्रवचन ऐसा ही है जैसा आपने प्रतिपादन किया है। मैं राष्ट्रकूट से पूछूगी तत्पश्चात् आपके पास मुंडित होकर प्रव्रजित होऊँगी।' यह सुन कर उन आर्याओं ने सोमा ब्राह्मणी से कहा-'हे देवानुप्रिय! जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो, किन्तु धर्म कार्य में प्रमाद मत करो।' इसके बाद सोमा ब्राह्मणी उन आर्याओं को वंदन नमस्कार करके उन्हें विसर्जित करेगी। तए णं सा सोमा माहणी जेणेव रटकूडे तेणेव उवागया करयल०....एवं वयासी-एवं खलु मए देवाणुप्पिया! अजाणं अंतिए धम्मे णिसंते, से वि य णं For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० पुष्पिका सूत्र .......................................................... धम्मे इच्छिए जाव अभिरुइए, तए णं अहं देवाणुप्पिया! तुन्भेहिं अब्भणुण्णाया सुव्वयाणं अज्जाणं जाव पव्वइत्तए॥ १३६॥ भावार्य - तदनन्तर वह सोमा ब्राह्मणी राष्ट्रकूट के पास आवेगी और अपने दोनों हाथों को जोड़कर विनयपूर्वक इस प्रकार कहेगी-'हे देवानुप्रिय! मैंने आर्याओं के समीप धर्म श्रवण किया है। वह धर्म मुझे इच्छित-प्रिय है यावत् रुचिकर लगा है अतः हे देवानुप्रिय! आपकी आज्ञा प्राप्त कर मैं सुव्रता आर्या के पास प्रव्रजित होना चाहती हूँ।' तए णं से रटकूडे सोमं माहणिं एवं वयासी-मा णं तुमं देवाणुप्पिए! इयाणि मुण्डा भवित्ता जाव पव्वयाहि भुंजाहि ताव देवाणुप्पिए! मए सद्धिं विउलाई भोगभोगाई, तओ पच्छा भुत्तभोई सुव्वयाणं अज्जाणं अंतिए मुण्डा जाव पव्वयाहि॥१३७॥ भावार्य - सोमा ब्राह्मणी का ऐसा वचन सुन कर राष्ट्रकूट उससे कहेगा - 'हे देवानुप्रिय! अभी तुम मुण्डित होकर प्रव्रजित मत होओ किन्तु हे देवानुप्रिये! अभी तुम मेरे साथ विपुल भोगों को भोगो और भुक्त भोगी होने के पश्चात् सुव्रता आर्या के पास मुंडित होकर यावत् प्रव्रजित होना।' सोमा श्चमणोपासिका बनेगी ... तए णं सा सोमा माहणी व्हाया जाव सरीरा चेडियाचक्कवालपरिकिण्णा साओ गिहाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता विभेलं संणिवेसं मझमज्झेणं जेणेव सुव्वयाणं अजाणं उवस्सएं तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सुव्वयाओ अज्जाओ वंदइ णमंसइ पञ्जुवासइ। तए णं ताओ सुव्वयाओ अजाओ सोमाए माहणीए विचित्त केवलिपण्णत्तं धम्म परिकहेंति जहा जीवा बझंति। तए णं सा सोमा माहणी सुवयाणं अज्जाणं अंतिए जाव दुवालसविहं सावगधम्म पडिवज्जइ पडिवञ्जिता सुव्वयाओ अज्जाओ वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया। तए णं सा सोमा माहणी समणोवासिया जाया अभिगय० जाव अप्पाणं भावमाणी विहरइ। तए णं ताओ सुव्वयाओ अजाओ अण्णया कयाइ विभेलाओ For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ३ अध्ययन ४ सोमा की दीक्षा १२१ संणिवेसाओ पडिणिक्खमंति पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरंति॥१३८॥ भावार्थ - तत्पश्चात् सोमा ब्राह्मणी स्नान करके यावत् अलंकारों से अलंकृत हो दासियों के समूह से घिरी हुई अपने घर से निकलेगी निकल कर विभेल सन्निवेश के मध्य भाग से होती हुई सुव्रता आर्याओं के उपाश्रय में आयेगी। आकर सुव्रता आर्याओं को वंदन नमस्कार कर पर्युपासना (सेवा) करेगी। तब सुव्रता आर्या सोमा ब्राह्मणी को अनेक प्रकार के विचित्र केवली प्ररूपित धर्म का उपदेश करेगी - 'किस प्रकार जीव कर्म से बद्ध होते हैं और मुक्त होते हैं। इस प्रकार केवली प्ररूपित धर्म सुन कर वह सोमा ब्राह्मणी सुव्रता आर्या के पास यावत् बारह प्रकार के श्रावक धर्म को स्वीकार करेगी। तत्पश्चात् उन आर्याओं को वंदन नमस्कार कर जिस दिशा से आयेगी उसी दिशा में लौट जायेगी। ... तदनन्तर वह सोमा ब्राह्मणी श्रमणोपासिका हो जाएगी और जीव, अजीव आदि तत्त्वों को जान कर श्रावक व्रतों से आत्मा को भावित करती हुए विचरेगी। तत्पश्चात् सुव्रता आर्या किसी समय विभेल सन्निवेश से निकल कर (विहार कर) बाह्य जनपद में विचरण करेगी। सोमा की दीक्षा तए णं ताओ सुव्वयाओ अजाओ अण्णया कयाइ पुव्वाणुपुब्विं....जाव विहरंति। तए णं सा सोमा माहणी इमीसे कहाए लट्ठा समाणी हट० पहाया तहेव णिग्गया जाव वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता धम्म सोच्चा जाव णवरं रटुकूडं आपुच्छामि, तए णं पव्वयामि। अहासुहं....। तए णं सा सोमा माहणी सुव्वयं अज्जं वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता सुव्वयाणं अंतियाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव रटुकडे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता करयल० तहेवं आपुच्छइ जाव पव्वइत्तए। अहासुहं देवाणुप्पिए! मा पडिबंध....। तए णं से रटकूडे विउलं असणं तहेव जाव पुवभवे सुभद्दा जाव अज्जा जाया इरियासमिया जाव गुत्तबम्भयारिणी॥१३॥ ____ भावार्थ - तत्पश्चात् सुव्रता आर्या किसी समय पूर्वानुपूर्वी क्रम से ग्रामानुग्राम विचरण करती हुई यावत् पुनः विभेल सन्निवेश में आएगी। तब सोमा ब्राह्मणी इस शुभ समाचार को सुन For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पिका सू ** कर हर्षित एवं संतुष्ट हो, स्नान कर तथा सभी अलंकारों से अलंकृत हो पूर्ववत् उन आर्याओं के पास जाकर यावत् वंदन नमस्कार करेगी, वंदन नमस्कार करके धर्म श्रवण कर यावत् सुव्रता आर्या से कहेगी-‘हे देवानुप्रिये ! मैं राष्ट्रकूट से आज्ञा प्राप्त कर आपके पास मुंडित होकर प्रव्रज्या लेना चाहती हूँ।' तब सुव्रता आर्या उससे कहेगी - 'हे देवानुप्रिये! तुम्हें जैसा सुख हो वैसा करो किन्तु धर्मकार्य में प्रमाद मत करो । ' १२२ उसके बाद सोमा ब्राह्मणी उन सुव्रता आर्याओं को वंदन नमस्कार करके उनके पास से निकलेगी और निकल कर जहाँ अपना घर और जहाँ राष्ट्रकूट होगा वहाँ आएगी और आकर हाथ जोड़ कर राष्ट्रकूट से पूर्ववत् पूछेगी कि - 'हे देवानुप्रिय ! मेरी इच्छा है कि आपकी आज्ञा प्राप्त कर सुव्रता आर्या के पास प्रव्रजित होऊँ ।' तब राष्ट्रकूट कहेगा- 'हे देवानुप्रिये! जैसा तुम्हें सुख हो करो किन्तु धर्म कार्य में विलंब मत करो।' तदनन्तर वह राष्ट्रकूट विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम आदि चार प्रकार का भोजन बनवा कर अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन बंधुओं को आमंत्रित करेगा और आदर सत्कार के साथ उन्हें भोजन करायेगा। जिस प्रकार पूर्वभव में सुभद्रा आर्या प्रव्रजित हुई थी उसी प्रकार वह भी प्रव्रजित होगी और आर्या हो कर ईर्यासमिति आदि से युक्त हो यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी होगी। सोमदेव के रूप में उपपात तणं सा सोमा अज्जा सुव्वयाणं अज्जाणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ अहिज्जित्ता बहूहिं छट्ठट्ठमदसमदुवालस जाव भावेमाणी बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणइ पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए सट्ठि भत्ताई अणसणाए छेइत्ता आलोइयपडिक्कंता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो सामाणियदेवत्ताए उववज्जिहि । तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं दो सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं सोमस्सवि देवस्स दो साग़रोवमाइं ठिई पण्णत्ता ॥ १३६ ॥ भावार्थ - तत्पश्चात् वह सोमा आर्या उन सुव्रता आर्याओं के समीप सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन करेगी और बहुत से षष्ठ, अष्टम, दशम, द्वादश भक्त आदि विचित्र तप कर्म से आत्मा भावित करती हुई बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन करेगी और उसके बाद मासिक संलेखना से साठ भक्तों को अनशन से छेदन कर आलोचना प्रतिक्रमण पूर्वक समाधि भावों में काल के समय For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ३ अध्ययन ५ १२३ समय काल करके देवेन्द्र देवराज शक्र के सामानिक देव के रूप में उत्पन्न होगी। वहाँ किसी किसी देव की दो सागरोपम की स्थिति है। उस सोमदेव की भी दो सागरोपम की स्थिति होगी। उपसंहार से णं भंते! सोमे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं जाव चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिइ कहिं उववज्जिहिइ? गोयमा! महाविदेहे वासे जाव अंतं काहिइ। णिक्खेवओ॥१४०॥ चउत्थं अज्झयणं समत्तं॥३॥ ४॥ भावार्थ - यह सुन कर गौतम स्वामी ने भगवान् से पूछा.- हे भगवन्! वह सोम देव आयु, भवं और स्थिति क्षय होने पर उस देवलोक से च्यव कर कहाँ जायेगा? कहाँ उत्पन्न होगा?" - हे गौतम! वह सोम देव देवलोक से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्ध होगा यावत् सभी दुःखों का अंत करेगा। ____ सुधर्मा स्वामी ने कहा - हे आयुष्मन् जम्बू! इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने पुष्पिका सूत्र के चतुर्थ अध्ययन का निरूपण किया है। ॥ चौथा अध्ययन समाप्त॥ पंचमं अज्झयणं पांचवां अध्ययन जइ णं भंते! समणेणं० उक्खेवओ। एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णामं णयरे। गुणसिलए चेइए। सेणिए राया। सामी समोसरिए। परिसा णिग्गया॥१४१॥ भावार्थ - जंबू स्वामी ने आर्य सुधर्मा स्वामी से पूछा - हे भगवन्! यदि मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने पुष्पिका के चतुर्थ अध्ययन का यह भाव निरूपण किया है तो हे भगवन्! पुष्पिका के पंचम अध्ययन का प्रभु ने क्या भाव फरमाया है? For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पिका सूत्र उत्तर में आर्य सुधर्मा स्वामी ने फरमाया- हे आयुष्मन् जंबू ! उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था। वहाँ गुणशीलक नामक चैत्य था। राजगृह नगर में श्रेणिक राजा राज्य करता था । उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का राजगृह में पर्दापण हुआ । भगवान् के दर्शन और वंदन करने के लिए परिषद् निकली। विवेचन - सुधर्मा स्वामी से चौथे अध्ययन का भाव सुनने के बाद आर्य जम्बू स्वामी को पांचवें अध्ययन के भाव जानने की जिज्ञासा हुई तो प्रभु ने पांचवें अध्ययन का भाव इस प्रकार फरमाया - १२४ पूर्णभद्र देव के पूर्व भव विषयक पृच्छा तेणं कालेणं तेणं समएणं पुण्णभद्दे देवे सोहम्मे कप्पे पुण्णभद्दे विमाणे सभाए सुहम्माए पुण्णभद्दंसि सीहासणंसि चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं जहा सूरियाभो जव बत्तीसविहं णट्टविहिं उवदंसित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए । कुडागारसाला । पुव्वभवपुच्छा । एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे मणिवइया णामं णयरी होत्था, रिद्ध० । चंदो राया । ताराइण्णे चेइए । तत्थ णं मणिasure णयरी पुण्णभद्दे णामं गाहावई परिवसइ, अड्डे० । तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरा भगवंतो जाइसंपण्णा जाव जीवियासमरणभयविप्पमुक्का बहुस्सुया बहुपरिवारा पुव्वाणुपुव्विं जाव समोसढा । परिसा णिग्गया । तए णं से पुण्णभद्दे गाहावई इमीसे कहाए लद्धट्टे० हट्ठ० जाव जहा पण्णत्तीए गंगदत्ते तहेव णिग्गच्छइ जावणिक्खतो जाव गुत्तबंभयारी ॥ १४२ ॥ भावार्थ - उस काल और उस समय में पूर्णभद्र देव सौधर्म कल्प के पूर्णभद्र विमान की सुधर्मा सभा में पूर्णभद्र सिंहासन पर चार हजार सामाजिक देवों के साथ दिव्य भोगों को भोगता हुआ विर रहा था। उसने अवधिज्ञान से भगवान् को देखा । भगवान् की सेवा में उपस्थित हुआ, वंदन नमस्कार किया और सूर्याभ देव के समान भगवान् को यावत् बत्तीस प्रकार की नाट्य विधि दिखा कर जिस दिशा से आया था पुनः उसी दिशा में चला गया। तब गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ३ अध्ययन ५ पूर्णभद्र अनगार की साधना १२५ ........................................................... स्वामी से पूर्णभद्र देव की देव ऋद्धि आदि के विषय में पूछ। भगवान् ने पूर्ववत् कूटाकारशाला के दृष्टान्त से उन्हें प्रतिबोधित किया तत्पश्चात् उसके पूर्वभव के विषय में गौतम स्वामी द्वारा पूछे जाने पर प्रभु ने फरमाया हे गौतम! उस काल उस समय में इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में मणिपदिका नाम की नगरी थी। जो ऋद्धि समृद्धि आदि से युक्त थी। उस नगरी में चन्द्र नामक राजा राज्य करता था। वहाँ ताराकीर्ण नामक उद्यान था। उस मणिपदिका नगरी में पूर्णभद्र नामक गाथापति रहता था जो ऋद्धि संपन्न था। ____ उस काल उस समय में जाति एवं कुल से संपन्न यावत् जीवन की आशा और मरण भय से रहित, बहुश्रुत स्थविर भगवंत बहुत मुनि परिवार से युक्त पूर्वानुपूर्वी क्रम से विचरण करते हुए मणिपदिका नगरी में पधारे। परिषद् उनके दर्शनार्थ निकली। पूर्णभद्र गाथापति उन स्थविरभगन्तों के नगर आगमन का समाचार सुन कर हर्षित एवं संतुष्ट हुआ यावत् भगवती सूत्र में वर्णित गंगदत्त के समान प्रभु के दर्शन करने के लिए गया और धर्मकथा सुनकर यावत् प्रव्रजित हो गया यावत् ईर्या समिति आदि से युक्त होकर गुप्त ब्रह्मचारी हो गया। __ पूर्णभद्र अनगार की साधना तए णं से पुण्णभद्दे अणगारे भगवंताणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ अहिज्जित्ता बहूहिं चउत्थछट्टट्ठम जाव भावित्ता बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणइ पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए सर्द्धि भत्ताई अणसणाए छेइत्ता आलोइयपडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे पुण्णभद्दे विमाणे उववायसभाए देवसयणिजंसि जाव भासामणपञ्जत्तीए॥१४२.॥ भावार्थ - तदनन्तर पूर्णभद्र अनगार ने उन स्थविर भगवंतों के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और बहुत से चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम भक्त रूप तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन किया। श्रामण्य पर्याय का पालन करते हुए मासिक संलेखना से साठ भक्तों को अनशन से छेद कर आलोचना प्रतिक्रमण पूर्वक समाधि भावों में काल के समय काल करके सौधर्म कल्प के पूर्णभद्र विमान की उपपात सभा में देव शय्या में देव रूप से उत्पन्न हुआ यावत् भाषा मनःपर्याप्ति से पर्याप्त भाव को प्राप्त किया। For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ पुष्पिका सूत्र उपसंहार एवं खलु गोयमा! पुण्णभद्देणं देवेणं सा दिव्वा देविड्डी जाव अभिसमण्णागया। पुण्णभद्दस्स णं भंते! देवस्स केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा! दो सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। पुण्णभद्दे णं भंते! देवे ताओ देवलोयाओ जाव कहिं गच्छिहिइ कहिं उववज्जिहिइ? गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाव अंतं काहिइ। णिक्खेवओ॥१४३॥ ____पंचमं अज्झयणं समत्तं॥३॥५॥ भावार्थ - हे गौतम! पूर्णभद्र देव ने इस प्रकार इस दिव्य देव ऋद्धि आदि को प्राप्त किया। गौतम स्वामी ने पुनः पृच्छा की - हे भगवन्! पूर्णभद्र देव की स्थिति कितने काल की कही गई है? भगवान् ने फरमाया - हे गौतम! पूर्णभद्र देव की स्थिति दो सागरोपम की है। हे भगवन्! यह पूर्णभद्र देव, देवलोक से च्यव कर कहां जायेगा? कहां उत्पन्न होगा? , भगवान् ने कहा - हे गौतम! यह पूर्णभद्र देव महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्ध होगा यावत् सभी दुःखों का अन्त करेगा। सुधर्मा स्वामी ने फरमाया-हे जम्बू! मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने पुष्पिका के पांचवें अध्ययन का यह भाव निरूपण किया है। ॥ पांचवां अध्ययन समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ३ अध्ययन ६ मणिभद्र देव का पूर्व भव १२७ छडं अज्झयणं छठा अध्ययन .. जइ णं भंते! समणेणं० उक्खेवओ। एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे। गुणसिलए चेइए। सेणिए राया। सामी समोसरिए॥१४४॥ __ भावार्थ - जम्बू स्वामी ने आर्य सुधर्मा स्वामी से पूछा- हे भगवन्! मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने पुष्पिका के पांचवें अध्ययन का यह भाव फरमाया है तो हे भगवन्! छठे अध्ययन का प्रभु ने क्या भाव फरमाया है? सुधर्मा स्वामी ने फरमाया - हे जम्बू! उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था। वहाँ श्रेणिक राजा राज्य करता था। भगवान् महावीर स्वामी का उस नगर में पर्दापण हुआ। परिषद् भगवान् के वंदन करने के लिए निकली। मणिभद्र देव का पूर्व भव तेणं कालेणं तेणं समएणं माणिभद्दे देवे सभाए सुहम्माए माणिभदंसि सीहासणंसि चउहि सामाणियसाहस्सीहिं जहा पुण्णभद्दो तहेव आगमणं, णविही, पुव्वभवपुच्छा। मणिवई गयरी, माणिभद्दे गाहावई, थेराणं अंतिए पव्वज्जा, एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, बहूई वासाई परियाओ, मासिया संलेहणा, सर्व्हि भत्ताइं०, माणिभद्दे विमाणे उववाओ, दो सागरोवमाई ठिई, महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ। णिक्खेवओ॥१४५॥ छठें अज्झयणं समत्तं॥३॥६॥ भावार्थ - उस काल उस समय में मणिभद्र देव सुधर्मा सभा के मणिभद्र सिंहासन पर चार हजार सामानिक देवों के साथ बैठा हुआ था। पूर्णभद्र देव के समान मणिभद्र देव भी भगवान् के समवसरण में आया और नाट्य विधि दिखा कर लौट गया। गौतम स्वामी ने मणिभद्र देव की दिव्य देव ऋद्धि के विषय में पूर्ववत् प्रश्न कियों) भगवान् ने कूटाकारशाला के दृष्टान्त से उसका उत्तर दिया। जब गौतम स्वामी ने मणिभद्र देव के पूर्वभव के विषय में पूछा तो भगवान् ने फरमाया - For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पिका सूत्र उस काल उस समय में मणिपदिका नाम की नगरी थी उसमें मणिभद्र नामक गाथापति रहता था। उसने स्थविर भगवंतों के पास दीक्षा अंगीकार की और ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। बहु वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन किया और मासिक संलेखना की । अनशन द्वारा साठ भक्तों का छेदन कर आलोचना प्रतिक्रमण पूर्वक काल के समय काल करके मणिभद्र विमान में देव रूप में उत्पन्न हुआ। वहाँ उसकी स्थिति दो सागरोपम की है। अंत में देवलोक से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा यावत् सभी दुःखों का अन्त करेगा । सुधर्मा स्वामी फरमाते हैं - हे आयुष्मन् जंबू ! इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने पुष्पिका के छठे अध्ययन का भाव निरूपण किया है। १२८ विवेचन - पांचवे अध्ययन का वर्णन सुनने के पश्चात् जंबू स्वामी ने छठे अध्ययन के भाव जानने की जिज्ञासा व्यक्त की तो प्रभु ने मणिभद्र देव व उसने पूर्वभव का वर्णन किया । मणिभद्र गाथापति ने सर्वऋद्धि समृद्धि का त्याग कर प्रव्रज्या अंगीकार की । तप संयम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए मासिक संलेखना के साथ समाधि भावों में काल करके दो. सागरोपम की स्थिति वाले मणिभद्र देव के रूप में उत्पन्न हुए । देव भव पूर्ण कर महाविदेह क्षेत्र से सिद्ध बुद्ध होंगे। ॥ छठा अध्ययन समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ३ अध्ययन ७-१० १२६ सात से दस अध्ययन एवं दत्ते ७, सिवे ८, बले ६, अणाढिए १०, सव्वे जहा पुण्णभद्दे देवे। सव्वेसिं दो सागरोवमाई ठिई। विमाणा देवसरिसणामा। पुव्वभवे दत्ते चंदणा णामाए, सिवे मिहिलाए, बले हत्थिणपुरे णयरे, अणाढिए काकंदीए। चेइयाइं जहा संगहणीए॥१४६॥३॥१०॥ ॥ पुफियाओ समत्ताओ॥ ॥ तइओ वग्गो समत्तो॥३॥ भावार्थ - जिस प्रकार पूर्णभद्र देव का वर्णन किया गया है उसी प्रकार सातवां अध्ययन दत्त का, आठवां अध्ययन शिव का, नौवां अध्ययन बल का और दसवां अध्ययन अनादृत का समझना चाहिए। सभी की स्थिति दो-दो सागरोपम की है। देवों के नाम के समान ही इनके विमानों के भी नाम हैं। पूर्वभव में दत्त चन्दना नगरी के, शिव मिथिला नगरी के, बल हस्तिनापुर के और अनादृत काकंदी नगरी के निवासी थे। चैत्यों के नाम संग्रहणी गाथा के अनुसार समझ लेने चाहिये। विवेचन - जिस प्रकार पांचवें अध्ययन में पूर्णभद्र देव भगवान् महावीर के दर्शनार्थ आया और नाटक आदि दिखा कर वापिस चला गया उसी प्रकार दत्त, शिव, बल और अनादृत देव भी भगवान् के समवसरण में आये और नाटक दिखा कर चले गये। गौतम स्वामी ने क्रमशः सभी देवों की ऋद्धि एवं उनके पूर्व भवों के विषय में पृच्छा की। सभी पूर्व भव में अपने अपने नाम वाले गाथापति थे। दत्त चन्दना नगरी में, शिव मिथिला नगरी में, बल हस्तिनापुर नगर में और अनादृत काकंदी नगरी में जन्मे थे। सभी ने दीक्षा अंगीकार की और सभी अपने अपने नाम वाले विमानों में दो सागरोपम की स्थिति वाले देव हुए। देवलोक से च्यव कर सभी महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेंगे और सिद्ध होंगे। ____इस प्रकार पुष्पिका का सातवां, आठवां, नौवां और दसवां अध्ययन समाप्त हुआ। ॥ पुष्पिका नामक तृतीय वर्ग समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुप्फचूलियाओ - पुष्पचूलिका चउत्थो वग्गो-पठमं अज्झयणं चतुर्थ वर्ग प्रथम अध्ययन जइ णं भंते! समणेणं भगवया.... उक्खेवओ जाव दस अज्झयणा पण्णत्ता, तंजा - सिरि- हरि-धि- कित्तीओ बुद्धी लच्छी य होइ बोद्धव्वा । इलादेवी सुरादेवी रसदेवी गंधदेवी य ॥१॥ भावार्थ - जम्बूस्वामी ने सुधर्मा स्वामी से पूछा- 'हे भगवन् ! यदि मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने पुष्पिका नामक तीसरे उपांग का पूर्वोक्त भाव फरमाया है तो हे भगवन्! पुष्पचूलिका नामक चतुर्थ उपांग का प्रभु ने क्या भाव फरमाया है ?' सुधर्मा स्वामी ने फरमाया-'हे जम्बू ! मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने चौथे उपांग पुष्पचूलिका के दस अध्ययन फरमाये हैं, वे इस प्रकार हैं १. श्री देवी २. ह्री देवी ३. धृति देवी ४. कीर्ति देवी ५. बुद्धि देवी ६. लक्ष्मी देवी ७. इला देवी ८. सुरा देवी ६. रस देवी और १०. गंध देवी ।' जइ णं भंते! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उवंगाणं चउत्थस्स वग्गस्स पुप्फचूलियाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते! उक्खेवओ। एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया। सामी समोसढे, परिसा णिग्गया । भावार्थ - हे भगवन्! यदि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने पुष्प चूलिका नामक चतुर्थ उपांग के दस अध्ययन प्रतिपादित किये हैं तो हे भगवन्! प्रथम अध्ययन में प्रभु ने क्या भाव फरमाये हैं? सुधर्मा स्वामी ने इस प्रश्न के उत्तर में फरमाया - हे जम्बू! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था । गुणशीलक उद्यान था। वहाँ श्रेणिक राजा राज्य करता था । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का राजगृह नगर में पदार्पण हुआ । परिषद् वंदन के लिए निकली। For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ४ अध्ययन १ श्री देवी का पूर्व भव १३१ श्री देवी का पूर्व भव तेणं कालेणं तेणं समएणं सिरिदेवी सोहम्मे कप्पे सिरिवडिंसए विमाणे सभाए सुहम्माए सिरिंसि सीहासणंसि चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं चउहिं महत्तरियाहिं० जहा बहुपुत्तिया जाव गट्टविहिं उवदंसित्ता पडिगया। णवरं (दारय) दारियाओ णत्थि। पुव्वभवपुच्छा। एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे, गुणसिलए चेइए, जियसत्तू राया। तत्थ णं रायगिहे णयरे सुदंसणे णाम गाहावई परिवसइ, अड्डे० । तस्स णं सुदंसणस्स गाहावइस्स पिया णामं भारिया होत्था, सोमाल०। तस्स णं सुदंसणस्स गाहावइस्स धूया पियाए गाहावइणीए अत्तिया भूया णामं दारिया होत्था । वु(बु)हां वुडकुमारी जुण्णा जुण्णकुमारी पडियपुयत्थणी वरगपरिवज्जिया यावि होत्था॥१४७॥ .. कठिन शब्दार्थ - वुड्डा - वृद्धा, वुडकुमारी - वृद्ध कुमारी, जुण्णा - जीर्णा, जुण्णकुमारी - जीर्णकुमारी, पडियपुयत्थणी - पतितपुतस्तनी-शिथिल नितम्ब और स्तन वाली, वरगपरिवज्जियावर परिवर्जिता-वर विहीन-अविवाहित। भावार्थ - उस काल उस समय में श्रीदेवी सौधर्मकल्प में श्री अवतंसक नामक विमान की सुधर्मा सभा में बहुपुत्रिका देवी के समान चार हजार सामानिक देवियों एवं चार महत्तरिकाओं के साथ अपने श्रीसिंहासन पर बैठी हुई थी यावत् नाट्य विधि दिखाकर वापिस लौट गई। अंतर इतना है कि इसने बालिकाओं के वैक्रिय रूप नहीं बनाये। गौतम स्वामी ने श्रीदेवी के पूर्व भव की पृच्छा की। भगवान् ने उत्तर दिया - हे गौतम! उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था। गुणशीलक उद्यान था। वहाँ जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था। उस राजगृह नगर में सुदर्शन नामक गाथापति रहता था जो ऋद्धि संपन्न यावत् अपराभूत था। उस सुदर्शन गाथापति की प्रिया नामक भार्या (धर्मपत्नी) थी जो सुकुमाल, परिपूर्णाग आदि गुणों से युक्त थी। उस सुदर्शन गाथापति की पुत्री, प्रिया भार्या (गाथापत्नी) की अंगजात (आत्मजा) भूता नाम की लड़की थी जो वृद्धा, वृद्ध शरीरा (कुमार अवस्था में भी वृद्धा जैसी), जीर्णा, जीर्ण शरीर वाली, शिथिल नितम्ब और स्तनवाली तथा वर विहीन-पति से वर्जित अविवाहित थी। For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ पुष्पचूलिका पार्श्वप्रभु का पदार्पण तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए जाव णवरयणिए वण्णओ सो चेव, समोसरणं। परिसा णिग्गया॥१४८॥ भावार्थ - उस काल उस सयम में पुरुषादानीय नौ हाथ की अवगाहना वाले इत्यादि रूप से वर्णनीय अर्हत् पार्श्वप्रभु राजगृह नगर में पधारे। परिषद् दर्शन करने के लिए निकली॥ तए णं सा भूया दारिया इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणी हट्टतुट्ठ० जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता एवं वयासी-एवं खलु अम्मयाओ! पासे अरहा पुरिसादाणीए पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे जाव गणपरिवुडे विहरइ, तं इच्छामि गं अम्मयाओ! तुम्भेहिं अब्भणुण्णाया समाणी पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स पायवंदिया गमित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिए! मा पडिबंधं.... ...॥१४६॥ ___भावार्य - जब भूता दारिका ने यह समाचार सुना तो वह अत्यंत हृष्ट तुष्ट हुई और जहाँ उसके माता-पिता थे वहाँ जाकर इस प्रकार बोली- 'हे पूजनीय माता-पिता! अर्हत पुरुषादानीय पार्श्वनाथ प्रभु ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए यावत् बहुत से साधुओं के परिवार के साथ यहाँ पधारे हैं अतः मेरी इच्छा है कि आपकी आज्ञा प्राप्त कर मैं भगवान् पार्श्वनाथ को वंदना नमस्कार करने के लिये जाऊँ।' माता-पिता ने उत्तर दिया- 'हे देवानुप्रिय! तुम्हें जैसा सुख हो वैसा करो किन्तु धर्म कार्य में प्रमाद मत करो।' भूता द्वारा प्रभु की पर्युपासना तए णं सा भूया दारिया पहाया जाव सरीरा चेडीचक्कवालपरिकिण्णा साओ गिहाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढा। तए णं सा भूया दारिया णिययपरिवारपरिवुडा रायगिंह णयरं मझमझेणं णिग्गच्छइ णिग्गच्छित्ता जेणेव गुणसिलए चेइए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता छत्ताईए तित्थयराइसए पासइ For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ४ अध्ययन १ भूता द्वारा प्रभु की पर्युपासना १३३ ........................................................... पासित्ता धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरु(भि) हइ पच्चोरुहित्ता चेडी चक्कवालपरिकिण्णा जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो वंदित्ता णमंसित्ता जाव पज्जुवासइ॥१५०॥ कठिन शब्दार्थ - चेडीचक्कवालपरिकिण्णा - चेटी चक्रवाल परिकीर्णा-दासियों के परिवार (समूह) से परिवृत, उवट्ठाणसाला - उपस्थान शाला(सभा भवन बैठक), णिययपरिवारपरिवुडानिजपरिवार परिवृत्ता-अपने स्वजन परिवार से परिवृत, छत्ताईए - छत्रादीन-छत्र आदि, तित्थयराइसए - तीर्थंकरातिशयान्-तीर्थंकरों के अतिशयों को। ___ भावार्थ - तत्पश्चात् भूता दारिका ने स्नान किया यावत् शरीर को अलंकृत करके दासियों के समूह के साथ अपने घर से निकली और निकल कर जहाँ बाहरी उपस्थानशाला थी वहाँ आई और आकर उत्तम धार्मिक यान (रथ) पर सवार हुई। तदनन्तर वह भूता दारिका अपने स्वजन परिवार वालों के साथ राजगृह नगर के मध्यभाग से निकली, निकल कर जहाँ गुणशीलक चैत्य था वहाँ आई, आकर छत्र आदि तीर्थंकरों के अतिशयों को देखा, देख कर धार्मिक श्रेष्ठ यान (रथ) से उतरी और उतर कर दासियों आदि के समूह के साथ जहाँ अर्हत् पुरुषादानीय पार्श्वप्रभु थे वहाँ आई, आकर तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा करके प्रभु को वंदन नमस्कार किया यावत् पर्युपासना करने लगी। ____ तए णं पासे अरहा पुरिसादाणीए भूयाए दारियाए तीसे महइ० धम्मकहा, धम्मं सोच्चा णिसम्म हट्ठ० वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-सद्दहामि णं भंते! णिग्गंथं पावयणं जाव अब्भुढेमि णं भंते! णिग्गंथं पावयणं, से जहेयं तुम्भे वयह, जं णवरं भंते! अम्मापियरो आपुच्छामि, तए णं अहं जाव पव्वइत्तए। अहासुहं देवाणुप्पिए!०॥१५१॥ भावार्थ - तत्पश्चात् अर्हत् पुरुषादानीय पार्श्व प्रभु ने उस भूता दारिका और आगत परिषद् को धर्मदेशना दी। धर्मदेशना सुन कर, अवधारण कर भूता दारिका हृष्ट तुष्ट हुई और प्रभु को वंदन नमस्कार करके इस प्रकार निवेदन किया - 'हे भगवन्! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ यावत् निर्ग्रन्थ प्रवचन को अंगीकार करने के लिए तत्पर हूँ। जिस प्रकार आप फरमाते हैं वैसा ही है किन्तु हे भगवन्! मैं अपने माता-पिता की आज्ञा प्राप्त कर यावत् आपके पास प्रव्रज्या अंगीकार करना For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ पुष्पचूलिका .......................... ..................... चाहती हूँ।' प्रभु ने फरमाया-'हे देवानुप्रिय! जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो किन्तु धर्मकार्य में प्रमाद मत करो।' तए णं सा भूया दारिया तमेव धम्मियं जाणप्पवरं जाव दुरूहइ दुरूहित्ता जेणेव रायगिहे णयरे तेणेव उवागया, रायगिहं णयरं मज्झमझेणं जेणेव सए गिहे तेणेव उवागया, रहाओ पच्चोरुहित्ता जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागया, करयल० जहा जमाली आपुच्छइ। अहासुहं देवाणुप्पिए! ॥१५२॥ भावार्थ - तदनन्तर वह भूता दारिका धार्मिक श्रेष्ठ यान पर आरूढ होकर जहाँ राजगृह नगर था वहाँ आई और राजगृह नगर के मध्य भाग में होकर जहाँ अपना घर था वहाँ आई। आकर रथ से . नीचे उतर कर जहाँ माता-पिता थे उनके पास आई, आकर दोनों हाथ जोड़कर यावत् जमाली की तरह माता-पिता से दीक्षा की आज्ञा मांगी। माता-पिता ने उत्तर में कहा-'हे देवानुप्रिय! जैसा सुख हो वैसा करो किन्तु धर्म कार्य में विलम्ब मत करो।' भूतादारिका का अभिनिष्क्रमण तए णं से सुदंसणे गाहावई विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ मित्तणाइ० आमंतेइ आमंतित्ता जाव जिमियभुत्तुत्तरकाले सुईभूए णिक्खमणमाणेत्ता कोडुम्बियपुरिसे सद्दावेइ सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! भूयादारियाए पुरिससहस्सवाहिणीयं सीयं उवट्ठवेह उवट्ठवित्ता जाव पच्चप्पिणह। तए णं ते जाव पच्चप्पिणंति॥१५३॥ कठिन शब्दार्थ - जिमियभुत्तुत्तरकाले - जिमित भुक्तयुत्तरकाले-भोजन करने के बाद, सुईभूए - शूचिभूत हो-पवित्र हो। ___ भावार्थ - तत्पश्चात् सुदर्शन गाथापति ने विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम युक्त भोजन सामग्री तैयार करवाई और मित्रों ज्ञातिजनों आदि को आमंत्रित करके यावत् भोजन करने के पश्चात् शुचिभूत-शुद्ध स्वच्छ हो कर अभिनिष्क्रमण के लिए कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर उनसे कहा-'हे देवानुप्रियो! शीघ्र ही भूता दारिका के लिए सहस्र (हजार) पुरुषों द्वारा उठाई जाने वाली ऐसी शिविका (पालकी) लाओ और लाकर कार्य पूरा होने की सूचना मुझे दो। तब कौटुम्बिक पुरुष यावत् आज्ञानुसार कार्य करके आज्ञा वापिस लौटाते हैं। For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ४ अध्ययन १ भूता द्वारा प्रव्रज्या ग्रहण १३५ तए णं से सुदंसणे गाहावई भूयं दारियं व्हायं जाव विभूसिय-सरीरं पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं दुरुहेइ दुरूहित्ता मित्तणाइ० जाव रवेणं रायगिहं णयरं मझमझेणं जेणेव गुणसिलए चेइए तेणेव उवागए छत्ताईए तित्थयराइसए पासइ पासित्ता सीयं ठावेइ ठावेत्ता भूयं दारियं सीयाओ पच्चोरहेइ॥१५४॥ ____ भावार्थ - तदनन्तर उस सुदर्शन गाथापति ने स्नान की हुई यावत् आभूषणों से अलंकृत शरीर वाली भूता दारिका को पुरुषसहस्रवाहिनी शिविका पर आरूढ़ किया और मित्रों, ज्ञातिजनों आदि के साथ यावत् वाद्य घोषों के साथ राजगृह नगर के मध्य में होते हुए जहाँ गुणशीलक उद्यान था, वहाँ आया, तीर्थंकरों के छत्रादि अतिशयों को देखा और देख कर पालकी को रोका तथा उसमें से भूता दारिका को नीचे उतारा। ____तए णं तं भूयं दारियं अम्मापियरो पुरओ काउं जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीए तेणेव उवागया तिक्खुत्तो वंदंति णमंसंति वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! भूया दारिया अम्हं एगा धूया इट्ठा०, एस णं देवाणुप्पिया! संसार भउविग्गा भीया जाव देवाणुप्पियाणं अंतिए मुण्डा जाव पव्व(या)यइ, तं एवं णं देवाणुप्पिया! सिस्सिणिभिक्खं दलयामो, पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया! सिस्सिणिभिक्खं। अहासुहं देवाणुप्पिया!०॥१५५॥ भावार्थ - तत्पश्चात् माता-पिता भूता दारिका को आगे करके पुरुषादानीय अर्हन्त पार्श्व प्रभु के समीप आकर तिक्खुत्तो के पाठ से वंदना नमस्कार कर इस प्रकार बोले-'हे देवानुप्रिय! यह भूता दारिका हमारी इकलौती पुत्री है। यह हमें इष्ट है, प्रिय है। हे भगवन्! यह संसार भय से उद्विग्न (भयभीत) होकर आप देवानुप्रिय के पास मुंडित होकर प्रव्रजित होना चाहती है। अतः हे देवानुप्रिय! हम इसे आपको शिष्या रूप में भिक्षा देते हैं। आप इस शिष्या रूप भिक्षा को स्वीकार करें। तब भगवान् ने फरमाया-'हे देवानुप्रिय! जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो, धर्मकार्य में प्रमाद मत करो।' भूता द्वारा प्रव्रज्या ग्रहण तए णं सा भूया दारिया पासेणं अरहया....एवं वुत्ता समाणी हट्ट० उत्तरपुरस्थिमं सयमेव आभरणमल्लालंकारं भो(उम्)मुयइ जहा देवाणंदा पुष्फचूलाणं अंतिए जाव गुत्तबम्भयारिणी॥१५६॥ For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ । पुष्पचूलिका .......................................................... भावार्थ - तब वह भूता दारिका भगवान् पार्श्वनाथ के उपरोक्त वचनों को सुन कर अत्यंत हृष्ट तुष्ट हुई और उत्तर-पूर्व दिशा (ईशान कोण) में जाकर स्वयं अपने हाथों से सर्व आभरणअलंकारों को उतारा और देवानंदा के समान पुष्पचूलिका आर्या के पास दीक्षित हुई यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी बन गयी। भूता शरीरबकुशिका बनी तए णं सा भूया अज्जा अण्णया कयाइ सरीरबाओसिया जाया यावि होत्था, अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवइ, पाए धोवइ, एवं सीसं धोवइ, मुहं. धोवइ, थणगंतराइं धोवइ, कक्खंतराइं धोवइ, गुज्झंतराइं धोवइ, जत्थ जत्थ वि य गं ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेएइ, तत्थ तत्थ वि य णं पुवामेव पाणएणं अब्भुक्खेइ, तओ पच्छा ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेएइ॥१५७॥ - कठिन शब्दार्थ - सरीबाउसिया - शरीर बकुशिका, धोवइ - धोती है, थणगंतराइं - स्तनान्तर-स्तक के अन्तर भाग को, कक्खंतराइं - कांख के अंतर भाग को, गुमंतराई - गुह्यान्तरगुह्य स्थान के अंतर भाग को, अब्भुक्खेइ - अभ्युक्षति-अभिषिंचति-छिड़कती। ___ भावार्थ - तब किसी समय भूता आर्यिका शरीर बकुशिका बन गई। वह बार-बार हाथ धोती, पैर धोती, शिर धोती, मुख धोती, स्तनान्तर-स्तन के अन्तर भाग को धोती, कांख के अन्तर भाग को धोती, गुह्य स्थान के अंतर भाग को धोती और जहाँ कहीं भी खड़ी होती, सोती, बैठती अथवा स्वाध्याय करती उस-उस स्थान पर पहले पानी छिड़कती और तत्पश्चात् वहाँ खड़ी होती, सोती, बैठती अथवा स्वाध्याय करती। पुष्पचूलिका आर्या द्वारा समझाना तए णं ताओ पुप्फचूलाओ अज्जाओ भूयं अज्जं एवं वयासी-अम्हे णं देवाणुप्पिए! समणीओ णिग्गंथीओ इरियासमियाओ जाव गुत्तबम्भयारिणीओ, णो खलु कप्पइ अम्हं सरीरबाओसियाणं होत्तए, तुमं च णं देवाणुप्पिए! सरीरबाओसिया अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवसि जाव णिसीहियं चेएसि, तं णं तुमं देवाणुप्पिए! एयस्स ठाणस्स आलोएहित्ति, सेसं जहा सुभद्दाए जाव पाडिएक्वं For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ४ अध्ययन १ पुष्पचूलिका आर्या द्वारा समझाना ........................................................... उवस्सयं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। तए णं सा भूया अजा अणोहट्टिया अणिवारिया सच्छंदमई अभिक्खणं अभिक्खणं हत्ये धोवइ जाव चेएइ ॥१५८॥ भावार्य - तब वह पुष्पचूलिका आर्या भूता आर्या से इस प्रकार बोली-'हे देवानुप्रिये! हम श्रमणी निर्ग्रन्थी हैं। ईर्या समिति आदि से युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी हैं अतः हमें शरीरबकुशिका होना नहीं कल्पता है। किन्तु हे देवानुप्रिय! तुम शरीर बकुशिका होकर हाथ धोती हो यावत् पानी छिड़क कर बैठती यावत् स्वाध्याय करती हो। अतः हे देवानुप्रिये! तुम इस स्थान-पाप कार्य की आलोचना करो।' इत्यादि सारा वर्णन सुभद्रा आर्या के समान समझना चाहिये यावत् वह उपाश्रय से निकल कर अकेली स्वेच्छाचारी हो विचरण करने लगी। तत्पश्चात् वह भूता आर्या निरंकुशअंकुश रहित बिना किसी की रोक टोक के स्वच्छंद मति हो कर बारबार हाथ धोने लगी यावत् पानी छिड़क कर बैठती-स्वाध्याय करती। · विवेचन - जहाँ गृहस्थों को भी शरीर श्रृंगार का त्याग कर आत्म-श्रृंगार की प्रेरणा दी जाती है वहाँ त्यागी वर्ग के लिए और भी कठिन नियम है। शरीर को श्रृंगार भाव से सजाने के 'लिए हाथ पैर धोना, स्नान आदि करना संत सती के लिए वर्ण्य है। प्रभु ने दशवैकालिक सूत्र अध्ययन ६ की गाथा ६६-६७ में फरमाया है - विभूसावत्तियं भिक्खू, कम्मं बंधइ चिक्कणं। संसार सायरे घोरे, जेणं पडइ दुरुत्तरे॥६६॥ ___- शरीर की विभूषा एवं शोभा-श्रृंगार करने से साधु को ऐसे चिकने कर्मों का बंध होता है जिससे वह जन्म जरा मरण के भय से भयंकर कठिनता से पार किये जाने वाले संसार रूपी सागर में गिर पड़ता है। विभूसावत्तियं चेयं, बुद्धा मण्णंति तारिसं। सावज्जबहुलं चेयं, णेयं ताईहिं सेवियं ॥६७॥ - ज्ञानी पुरुष शरीर की विभूषा संबंधी संकल्प-विकल्प करने वाले मन को चिकने कर्म बंध का कारण और बहुत पापों की उत्पत्ति का हेतु मानते हैं इसलिए छह काय जीवों के रक्षक मुनियों को शरीर की विभूषा का सेवन नहीं करना चाहिये। भूता आर्या शरीर बकुशिका बन गयी। आर्या पुष्पचूलिका के समझाने पर भी वह नहीं समझी For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पचूलिका और स्वच्छंदाचारिणी बन कर अकेली उपाश्रय में जाकर रहने लगी और शरीर विभूषा करने संबंधी कार्य-हाथ पैर धोना आदि पूर्ववत् करने लगी। भूता आर्या का देवलोक गमन १३८ तए णं सा भूया अज्जा बहूहिं चउत्थछट्ठ० बहूइं वासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सिरिवर्डिस विमाणे उववायसभाए देवसयणिज्जंसि जाव ओगाहणाए सिरिदेवित्ताए उववण्णा पंचविहाए पज्जत्तीए जाव भासामणपज्जत्तीए पज्जता । एवं खलु गोयमा ! सिरीए देवीए एसा दिव्वा देविड्डी लद्धा पत्ता । एगं पलिओ मं ठि । सिरी णं भंते! देवी जाव कहिं गच्छिहिइ० ? महाविदेहे वासे सिज्झिहि । णिक्खेवओ ।। १५६ ॥ पढमं अज्झयणं समत्तं ॥ ४ ॥ १ ॥ भावार्थ - तत्पश्चात् वह भूता आर्या चतुर्थ भक्त, षष्ठ भक्त, अष्टम भक्त आदि विविध प्रकार की तपस्या करती हुई बहुत वर्षों तक श्रमणी पर्याय का पालन करके अकृत्य कार्यों-पाप स्थानों की आलोचना प्रतिक्रमण किये बिना ही काल के समय काल करके सौधर्म कल्प के श्री अवतंसक विमान की उपपात सभा में देवशय्या पर यावत् अंगुल के असंख्यातवें भाग की अवगाहना वाली श्रीदेवी के रूप में उत्पन्न हुई यावत् आहार पर्याप्ति आदि पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त हुई। इस प्रकार हे गौतम! श्रीदेवी ने यह दिव्य देव ऋद्धि लब्ध और प्राप्त की है। वहां उसकी स्थिति एक पल्योपम की है। हे भगवन्! श्रीदेवी देवभव से च्यव कर कहाँ जाएगी ? कहां उत्पन्न होगी ? हे गौतम! महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगी यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेगी। निक्षेप - सुधर्मा स्वामी ने जंबू स्वामी से कहा - हे जंबू ! मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने पुष्प चूलिका के प्रथम अध्ययन का यह भाव प्रतिपादित किया है। ॥ प्रथम अध्ययन समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ४ अध्ययन २-१० १३६ ........................................................... दो से दस तक नौ अध्ययन एवं सेसाणवि णवण्हं भाणियव्वं। सरिसणामा विमाणा। सोहम्मे कप्पे। पुव्वभवे णयर-चेइए-पियमाईणं अप्पणो य णामाई जहा संगहणीए। सव्वा पासस्स अंतिए णिक्खंता। ताओ पुष्फचूलाणं सिस्सिणियाओ सरीरबाओसियाओ सव्वाओ अणंतरं चयं चइत्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिंति....॥१६०॥४॥१०॥ पुष्फचू(ला)लियाओ समत्ताओ॥ चउत्थो वग्गो समत्तो॥४॥ भावार्थ - इसी प्रकार शेष नौ अध्ययनों का भी वर्णन समझ लेना चाहिये। अपने अपने नाम के समान नाम वाले विमानों में उत्पत्ति हुई। सभी का सौधर्म कल्प में जन्म हुआ। पूर्वभव भूता के समान। नगर, चैत्य, माता पिता और अपने नाम संग्रहणी गाथा के अनुसार है। सभी ने भगवान् पार्श्वनाथ के समीप प्रव्रज्या अंगीकार की और पुष्पचूलिका आर्या की शिष्याएं बनीं। सभी शरीर बकुशिका हुईं और देवलोक में गईं। वहां से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होंगी। विवेचन - जिस प्रकार प्रथम अध्ययन में श्रीदेवी का वर्णन है उसी प्रकार शेष नौ अध्ययनों का भी वर्णन है। मरण के पश्चात् अपने अपने नाम के अनुरूप नाम वाले विमानों में उनकी उत्पत्ति हुई। जैसे - ह्री देवी की ह्री विमान में, धृति देवी की धृति विमान में, कीर्ति देवी की कीर्ति नामक विमान में, बुद्धि देवी की बुद्धि विमान में, लक्ष्मी देवी लक्ष्मी विमान में, इलादेवी इला विमान में, सुरा देवी सुरा विमान में, रस देवी रस विमान में और गंध देवी गंध विमान में उत्पन्न हुई। पूर्व भव के नगर माता पिता संग्रहणी गाथा के अनुसार जानना। सभी भगवान् पार्श्वनाथ के पास दीक्षित हुईं। पुष्फचूलिका आर्यिका की शिष्याएं बनीं। सबने शरीर की शुश्रूषा की-शरीर बकुशिका बनीं। देवलोक में गयीं। वहां से चवकर महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होंगी। ॥ अध्ययन २-१० समाप्त॥ ॥ पुष्पचूलिका नामक चतुर्थ वर्ग समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वण्हिदसाओ-वृष्णिदशा पंचमो वग्गो-पटमं अज्झयणं पांचवां वर्ग - प्रथम अध्ययन जइ णं भंते! उक्खेवओ जाव दुवालस अज्झयणा पण्णत्ता, तंजहाणिसढे मायणि-वह-वहे पगया जुत्ती दसरहे दढरहे य। महाधणू सत्तधणू दसधणू णामे सयधणू य॥१॥ भावार्थ - जम्बू स्वामी ने सुधर्मा स्वामी से पूछा - 'हे भगवन्! मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने यदि चतुर्थ उपांग (वर्ग) पुष्पचूलिका का यह भाव निरूपण किया है तो हे भगवन्! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने पांचवें वृष्णिदशा नामक उपांग (वर्ग) के क्या भाव फरमाये हैं?' ___ सुधर्मा स्वामी ने उत्तर दिया - 'हे जम्बू! मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने पांचवें उपांग (वर्ग) वृष्णिदशा के बारह अध्ययन कहे हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं - १. निषध . मातलि ३. वह ४. वहे ५. पगया (पगता) ६. युक्ति (ज्योति) ७. दशरथ ८. दृढरथ ६. महाधन्वा १०. सप्तधन्वा ११. दशधन्वा और १२. शतधन्वा।' द्वारिका का वर्णन जइ णं भंते! समणेणं जाव दुवालस अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते!....उक्खेवओ। एवं खलु जम्बू! तेणं कालेणं तेणं समएणं बारवई णामं णयरी होत्था, दुवासलजोयणायामा जाव पञ्चक्खं देवलोयभूया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा॥१६१॥ कठिन शब्दार्थ - दुवालसजोयणायामा - बारह योजन लम्बी, पच्चक्खं - प्रत्यक्ष, देवलोयभूया- देवलोकभूत, पासाईया - प्रासादीया-मन को प्रसन्न करने वाली, दरिसणिज्जा - दर्शनीया-दर्शनीय, अभिरुवा - अभिरूपा-अभिरूप-सुंदर छटा वाली, पडिरूवा - प्रतिरूप-अनुपम शिल्प कला से सुशोभित। For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ♦♦♦♦♦♦♦♦♦ वर्ग ५ अध्ययन १ रैवतक पर्वत का वर्णन ***** भावार्थ - 'हे भगवन्! यदि मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् भगवान् महावीर स्वामी ने वृष्णिदशा नामक पांचवें वर्ग-उपांग के बारह अध्ययन फरमाये हैं तो हे भगवन् ! प्रथम अध्ययन का प्रभु ने क्या भाव निरूपण किया है?' तब सुधर्मा स्वामी ने जम्बूस्वामी से कहा - 'हे आयुष्मान् जम्बू ! उस काल उस समय में द्वारिका नाम की नगरी थी जो बारह योजन की लम्बी यावत् प्रत्यक्ष देवलोक समान प्रासादीयचित्त को प्रसन्न करने वाली, दर्शनीय - देखने योग्य, अभिरूप और प्रतिरूप थी । ' १४१ ❖❖❖ विवेचन - चौथे वर्ग (उपांग) के भावों को जानने के बाद जम्बूस्वामी के मन में पांचवें वर्ग के भावों को जानने की जिज्ञासा हुई और उन्होंने सुधर्मा स्वामी से करबद्ध निवेदन किया कि - हे भगवन्! श्रमण शिरोमणि भगवान् महावीर स्वामी ने पांचवें वर्ग में किन भावों का प्रतिपादन किया है ? सुधर्मा स्वामी ने उत्तर में फरमाया कि वृष्णिदशा नामक पांचवें वर्ग में प्रभु ने निषधकुमार आदि बारह कुमारों का वर्णन किया है। रैवतक पर्वत का वर्णन - तीसे णं बारवईए णयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए एत्थ णं रेवईए णामं पव्वए होत्या, तुंगे गयणयलमणुलिहंतसिहरे णाणाविह रुक्ख - ‍ ख - गुच्छ - गुम्म - लया - वल्ली - परिगयाभिरामे हंस मिय मयूर कोंच-सारस-चक्क वागमयणसाला - कोइल - कुलोववेए तडकडगवियर - ओज्झर - पवाय पब्भारसिहरपउरे अच्छरगणदेवसंघ-चारणविज्जाहर - मिहुणसंणिचिण्णे णिच्चच्छणए दसारवरवीरपुरिस - तेल्लोक्कबलवगाणं सोमे सुभए पियदंसणे सुरूवे पासाईए जाव पडिरूवे॥१६२॥ कठिन शब्दार्थ - गयणयलमणुलिहंतसिंहरे - गगणतलमनुलिहच्छिखरः - गगनतल को स्पर्श करते शिखर, णाणाविहरुक्खगुच्छगुम्म- लथा - वल्ली - परिगयाभिरामे - नानाविध वृक्ष गुच्छगुल्म- लता वल्ली परिगताभिरामः -न :- नाना प्रकार के वृक्षों, गुच्छों, गुल्मों, लताओं और वल्लियों से व्याप्त और अभिराम, हंसमियमयूर - कोंच-सारस-चक्कवागमयणसाला कोइल कुलोववेए - हंस मृग मयूर क्रोञ्च सारस-चक्रवाक - मदनशाला - कोकिल कुलोपपेतः- हंस, मृग, मयूर, क्रौंच, सारस, - For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ वृष्णिदशा सूत्र .......................................................... चक्रवाक, मैना और कोयल आदि पशु पक्षी वृन्द से सुशोभित, तडकडगवियर-ओझर-पवायपन्भार-सिहरपउरे - तट-कटक-विवरावज्झर-प्रपात-प्राग्भार शिखर प्रचुरः-तट (किनारें) कटक (पर्वत का रमणीय भाग) विवर (गुफाएं) अवज्झर (सुंदर झरने), प्रपात (झरनों के गिरने का स्थान), प्राग्भार (पर्वत का झुका हुआ रम्य प्रदेश) और अनेक शिखर, अच्छर-गणदेवसंघचारणविज्जाहरमिहुण संणिचिण्णे - अप्सरोगणदेवसंघ चारण विद्याधर मिथुन सन्निचीर्णःअप्सराओं के समूहों, देवों के समुदायों, चारणों और विद्याधरों के युगलों से व्याप्त, णिच्चच्छणए - . नित्यक्षणक:-जहां नित्य उत्सव होते हैं, दसारवरवीरपुरिसतेल्लोकबलवगाणं - दशाहवरवीरपुरुषत्रैलोक्य बलवतां-तीन लोक में श्रेष्ठ बलवीर दशार्मों का, सोमे - सोम-आह्नांद उत्पन्न करने वाला, सुभए - शुभ-मंगलकारी, पियदसणे - प्रियदर्शन-नेत्रों को सुख देने वाला, सुरुवे - सुरूप-सुहावना। भावार्थ - उस द्वारिका नगरी के बाहर उत्तरपूर्व दिशा (ईशानकोण) में रैवतक नामक पर्वत था जो बहुत ऊंचा था, उसके शिखर गगनतल को स्पर्श करते थे। वह नाना प्रकार के वृक्षों, गुच्छों, गुल्मों, लताओं और वल्लियों से युक्त था। हंस, मृग, मयूर, क्रौंच, सारस, चक्रवाक, मैना, कोयल आदि पशु पक्षियों के समूह से व्याप्त अभिराम था। उसमें अनेक तट, कटक, गुफाएँ, झरने, प्रपात, प्राग्भार और शिखर थे। वह पर्वत अप्सराओं के समूहों, देव संघों, चारणों, विद्याधरों के युगलों से व्याप्त था। तीनों लोकों में बलशाली दशार्ह वीरपुरुषों द्वारा वहां नित्य उत्सव मनाएं जाते थे। वह पर्वत सौम्य, आह्लाद उत्पन्न करने वाला, शुभ (सुभग) देखने में प्रिय, सुरूप, प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप था। नंदनवन उद्यान, सुरप्रिय यक्षायतन वनखण्ड और पृथ्वी शिलापट्टक का वर्णन तस्स णं रेवयगस्स पव्वयस्स अदूरसामंते एत्य णं गंदणवणे णामं उज्जाणे होत्या, सव्वोउयपुष्फ० जाव दरिसणिज्जे, तत्य गं गंदणवणे उज्जाणे सुरप्पियस्स जक्खस्स जक्खाययणे होत्था चिराइए जाव बहुजणे आगम्ममचेइ सुरप्पियं For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ५ अध्ययन १ कृष्ण वासुदेव का शासन जक्खाययणं, से णं सुरप्पिए जक्खाययणे एगेणं महया वणसंडेणं सव्वओ० जहा पुण्णभद्दे जाव सिलावट्टए।। १६३ ॥ कठिन शब्दार्थ - अदूरसामंते - न अधिक दूर और न अधिक समीप, सव्वोउयपुप्फ० - सभी ऋतुओं के पुष्पों और फलों से समृद्ध, जक्खाययणे - यक्षायतन, चिराईए अति प्राचीन, आगम्मंआ-आकर, सिलावट्टए - शिलापट्टक । भावार्थ - उस रेवतक पर्वत से न अधिक दूर और न अधिक नजदीक एक नंदनवन नाम का उद्यान था जो सर्व ऋतुओं के पुष्पों और फलों से समृद्ध, रमणीय, आनंदप्रद, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप था। उस नंदनवन उद्यान के मध्यभाग में सुरप्रिय नामक यक्ष का यक्षायत प्राचीन था यावत् बहुत से लोग वहां आ आकर सुरप्रिय यक्षायतन की अर्चना करते थे । वह सुरप्रिय यक्षायतन पूर्णभद्र चैत्य के समान चारों ओर से एक विशाल वनखंड से घिरा हुआ था यावत् उ वनखण्ड में एक पृथ्वी शिलापट्टक था । कृष्ण वासुदेव का शासन तत्थ णं बारवईए णयरीए कण्हे णामं वासुदेवे राया होत्था जाव पसासेमाणे विहरइ । से णं तत्थ समुद्दविजयपामोक्खाणं दसहं दसाराणं, बलदेवपामोक्खाणंपंचण्हं महावीराणं, उग्गसेणपामोक्खाणं सोलसण्हं राईसाहस्सीणं, पज्जुण्णपामोक्खाणं अधुट्ठाणं कुमारकोडीणं, सम्बपामोक्खाणं सट्ठीए दुद्दंतसाहस्सीणं, वीरसेणपामोक्खाणं एक्कवीसाए वीरसाहस्सीणं, महासेणपामोक्खाणं छप्पण्णाए बलवगसाहस्सीणं, रुप्पिणिपामोक्खाणं सोलहसण्हं देवीसाहस्सीणं, अणंगसेणापामोक्खाणं अणेगाणं गणियासाहस्सीणं अण्णेतिं च बहूणं राईसर जाव सत्थवाहप्पभिईणं वेयङ्कगिरिसागरमेरागस्स वाहिणडभरहस्त आहेवनं जाव विहरइ ॥ १६४ ॥ कठिन शब्दार्थ समुह विजयपामोक्खाणं समुद्र विजय प्रमुख, सोलसहं राईसाहस्सीणं - सोलह हजार राजाओं के, छप्पण्णाए बलवगसाहस्सीणं - छप्पन हजार बलवानों के, वेयङगिरिसागर मेरागस्स - वैताढ्य गिरि और सागर से मर्यादित, आहेव - आधिपत्य । - - - For Personal & Private Use Only १४३ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ वृष्णिदशा सूत्र .............. ............................................. भावार्थ - उस द्वारिका नगरी में कृष्ण नामक वासुदेव राजा राज्य करते थे। वे समुद्रविजय आदि दस दशा), बलदेव प्रमुख पांच महावीरों, उग्रसेन प्रमुख सोलह हजार मुकुटबद्ध राजाओं, प्रद्युम्न आदि साढे तीन करोड़ कुमारों, शाम्ब आदि साठ हजार दुर्दान्त योद्धाओं, वीरसेन प्रमुख इक्कीस हजार शूरवीरों, रुक्मिणी प्रमुख सोलह हजार रानियों, अनंगसेना प्रमुख अनेक सहस्र गणिकाओं तथा इनके अतिरिक्त और भी बहुत से राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाहों आदि का वैताढ्य पर्वत से समुद्र पर्यन्त दक्षिणार्द्ध भरत क्षेत्र पर शासन करते हुए यावत् विचरते थे। निषधकुमार का जन्म तत्थ णं बारवईए णयरीए बलदेवे णामं राया होत्था, महया जाव रज्जं पसासेमाणे विहरइ। तस्स णं बलदेवस्स रण्णो रेवई णामं देवी होत्या, सोमाल. जाव विहरइ। तए णं सा रेवई देवी अण्णया कयाइ तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि जाव सीहं सुमिणे पासित्ताणं...., एवं सुमिणदंसणपरिकहणं, कलाओ जहा महाबलस्स, पण्णासओ दाओ, पण्णासरायवरकण्णगाणं एगदिवसे पाणिग्गहणं...., णवरं णिसढे णामं जाव उप्पिं पासाए विहरइ॥१६॥.. भावार्थ - उस द्वारिका नगरी में बलदेव नामक राजा थे। वे महान् थे यावत् राज्य करते थे। उस बलदेव राजा की रेवती नामक रानी थी जो सुकुमाल थी यावत् विचरती थी। तत्पश्चात् किसी समय रेवती रानी विशिष्ट प्रकार की शय्या पर सोती हुई सिंह का स्वप्न देख कर जागृत हुई। यहाँ स्वप्न दर्शन, परिकथन, जन्म, कला ग्रहण आदि समस्त वर्णन महाबल कुमार के समान समझना चाहिये। एक ही दिन पचास उत्तम कन्याओं के साथ उसका पाणिग्रहण हुआ। पचास-पचास वस्तुएं दहेज में मिलीं। विशेषता यह है कि उस बालक का नाम 'निषधकुमार' रखा गया यावत् वह सुखोपभोग में समय व्यतीत करने लगा। भगवान् अरिष्टनेमि का पदार्पण तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिट्ठणेमी आइगरे...दस धणूई वण्णओ जाव समोसरिए। परिसा णिग्गया॥१६६॥ For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ५ अध्ययन १ कृष्ण वासुदेव द्वारा भगवान् की पर्युपासना १४५ ......................................................... भावार्थ - उस काल और उस समय में अर्हत् अरिष्टनेमि प्रभु का पदार्पण हुआ। वे धर्म की आदि करने वाले, दस धनुष की अवगाहना वाले थे यावत् समवसृत हुए। परिषद् धर्म श्रवण करने के लिये निकली। सामुदानिक भेरी बजाने का आदेश तए णं से कण्हे वासुदेवे इमीसे कहाए लद्धढे समाणे हद्वतुडे० कोडुंबियपुरिसं सद्दावेइ सहावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणप्पिया! सभाए सुहम्माए सामुदाणियं भेरिं तालेह। तए णं से कोडुंबियपुरिसे जाव पडिसुणित्ता जेणेव सभाए सुहम्माए सामुदाणिया भेरी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सामुदाणियं भेरिं महया महया सद्देणं तालेइ॥१६७॥ भावार्थ - भगवान् के आगमन का समाचार सुनकर कृष्णवासुदेव हृष्टतुष्ट हुए और कौटुम्बिक पुरुषों को बुला कर इस प्रकार आज्ञा दी - 'हे देवानुप्रियो! शीघ्र ही सुधर्मा सभा में जाकर सामुदानिक भेरी को बजाओ।' तत्पश्चात् कौटुम्बिक पुरुष कृष्ण वासुदेव की आज्ञा स्वीकार कर जहां सुधर्मा सभा में सामुदानिक भेरी थी वहां आए, आकर उस सामुदानिक भेरी को खूब जोर से बजाया। कृष्ण वासुदेव द्वारा भगवान् की पर्युपासना तए णं तीसे सामुदाणियाए भेरीए महया महया सद्देणं तालियाए समाणीए समुद्दविजयपामोक्खा दस दसारा.........देवीओ (उण)भाणियव्वाओ जाव अणंगसेणापामोक्खा अणेगा गणियासहस्सा, अण्णे य बहवे राईसर जाव सत्यवाहप्पभिइओ व्हाया जाव पायच्छित्ता सव्वालंकारविभूसिया जहाविभवइडीसक्कारसमुदएणं अप्पेगइया हयगया जाव पुरिसवग्गुरापरिक्खित्ता जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता करयल० कण्हं वासुदेवं जएणं विजएणं वद्धावेंति। - तए णं से कण्हे वासुदेव कोडुम्बियपुरिसे एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! आभिसेक्कहत्थिरयणं पडिकप्पेह हयगयरहपवर जाव पच्चप्पिणंति। For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ __ वृष्णिदशा सूत्र । तए णं से कण्हे वासुदेवे मज्जणघरे जाव दुरूढे, अट्ठ मंगलगा, जहा कूणिए, सेयवरचामरेहिं उधुव्वमाणेहिं उधुव्वमाणेहिं समुद्दविजयपामोक्खेहिं दसहिं दसारहिं जाव सत्यवाहप्पभिईहिं सद्धिं संपरिवुडे सब्विड्डीए जाव रवेणं बारवई णयरिं मझं-मझेणं....सेसं जहा कूणिओ जाव पज्जुवासइ॥१६८॥ कठिन शब्दार्थ - जहाविभव-इडीसक्कार समुदएणं - यथाविभवऋद्धि सत्कार समुदयेनयथोचित वैभव ऋद्धि सत्कार एवं अभ्युदय के साथ, पुरिसवग्गुरापरिक्खित्ता - पुरुषवागुरापरिक्षिप्ताजन समुदाय को साथ लेकर, सेयवरचामराहि- उत्तम श्रेष्ठ चामरों से, उद्धव्यमाणेहिं - विंजाते हुए। . भावार्थ - उस सामुदानिक भेरी को जोर-जोर से बजाए जाने पर समुद्रविजय प्रमुख आदि दशाह, देवियाँ यावत् अनंगसेना प्रमुख अनेक सहस्र गणिकाएं तथा अन्य बहुत से राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि स्नान कर यावत् प्रायश्चित्त-मंगल आदि कर सर्व अलंकारों से विभूषित हो यथोचित अपने-अपने ऋद्धि सत्कार एवं अभ्युदय के साथ कोई घोड़े पर आरूढ हो कर यावत् जन समुदाय को साथ लेकर जहां कृष्ण वासुदेव थे वहां आये, आकर दोनों हाथों को जोड़ कर यावत् कृष्ण वासुदेव को जय-विजय शब्दों से बधाया। तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रियो! शीघ्र ही आभिषेक्य हस्तिरत्न को विभूषित करो और घोड़े, हाथी, रथ एवं पैदल सैनिकों से युक्त चतुरंगिणी सेना को सज्जित कर यावत् मेरी यह आज्ञा वापिस लौटाओ।' ___ तदनन्तर कृष्ण वासुदेव ने स्नानगृह में प्रवेश किया यावत् वस्त्राभूषण से अलंकृत हो आभिषेक्य हस्ति रत्न पर आरूढ हुए। आठ आठ मांगलिक यावत् कोणिक राजा के समान उत्तम श्रेष्ठ चंवरों से विंजाते हुए समुद्रविजय प्रमुख आदि दसों दशा) यावत् सार्थवाहों आदि के साथ समस्त ऋद्धि यावत् भेरी आदि वाद्यों के शब्दों से दिशाओं को मुखरित करते हुए द्वारिका नगरी के मध्य भाग में से निकले, शेष सारा वर्णन कोणिक राजा के समान समझना चाहिये यावत् पर्युपासना करने लगे। निषधकुमार द्वारा भावकव्रत ग्रहण - तए णं तस्स णिसढस्स कुमारस्स उप्पिं पासायवरगयस्स तं महया जणसहं च....जहा जमाली जाव धम्म सोच्चा णिसम्म वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ५ अध्ययन १ वरदत्त अनगार की जिज्ञासा और समाधान १४७ ......................................................... एवं वयासी-सद्दहामि णं भंते! णिगंथं पावयणं जहा चित्तो जाव सावगधम्म पडिवज्जइ पडिवज्जित्ता पडिगए॥१६६॥ ___ भावार्थ - तब उस उत्तम प्रासाद पर रहे हुए निषधकुमार को जन कोलाहल आदि सुन कर कुतूहल हुआ और वह भी जमाली के समान भगवान् के समवसरण में पहुँचा यावत् धर्म सुन कर हृष्ट तुष्ट हो भगवान् को वंदन नमस्कार किया, वंदन नमस्कार कर प्रभु से इस प्रकार निवेदन किया - 'हे भगवन्! मैं निग्रंथ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ आदि चित्त सारथि के समान यावत् श्रावक धर्म अंगीकार किया और अंगीकार करके लौट गया।' वरदत्त अनगार की जिज्ञासा और समाधान तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहओ अरिट्ठणेमिस्स अंतेवासी वरदत्ते णामं अणगारे उराले जाव विहरइ। तए णं से वरदत्ते अणगारे णिसढं कुमारं पासइ पासित्ता जायसड्ढे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी-अहो णं भंते! णिसढे कुमारे इढे इहरूवे कंते कंतरूवे, एवं पिए० मणुण्णए० मणामे मणामस्वे सोमे सोमरूवे पियदंसणे सुरुवे, णिसढेणं भंते! कुमारेणं अयमेयारूवा माणुयइट्ठी किण्णा लद्धा किण्णा पत्ता? पुच्छा जहा सूरियाभस्स। ..एवं खलु वरदत्ता! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहवे जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे रोहीडए णामं णयरे होत्था, रिद्ध०....। मेहवण्णे उज्जाणे मणिदत्तस्स जक्खस्स जक्खाययणे। तत्थ णं रोहीडए णयरे महब्बले णामं राया, पउमावई णामं देवी, अण्णया कयाइ तंसि तारसगंसि सयणिज्जंसि सीहं सुमिणे...., एवं जम्मणं भाणियव्वं जहा महाबलस्स, णवरं वीरंगओ णामं बत्तीसओ दाओ, बत्तीसाए रायवरकण्णगाणं पाणिं जाव उवगिज्जमाणे उवगिज्जमाणे पाउस-वरिसारत्त-सरय-. हेमंत-वसंतगिम्हपजंते छप्पि उऊ जहाविभवेणं भुंजमाणे २ कालं गालेमाणे इढे सद्द जाव विहरइ॥१७॥ For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ............ वृष्णिदशा सूत्र www.rr.......................................... कठिन शब्दार्थ - जायसले - जिज्ञासा उत्पन्न हुई, उवगिज्जमाणे - उपगीयमानः-उपभोग करते हुए, पाउसवरिसारत्तसरयहेमंतवसंत-गिम्ह-पज्जते - प्रावृड्रत्रशरद्हेमन्तग्रीष्म वसंतान्पावस, वर्षा, शरद्, हेमन्त, ग्रीष्म और बसन्त, उऊ - ऋतुएं, जहाविभवेणं - यथाविभवेन-वैभव के अनुरूप। भावार्थ - उस काल और उस समय में अर्हत् अरिष्टनेमि के अंतेवासी (प्रमुख शिष्य) वरदत्त नामक अनगार विचरण कर रहे थे। उन वरदत्त अनगार ने निषधकुमार को देखा, देखकर जिज्ञासा हुई यावत् भगवान् की पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले - अहो भगवन्! यह निषधकुमार इष्ट, इष्टरूप, कांत, कांतरूप एवं प्रिय, प्रियरूप, मनोज्ञ, मनोज्ञ रूप, मनाम, मनामरूप, सौम्य, सौम्यरूप प्रियदर्शन और सुरूप है। हे भगवन्! इस निषधकुमार को इस प्रकार की मानवीय ऋद्धि किस प्रकार उपलब्ध हुई, किस प्रकार प्राप्त हुई इत्यादि सूर्याभदेव के समान वरदत्त मुनि ने पूछा। ___ भगवान् अरिष्टनेमि ने फरमाया - हे वरदत्त! उस काल और उस समय में इस जंबूद्वीप के भरत : क्षेत्र में रोहीतक नामक नगर था जो ऋद्धि समृद्धि से युक्त था। उस नगर में मेघवन नामक उद्यान था, मणिदत्त यक्ष का यक्षायतन था। उस रोहीतक नगर में महाबल राजा का राज्य था। उसकी रानी का नाम पद्मावती था। किसी एक रात्रि को पद्मावती रानी ने शुभ शय्या पर सोते हुए सिंह का स्वप्न देखा यावत् महाबल के समान पुत्र जन्म का सारा वर्णन समझना चाहिये। विशेषता यह है कि पुत्र का नाम वीरांगद रखा गया यावत् उसे बत्तीस बत्तीस वस्तुएं दहेज में दी और बत्तीस श्रेष्ठ कन्याओं के साथ उसका पाणिग्रहण हुआ यावत् वैभव के अनुरूप पावस, वर्षा, शरद्, हेमन्त, ग्रीष्म और बसन्त इन छहों ऋतुओं के योग्य इष्ट शब्द यावत् पांच प्रकार के मानवीय काम भोगों का उपभोग करते हुए समय व्यतीत करने लगा। सिद्धार्थ नामक आचार्य का पर्दापण तेणं कालेणं तेणं समएणं सिद्धत्था णाम आयरिया जाइसंपण्णा जहा केसी, णवरं बहुस्सुया बहुपरिवारा जेणेव रोहीडए णयरे जेणेव मेहवण्णे उज्जाणे जेणेव मणिदत्तस्स जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागया अहापडिरूवं जाव विहरंति। परिसा णिग्गया॥१७१॥ For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ५ अध्ययन १ वीरांगद अनगार का देवरूप उपपात १४६ भावार्थ - उस काल और उस समय में केशी श्रमण के समान जातिसंपन्न आदि विशेषणों वाले किंतु बहुश्रुत सिद्धार्थ नामक आचार्य अपने विशाल शिष्य परिवार सहित जहां रोहितक नगर का मेघवन उद्यान था और जहां मणिदत्त यक्ष का यक्षायतन था वहां पधारे और यथायोग्य अवग्रह लेकर विराजे। परिषद् दर्शनार्थ निकली। वीरांगद द्वारा प्रव्रज्याग्रहण -- तए णं तस्स वीरंगमस्स कुमारस्स उप्पिं पासायवरगयस्स तं महया जणसई....जहा जमाली य णिग्गओ धम्मं सोच्चा....जं णवरं देवाणुप्पिया! अम्मापियरो आपुच्छामि जहा जमाली तहेव णिक्खंतो जाव अणगारे जाए जाव गुत्तबम्भयारी॥१७॥ भावार्थ - तब उत्तम प्रासाद में रहने वाले उस वीरांगद कुमार ने जन कोलाहल सुना और ' यावत् जमाली के समान दर्शनार्थ निकला। धर्मदेशना सुनी और दीक्षा का निश्चय कर निवेदन किया - हे देवानुप्रिय! मैं माता पिता की आज्ञा लेकर आपके पास प्रव्रजित होना चाहता हूँ यावत् जमाली के समान दीक्षा अंगीकार की और यावत् गुप्त ब्रह्मचारी हो गये। वीरांगद अनगार का देवरूप उपपात ... तए णं से वीरंगए अणगारे सिद्धत्थाणं आयरियाणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ अहिज्जित्ता बहूहिं चउत्थ जाव अप्पाणं भावमाणे बहुपडिपुण्णाई पणयालीसवासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता दोमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता सवीसं भत्तसयं अणसणाए छेइत्ता आलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा बम्भलोए कप्पे मणोरमे विमाणे देवत्ताए उववण्णे। तत्थ णं अत्यंगइयाणं देवाणं दससागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। तत्थ णं वीरंगयस्स देवस्स दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता॥१७३॥ भावार्थ - तदनन्तर वीरांगद अनगार ने सिद्धार्थ आचार्य के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० वृष्णिदशा सूत्र ........................................................... का अध्ययन किया और अध्ययन करके बहुत से चतुर्थभक्त यावत् अपनी आत्मा को तप संयम से भावित करते हुए पैंतालीस वर्ष तक श्रमण पर्याय का पालन किया। दो माह की संलेखना से आत्मा को शुद्ध करके एक सौ बीस भक्तों का अनशन से छेदन कर आलोचना प्रतिक्रमण पूर्वक समाधि भावों में काल के समय काल कर ब्रह्मलोक कल्प के मनोरम विमान में देव रूप से उत्पन्न हुए। वहां कितनेक देवों की दस सागरोपम की स्थिति कही गई है। उस वीरांगद देव की भी दस सागरोपम की स्थिति थी। वीरांगद देव का निषध रूप में जन्म से णं वीरंगए देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं जाव अणंतरं चयं चइत्ता इहेव बारवईए णयरीए बलदेवस्स रण्णो रेवईए देवीए कुच्छिंसि पुत्तत्ताए उववण्णे। तए णं सा रेवई देवी तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि सुमिणदंसणं जाव उप्पिं पासायवरगए विहरइ। तं एवं खलु वरदत्ता! णिसढेणं कुमारेणं अयमेयारूवा उराला मणुयइड्डी लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया॥१७४॥ भावार्थ - वह वीरांगद देव, उस देवलोक से आयु आदि का क्षय होने पर वहां से च्यव कर इस द्वारिका नगरी में बलदेव राजा की रेवती रानी की कुक्षि से पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ। ___ उस समय रेवती देवी ने सुखद शय्या पर सोते हुए स्वप्न देखा, यावत् उत्तम प्रासाद में भोग भोगते हुए यह निषध कुमार समय व्यतीत कर रहा है। ___ इस प्रकार हे वरदत्त! इस निषधकुमार को यह उत्तम मनुष्य ऋद्धि लब्ध हुई है, प्राप्त हुई है, अभिसमन्वागत हुई है। ____ भगवान् अरिष्टनेमि का विहार पभू णं भंते! णिसढे कुमारे देवाणुप्पियाणं अंतिए जाव पव्वइत्तए? हंता! पभू। से एवं भंते! २ इय वरदत्ते अणगारे जाव अप्पाणं भावमाणे विहरइ। तएणं अरहा अरिट्ठणेमी अण्णया कयाइ बारवईओ णयरीओ जाव बहिया जणवयविहारं विहरइ। णिसढे कुमारे समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ॥१७॥ For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ वर्ग ५ अध्ययन १ निषधकुमार का चिंतन ........................................................... भावार्थ - वरदत्त मुनि ने भगवान् से प्रश्न किया - हे भगवन्! क्या यह निषधकुमार आप देवानुप्रिय के पास यावत् दीक्षित होने में समर्थ है? भगवान् ने फरमाया - हाँ, हे वरदत्त! यह निषधकुमार दीक्षा लेने में समर्थ है। यह इसी प्रकार है। आपका कथन यथार्थ है आदि कह कर वरदत्त अनगार अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। तत्पश्चात् किसी समय भगवान् अरिष्टनेमि प्रभु द्वारिका नगरी से निकले यावत् बाहरी जनपद में विचरने लगे। निषधकुमार जीवाजीव आदि तत्त्वों का जानकार श्रमणोपासक हो गया यावत् वह सुखपूर्वक समय व्यतीत करने लगा। _ निषधकुमार का चिंतन तए णं से णिसढे कुमारे अण्णया कयाइ जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता जाव दब्भसंथारोवगए विहरइ। तए णं तस्स णिसढस्स कुमारस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था - धण्णा णं ते गामागर जाव संणिवेसा जत्थ णं अरहा अरिट्ठणेमी विहरइ, धण्णा णं ते राईसर जाव सत्यवाहप्पभिइओ जे णं अरिट्ठणेमि वंदंति णमंसंति जाव पज्जुवासंति, जइ णं अरहा अरिडणेमी पुष्वाणुपुब्दि....णंदणवणे विहरेज्जा तो णं अहं अरहं अरिडणेमि वंदिज्जा जाव पज्जुवासिज्जा।।१७६ ।। - भावार्थ - तत्पश्चात् वह निषधकुमार किसी समय जहां पौषधशाला थी वहां आया। आकर दर्भ (घास) के संस्तारक (आसन) पर बैठकर पौषधव्रत ग्रहण कर विचरने लगा। तब उस निषधकुमार को मध्य रात्रि के समय धर्मजागरणा करते हुए इस प्रकार का आंतरिक विचार उत्पन्न हुआ - 'धन्य हैं वे ग्राम, आकर यावत् सन्निवेश जहां अर्हत् अरिष्टनेमिनाथ विचरते हैं तथा वे राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि भी धन्य हैं जो भगवान् अरिष्टनेमिनाथ को वंदना नमस्कार करते हैं यावत् पर्युपासना करते हैं। यदि अर्हत् अरिष्टनेमिनाथ पूर्वानुपूर्वी क्रम से ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए यहाँ नंदनवन में पधारे तो मैं उन अर्हत् अरिष्टनेमिनाथ को वंदन नमस्कार करूँगा यावत् पर्युपासना करूंगा। For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ वृष्णिदशा सूत्र निषधकुमार द्वारा प्रव्रज्या ग्रहण तए णं अरहा अरिट्ठणेमी णिसढस्स कुमारस्स अयमेयाख्वमज्झत्थियं जाव . वियाणित्ता अट्ठारसहिं समणसहस्सेहिं जाव गंदणवणे उज्जाणे समोसढे। परिसा णिग्गया। तए णं णिसढे कुमारे इसीसे कहाए लद्धढे समाणे हट्ट० चाउग्घण्टेणं आसरहेणं णिग्गए जहा जमाली जाव अम्मापियरो आपुच्छित्ता पव्वइए अणगारे जाए जाव गुत्तबम्भयारी॥१७७॥ भावार्थ - तत्पश्चात् निषधकुमार के इस प्रकार के मनोगत भावों को जान कर अर्हत् अरिष्टनेमि अठारह हजार साधुओं के साथ विचरते हुए यावत् नंदनवन उद्यान में पधारे (समवसृत हुए)। दर्शनार्थ परिषद् निकली। तब वह निषधकुमार अर्हत् अरिष्टनेमि के पदार्पण के समाचार सुन कर हृष्ट तुष्ट हुआ यावत् चार घंटों वाले अश्व रथ पर आरूढ होकर जमाली के समान दर्शनार्थ निकला यावत् माता पिता से आज्ञा प्राप्त कर दीक्षित हुआ यावत् गुप्त ब्रह्मचारी हो गया। निषध अनगार की मृत्यु , तए णं से णिसढे अणगारे अरहओ अरिट्ठणेमिस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइसाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ अहिज्जित्ता बहूहिं चउत्थछट्ठ जाव विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णाई णव वासाइं सामण्णपरियागं पाउणइ पाउणित्ता बायालीसं भत्ताई अणसणाए छेएइ, आलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते आणुपुव्वीए कालगए।१७८॥ .. भावार्थ - तब उस निषध अनगार ने अर्हत् अरिष्टनेमि के तथारूप के स्थविर भगवंतों के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, अध्ययन करके बहुत से चतुर्थ भक्त षष्ठ भक्त यावत् विचित्र तप कर्म से अपनी आत्मा को भावित करते हुए परिपूर्ण नौ वर्ष तक श्रमण पर्याय का पालन किया,पालन करके बयालीस भक्तों का अनशन से छेदन किया,आलोचना प्रतिक्रमण पूर्वक समाधि भावों में कालधर्म को प्राप्त हुआ। For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ५ अध्ययन १ निषध देव रूप में उपपात १५३ भविष्य विषयक पृच्छा तए णं से वरदत्ते अणगारे णिसढं अणगारं कालगयं जाणित्ता जेणेव अरहा अरि?णेमी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता जाव एवं वयासी-एवं खुल देवाणुप्पियाणं अंतेवासी णिसढे णामं अणगारे पगइभद्दए जाव विणीए, से णं भंते! णिसढे अणगारे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए कहिं उववण्णे?॥१७ ।। भावार्थ - तब वरदत्त अनगार निषधकुमार को कालधर्म प्राप्त हुआ जान कर भगवान् अरिष्टनेमि के पास आए और आकर यावत् इस प्रकार निवेदन किया - 'हे देवानुप्रिय! आपका निषध अनगार नामक शिष्य जो प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था वह काल के समय काल करके कहां गया है? कहां उत्पन्न हुआ है?' निषध देव रूप में उपपात वरदत्ताइ अरहा अरिट्ठणेमी वरदत्तं अणगारं एवं वयासी-एवं खलु वरदत्ता! ममं अंतेवासी णिसढे णामं अणगारे पगइभद्दे जाव विणीए ममं तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जित्ता बहुपडिपुण्णाई णववासाई सामण्णपरियागं पाउणित्ता बायालीसं भत्ताई अणसणाए छेइत्ता आलोइयपडिक्कंते. समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उठं चंदिमसूरियगहगणणक्खत्तताराख्वाणं सोहम्मीसाणं जाव अच्चुए तिणि य अट्ठारसुत्तरे गेविजविमाणावाससए वीइवइत्ता सवट्ठसिद्धविमाणे देवत्ताए उववण्णे, तत्थ णं देवाणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं णिसढस्सवि देवस्स तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णता॥१८०॥ भावार्थ - 'वरदत्त!' इस प्रकार संबोधन करके भगवान् अरिष्टनेमिनाथ ने वरदत्त अनगार से कहा - इस प्रकार हे वरदत्त! मेरा निषध अनगार नामक शिष्य जो प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था, मेरे तथारूप स्थविरों से सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन करके नौ वर्ष की दीक्षा पर्याय पाल कर, बयालीस भक्तों को अनशन से छेद कर आलोचना प्रतिक्रमण पूर्वक काल के समय समाधि For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ वृष्णिदशा सूत्र भावों में काल करके ऊर्ध्व चन्द्र सूर्य ग्रह नक्षत्र तारा रूप ज्योतिषी देव, सौधर्म ईशान यावत् अच्युत देवलोकों तथा तीन सौ अठारह ग्रैवेयक विमानों का उल्लंघन कर सर्वार्थसिद्ध विमान में देव रूप से उत्पन्न हुआ। वहां देवों की तेतीस सागरोपम की स्थिति कही गई है। निषध देव की भी वहां तेतीस सागरोपम की स्थिति है। भविष्य कथन-उपसंहार से णं भंते! णिसढे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिंगच्छिहिइ, कहिं उववज्जिहिइ?, वरदत्ता! इहेव जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे उण्णाए णयरे विसुद्धपिइवंसे रायकुले पुत्तत्ताए पच्चायाहिइ। तए णं से उम्मुक्कबालभावे विण्णयपरिणयमेत्ते जोव्वणगमणुप्पत्ते तहारूवाणं थेराणं अंतिए केवलबोहिं बुझिहिइ बुझिहित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वजिहिइ। से णं तत्थ अणगारे भविस्सइ इरियासमिए जाव गुत्तबम्भयारी। । ___ से णं तत्थ बहूहिं चउत्थछटुट्ठमदसमदुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणिस्सइ पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसिहिइ झूसित्ता सद्धिं भत्ताई अणसणाए छेइहिइ, जस्सट्टाए कीरइ णग्गभावे मुण्डभावे अण्हाणए जाव अदंतवणए अच्छत्तए अणोवाहणए फलहसेज्जा कट्ठसेजा केसलोए बम्भचेरवासे परघरपवेसे पिण्डवाओ लद्धावलद्धे उच्चावया य गामकण्टगा अहियासिज्जंति तमढें आराहेइ आराहित्ता चरिमेहिं उस्सासणिस्सासेहिं सिज्झिहिइ बुझिहिइ जाव सव्वदुक्खाणं अंतं काहिइ। णिक्खेवओ॥१८१॥ पढमं अज्झयणं समंत्तं॥५॥१॥ For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग ५ अध्ययन १ भविष्य कथन-उपसंहार . १५५ कठिन शब्दार्थ - विसुद्धपिइवंसे - विशुद्ध पितृवंश वाले, रायकुले - राज कुल में, अव्हाणएअस्नान-स्नान त्याग, अदंतवणए - अदंतधावन-दांत धोने का त्याग, अच्छत्तए - अछत्रक, अणोवाहणए- उपनाह-पगरखी आदि का त्याग, लद्धावलद्धे - लब्धापलब्ध-लाभ और अलाभ, उच्चावया - ऊंचे-नीचे। भावार्थ - तत्पश्चात् वरदत्त अनगार ने पूछा - 'हे भगवन्! वह निषधदेव आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय होने पर वहां से च्यव कर कहां जाएगा? कहां उत्पन्न होगा?' . भगवान् ने फरमाया - 'हे वरदत्त! इसी जंबूद्वीप के महाविदेह क्षेत्र के उन्नाक नगर में विशुद्ध पितृवंश वाले राजकुल में पुत्र रूप से उत्पन्न होगा। तब वह बाल्यावस्था बीतने पर समझदार होकर युवावस्था को प्राप्त करेगा और तथारूप स्थविरों से केवलबोधि-सम्यक्त्व को प्राप्त कर अगार से अनगार होगा। वह अनगार ईर्या समिति आदि से युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारी होगा।' ... वह बहुत से चतुर्थ भक्त, षष्ठभक्त, अष्टमभक्त, दशमभक्त, द्वादशमभक्त, मासखमण, अर्द्धमासखमण रूप विचित्र तप कर्म से अपनी आत्मा को भावित करते हुए बहुत वर्षों की श्रामण्य पर्याय का पालन करेगा। श्रमण पर्याय का पालन करके मासिक संलेखना से आत्मा को शुद्ध करेगा, साठ भक्तों का अनशन से छेदन करेगा और जिस प्रयोजन के लिये नग्न भाव, मुण्डभाव, स्नान त्याग यावत् अदंत धावन-दांत धोने का त्याग, अछत्रक-छत्र का त्याग, उपानह-पगरखी आदि का त्याग तथा फलक-पाट पर सोना, काठशय्या-काठ पर सोना-बैठना, केशलोच, ब्रह्मचर्य पालन, परघर प्रवेश, पिण्डपात-पर्याप्त भोजनादि का प्राप्त करना, लब्धापलब्ध-लाभ और अलाभ, ऊंचे नीचे-तीव्र और सामान्य ग्रामकंटकों-कष्टों को सहन किया जाता है, उस साध्य-मोक्षरूप अर्थ की आराधना करेगा, आराधना करके चरम श्वासोच्छ्वास में सिद्ध होगा, बुद्ध होगा यावत् सर्व दुःख का अन्त करेगा। सुधर्मा स्वामी कहते हैं - हे आयुष्मन् जम्बू! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने वृष्णिदशा के प्रथम अध्ययन का यह भाव फरमाया है। ॥ प्रथम अध्ययन समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ वर्ग ५ शेष अध्ययन - शेष अध्ययन एवं सेसावि एक्कारस अज्झयणा णेयव्वा संगहणीअणुसारेण अहीणमइरित्तं एक्कारससुवि तिबेमि॥१८२॥ ५॥१२॥ वण्हिदसाओ समत्ताओ। पंचमो वग्गो समत्तो॥५॥ .. णिरयावलियाइसुयक्खंधो समत्तो॥ समत्ताणि उवंगाणि॥ भावार्थ - इसी प्रकार शेष ग्यारह अध्ययनों का आशय भी संग्रहणी गाथा के अनुसार बिना किसी हीनाधिकता के जैसा है वैसा समझ लेना चाहिये। सुधर्मा स्वामी कहते हैं - हे जम्बू! भगवान् के समीप मैंने जैसा सुना, वैसा ही तुझे कहा है। पंचम वर्ग समाप्त॥ ॥ वृष्णिदशा समाप्त॥ निरयावलिका नामक श्रुतस्कंध समाप्त। उपांग (पांच) समाप्त। उपसंहार णिरियावलियाइउवंगाणं एगो सुयक्खंधो, पंच वग्गा, पंचसु दिवसेसु उद्दिस्संति, तत्थ चउसु वग्गेसु दस उद्देसगा, पंचमवग्गे बारस उद्देसगा॥ ॥णिरयावलियाइसुत्ताई समत्ताँई॥ भावार्थ - निरयावलिका उपांग में एक श्रुतस्कंध है। उसके पांच वर्ग हैं। जिनका पांच दिनों में उपदेश दिया जाता (निरूपण किया जाता) है। इसके चार वर्गों में दस दस उद्देशक हैं। पांचवें वर्ग में बारह उद्देशक हैं। विवेचन - वृष्णिदशा के बारह अध्ययनों में अन्धकवृष्णि राजा के बारह कुमारों का वर्णन है। प्रथम अध्ययन में वर्णित निषधकुमार के समान ही शेष ग्यारह अध्ययनों के ग्यारह महापुरुषों ने क्रमशः साधना के मार्ग पर आरूढ होकर, संवर और निर्जरा द्वारा अपने अंतिम लक्ष्य मोक्ष स्थान को प्राप्त किया। || निरयावलिका सत्र समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय नरवला Orapy . T च्यावर राजा स्वास्तिक प्रिन्टर्स प्रेम भवन हाथी भाटा, अजमेर For Personal & Private Use Only