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________________ १०८ पुष्पिका सूत्र णं भंते.........जहा देवाणंदा तहा पव्वइया जाव अज्जा जाया जाव. गुत्तबम्भयारिणी॥१२२॥ भावार्थ - सुव्रता महासती द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर सुभद्रा सार्थवाही हर्षित एवं संतुष्ट हुई और उसने स्वयमेव अपने हाथों से माला और आभूषणों को उतारा। पंचमुष्टिक केश लोच किया फिर जहाँ सुव्रता आर्या थी वहाँ आई और आकर तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा करके वंदन नमस्कार किया। वंदन नमस्कार करके इस प्रकार बोली-'हे भगवन्! यह संसार आदीप्त-जन्म जरा और मरण रूप आग से जल रहा है, प्रदीप्त-अत्यंत जल रहा है इस प्रकार कहते हुए यावत् देवानंदा के समान प्रव्रजित हो गई तथा पांच समिति, तीन गुप्तियों से युक्त होकर इन्द्रियों का दमन करने वाली यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी आर्या हो गई। विवेचन - सुभद्रा सार्थवाही, भद्र सार्थवाह से दीक्षा की अनुमति प्राप्त कर सुव्रता आर्या के पास दीक्षित हो गई। सुभद्रा आर्या के दीक्षित होने का सम्पूर्ण वर्णन भगवती सूत्र शतक : उद्देशक ३३ में वर्णित देवानंदा के समान समझ लेना चाहिए। सुभद्रा आर्या की बच्चों में आसक्ति तए णं सा सुभद्दा अज्जा अण्णया कयाइ बहुजणस्स चेडरूवे समुच्छिया जाव अज्झोववण्णा अब्भंगणं च उव्वट्टणं च फासुयपाणं च अलत्तगं च कंकणाणि य अंजणं च वण्णगं च चुण्णगं च खेल्लणगाणि य खज्जल्लगाणि य खीरं च पुष्पाणि य गवेसइ गवेसित्ता बहुजणस्स दारए वा दारिया वा कुमारे य कुमारियाओ य डिम्भए य डिम्भियाओ य अप्पेगइयाओ अब्भंगेइ, अप्पेगइयाओ उव्वट्टेइ, एवं फासुयपाणएणं व्हावेइ, अप्पेगइयाणं पाए रयइ०; ओढे रयइ०, अच्छीणि अंजेइ०, उसुए करेइ०, तिलए करेइ, अप्पेगइयाओ दिगिदिलए करेइ, अप्पेगइयाणं पंतियाओ करेइ, अप्पेगइयाई छिज्जाइं करेइ, अप्पेगइयाइं खज्जु करेइ, अप्पेगइया वण्णएणं समालभइ०, चुण्णएणं समालभइ, अप्पेगइयाणं खेल्लणगाई दलयइ०, खज्जलगाई दलयइ, अप्पेगइयाओ खीरभोयणं भुंजावेइ, अप्पेगइयाणं पुप्फाइं ओमुयइ, अप्पेगइयाओ पाएसु ठवेइ, जंघासु करेइ, एवं ऊरूसु उच्छंगे कडीए पिढे उरसि खंधे सीसे य करयलपुडेणं गहाय हलउलेमाणी हलउलेमाणी आगायमाणी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004191
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages174
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size17 MB
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