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________________ ११० पुष्पिका सूत्र ........................................................... सुव्रता का सुभद्रा को समझाना तए णं ताओ सुव्वयाओ अज्जाओ सुभदं अल्लं एवं वयासी-अम्हे णं देवाणुप्पिए! समणीओ णिगंथीओ इरियासमियाओ जाव गुत्तबंभयारिणीओ, णो खलु अम्हं कप्पइ जातककम्मं करेत्तए, तुमं च णं देवाणुप्पिए! बहुजणस्स चेडरूवेसु मुच्छिया जाव अज्झोववण्णा अब्भंगणं जाव णत्तिपिवासं वा पच्चणुभवमाणी विहरसि, तं णं तुमं देवाणुप्पिए! एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पायच्छित्तं पडिवजाहि॥१२४॥ ___ भावार्थ - उसके ऐसे आचरण को देख कर सुव्रता आर्या ने सुभद्रा आर्या से इस प्रकार कहा - हे देवानुप्रिये! हम सांसारिक विषयों से विरक्त, ईर्यासमिति आदि से युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी निर्ग्रन्थ श्रमणी हैं इसलिए हमें बालक्रीड़ा आदि करना नहीं कल्पता है। लेकिन हे देवानुप्रिये! तुम गृहस्थों के बालकों में मूर्च्छित (आसक्त) यावत् अनुरागिणी होकर उनका अभ्यंगन-तेल मालिश आदि अकल्पनीय कार्य कर रही हो यावत् पुत्र पौत्र आदि की इच्छा पूर्ति का अनुभव करती हुई विचर रही हो। अतएव हे देवानुप्रिये! तुम इस स्थान-अकल्पनीय कार्य की आलोचना करो यावत् प्रायश्चित्त लो। तए णं सा सुभद्दा अज्जा सुव्वयाणं अज्जाणं एयमटुं णो आढाइ णो परिजाणइ अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी विहरइ। ___तए णं ताओ समणीओ णिग्गंथीओ सुभदं अजं हीलेंति जिंदंति खिसंति गरहंति अभिक्खणं अभिक्खणं एयमढें णिवारेंति॥१२५॥ भावार्थ - सुव्रता आर्या द्वारा सुभद्रा आर्या को इस प्रकार अकल्पनीय कार्यों का निषेध किये जाने पर सुभद्रा आर्या ने सुव्रता आर्या के कथन का आदर नहीं किया, कथन पर ध्यान नहीं दिया किन्तु उपेक्षा पूर्वक अस्वीकार कर पूर्ववत् व्यवहार करती हुई विचरने लगी। तत्पश्चात् वे निर्ग्रन्थ श्रमणियाँ इस अकल्पनीय कार्य के लिये सुभद्रा आर्या की हीलना करती हैं, निंदा करती हैं, खिंसा करती हैं, गर्दा करती हैं और ऐसा करने के लिए उसे बार-बार रोकती हैं। विवेचन - पुत्रैषणा की उग्रभावना के वशीभूत हो सुभद्रा आर्या गृहस्थों की भांति बच्चों के लालन पालन आदि का अकल्पनीय कार्य-संयम विरुद्ध आचरण करने लगी तो सुव्रता आर्या ने उसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004191
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages174
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size17 MB
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