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पुष्पिका सूत्र ...........................................................
सुधर्मा स्वामी ने फरमाया-हे जम्बू! उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था। गुणशिलक चैत्य था। उस नगर में श्रेणिक नाम के राजा थे। वहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे। परिषद् दर्शनार्थ निकली। उस काल उस समय में शुक्र महाग्रह शुक्रावतंसक विमान में शुक्र सिंहासन पर चार हजार सामानिक देवों आदि के साथ बैठा हुआ था। चन्द्र के समान ही वह शुक्र भी भगवान् महावीर स्वामी के पास आया और नाट्य विधि आदि दिखा कर लौट गया।
तत्पश्चात् 'हे भगवन्!' इस प्रकार संबोधन कर गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से उसकी दिव्य देव ऋद्धि आदि के विषय में पूछा। भगवान् ने कूटाकारशाला का दृष्टान्त देकर समाधान किया। तत्पश्चात् उसके पूर्वभव के विषय में पूछा।
भगवान् ने फरमाया - हे गौतम! उस काल और उस समय में वाणारसी नाम की नगरी थी। उस वाणारसी नाम की नगरी में सोमिल नामक ब्राह्मण रहता था। वह ऋद्धि, धन धान्य से संपन्न यावत् अपरिभूत था। वह ऋग्वेद यावत् दर्शन शास्त्र आदि में परिनिष्ठित-निष्णात था। वहाँ भगवान् पार्श्वनाथ का पर्दापण हुआ। परिषद् निकली।
सोमिल ब्राह्मण श्वावक बना तए णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स इमीसे कहाए लद्धहस्स. समाणस्स इमे एयारूवे अज्झथिए०-एवं खलु पासे अरहा पुरिसादाणीए पुवाणुपुब्विं जाव अम्बसालवणे विहरइ, तं गच्छामि णं पासस्स अरहओ अंतिए पाउन्भवामि, इमाई च णं एयाख्वाइं अट्ठाई हेऊई जहा पण्णत्तीए। सोमिलो णिग्गओ खण्डियविहूणो जाव एवं वयासी-जत्ता ते भंते! जवणिज्नं च ते? पुच्छा। सरिसवया मासा कुलत्था एगे भवं जाव संबुद्धे सावगधम्म पडिवजित्ता पडिगए॥६५॥ -----... ___कठिन शब्दार्थ - खण्डिय विहूणो - शिष्यों को साथ लिये बिना ही, जत्ता - यात्रा, जवणिलं - यापनीय, सरिसवया - सरिसव-सरसों, मासा - माष-उड़द, कुलत्था - कुलत्थकुलथी धान्य, संबुद्धे - सम्बुद्ध, सावगधम्म - श्रावक धर्म को, पडिवञ्जित्ता - अंगीकार कर।
भावार्थ - भगवान् के पधारने का वृत्तान्त सुन कर उस सोमिल ब्राह्मण के हृदय में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ कि अर्हत् पार्श्व प्रभु अनुक्रम से ग्रामानुग्राम विचरते हुए यावत् आम्रशाल वन में पधारे हैं अतः मैं जाऊं और भगवान् पार्श्वनाथ के समीप उपस्थित होकर उनसे इस प्रकार अर्थ,
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