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________________ वर्ग ३ अध्ययन ३ सोमिल का महाप्रस्थान ८६ आश्रम संश्रित-आश्रम में रहने वाले, कट्ठमुद्दाए - काष्ठमुद्रा से, मुहं बंधिता - मुंह बांध कर, दुग्गंसि- दुर्ग (विकट स्थान), दरीए - गुफा, पक्खलिज्ज - प्रस्खलित होऊ, पवडिन - गिर जाऊं, पच्चुट्टित्तए - उठना। ___भावार्थ - तत्पश्चात् किसी समय मध्य रात्रि में अनित्य जागरण करते हुए उस सोमिल ब्राह्मण के मन में इस प्रकार का आंतरिक विचार उत्पन्न हुआ कि - मैं वाराणसी नगरी का रहने वाल अत्यंत उच्च कुलोत्पन्न सोमिल नामक ब्राह्मण ऋषि हूँ। मैंने बहुत से व्रत ग्रहण किये यावत् यूप-यज्ञ स्तंभ स्थापित किये। तत्पश्चात् मैंने वाराणसी में यावत् फूलों के बगीचे लगाये। उसके बाद मैंने बहुत सी लोहे की कडाहियां कडुछियां और तापस योग्य बहुत से तांबे के पात्र बनवा कर और अपने सभी मित्र ज्ञातिजन बंधुओं को बुला कर उन्हें भोजन आदि के द्वारा सम्मानित कर, उन मित्र ज्ञातिजन बंधुओं के सामने अपने पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित कर यावत् उनकी स्वीकृति प्राप्त कर लोहे की कडाहियाँ आदि लेकर मुंडित होकर प्रव्रजित हुआ और निरन्तर बेले बेले दिक्चक्रवाल तप करता हुआ विचरण कर रहा हूँ। अब मुझे उचित है कि कल सूर्योदय होते ही बहुत से दृष्ट-भ्रष्ट, पूर्व संगतिक (पूर्वकाल के साथी) पर्याय संगतिक (तापस पर्याय के साथी) को पूछ कर और आश्रम में रहने वाले अनेक शत प्राणियों को वचन आदि से संतुष्ट कर वल्कल वस्त्र पहने हुए कावड़ में अपने भाण्डोपकरण को लेकर तथा काष्ठ मुद्रा से मुख को बांध कर उत्तराभिमुख होकर उत्तर दिशा में महाप्रस्थान (मरण के लिए गमन) करूँ। ____ सोमिल ब्राह्मण ने इस प्रकार विचार किया और विचार करके सूर्योदय होने पर अपने विचार के अनुसार सभी दृष्ट भ्रष्ट यावत् तापस पर्याय वालों आदि को पूछ कर तथा आश्रम में रहने वाले अनेक शत प्राणियों को वचन आदि से संतुष्ट कर अंत में काष्ठ मुद्रा से अपना मुख बांधता है और इस प्रकार अभिग्रह ग्रहण करता है कि - जहाँ कहीं भी चाहे वह जल हो या स्थल हो, दुर्ग हो अथवा नीचा प्रदेश हो, पर्वत हो या विषम भूमि हो, गड्डा हो या गुफा हो, इन सब में जहाँ कहीं भी प्रस्खलित होऊँ या गिर पडूं तो मुझे वहाँ से उठना नहीं कल्पता है -ऐसा विचार करके इस प्रकार का अभिग्रह लेता है। अभिग्रह लेकर उत्तर दिशा में उत्तराभिमुख हो महाप्रस्थान के लिए प्रस्थित होता है। फिर वह सोमिल ब्राह्मण अपरान्ह काल (दिन के तीसरे प्रहर) में जहाँ सुंदर अशोक वृक्ष था वहाँ आया और उस अशोक वृक्ष के नीचे अपना कावड़ रखा तदनन्तर वेदिका (बैठने की जगह) को साफ किया, लीप-पोत कर स्वच्छ किया फिर दर्भ सहित कलश को हाथ में लेकर जहाँ गंगा महानदी थी वहाँ आया और शिव राजर्षि के समान उस गंगा महानदी में स्नान आदि कृत्य कर वहाँ से बाहर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004191
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages174
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size17 MB
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