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________________ ६० पुष्पिका सूत्र ........................................................... आया और जहाँ अशोक वृक्ष था वहाँ आकर दर्भ कुश और बालुका से वेदी की रचना की। वेदी की रचना करके शरक और अरणि से अग्नि को प्रज्वलित कर यावत् बलिवैश्व देव-नित्य यज्ञ करता है, काष्ठ मुद्रा से मुख बांधता है और मौन हो कर रहता है। देव द्वारा प्रतिबोध तए णं तस्स सोमिलमाहणरिसिस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि एगे देवे अंतियं पाउन्भूए। तए णं से देवे सोमिलमाहणं एवं वयासी-हं भो सोमिलमाहणा! पव्वइया! दुप्पव्वइयं ते। तए णं से सोमिले तस्स देवस्स दोच्चंपि तचंपि एयमद्वं णो आढाइ णो परिजाणइ जाव तुसिणीए संचिट्ठइ। तए णं से देवे सोमिलेणं माहणरिसिणा अणाढाइज्जमाणे जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए। तए णं से सोमिले कल्लं जाव जलंते वागलवत्थणियत्थे किढिणसंकाइयं गहाय. गहियभण्डोवगरणे कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ बंधित्ता उत्तराभिमुहे संपत्थिए।१०२॥ कठिन शब्दार्थ - पव्वइया - प्रव्रज्या, दुप्पव्वइयं - दुष्प्रव्रज्या, अणाढाइज्जमाणे - अनादृतउपेक्षा किया गया। भावार्थ - उसके बाद उस सोमिल ब्राह्मण ऋषि के समक्ष मध्यरात्रि के समय एक देव प्रकट हुआ। उस देव ने सोमिल ब्राह्मण से इस प्रकार कहा- 'हे प्रव्रजित सोमिल ब्राह्मण! तेरी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है।' इस प्रकार उस देव के द्वारा दो तीन बार कहे जाने पर भी वह सोमिल उस देव की बात का आदर नहीं करता है, न ही उस ओर ध्यान ही देता है किन्तु मौन हो कर रहता है। इसके बाद उस सोमिल ब्राह्मण से अनादृत वह देव जिस दिशा से आया था उसी दिशा में चला गया। 'तत्पश्चात् वल्कल वस्त्रधारी वह सोमिल ब्राह्मण सूर्योदय होने पर कावड़ को उठा कर अपना भाण्डोपकरण लेकर काष्ठ मुद्रा से मुंह को बांधता है। मुंह बांधकर उत्तराभिमुख हो उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान करता है। तए णं से सोमिले बिइय दिवसम्मि पच्छावरण्हकालसमयंसि जेणेव सत्तवण्णे तेणेव उवागए, सत्तवण्णस्स अहे किढिणसंकाइयं ठवेइ ठवेत्ता वेइं वड्डेइ जहा असोगवरपायवे जाव अग्गिं हुणइ, कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ, तुसिणीए संचिट्ठइ। तए णं तस्स सोमिलस्स पुव्वरतावरत्तकालसमयंसि एगे देवे अंतियं पाउब्भूए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004191
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages174
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size17 MB
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