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________________ [8] **** प्रथम अध्ययन में निषधकुमार का वर्णन है । निषध कुमार राजा बलदेव की रानी रेवती का अंगजात था। एक समय भगवान् अरिष्टनेमि प्रभु का द्वारिका नगरी में पधारना हुआ । कृष्ण वासुदेव सहित सभी नागरिक भगवान् को वंदन करने के लिए गए। निषधकुमार भी भगवान् को वंदन करने पहुँचे। निषधकुमार के दिव्य रूप को देखकर भगवान् अरिष्टनेमि के प्रधान शिष्य वरदत्तमुनि ने उनके दिव्य रूप आदि के बारे में पूछा। भगवान् ने उनके पूर्व भव में निरतिचार संयम पालन के फल स्वरूप पांचवें देव लोक में उत्पन्न होने और वहाँ से देवायु पूर्ण करके बलदेव राजा के यहाँ उत्पन्न होना एवं दिव्य रूप एवं मानुषी ऋद्धि प्राप्त होने का कारण फरमाया । कालान्तर में निषधकुमार ने भगवान् अरिष्टनेमि प्रभु के पास दीक्षा अंगीकार की, ग्यारह अंगों का अध्ययन कर काल के समय काल करके सर्वार्थ सिद्ध विमान में देव रूप में उत्पन्न हुए। वहाँ का आयुष्य पूर्ण होने पर महाविदेह क्षेत्र के उलाकनगर में उत्पन्न होंगे एवं तथारूप स्थविरों से केवल बोधि सम्यग्ज्ञान को प्राप्त कर अगारधर्म धारण करेंगे तथा उत्कृष्ट तप संयम की साधना करके सिद्ध, बुद्ध यावत् सभी दुःखों का अन्त करेंगे। इस उपांग में मात्र निषेधकुमार का वर्णन किया है। शेष ग्यारह अध्ययनों का समान अधिकार होने से इसी की भलावण दी गई है। इस प्रकार निरयावलिका नामक श्रुतस्कन्ध का वर्णन इस उपांग के साथ पूर्ण हुआ । Jain Education International ********* निरयावलिया पंचक का प्रकाशन संघ की ओर से प्रथम बार फरवरी, २००३ में हुआ जिसका अनुवाद श्रीमान् पारसमल जी सा. चण्डालिया ने किया। जिसका आधार प्राचीन टीकाओं का रहा, मूल पाठ के लिए संघ द्वारा प्रकाशित सुत्तागमे की प्रमुखता रही। इसके बाद इस अनुवाद को हमारे अनुनय विनय पूर्वक निवेदन पर ध्यान देकर पूज्य गुरुदेव श्री श्रुतधर जी म. सा. ने पूज्य पण्डित रत्न श्री लक्ष्मीमुनि जी म. सा. को सुनने की आज्ञा फरमाई, तदनुसार तत्त्वज्ञ सुश्रावक श्रीमान् बस्तीमल जी सा. सालेचा बालोतरा निवासी ने परम पूज्य लक्ष्मीमुनि जी म. सा. को सुनाया । पूज्य म. सा. ने धारणा सम्बन्धी जहाँ भो आवश्यक समझा संशोधन का संकेत किया। प्रेस कापी तैयार होने से पूर्व अवलोकित प्रति का पुनः मेरे द्वारा अवलोकन किया गया। इस प्रकार इस श्रुतस्कन्ध के प्रकाशन से पूर्व पूर्ण सर्तकता एवं सावधानी बरती गई है, फिर भी हमारी अल्पज्ञता के कारण इसके प्रकाशन में किसी भी प्रकार की कोई त्रुटि किसी भी तत्त्वज्ञ श्रावक को ध्यान में आवे तो हमें सूचित करने की कृपा करावें । ताकि अगले संस्करण में उसे संशोधित करने का ध्यान रखा जा सके। वस्तुतः वही सत्य एवं प्रामाणिक है जो सर्वज्ञ कथित एवं उसके आशय को उद्घाटित करता हो। इस श्रुतरत्न के अनुवाद की शैली भी संघ द्वारा प्रकाशित भगवती सूत्र वाली ही रखी गई है। यानी मूल पाठ, कठिन शब्दार्थ, भावार्थ, विवेचन For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004191
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages174
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size17 MB
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