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________________ वर्ग १ अध्ययन १ पद्मावती का विचार कठिन शब्दार्थ - सहोयरे - सहोदर, कणियसे कनिष्ठ, जीवंतएणं - जीवित रहते, अट्ठारसवंके - अठारह लड़ी का, अंतेउरपरियालसंपरिवुडे - अन्तःपुर परिवार के साथ, सोण्डाए - सूंड में, पुट्ठे - पीठ पर, खंधे - कंधे पर, कुंभे - कुम्भ-गंडस्थल पर, अंदोलावेइ - झुलाता है, सिंघाडग - श्रृंगाटक- सिंघाड़े की आकृति के मार्ग, तिग- त्रिक- जहाँ तीन रास्ते मिलें, चउक्क चतुष्क (चौक), चच्चर - चत्वर, चबूतरा, महापहपहेसु - ( राजमार्ग पर ) महापथों, पथों पर, कीलावणएहिं - क्रीड़ाओं से, पच्चणुब्भवमाणे- अनुभव करता हुआ । भावार्थ - उस चम्पानगरी में श्रेणिक राजा का पुत्र, चेलना देवी का आत्मज कोणिक राजा का सहोदर छोटाभाई वेहल्ल (वैहल्य) नामक कुमार था। वह सुकुमार यावत् सुरूप था । उस वेहल्लकुमार को राजा श्रेणिक ने अपनी जीवितावस्था में ही सेचनक नामक गंधहस्ती और अठारह लड़ी वाला हार दिया था । वह वेहल्लकुमार से सेचनक गंधहस्ती पर आरूढ होकर अपने अंतःपुर परिवार के साथ चंपानगरी के बीचोंबीच (मध्य से) होकर निकलता और निकल कर गंगा नदी में बारबार स्नान करने के लिए उतरता था। तत्पश्चात् वह सेचनक गंधहस्ती वेहल्लकुमार की रानियों को अपनी सूंड से पकड़ता पकड़ किसी को पीठ पर बिठलाता, किसी को कंधे पर बिठाता, किसी को कुंभस्थल पर रखता, किसी को मस्तक पर बैठाता, किसी को दंत मूसलों पर रखता, किसी को सूंड़ में लेकर झुलाता, किसी को दांतों के बीच लेता, किसी को सूंड में पानी भर कर उनकी फुहारों से स्नान कराता तो किसी को अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं से क्रीड़ित करता संतुष्ट करता था । तब चंपानगरी के श्रृंगाटकों, त्रिकों, चतुष्को, चत्वरों, महापथों और पथों में बहुत से लोग आपस में इस प्रकार कहते, बोलते यावत् प्ररूपित करते कि - हे देवानुप्रियो ! वेहल्लकुमार सेचनक गंधहस्ती के द्वारा अपने अन्तःपुर परिवार के साथ अनेक प्रकार की क्रीडा करता है। वास्तव में वेहल्लकुमार ही राज्य श्री का प्रत्यक्ष सुंदर फल अनुभव कर रहा है न कि राजा कोणिक। पद्मावती का विचार Jain Education International ३६ तणं तीसे पउमावईए देवीए इमीसे कहाए लद्धट्ठाए समाणीए अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था एवं खलु वेहल्ले कुमारे सेयणएणं गंधहत्थिणा जाव अणेगेहिं कीलावणएहिं कीलावेइ, तं एस णं वेहल्ले कुमारे रज्जसिरि फलं पञ्चणुभवमाणे For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004191
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages174
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size17 MB
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