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________________ ४० निरयावलिका सूत्र ........................................................... विहरइ, णो कूणिए राया, तं किं णं अम्हं रज्जेण वा जाव जणवएण वा जइ णं अम्हं सेयणगे गंधहत्थी पत्थि? तं सेयं खलु ममं कूणियं रायं एयमढें विण्णवित्तएत्तिकट्ट एवं संपेहेइ संपेहित्ता जेणेव कूणिए राया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता करयल० जाव एवं वयासी-एवं खलु सामी! वेहल्ले कुमारे सेयणएणं गंधहत्थिणा जाव अणेगेहिं कीलावणएहिं कीलावेइ, तं किं णं सामी! अम्हं रज्जेण वा जाव जणवएण वा जइ णं अम्हं सेयणए गंधहत्थी णत्थि।। ४६॥ __ भावार्थ - तदनन्तर पद्मावती देवी को इस प्रकार का वृत्तान्त सुन कर मन में ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि निश्चय ही वेहल्लकुमार सेचनक गंधहस्ती के द्वारा यावत् अनेक प्रकार की क्रीड़ाएं करता है इसलिए वही वास्तव में राज्यश्री का फलभोग रहा है, कोणिक राजा नहीं। अतः हमारे लिए यह राज्य यावत् जनपद किस काम का, यदि हमारे पास सेचनक गंधहस्ती न हो? अतः मेरे लिये यही श्रेयस्कर है कि मैं कोणिक राजा को इस विषय में निवेदन करूँ। ऐसा विचार कर जहाँ कोणिक राजा था वहाँ आती है आकर दोनों हाथ जोड़ कर यावत् इस प्रकार निवेदन किया"स्वामिन्! निश्चय ही वेहल्लकुमार सेचनक गंधहस्ती के साथ यावत् अनेक प्रकार की क्रीड़ाएं करता है। अतः हे स्वामिन्!यदि हमारे पास सेचनक गंधहस्ती नहीं है तो यह राज्य यावत् जनपद किस काम का?" . . विवेचन - वेहल्लकुमार का अपने अन्तःपुर के साथ राज्य के सर्वश्रेष्ठ रत्न सेचनक हाथी पर बैठ कर जलक्रीड़ा करने का वृत्तान्त जब रानी पद्मावती ने सुना तो उसका हृदय ईर्ष्याग्नि से दहव उठा। वह अपनी देवरानी के वैभव को, राजसी-ठाठ को सह नहीं सकी। उसने सोचा-“मैं मगध की साम्राज्ञी हूँ। मेरे पति कोणिक मगध के सम्राट है। राज्य की उत्तम से उत्तम वस्तु के उपभोग क अधिकार केवल राजा और रानी को ही है। साधारण राजकुमार को नहीं। सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ा हार राज्य की सबसे कीमती वस्तु है। यह वस्तु मेरे पास ही होनी चाहिए न वि वेहल्लकुमार के पास।" यह सोचकर महारानी पद्मावती अन्तःपुर से निकली और महाराजा कोणिव के पास जाकर विनयपूर्वक प्रार्थना की कि-"स्वामिन्! सेचनक गंधहस्ती और अठारह सरा हार राज्य की सबसे बहुमूल्य वस्तु है। ये दोनों रत्न राजा के पास ही होने चाहिये न कि एक सामान्य राजकुमार के पास। यदि आपके अधिकार में ये रत्न नहीं हैं तो आपका समस्त साम्राज्य उसके सामने तुच्छ है, निरर्थक है।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004191
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages174
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size17 MB
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