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________________ वर्ग १ अध्ययन १ कोणिक का दूत भेजना ..................................................... विवेचन - रानी पद्मावती की हठ के कारण राजा कोणिक ने वेहल्लकुमार से हार और हाथी की मांग की। वेहल्लकुमार का कहना था कि जब आपने मेरे अन्य भाइयों को राज्य का संविभाग दिया है तो मुझे भी मिलना चाहिये। यदि आप मुझे राज्य का हिस्सा नहीं देना चाहते हो तो मैं ये दोनों रत्न आपको कैसे दे सकता हूँ? क्योंकि पिताजी ने जीवित अवस्था में ही मुझे ये दो रत्न दिये थे। उन पर आपका अधिकार कैसे हो सकता है? यदि आपको ये दोनों रत्न चाहिए तो मुझे भी सहोदर भाई के नाते राज्य का हिस्सा मिलना चाहिए। ___कोणिक ने वेहल्लकुमार की न्यायोचित मांग पर तनिक भी ध्यान नहीं दिया और अपनी मांग पर अड़ा रहा फलस्वरूप दोनों में अविश्वास बढ़ता गया। इसी अविश्वास के कारण वेहल्लकुमार ने सोचा कि कहीं कूणिक राजा उससे हार और हाथी छीन न ले अतः किसी भी प्रकार से उसे अपने नाना चेटक के यहाँ पहुंच जाना चाहिए। इस प्रकार मौका देख कर वेहल्लकुमार हार, हाथी अपनी रानियों तथा गृहोपयोगी अन्य भण्डोपकरण लेकर चेटक राजा की शरण में चला गया और चेटक राजा ने भी अपने दोहते को शरण दे दी। कोणिक का दूत भेजना तए णं से कूणिए राया इमीसे कहाए लद्धढे समाणे एवं खलु वेहल्ले कुमारे ममं असंविदिएणं सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसवंकं च हारं गहाय अंतेउरपरियालसंपरिवुडे जाव अच्चगं चेडयं रायं उवसंपञ्जित्ताणं विहरइ, तं सेयं खलु ममं सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसर्वकं च हारं आणेउं दूयं पेसित्तए, एवं संपेहेइ संपेहित्ता दूयं सद्दावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया! वेसालिं णयरिं, तत्थ णं तुमं ममं अजं चेडगं रायं करयल० वद्धावेत्ता एवं वयाहि-एवं खलु सामी! कूणिए राया विण्णवेइएस णं वेहल्ले कुमारे कूणियस्स रण्णो असंविदिएणं सेयणगं० अट्ठारसवंकं च हारं गहाय इह हव्वमागए, तए णं तुब्भे सामी! कूणियं रायं अणुगिण्हमाणा सेयणगं० अट्ठारसवंकं च हारं कूणियस्स रण्णो पञ्चप्पिणह वेहल्लं कुमारं च पेसेह॥५०॥ - कठिन शब्दार्थ - असंविदिएणं - बिना बताए-कहे सुने, पेसेह - भेजें। भावार्थ - तत्पश्चात् कोणिक राजा को यह समाचार ज्ञात होने पर कि मुझे बताए बिना ही वेहल्लकुमार सेचनक गंध हस्ती अहारह लड़ी वाला हार तथा अन्तःपुर परिवार सहित गृहस्थी के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004191
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages174
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size17 MB
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