SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निरयावलिका सूत्र ........................................... एवं खलु सामी! कूणिए राया विण्णवेइ-जाणि काणि रयणाणि समुप्पजंति सव्वाणि ताणि रायकुलगामिणि, सेणियस्स रण्णो रजसिरिं करेमाणस्स पालेमाणस्स दुवे रयणा समुप्पण्णा, तंजहा-सेयणए गंधहत्थी अट्ठारसवंके हारे, तं गं तुब्भे सामी! रायकुलपरंपरागयं ठिइयं अलोवेमाणा सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसवंकं च हारं कूणियस्स रण्णो पञ्चप्पिणह, वेहल्लं कुमारं पेसेह॥५४॥ ____कठिन शब्दार्थ - रायकुलगामिणी - राज्यकुल गामिनी, रायकुलपरंपरागयं - राज्य कुल परम्परा गत, अलोवेमाणा - नाश (भंग) किये बिना। भावार्थ - तदनन्तर कोणिक राजा ने दूसरी बार भी दूत को बुला कर इस प्रकार कहा - 'हे देवानुप्रिय! तुम वैशाली नगरी में जाओ, वहाँ जा कर मेरे नाना चेटक राजा से यावत् इस प्रकार कहो- 'हे स्वामिन्! राजा कोणिक इस प्रकार प्रार्थना करता है कि जो कुछ भी रत्न प्राप्त होते हैं वे सब राजकुलानुगामी-राजा के अधिकार में होते हैं। राजा श्रेणिक ने राज्य-शासन करते हुए प्रजा का पालन करते हुए, सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ी वाला हार-ये दो रत्न प्राप्त किये थे। इसलिए हे . स्वामिन्! आप राज्यकुल परम्परागत मर्यादा को भंग नहीं करते हुए सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ी हार कोणिक राजा को लौटा दें और वेहल्ल कुमार को भी भेज दें।' तए णं से दूए कूणियस्स रण्णो तहेव जाव वद्धावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु सामी! कूणिए राया विण्णवेइ-जाणि काणि जाव वेहल्लं कुमारं पेसेह। ___तए णं से चेडए राया तं दूयं एवं वयासी-जह चेव णं देवाणुप्पिया! कूणिए राया सेणियस्स रण्णो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए जहा पढमं जाव वेहल्लं च कुमार पेसेमि। तं दूयं सक्कारइ संमाणेइ पडिविसज्जेइ॥ ५५॥ भावार्थ - तब उस दूत ने कोणिक राजा की आज्ञा को सुना। वैशाली पहुँच कर राजा चेटक को जयविजय से बधा कर इस प्रकार निवेदन किया-'हे स्वामिन्! कोणिक राजा ने प्रार्थना की है कि जो कुछ भी रत्न होते हैं वे राजकुलानुगामी होते हैं यावत् आप सेचनक गंधहस्ती, हार और वेहल्लकुमार को भेज दें।' तत्पश्चात् चेटक राजा उस दूत से इस प्रकार बोले - 'हे देवानुप्रिय! जैसे कोणिक राजा श्रेणिक का पुत्र, चेलना देवी का अंगज है इस प्रकार जैसा पूर्व में कहा है वैसा कह देना चाहिए। यावत् वेहल्लकुमार को भेज दूंगा।' ऐसा कह कर उस दूत को सत्कार सम्मान के साथ विदा कर दिया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004191
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages174
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy